सोमवार, 31 दिसंबर 2018

#नववर्ष

नया साल जैसे जैसे क़रीब आता जाता है, उसी गति के समानुपाती मस्तिष्क की सारी सोई हुई नसें आपातकालीन जागृत अवस्था को प्राप्त होती हैं। यही वो दुर्भाग्यपूर्ण समय भी है जो आपको स्वयं से किये गए उन वायदों की सूची का फंदा लटकाये मिलता है जिसे देख आप शर्मिंदगी को पुनः बेशर्मी से धारण कर बहानों का नया बुलेटिन जारी करते हैं। यहाँ पिछली जनवरी से अब तक किये गए कारनामों की झांकी साथ चलती है।
आप उन पलों को याद कर भावुक हो उठते हैं कि कैसे बीती जनवरी के पहले ही दिन आप सुबह- सुबह उठकर नहाने और सूर्योदय देखने का पुण्य कमा लिए थे। चूँकि मम्मी ने बचपन में बताया था कि साल के पहले दिन सब काम अच्छे से करो तो पूरा साल अच्छा बीतता है। यही सोच उस दिन पुरुष पोहे में जली हुई मूंगफली को काजू समझ चुपचाप गटक लेते हैं। माँ बच्चे को बिल्कुल भी नहीं डाँटती और अपना गुस्सा सप्ताहांत के लिए होल्ड कर देती है। बच्चे थोड़े अलग स्मार्ट टाइप होते हैं तो मनचाहा काम बेख़ौफ़ होकर करते हैं।
पर एक बात तो तय है कि हर उम्र जाति के लोगों के मन में 1 जनवरी को सारे उत्तम विचार उसी तरह छटपटाते हैं जैसे कि बरसात के मौसम में मेंढक उचक उचककर बाहर निकलते हैं।
खैर! अभी तो इतना ही कहूँगी कि इन विचारों की उत्पत्ति व्यर्थ न जाए और आने वाला वर्ष आप सबको ख़ूब मुबारक़ हो!
- प्रीति 'अज्ञात' 

#नववर्ष

किसी वर्ष का गुजर जाना उन अधूरे वादों का मुँह फेरते हुए चुपचाप आगे बढ़ जाना है जो प्रत्येक वर्ष के प्रारंभ में स्वयं से किये जाते हैं. 
ये उन ख्वाहिशों का भी बिछड़ जाना है जो किसी ख़ूबसूरत पल में अनायास ही चहकने लगीं थी कभी. ये समय है उन खोये हुए लोगों को याद करने का, जिनसे आपने अपना जीवन जोड़ रखा था पर अब साथ देने को उनकी स्मृतियाँ और चंद तस्वीरें ही शेष हैं! कई बार बीता बरस कुछ ऐसा छीन लेता है जो आने वाले किसी बरस में फिर कभी नहीं मिल सकता!

ये अक्सर ही होता है और सबके ही साथ होता आया है कि वर्ष के आख़िरी लम्हों को जीने का अहसास मिश्रित होता है. जैसे ही सुख की एक झलक आँखों में चमक बन उभरती है ठीक तभी ही समय, दुःख की लम्बी चादर ओढ़ा उदास पलों की एक गठरी बना मन को किसी एकाकी कोने में छोड़ आता है. 
बीतते बरस और आने वाले बरस के बीच का लम्हा 'प्रेम' जितना होता है, प्रेम का असल जीवन भी इतना ही होता है. एक साल उसे पा लेने के ख्वाबों में जाता है और दूसरा उसे जीने की ख़्वाहिशों में.
बीच का ये पल जितना बड़ा दिखता है, उतना होता नहीं.....पर सारा खेल इसी क्षण का हैं. यही एक क्षण नई उम्मीदों, नई योजनाओं, नई महत्त्वाकांक्षाओं को जन्म देता है साथ ही पुरानी ग़लतियों को न दोहराने की सीख भी देता है. कुल मिलाकर बारह माह बाद आत्मावलोकन की अनौपचारिक, अघोषित तिथि है यह....वरना नए साल में रखा क्या है!

हम उत्सवों के देश में रहते हैं. जहाँ हर कोई ख़ुश होने एवं तनावमुक्त रहने के प्रमाण प्रस्तुत करना चाहता है. हमें उल्लास की तलाश है, हम मौज-मस्ती में डूबना चाहते हैं, हम चाहते हैं कि हमें कोई न टोके. ऐसे में कोई त्योहार, छुट्टी या फिर ये नया साल अवसर बनकर आते हैं, जिसे दिल खोलकर मनाने में कोई चूकना नहीं चाहता. अन्यथा इन बातों के क्या मायने हैं? सब जानते हैं कि साल बदल जाने से किसी के दिन नहीं फिरते और न ही भाग्य की रेखा चमकने लगती है. कुछ नया नहीं होता! पुरानों को ही झाड़-पोंछकर चमका दिया जाता है.

