रविवार, 26 फ़रवरी 2023

जन्मदिन मुबारक़ अमदावाद!

मीठे नमकीन सा शहर है, अहमदाबाद

गुजरात का दिल यानी अहमदाबाद! 1960 से 1970 तक गुजरात की राजधानी रहने के कारण अब भी लोग इसे ही प्रदेश की राजधानी समझ बैठते हैं। यूँ इस शहर का ठाट-बाट और व्यवहार राजसी ही है। लोग घुमक्कड़ और खाने-पीने के बेहद शौकीन। वो गुजराती ही क्या जिसके घर रविवार को खाना पके। रेस्तरां में 40 मिनट का इंतज़ार भी सुखद है, उस पर पूरा कुनबा साथ हो तो वक़्त का पता भी कहाँ चलता है! उत्तरायण हो तब उंधियु, पूरी, चिक्की और मीठी जलेबियों के बगैर पतंगें आसमान नहीं चूमतीं। उस पर संगीत का साथ और मस्ती का चढ़ा रंग उत्सवों में जैसे भांग ही घोल देता है। दशहरे पर रावण दहन देखने जाओ न जाओ आपकी मर्ज़ी, पर  फाफड़ा जलेबी की दुकानों पर सुबह से लगी लंबी कतारें यह विश्वास दिला देती हैं कि सेनाओं ने आक्रमण की कमान संभाल ली है। खाखरा, ढोकला, खांडवी, हांडवा जैसे सारे सशक्त नाम यहीं के व्यंजनों के हैं। उस पर गुजराती थाली तो अहा! केवल बातों में ही नहीं, यहाँ के तो नमकीन में भी मिठास है।

एक समय था जब आप शहर के किसी भी हिस्से के निवासी हों, पानीपूरी खाने म्युनिसिपल मार्केट जाना तय रहता था।  अब हर सड़क सात-सात फ्लेवर के पानी वाले ठेले लिए सजी दिखती है। पुराने लोग अब भी जसुबेन का पिज़्ज़ा खाते हैं पर नई पीढ़ी, बाज़ार ने लूट ली है। बस एक परंपरा के चलते गुजराती थाली का लुत्फ़ उठाने किसी मेहमान को  गोरधन थाल ले जाया जाता है। यूँ इन थालियों का भी एक बहुत बड़ा बाज़ार लॉन्च हो चुका है। खाऊ गली अब 'हैप्पी स्ट्रीट' बन चुकी है। अशर्फी की कुल्फी अब भी पॉपुलर है। 

यहाँ की सबसे प्यारी बात कि हर घर में झूला झूलने का अवसर मिलेगा लेकिन जरा अपने एडिडास, नाइकी या वुडलैंड के ठसके से बाहर निकल आइएगा क्योंकि घर हो या दुकानचप्पल-जूते  बाहर उतारने का नियम सब जगह लागू है।   

लाड़ले अमदावाद में जीवन रस से परिपूर्ण नवरात्रि के नौ रंग जब सजते हैं तो पता चलता है कि यह त्योहारों को कलेजे से लगाकर चलने वाला शहर है। यहाँ के लोग गरबा में किसी अज़नबी के हाथों में भी डांडिया थमा अपने दिल के घेरे को थोडा और चौड़ा कर देते हैं। नवरात्रि की तैयारी घर के किसी ब्याह सरीखी होती है।  लहंगे (पारंपरिक चनिया) पर घुँघरू, मोती, सितारे टंकते हैं। कच्छी कढ़ाई वाला डिजाइनर ब्लाउज़ (चोली) बनता है। नौ दिन के हिसाब से मोजरी, दुपट्टा, गहने, टीका, बिंदिया सब चाहिए होता है। तभी तो लॉ गार्डन की कच्ची जमीन पर लगी पारंपरिक चनिया-चोली की तमाम दुकानों ने अब विकास का पक्का रंग ओढ़ लिया है। यूँ दाम बढ़ाकर आधे-पौने में देने का सिलसिला अब भी जारी है। वो तो भला हो, दूर देश से आए एनआरआई समूहों का, जो अब भी इनके चेहरे पर रौनक़ें भर जाते हैं।  

