बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

DDLJ movie 25 साल बाद भी सर्वश्रेष्ठ पारिवारिक रोमांटिक फिल्म क्यों है?

प्रेम, इश्क़, मोहब्बत, प्यार आप जो जी चाहे, वो नाम दें इसे. किसी भी तरीक़े से पुकारें लेकिन यह दुनिया की एकमात्र ऐसी शय है जिससे हर कोई कनेक्ट होता है. हरेक दिल में इश्क़ का रंग सदा ही जवां रहता है. बस उसको ढूंढ लाने के लिए एक और अदद दिल की जरुरत होती है. यही कारण है कि हिन्दी फ़िल्मों में प्रेम का फ़ॉर्मूला हमेशा सुपरहिट रहा है. 1995 में 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे (DDLJ)' ने सिनेदर्शकों को प्रेम का ऐसा अनूठा उपहार दे दिया कि आज पूरे पच्चीस वर्षों के बाद भी इसका सुरूर सब पर हावी है. जो प्रेम में है वह अपने जीवन के सुर्ख रंगों से उसका मिलान करना चाहता है और जो प्रेम में नहीं है वो इसमें डूबना चाहता है. नए ख्व़ाब सजाना चाहता है. फ़िल्म जब कहती है कि 'मोहब्बत का नाम आज भी मोहब्बत है, ये न कभी बदली है और न कभी बदलेगी.' तो प्रेम रस में डूबे लोग इस बात पर पूरा भरोसा रखते हैं कि प्रेम से अधिक सच्चा कुछ भी नहीं! प्रेम नहीं तो कुछ भी नही! दर्शकों का यह यक़ीन ही फ़िल्म की बेशुमार सफ़लता के नए पैमाने गढ़ता है और इसके गीत आज भी हर जुबां पर गुनगुनाए जाते हैं. ये मोहब्बत की जीत है जो सदा अमर रहती है.


लड़की इक ख्व़ाब देखती है. उस ख़्वाब को जीने लगती है. उसका अल्हड़ मन ख़्वाबों में आए इस लड़के का इंतज़ार करता है. ये इंतज़ार केवल सिमरन का ही नहीं, हर उस लड़की का लगता है जिसने यौवन की दहलीज़ पर हौले से अभी पहला ही क़दम रखा है. सिमरन जब गाती है 'मेरे ख़्वाबों में जो आए...' तो न जाने कितने जवां दिलों की सांसें तेज हो अपने-अपने महबूब की तस्वीर सजाने लगती हैं.

ये मोहब्बत ही है जो सिमरन के ख़्यालों की ताबीर बन राज को उसके जीवन में ले आती है. तो उधर फ़िल्म देखने वाले अपनी धडकनों को थाम, मन ही मन उम्मीद के दीप जलाने लगते हैं. नीली आसमानी चादर पर लड़के चांद में अपनी महबूबा का चेहरा तलाशते हैं तो लडकियाँ रेशमी धागे से अपने सारे अरमान उस पर सितारों की तरह टांक आती हैं. कभी हरी-भरी वादियों में ये सारे सपने मुंह पर हाथ धर खिलखिलाते हैं तो कभी अचानक से गिटार पर कोई प्रेम धुन बज उठती है.

राज के रूप में एक ऐसे सच्चे प्रेमी का चेहरा उभरता है जो दोनों बांहें फैलाए अपनी सिमरन को सीने से लगाता है. उसकी बातों पर खूब हंसता है, उसे छेड़ता रहता है पर दिल की शहज़ादी बनाकर रखता है. प्रेम में डूबा ये खिलंदड़ लड़का किसी भी बात से परेशान नहीं होता. उल्टा हंसकर कह देता है कि 'बड़े-बड़े शहरों में ऐसी छोटी-छोटी बातें होती रहती हैं.' राज को ख़ुद पर भरोसा है और सिमरन को राज पर. दोनों का प्रेम पर अटूट विश्वास एक बार भी डगमगाया नहीं.