नववर्ष कैलेंडर में तिथि का बदल जाना भर है! शेष सब बाज़ार के बनाये उल्लास हैं, भीड़ है, लुभाने में जुटे व्यापार हैं. मनुष्य का इन सबकी ओर आकर्षित होना उसके सामाजिक होने का प्रथम लक्षण है. अपने सुख-दुःख के चोगे से बाहर निकल नववर्ष का स्वागत एक आवश्यक परम्परा है, जिसे सबको निभाना चाहिए क्योंकि यही प्रथाएँ हमें जीवित रखती हैं, मनुष्य की मनुष्यता से मुलाक़ात कराती हैं.
- प्रीति 'अज्ञात'

गुरुवार, 27 दिसंबर 2018

#MirzaGhalib #ग़ालिब

दिल के टूटने पर जहाँ दीवाने, आशिक़ ख़ुद को शराब के नशे या सिगरेट के धुंए में क़ैद कर 'कूल' लुक देने की stupid कोशिश किया करते हैं वहीं कुछ हमसे सिरफ़िरे भी हैं जो इन हालातों में ग़ालिब की गलियों में ठंडी पनाह पाते हैं. हमारा तो ये भी मानना है कि-
"वो दिल ही क्या जो टूटने पर
ग़ालिब की चौख़ट पे दस्तक़ न दे!"
- प्रीति 'अज्ञात'
#MirzaGhalib #ग़ालिब
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हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है.....!

"बल्लीमारान के मोहल्ले की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियां
सामने टाल के नुक्कड़ पर बटेरों के कसीदे
गुड़गुड़ाती हुई पान की पीकों में वो दाद, वो वाह! वाह!
चंद दरवाज़ों पर लटके हुए बोशीदा से कुछ टाट के परदे
एक बकरी के मिमियाने की आवाज़
और धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अंधेरे ऐसे दीवारों से मुंह जोड़ के चलते हैं यहां
चूड़ीवालां के कटड़े की बड़ी बी जैसे अपनी बुझती हुई आंखों से दरवाज़े टटोले
इसी बेनूर अंधेरी सी गली कासिम से एक तरतीब चरागों की शुरू होती है
एक कुराने सुखन का सफा खुलता है
असदुल्ला खां ग़ालिब का पता मिलता है"
गुलज़ार साब ने ग़ालिब का पता इतनी ख़ूबसूरती से बताया हुआ है कि वह हरेक के ज़हन में शब्दशः गढ़ गया है और जिसने ग़ालिब का लिखा कभी पढ़ा नहीं, वह भी इस अद्भुत अंदाज़ में लिखे परिचय को पढ़ उन्हें जानने को बेताब हो उठेगा.

अक्सर देखने में आता है कि 1975-85 के बीच जन्मे लोग पुराने दिनों को याद कर बेहद भावविह्वल हो उठते हैं. सचमुच वो भी क्या दिन थे! महाभारत, रामायण सीरियल के दौर में दूरदर्शन का क्रेज़ अपने चरम पर था और उसी समय मियाँ ग़ालिब से हमारी पहली मुलाक़ात हुई. मामला कुछ-कुछ 'Love at first sight' जैसा ही था. गुलज़ार द्वारा लिखित धारावाहिक 'मिर्ज़ा ग़ालिब' का प्रसारण शुरू हुआ. नसीरुद्दीन शाह, नीना गुप्ता, तन्वी आज़मी, शफ़ी इनामदार, सुधीर दलवी जैसे मंजे हुए कलाकारों के अभिनय ने इस धारावाहिक की उत्कृष्टता में चार चाँद लगा दिए थे. वो पीढ़ी जिसे ग़ालिब की ऊँचाई का अंदाज़ा तक न था, उसके लिए गुलज़ार का यह धारावाहिक किसी तोहफ़े से कम न था. अपनी क्या कहें! बस यूँ समझिये कि जहाँ बच्चे स्कूलों में तमाम शैतानियाँ करते हैं और हम जैसे किताबी कीड़े को दीन-दुनिया से ज्यादा मतलब नहीं हुआ करता था. उस किशोरवय में हम ग़ालिब और जगजीत सिंह से एक साथ ही इश्क़ कर बैठे; जो अब तक बदस्तूर जारी है. ग़ालिब के अल्फाज़ और उस पर जगजीत की मखमली  आवाज़ ने सिर्फ़ हमें ही नहीं, न जाने कितने दिलों को उनका दीवाना बना दिया था. फ़िर तो ये पागलपन इस हद तक बढ़ा कि उनसे जुड़ी क़िताब और कैसेट (नई पीढ़ी इसको गूगल पे समझ ले) हम ढूंढ-ढूंढकर ख़रीदते. अच्छा-ख़ासा कलेक्शन था हमारे पास, जो अब भी सहेजा हुआ है.

