सोमवार, 10 दिसंबर 2018

वही घिसा-पिटा किस्सा!

हम चोरी, उठापटक, गुटबाजी, धोखे, झूठ और कॉपी पेस्ट के उस दौर में लिखे जा रहे हैं जहाँ लेखक सर्वाधिक असहाय प्राणी नज़र आता है. उसकी लिखी रचना मंचों पर पढ़ी जाती है, पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित करवा ली जाती है, तोड़-मरोड़कर उन्हें मौलिक रूप देने का प्रयास किया जाता है. बीते कई वर्षों से यह प्रचलन इतना अधिक देखने को मिल रहा है कि देश की अन्य समस्याओं की तरह हमारे system ने अब इसे भी digest करना सीख लिया है. अति 'आदत' ही तो बन जाती है न! चोरों को चुराने की आदत और हमें इसे पचाने की! लेकिन अब लगने लगा है कि तकनीक के इस युग में एक ऐसा भी समय आएगा जब मूल रचनाकार को ही अपनी रचना की मौलिकता सिद्ध करने के लिए दर-दर भटकना होगा और उसे अपनी कह देने वाला वाहवाही के प्रतिभाशाली दरबार में सम्मानित होगा.
यूँ ऐसी कई घटनाओं के हम समय-समय पर साक्षी होते भी रहे हैं.

विचारणीय बात यह है कि ऐसा करने वाले किस दुनिया में जी रहे हैं और क्यों? आख़िर एक लेखक के हिस्से आता ही क्या है? इस सच को सब जानते हैं कि आज भी लेखन को एक जॉब की तरह नहीं किया जा सकता! कुछ प्रतिष्ठित नामों को छोड़ दिया जाए तो 'हम होंगे क़ामयाब' का जाप करते हुए अधिकांश निशुल्क ही लिख रहे हैं. या फिर कुछ अच्छी पत्रिकाएँ अगर पारिश्रमिक दे भी रहीं हैं तो वह राशि दो दिन का ख़र्च भी नहीं निकाल सकती. प्रकाशक और लेखक के बीच की जंग किसी से छुपी नहीं! लाखों कमाने वली websites भी हिन्दी लेखकों को एक रुपया तक देने की आवश्यकता नहीं समझतीं, उन्हें तो हम बेवकूफ़ लगते हैं...शायद हैं भी!
*कुछ पत्रिकाओं की सदस्यता के नाम पर की जा रही ठगी का किस्सा कभी अलग से लिखेंगे. 😎
तात्पर्य यह कि चित्रकार, मूर्तिकार, लेखक या कला के किसी भी क्षेत्र से जुड़ा इंसान हो, उसकी अभिव्यक्ति को वह क़ीमत/सराहना/ पहुँच  नहीं मिलती जिसका कि वह हक़दार है तो फिर उसके पास बचा क्या? चलो, इसके बाद भी वह आत्मसंतुष्टि हेतु सृजनशील रहता है जिसे हम और आप 'स्वान्तः सुखाय' कहकर तसल्ली पा लिया करते हैं. अब वो लिखा भी कोई और उठा अपना लेबल लगा ले तो रचनाकार की तो 'जय राम जी की' हो गई न! 😡
मैंने स्वयं अपनी मित्रता-सूची के कई लोगों के साथ ऐसा होते देखा है और उन्हें यह कह समझा भी चुकी हूँ कि "सागर से कुछ बूँदें लेने भर से सागर रीता नहीं हो जाता, वह फिर भी सागर ही रहता है." पर इस बात को समझने की भी एक सीमा होती है.

समझ नहीं आता कि झूठी वाहवाही से किसी का क्या भला होता है और क्या हासिल होता है? कोई इन्हें ज्ञानी समझकर मंच दे भी देगा पर मुँह खोलते ही सच तो बाहर आना ही है. वैसे भी इनकी पीठ पीछे सबको पता होता है कि ये कितने पानी में हैं. दुःख तो तब भी होता है जब सच्चाई सामने आने के बाद भी इनके कानों पर जूं नहीं रेंगती और इनकी मित्रमंडली भी इनके क़दमों में बिछी जाती है. क्यों, भई? ऐसा क्या मिल जाता है? मित्रों की इसी चाटुकारिता (कहीं भय भी) के चलते इन चोरों के हौसले बुलंद हैं. आत्मग्लानि, जैसे शब्द तो इनके लिए बने ही नहीं! तभी तो ये किसी के भी शब्द उठाकर वाहवाही लूटने में नहीं हिचकते और साथ में निर्लज्ज बन खींसे निपोरते हुए त्वरित धन्यवाद भी दे देते हैं. कुछ ओवरस्मार्ट लोग नीचे नाम तो नहीं लिखते पर दोनों हाथों से प्रशंसा बटोरते हुए भूले से भी यह नहीं कह पाते कि ये उनका लिखा नहीं है. कुछ तो भावविभोर होकर बदले में 'दिल' भी चिपका आते हैं. 😂

क्या 'साहित्य' की गिरती साख़ को बचाने और इस प्रदूषित वातावरण को थोड़ा स्वच्छ बनाने के लिए अब समय नहीं आ गया है इन लोगों को बाहर निकाल फेंकने का? इनसे मुक्ति का? 
आपके पास कोई नाम हो तो बताइये
'SWAG से करेंगे सबका SWAGAT!' 😜
हाँ, भई! ये अंतिम पंक्तियाँ (swag वाली) साभार हैं. अब हमपे ही केस मत कर देना. 😕
#लेखक_और_चोरी!
- प्रीति 'अज्ञात'

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