तो फिर हर प्रेमी-प्रेमिका, आख़िर राज-सिमरन सा क्यों न बनना चाहेंगे! दरअसल DDLJ ने केवल सफलता के दसियों कीर्तिमान ही नहीं गढ़े बल्कि प्रेम के नए प्रतिमान भी स्थापित किए. दोनों हर प्रेमी जोड़े की तरह इश्क़ में दीवाने हैं. सिमरन आम भारतीय लड़कियों की तरह थोड़ा डरती भी है पर राज पल भर को भी नहीं घबराता. वो भागना नहीं चाहता बल्कि अपनी दिलरुबा के मासूम चेहरे को हाथों में थाम, पूरी क़ायनात की मुहब्बत उसकी झोली में भर देता है. वह भागने के लिए हामी नहीं भरता. बल्कि डिम्पल भरे गालों से मुस्कुराते हुए कहता है, 'मैं सिमरन को छीनना नहीं, पाना चाहता हूं. मैं उसे आंख चुराकर नहीं, आंख मिलाकर ले जाना चाहता हूं. मैं आया हूं तो अपनी दुल्हनिया तो लेकर ही जाऊंगा पर जाऊंगा तभी जब बाउजी ख़ुद इसका हाथ मेरे हाथ में देंगे.' अब इस बात पर न जाने कितने लड़के-लड़कियों ने अपनी प्रेम कहानी में नए पन्ने जोड़ लिए होंगे. कितनों को ही प्रेम की जीत पर भरोसा हो गया होगा. यक़ीन मानिए DDLJ की ब्लॉकबस्टर सफ़लता में इस एक दृश्य का भी बहुत बड़ा योगदान रहा है. इसने युवाओं के मन में प्रेम के लिए ये बात भी तय कर दी कि भिया! प्रेम का मकसद सिर्फ अपनी महबूबा को पाना ही नहीं, बल्कि उसके अपनों को अपना बनाना भी है. और ये काम छुपकर नहीं, डंके की चोट पर किया जाता है. उसी के बाद तो कह पाएंगे कि दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे.

वो सरसों के खेत का पीलापन आज भी दिल हराभरा कर देता है
इस फिल्म के बाद से जैसे सरसों के खेत में किसी ने मोहब्बत के बीज ही धर दिए थे. सरसों की लहराती फसल, अब किसी पवित्र प्रेम का प्रतीक ही बन गई थी. हर युवा अपनी एक तस्वीर तो वहां खिंचवाने ही लगा था. मोहब्बत का सुरूर अपने चरम पर था कि किसी दिन तो लड़की के सपनों का राज वहां उसकी प्रतीक्षा करता मिलेगा ही मिलेगा. गिटार की धुन से बावला मन, भागता हुआ उस प्रेम बीज के अंकुरित होने की बाट जोहने लगा था.
उधर लड़कों के दिल में इस बात का पक्का यक़ीन बैठ चुका था कि वो दिन जरुर आएगा जब वे कहेंगे कि 'अगर ये तुझे प्यार करती है तो ये पलट के देखेगी. पलट, पलट!' और जब लाल चुनरिया लहराती हुई उनकी 'जान' अचानक पलटकर देखेगी तो वे दीवानगी की हर हद पार कर जाएंगे. अब मान भी लीजिए कि हम सभी ने इस बात को जीवन के किसी-न-किसी दौर में आज़माया जरुर होगा. रह गए हों तो अब आजमाइए. बड़ा ही पुर-कशिश तरीका है ये.

DDLJ ने न केवल बिना किसी क्रांति के प्रेम की जीत का उद्घोष किया बल्कि पिता को भी इस विश्वास से जीत लिया कि अंततः उन्हें कहना ही पड़ा 'जा सिमरन जा! इस लड़के से ज्यादा प्यार तुझे कोई और नहीं कर सकता! जा बेटा, जी ले अपनी ज़िंदगी!' अब प्रेमियों ने मान लिया कि सबके दिल जीतकर ही प्रेम मुकम्मल होता है.

ये फ़िल्म मोहब्बत पर लिखी इक नज़्म की तरह है. हर दिल में राज या सिमरन होते हैं. हर कोई एक ऐसा साथी चाहता है जो उसका जीवन प्यार से भर दे. सपने देखने का हक़ सबका है और जब तक हम जीवित हैं, इश्क़ की तरह सपने भी जवां रहते हैं. आज अगर कोई मुझ-सी किसी सिमरन से वही सवाल पूछे, जो फिल्म में पूछा गया कि 'तुम अपनी ज़िंदगी मोेहब्बत के भरोसे एक ऐसे लड़के के साथ गुज़ार दोगी, जिसको तुम जानती नहीं हो, मिली नहीं हो, जो तुम्हारे लिए बिल्कुल अज़नबी है!' तो मेरा जवाब हां ही होगा. मुझे आज भी मोहब्बत पर यकीं है, ख़्वाबों के सच होने पर यकीं है, इंतज़ार के पूरे होने पर यकीं है और ये यकीं मुझे DDLJ ने ही दिया है.
- प्रीति 'अज्ञात'
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शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2020

बापू को याद करते हुए

अहमदाबाद शहर की भीड़भाड़ भरी ज़िंदग़ी से बाहर निकल कहीं सुक़ून के कुछ पल बिताने हों तो मुझे 'साबरमती आश्रम' से बेहतर कुछ नहीं लगता! मुझे स्वयं भी याद नहीं कि कितनी बार यहाँ आई हूँ लेकिन कुछ ख़ास तो है जो मुझे खींच ही लाता है. 2 अक्टूबर हो या उसके आसपास, या चाहे कोई भी दिन, वर्ष में कम-से-कम एक बार किसी चुंबकीय प्रभाव के आकर्षण की तरह मेरे क़दम इस ओर चल पड़ते हैं. दूर न होता तो मैं प्रत्येक सप्ताहांत यहीं बसेरा कर बैठती. अच्छा! ये भी बताती चलूँ कि कुछ प्रेमी युगल भी अक़्सर यहाँ देखने को मिल जाते हैं. मुझे उनसे कभी शिक़ायत नहीं रहती. बेमतलब की हिंसा और तनाव के बीच में भी यदि प्रेम अपना स्थान सुरक्षित कर लेता है तो यह अच्छा ही कहा जाएगा. जो प्रेम करते हैं वो कुछ करें या न करें परन्तु किसी का नुक़सान तो नहीं ही करते हैं. इनकी अपनी एक छोटी, प्यारी सी दुनिया होती है.