लोग कहते हैं कि इश्क़ में डूबे, टूटे, चकनाचूर हुए लोगों को शराब सहारा देती है और हम जैसे नामुराद इन हालातों में ग़ालिब को गले लगा लेते हैं. 
"हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे,
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और"

ग़ालिब न होते तो कई टूटे हुए दिल, नए दिलों से जुड़ गए होते. ये ग़ालिब का ही जादू है जो प्रेम की पीड़ा को भी सेलिब्रेट करवा सकता  है. ग़ालिब के अल्फ़ाज़ और उस पर जगजीत/चित्रा की आवाज ज़ालिम आशिक़ी पर जो क़हर ढाती है कि उफ्फ!! बानगी देखिये-

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है 

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है

इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब',
कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का ह़द से गुजरना है दवा हो जाना 

इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया 
वर्ना हम भी आदमी थे काम के 

आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए 
साहब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है

तुम न आए तो क्या सहर न हुई
हाँ मगर चैन से बसर न हुई
मेरा नाला सुना ज़माने ने
एक तुम हो जिसे ख़बर न हुई

ज़िन्दगी की जद्दोज़हद पर भी ग़ालिब ने ख़ूब लिखा है -
न था कुछ तो ख़ुदा था,
कुछ न होता तो ख़ुदा होता,
डुबोया मुझ को होने ने 
न होता मैं तो क्या होता


बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे 
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे

ग़ालिब हमारे जीवन में इस क़दर घुल चुके हैं कि बात करते हुए उनके लफ्ज़ जुबां से ख़ुद-ब-ख़ुद बाहर निकलते हैं. हरेक भारतीय ने अपने जीवन में कई बार उनके ये शेर जरुर दोहराए होंगे -

हजारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले 
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले 

हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन 
दिल के ख़ुश रखने को ग़ालिब ये ख़्याल अच्छा है 

वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत है
कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं

मिर्ज़ा ग़ालिब की शख्सियत ही इतनी विशाल है कि उसे चंद लफ़्ज़ों में बाँध लेना नामुमकिन है. आज उनकी जयंती पर उनका ही शे'र उन्हें समर्पित -
हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता 
- प्रीति 'अज्ञात'

सोमवार, 10 दिसंबर 2018

वही घिसा-पिटा किस्सा!

हम चोरी, उठापटक, गुटबाजी, धोखे, झूठ और कॉपी पेस्ट के उस दौर में लिखे जा रहे हैं जहाँ लेखक सर्वाधिक असहाय प्राणी नज़र आता है. उसकी लिखी रचना मंचों पर पढ़ी जाती है, पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित करवा ली जाती है, तोड़-मरोड़कर उन्हें मौलिक रूप देने का प्रयास किया जाता है. बीते कई वर्षों से यह प्रचलन इतना अधिक देखने को मिल रहा है कि देश की अन्य समस्याओं की तरह हमारे system ने अब इसे भी digest करना सीख लिया है. अति 'आदत' ही तो बन जाती है न! चोरों को चुराने की आदत और हमें इसे पचाने की! लेकिन अब लगने लगा है कि तकनीक के इस युग में एक ऐसा भी समय आएगा जब मूल रचनाकार को ही अपनी रचना की मौलिकता सिद्ध करने के लिए दर-दर भटकना होगा और उसे अपनी कह देने वाला वाहवाही के प्रतिभाशाली दरबार में सम्मानित होगा.
यूँ ऐसी कई घटनाओं के हम समय-समय पर साक्षी होते भी रहे हैं.

विचारणीय बात यह है कि ऐसा करने वाले किस दुनिया में जी रहे हैं और क्यों? आख़िर एक लेखक के हिस्से आता ही क्या है? इस सच को सब जानते हैं कि आज भी लेखन को एक जॉब की तरह नहीं किया जा सकता! कुछ प्रतिष्ठित नामों को छोड़ दिया जाए तो 'हम होंगे क़ामयाब' का जाप करते हुए अधिकांश निशुल्क ही लिख रहे हैं. या फिर कुछ अच्छी पत्रिकाएँ अगर पारिश्रमिक दे भी रहीं हैं तो वह राशि दो दिन का ख़र्च भी नहीं निकाल सकती. प्रकाशक और लेखक के बीच की जंग किसी से छुपी नहीं! लाखों कमाने वली websites भी हिन्दी लेखकों को एक रुपया तक देने की आवश्यकता नहीं समझतीं, उन्हें तो हम बेवकूफ़ लगते हैं...शायद हैं भी!
*कुछ पत्रिकाओं की सदस्यता के नाम पर की जा रही ठगी का किस्सा कभी अलग से लिखेंगे. 😎
तात्पर्य यह कि चित्रकार, मूर्तिकार, लेखक या कला के किसी भी क्षेत्र से जुड़ा इंसान हो, उसकी अभिव्यक्ति को वह क़ीमत/सराहना/ पहुँच  नहीं मिलती जिसका कि वह हक़दार है तो फिर उसके पास बचा क्या? चलो, इसके बाद भी वह आत्मसंतुष्टि हेतु सृजनशील रहता है जिसे हम और आप 'स्वान्तः सुखाय' कहकर तसल्ली पा लिया करते हैं. अब वो लिखा भी कोई और उठा अपना लेबल लगा ले तो रचनाकार की तो 'जय राम जी की' हो गई न! 😡
मैंने स्वयं अपनी मित्रता-सूची के कई लोगों के साथ ऐसा होते देखा है और उन्हें यह कह समझा भी चुकी हूँ कि "सागर से कुछ बूँदें लेने भर से सागर रीता नहीं हो जाता, वह फिर भी सागर ही रहता है." पर इस बात को समझने की भी एक सीमा होती है.