कभी बाढ़ का तांडव, कभी भूकंप का भीषण, भयावह मंज़र तो कभी लाशों के ढेर पर सिसकते, दंगों की आग से झुलसते  इस शहर को देख एक स्वप्न बिखरता सा भी लगता है। लेकिन उसके बाद सहायता हेतु बढ़ते हाथ और संवेदनशीलता, मृतप्रायः उम्मीद को पुनर्जीवित कर देती है। यहाँ के लोग जूझने, उठने और फिर चल पड़ने की जिजीविषा से लबरेज़ हैं। अहमदाबाद और उल्लासये दोनों संग-संग ही चलते  हैं सदा।

इस शहर में मेरा पहला दिन का और आज बाईस साल बाद का अहमदाबाद! यक़ीनन बहुत कुछ बदल गया है। पहले जो गलियाँ थीं, अब चार लेन वाली चौड़ी सड़कों का रूप धर इतराने लगी हैं। वो मॉल जो तब नए-नए खुले थे और जिन्हें बस देखने भर के लिए या एस्केलेटर का आनंद उठाने के लिए मन मचलता था, अब वहाँ बस फ़िल्में ही चलती हैं। जिन स्थानों को देख पहले आँखें भौंचक हो जाया करतीं थीं, अब उनसे जी ऊब सा गया है।

बढ़ती जनसंख्या ने मेट्रो की जरूरत ईज़ाद की तो शहर को खुदते रहने का श्राप ही मिल गया है जैसे। लोग बढ़े तो वाहन भी उसी अनुपात में जगह घेरने लगे। फ्लाईओवर का जाल इस समस्या का समाधान बन उभरा अवश्य लेकिन क्या इससे ट्रैफिक की समस्या हल हुई? तो बिल्कुल नहीं! एक परियोजना पूरी होती नहीं कि तब तक सारा अनुपात गड़बड़ा चुका होता है। 

कभी शहर के बाहरी इलाके कहे जाने वाले गाँव बोपल, घुमा, शिलज, शैला, थलतेज़ और इन जैसे कई अब लंबी दौड़ लगाते हुए शहर के हो गए हैं। इन्हें देख खुश होना चाहिए था लेकिन जिन जंगलों को रौंद इन्होंने कंक्रीट की चादर ओढ़ी है, उस हरियाली की अनुपस्थिति अवसाद से घेर लेती है। जरा बारिश क्या हुई कि बाढ़ का खतरा मँडराने लगता है। पक्की धरती पानी सोखती नहीं क्योंकि यह काम तो शुरू से माटी के जिम्मे रहा है। जब जंगल नहीं रहे तो माटी की भला क्या ही बिसात थी! छोटे पक्षियों ने तो गुजर-बसर के आसरे ढूँढ लिए लेकिन मोर, बंदर, लंगूर की मुश्किलें कम नहीं होतीं। ये अब भी अपने घरों को ढूँढते वहाँ जा पहुँचते हैं जहाँ मनुष्य दस्तावेज दिखा इन्हें भगा देता है। इनके घरों पर कब्ज़ा कर लिया गया है। 

शराबबंदी का सच

ड्राइ स्टेट होने के कारण यहाँ शराब नहीं मिलती, ऐसा नहीं है। जुगाड़ू लोग सफ़लता प्राप्त कर ही लेते हैं लेकिन अच्छी बात यह है कि यहाँ खुलेआम देशी, विदेशी ब्रांड की दुकानें और उनके बाहर लहराते लोग नहीं दिखते। नशे में गाड़ी चलाने वाले किस्से और उनसे जुड़े अपराध न्यूनप्रायः हैं। अन्य कई राज्यों की अपेक्षा यहाँ की स्त्रियाँ स्वयं को अधिक सुरक्षित अनुभव करती हैं। गाली कल्चर भी उतना नहीं कि सुनकर कानों से खून ही बहने लगे।

साबरमती का सलौना रूप

साबरमती किनारे बने नए नवेले रिवरफ्रंट ने युवा दिलों को धड़कने की एक नई जगह मुहैया करा दी है। यूँ यहाँ के तोते और कबूतर हर उम्र की मोहब्बतों के साक्षी हैं। लेकिन यहाँ की सुंदरता में खोते हुए भी यह क़सक मिटती नहीं कि इसे बनाते समय धोबियों, कलमकारी, माता नी पछेड़ी तथा ब्लॉक प्रिंटिंग से जुड़े कलाकारों के लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं हो सकी! इनका तो पूरा व्यवसाय ही इस नदी के बहाव पर निर्भर था। 

सुकून चाहिए?