ख़ैर! बीच शहर में होते हुए भी, महानगरीय अट्टालिकाओं से परे, वाहनों की चिल्लपों से दूर 'गाँधी आश्रम' का वातावरण अत्यधिक सुखदायी और शांतिपूर्ण लगता है. यहाँ चरखे के साथ-साथ गाँधी जी के जीवन से जुड़ी वस्तुएँ हैं, शानदार पुस्तकालय भी. 'गाँधी कुटीर' है, 'हृदय कुञ्ज' है, और भी बहुत कुछ! पीछे बहती हुई साबरमती इसे और सुरम्य बनाने में सफ़ल होती है. जब से रिवरफ्रंट बना है यह स्थान सुव्यवस्थित और सुन्दर भी हो गया है. अद्भुत प्रभाव है इस जगह का! हाँ, बाहर निकलते ही असली दुनिया से तो दो-चार होना ही पड़ता है.
इस बार नहीं जा सकी हूँ पर मैं बीते दिनों को याद कर रही हूँ. हर बार ही 'गाँधी जयंती' पर यहाँ किसी-न-किसी ख़ास शख़्सियत से मुलाक़ात होती है. मैं उनका नाम, पता, फ़ोन नंबर सब रख लेती हूँ कि उनके बारे में सबको बताऊँगी पर अंत में स्वयं की व्यस्तता और अन्य प्राथमिकताओं के चलते हार जाती हूँ. वो नाम और नंबर कहीं गड्डमड्ड हो चुके होते हैं और बस चेहरे याद रह जाते हैं. एक बार ऐसे इंसान से मिली थी जो अपनी साइकिल के माध्यम से देशभर को एकता का सन्देश दे रहे थे. पिछले वर्ष अपनी गाड़ी से 'हम सब एक हैं' का प्रचार करने वाले प्रेरणादायी व्यक्तित्व से मिलना हुआ था. दरअसल ऐसे करोड़ों लोग हमारे बीच हैं जो आज भी गाँधी को ज़िंदा रखे हुए हैं. दुखद है कि हिंसा की तमाम चीखों के बीच में इनकी ध्वनि कहीं दब सी जाती है. इन आवाज़ों से सनसनी पैदा नहीं होती और न ही किसी की टी.आर.पी. बढ़ती है तो बहुधा अनसुनी भी कर दी जाती हैं.
हर बार ही कुछ गाँधीवादी उम्रदराज़ लोगों से भी मिलना होता है. इनमें से कई ऐसे हैं जिन्होंने बापू पर बहुत शोधकार्य किया है. वे आँखों में चमक लिए उनकी बात करते हैं तो मन को बहुत अच्छा लगता है. कुछ चेहरों पर निराशा की झलक उदास भी कर जाती है जब वे बुझे ह्रदय के साथ ये कहते हैं कि "आज के दौर में शांति और अहिंसा की बात करना मूर्खता से अधिक कुछ नहीं!" मैं उनकी बातों को सुन बेहद शर्मिंदा महसूस करती हूँ कि जिस दौर की ये बात कर रहे हैं, हमने उसे क्या बना दिया!
सोचती हूँ कि जब हम अपराध के विरोध में खुलकर न बोले तो अपराधी ही तो हुए न!
अन्याय को देख हमने अपनी ज़ुबान सिल ली, तो फिर हम न्यायप्रिय कैसे हुए?
झूठ को जीतते देख ताली बजाने वाले, किस मुँह से 'सत्यमेव जयते' कह सकेंगे?
मैं मुस्कुराते हुए उन लोगों से बस इतना ही कहती हूँ कि "अरे! आप चिंता न कीजिए, सब अच्छा होगा. बुरे दौर का भी अंत तय ही होता है. गाँधी जी की विचारधारा हताश भले ही दिख रही है पर जीवित है अभी! हम मरने थोड़े न देंगे उसे अंकल जी". न जाने मैं उन्हें कह रही होती हूँ या स्वयं को ही आश्वस्त करने का प्रयास करती हूँ लेकिन हर बार बापू की मूर्ति को प्रणाम करते हुए जब उनका शांत चेहरा और मृदु मुस्कान दिखती है तो उम्मीद फिर जवां होने लगती है. विचारों में दृढ़ता आती है पुनः मैं एक और कोशिश में जुट जाती हूँ.
- प्रीति 'अज्ञात'
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