समझ नहीं आता कि झूठी वाहवाही से किसी का क्या भला होता है और क्या हासिल होता है? कोई इन्हें ज्ञानी समझकर मंच दे भी देगा पर मुँह खोलते ही सच तो बाहर आना ही है. वैसे भी इनकी पीठ पीछे सबको पता होता है कि ये कितने पानी में हैं. दुःख तो तब भी होता है जब सच्चाई सामने आने के बाद भी इनके कानों पर जूं नहीं रेंगती और इनकी मित्रमंडली भी इनके क़दमों में बिछी जाती है. क्यों, भई? ऐसा क्या मिल जाता है? मित्रों की इसी चाटुकारिता (कहीं भय भी) के चलते इन चोरों के हौसले बुलंद हैं. आत्मग्लानि, जैसे शब्द तो इनके लिए बने ही नहीं! तभी तो ये किसी के भी शब्द उठाकर वाहवाही लूटने में नहीं हिचकते और साथ में निर्लज्ज बन खींसे निपोरते हुए त्वरित धन्यवाद भी दे देते हैं. कुछ ओवरस्मार्ट लोग नीचे नाम तो नहीं लिखते पर दोनों हाथों से प्रशंसा बटोरते हुए भूले से भी यह नहीं कह पाते कि ये उनका लिखा नहीं है. कुछ तो भावविभोर होकर बदले में 'दिल' भी चिपका आते हैं. 😂

क्या 'साहित्य' की गिरती साख़ को बचाने और इस प्रदूषित वातावरण को थोड़ा स्वच्छ बनाने के लिए अब समय नहीं आ गया है इन लोगों को बाहर निकाल फेंकने का? इनसे मुक्ति का? 
आपके पास कोई नाम हो तो बताइये
'SWAG से करेंगे सबका SWAGAT!' 😜
हाँ, भई! ये अंतिम पंक्तियाँ (swag वाली) साभार हैं. अब हमपे ही केस मत कर देना. 😕
#लेखक_और_चोरी!
- प्रीति 'अज्ञात'

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2018

#सूरज और चाँद

रात के माथे पर दमकता चाँद अपने साथी सितारों के साथ गपशप करते हुए भरे गले से दिन की बेरुख़ी की तमाम शिक़ायतें करता है. इस गोलमटोल चंदा को इस बात का बेहद मलाल है कि जब सूरज उसके इलाके में आता है तो सारा दिन ऐसे क्यूँ पसरकर बैठता है कि कोई बेचारे चाँद को नोटिस भी नहीं करता! 
सूरज को इस बात का ग़रूर है कि उसकी मौज़ूदगी के बिना चाँद का कोई वज़ूद नहीं और यही चाँद का दुःख भी है. वो इसी ग़म में ही सदियों से डूबता आया है कि सूरज का आगमन और विदाई कैसी भावभीनी होती है कि आसमान की खिड़कियों पर टँगी सारी रंगीन चादरें उसके स्वागत में बिछने लगती हैं जबकि चाँद का जाना उदासी की सारी मनहूसियत ओढ़ बिना किसी गाजे-बाजे के चुपचाप विलीन हो जाना भर है.
सूरज को नदी से निकलते और उसमें उतरते सबने देखा है पर चाँद अपने ही पानी को चुपचाप गटकता आया है, सूरज जब पहाड़ों से अठखेलियाँ करता है तो चाँद का दिल भर आता है. लोग जब सूरज को सलाम करने उसके इंतज़ार में सौ खिड़कियाँ खोल तकते हैं....चाँद एकटक देखता है, भीतर से कटने लगता है और फ़िर बिन कुछ कहे विदाई लेना ही उचित समझता है.
#सूरज और चाँद 
- प्रीति 'अज्ञात'