सुकून के कुछ पल गुजारने के लिए आज भी अपने बापू के साथ से बेहतर कुछ नहीं। साबरमती आश्रम में पूरा दिन बहुत ही श्रद्धा और शांति से गुजारा जा सकता है। यहाँ का सुरम्य, पवित्र  वातावरण आपको बारम्बार आमंत्रित करता है। सकारात्मक ऊर्जा का अद्भुत केंद्र है यह। लगभग यही आभास हथीसिंह मंदिर और अमदावाद   नी गुफा में भी होता है पर हरियाली के मामले में ये मात खा जाते हैं। 

धरोहरों से मुलाक़ात

यहाँ की वास्तुकला में इस्लामी और हिंदू शैली का अनूठा, अद्भुत मेल है। पुराने शहर और पोल जीवन से रूबरू होना हो तो दो घंटे की हेरिटेज वॉक यह इच्छा पूरी कर देती है। वाव माने ताल तलैया नहीं बल्कि कलात्मकता का बेजोड़ नमूना होता है, यह मैंने अडालज की वाव देखकर ही जाना। जब धरोहरों की बात चल ही रही है तो कर्णावती यानी अपने अमदावाद के पुराने शहर स्थित सिद्दी सैय्यद की जाली का ज़िक्र जरूरी है। यह एक मशहूर मस्जिद है। वास्तुकला की इस उत्कृष्ट धरोहर की नक्काशीदार जाली दुनिया भर में प्रसिद्ध है। इसमें पत्थर की खिड़कियां, एक पेड़ की शाखाओं को आपस में जोड़े हुए दर्शाती हैं, जिसे 'द ट्री ऑफ लाइफ' के नाम से जाना जाता है। जो इस शहर में आता है, इसकी तस्वीर लेना नहीं भूलता। इसमें निहित संदेश भी आत्मसात कर ले तो बात ही क्या! ऐतिहासिक इमारतों में सारखेज़ रोज़ा, जामा मस्जिद भी दर्शनीय है। सिंधु घाटी सभ्यता का महत्वपूर्ण शहर और मिनी हड़प्पा कहा जाने वाला लोथल इस शहर में तो नहीं लेकिन यह और अक्षरधाम अपना ही लगता है।

चाय संग घुमक्कड़ी

चयक्कड़ों के दिल लूटने के लिए विश्व का पहला किटली सर्कल है यहाँ! अख़बार नगर सर्कल में, आग की लपटों से घिरे केतली के इस विशाल एवं प्रभावशाली मॉडल को देखा जा सकता है.  एक तस्वीर खींचिए, फिर चाय पीने के लिए कहीं और का रुख कीजिए। घुमक्कड़ों के लिए पूर्व के मैनचेस्टर कहे जाने वाले इस शहर में टेक्सटाइल का केलिको संग्रहालय है। कुतुबउद्दीन एबक द्वारा बनवाई गई कांकरिया झील और गलबहियाँ करता सामने बना चिड़ियाघर बच्चों के आकर्षण का प्रमुख केंद्र है। इसके अलावा इस्कॉन मंदिर, भद्र किला, हिलती मीनारें, साइंस सिटी, वैष्णो देवी है। शहर से थोड़ा आगे बढ़ें तो नालसरोवर के प्राकृतिक सौंदर्य को निहारने और विलुप्तप्राय: प्रजातियों के पक्षियों से मिलने का आनंद भी उठाया जा सकता है।

आसमान की छत तले थिएटर का मज़ा 

वर्तमान समय में भले ही मल्टीप्लेक्स ने सोफ़े पर लेटते हुए फ़िल्म देखने की सुविधा उपलब्ध करा दी हो लेकिन तारों भरी रात में अपनी दरी, चटाई पर तकिये से टिके हुए फ़िल्म देखने का आनंद ही कुछ और है। ठंडी बयार बह रही, बगल में टोसा, हाथ में गरमागरम चाय और सामने एशिया की सबसे बड़ी स्क्रीन में से एक पर आपकी पसंदीदा फ़िल्म चल रही। जीने को और क्या चाहिए! 'सनसेट ड्राइव-इन-सिनेमा' आपको श्रेष्ठ गुणवत्ता वाली ध्वनि से सजी इसी अद्भुत दुनिया में ले आता है। जी चाहे, तो दरी उठाकर वहीं कार में ही बैठ जाइए। 

कब्रों के बीच बैठ चाय नाश्ता किया है कभी?

नहीं किया तो लाल दरवाजा के पास स्थित न्यू लकी रेस्टोरेंटमें चले आइए। 12 कब्रें हैं और उन्हीं के इर्द गिर्द टेबल और बेंच लगाकर बैठने की समुचित व्यवस्था है। यहाँ की दीवारें मक़बूल फ़िदा हुसैन और उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान की उपस्थिति की साक्षी हैं। हुसैन जी का तो इस स्थान से लगाव ही इतना था कि यहीं बैठ उन्होंने एक पेंटिंग बनाई और इस रेस्टोरेंट को उपहार में दे दी। वह पेंटिंग अभी भी यहाँ सुसज्जित है। 

जब रेस्तरां ही घूमने लगे!

जी हाँ, अहमदाबाद में घूमने वाला पतंग रेस्तरां भी है। इसकी डिजाइन पक्षियों को दाना खिलाने वाले चबूतरे से प्रेरित है। यह अपनी तरह का एक रेस्तरां है जो  90 मिनट में 360 डिग्री का चक्कर पूरा करता है। यह धीरे-धीरे घूमता है ताकि आप  डिनर करते हुए  पुराने और नए शहर  को देख सकें।

है न, अद्भुत, अकल्पनीय, अलौकिक આપણું અમદાવાદ!

प्रीतिअज्ञात

'आउटलुक' हिन्दी के 31 अक्टूबर 2022 अंक में प्रकाशित (शहरनामा: अहमदाबाद) 

'आउटलुक' के डिजिटल संस्करण में भी इसे पढ़ा जा सकता है -

https://www.outlookhindi.com/story/shaharnama-ahmdabad-by-preeti-agyat-3744?fbclid=IwAR3xWaNDeWC3GQSPmLzU8h0KJK4gZugOPix0GPEnc7DxONpK_NC6pj-vbkc

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विज्ञान और अध्यात्म, राजनीति का विषय नहीं!

‘विज्ञान के चमत्कार’ एक ऐसा विषय है जिस पर प्रायः सभी ने अपने विद्यालयीन जीवन में निबंध अवश्य लिखा होगा। बिजली के बल्ब के अविष्कार से लेकर अलेक्सा तक की यात्रा अचरज़ से भर देती है। वह समय जहाँ चिट्ठियों की प्रतीक्षा भी जीवन का सुख था और मन के तार से दो व्यक्ति जुड़ जाया करते थे, वहाँ एक दिन फोन की घंटी बजने लगी। फोन घरों में आया तो कई बार हँसी में यह भी कह दिया जाने लगा कि सामने वाले का चेहरा भी दिख जाए तो कितना अच्छा हो! लेकिन फिर स्वयं ही अपने इस ख्याल के सिर पर चपत मार खिलखिला उठते कि “ऐसा भी कभी हो सकता है भला! विज्ञान बहुत कुछ कर सकता है पर ये थोड़े ही न संभव है!” लेकिन तकनीक का कमाल देखिए कि तब जो कल्पनातीत था, आज वहाँ व्हाट्स एप है, वीडियो कॉल के तमाम माध्यम हैं। हम अब कृत्रिम बौद्धिकता (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) और आभासी दुनिया (मेटावर्स) के युग में प्रवेश कर रहे हैं। है न बिल्कुल परीलोक या किसी जादूगर की कहानी जैसा!

कहाँ तो रोशनी के लिए बल्ब के स्विच को ऑन करने के लिए उठना पड़ता था, अब लेटे-लेटे ही अलेक्सा को कह दिया जाता है। घर से बाहर निकलो तो पूरे शहर का नक्शा एक क्लिक पर साथ चलता है। जिस रास्ते को समझने के लिए दसियों जगह रुकना होता था, अब जीपीएस से पल भर में ज्ञात हो जाता है। यह वही विज्ञान है जिसने हमारी सुख-सुविधा हेतु वह सब बनाकर दिया जिसने मनुष्य का जीना अत्यंत सरल कर दिया, लेकिन ध्यातव्य हो कि घातक हथियार और परमाणु बम भी यही बनाता है। अब उससे रक्षा होगी या विध्वंस, यह प्रयोग करने वाले पर निर्भर करता है। तात्पर्य यह कि चमत्कार का प्रयोग कैसे किया जाता है, यह प्रयोगकर्ता की विचारधारा, बुद्धि और मानसिकता पर आधारित है। विज्ञान का काम तो सदा सृजन ही है, इसलिए इसने सब कुछ कल्याणकारी ही किया। यही कारण है कि किसी को बरगलाने का कार्य इससे न हुआ। किसी वैज्ञानिक ने स्वयं को ईश्वर के समकक्ष न रखा बल्कि खुलकर अपनी खोज की विधि बताई और सिद्धांत भी प्रतिपादित कर दिया जिससे आने वाले समय में उससे मार्गदर्शन भी प्राप्त हो सके।

कुल मिलाकर विज्ञान, विकास का पूर्णतः पक्षधर है और ईमानदारी तथा स्पष्टवादिता इसका सर्वश्रेष्ठ गुण है। कहीं कोई प्रयोग गलत भी हुआ तो कुछ वर्षों बाद किसी अन्य वैज्ञानिक द्वारा उसका संशोधित रूप भी हृदय से स्वीकार हुआ। लैमार्कवाद के ‘उपार्जित लक्षणों की वंशागति के सिद्धांत’ में कमी लगी तो सहज भाव से डार्विन के ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’ को माना जाने लगा क्योंकि उसके तर्कों से सहमति बनी।

अतिशय चमत्कारी होते हुए भी विज्ञान, भ्रम और माया से स्वयं को कोसों दूर रखता है। दुर्भाग्य यह कि जब भी संकीर्णता, कुंठा और स्वयं को महाशक्तिमान समझने वाले व्यक्तियों के हाथ यह लगा, इसने विध्वंस ही किया। अध्यात्म भी ठीक ऐसा ही सृजनकारी है, यह आपको सत्कर्म एवं शांति की ओर प्रेरित करता है। गहराई से इसमें उतरो तो चमत्कार और गलत हाथों में गया तो कोरा ढोंग और शोर ही बनकर रह जाएगा।

ध्यान से देखें तो विज्ञान और अध्यात्म की दुनिया एक ही हैं। दोनों ही मानव कल्याण के पक्षधर हैं। ये परस्पर विरोधी नहीं अपितु सच्चे साथी हैं। एक आपको बाहरी दुनिया से जोड़ता है और दूसरा भीतरी अंतरात्मा तक ले जाता है। दोनों ही तार्किक ज्ञान की ऊर्जा से संचालित होते हैं। इनका लक्ष्य भी एक ही है, मानव का भौतिक और आत्मिक सुख। दोनों ज्ञान के रास्ते से बढ़ते हैं और परम की ओर ले जाते हैं। परंतु जब भी ये निम्न मानसिकता और संकीर्णता में घिर स्वार्थी हुए, मानो विनाश की रूपरेखा तय हुई। फिर उस मार्ग पर सुख के सारे द्वार बंद हो जाते हैं और उससे उत्पन्न हुआ अंतर्द्वंद्व एवं कोलाहल सब कुछ नष्ट कर देता है।

यही कारण है कि जब हम विज्ञान और अध्यात्म को एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा कर उनकी सच्चाई परखने लगते हैं, तब परेशानी उत्पन्न होती है। जबकि उद्देश्य की दृष्टि से ये दोनों ही आपको सकारात्मक जीवन की ओर ले जाते हैं। यद्यपि उत्तम परिणाम और विकास के लिए आवश्यक है कि इनका प्रयोग करने वालों के हृदय में कोई खोट न हो अर्थात उनकी नीयत साफ़ और राजनीति से परे हो। इसे उनकी भाषा और व्यवहार से स्पष्टतः समझा जा सकता है।

सार यह कि विज्ञान हो या अध्यात्म, इसी दुनिया में पनपे और हमारी सुख शांति इनके संतुलन में ही निहित है। जो इस संतुलन में अड़चन लाए या अनर्गल तथ्य फैला वातावरण को अशांत करने का प्रयास करे, उसे संदेहास्पद और मानवता का दुश्मन समझिए।

एक बात और कि कोई बाबा को माने या विज्ञान को, यह मलीन राजनीति का विषय क़तई नहीं है। बल्कि दोनों ही स्थितियों में यह व्यक्ति विशेष की पसंद, श्रद्धा, विश्वास और अटूट आस्था का नितांत व्यक्तिगत मसला है। इसे राष्ट्रीय मुद्दा बनाकर दिन-रात उछाला जाएगा तो राजनीतिक हित भले ही सध जाए लेकिन इसकी आड़ में कई ढोंगियों को प्रश्रय मिल जाएगा और देश के विकास की गाड़ी एक स्टेशन पीछे चली जाएगी। यूँ भी देश में कई अन्य महत्वपूर्ण मुद्दे हैं जो ध्यानाकर्षण की बाट जोह रहे।

चलते-चलते: फरवरी माह में हम ‘राष्ट्रीय विज्ञान दिवस’ मनाते हैं। इस वर्ष का विषय है- वैश्विक खुशहाली के लिए विज्ञान। उद्देश्य है वैश्विक संदर्भ में जागरूकता पैदा कर, वैश्विक एकीकरण का अवसर प्रदान करना। जब उद्देश्य इतना विशाल है तो युद्ध के साये में जीती इस दुनिया को भी ‘मेरा तेरा महान’ की गलियों से बाहर निकल प्रेम और सभ्यता से साथ चलना सीख लेना चाहिए।

 प्रीति अज्ञात

'हस्ताक्षर' फरवरी 2023 में प्रकाशित संपादकीय -

https://hastaksher.com/science-and-spirituality-are-not-a-matter-of-politics-editorial-by-preeti-agyaat/

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कंझावला की घटना अंतिम नहीं है

इतनी देर रात घर से बाहर क्या करने गई थी?

होटल में कमरा क्यों बुक कराया था?
लड़की चरित्रहीन थी।
उसने शराब पी रखी थी।

ये वे वाक्य हैं जो खुलकर एक लड़की की दर्दनाक मृत्यु के बाद उछाले जा रहे हैं। इनके पीछे  का अर्थ समझ रहे हैं न! यदि वह चरित्रहीन थी, उसने शराब पी रखी थी और देर रात होटल में ठहरी तो काहे का बवाल! नाम कोई भी हो, ऐसी लड़कियाँ तो मारी ही जाती हैं! यही सोच है जो न्याय व्यवस्था की लचरता को बढ़ाती है। वे लड़कियों को सलाह देने से नहीं चूकते क्योंकि लड़के तो कुछ भी करने को स्वतंत्र हैं पर लड़कियाँ अपनी रक्षा की जिम्मेदारी स्वयं लें।

लेकिन यदि मृतक पुरुष होता तो क्या ये प्रश्न पूछे जाते?

नहीं न! लड़कों से कौन ऐसे प्रश्न करता है! यह सब करना तो उनका अधिकार है। लडकों का कार्यक्रम तो किसी चैनल या पोर्टल ने नहीं बताया। वे तो एन्जॉय करेंगे ही न! उनको चरित्र प्रमाण पत्र देने का कष्ट कोई क्यों उठाए? उन्हें तो खुली छूट है कि सारी रात सड़कों पर घूमें। लड़कियों को कुचलें और अनजान बन कई किलोमीटर तक गाड़ी से घिसटाते हुए मार डालें। उनकी रक्षा करने वाले नेताजी बगल में बैठे ही हैं। उनके घर की लड़की तो थी नहीं कि संवेदनाओं का एक क़तरा भी बाहर आए!

तो क्या अब लड़कियों की इस तरह की मृत्यु को न्यायसंगत मान लिया जाए?

क्या उसकी मित्र दोषी है

इस विषय पर न्यायाधीश बनकर बोलना अभी सही नहीं है क्योंकि उस पर क्या बीती , ये हमें नहीं पता। लेकिन प्रथम दृष्ट्या वह इस बात की दोषी प्रतीत होती है कि उसने इस घटना की सूचना नहीं दी। यदि आपातकालीन नंबर पर ही फोन लगा दिया होता तो अंजलि को बचाया जा सकता था। दुर्घटना के समय किसी का भी घबराना, डरना स्वाभाविक है लेकिन यदि सामने आपका साथी गाड़ी के पहिए में फंसा दिखाई दे और आप उसे, उसी हाल में छोड़ घर चले आएं तो यह दुखद एवं अमानवीय कृत्य है। यद्यपि जिस तरह का संवेदनहीन समाज इन दिनों फलफूल रहा है, वहाँ यह व्यवहार उतना आश्चर्यजनक भी नहीं लगता।

अचरज़ की बात

आश्चर्यजनक कुछ है तो यह वक्तव्य कि गाड़ी में सवार लोगों को पता ही नहीं चला कि उसमें एक जीता-जागता इंसान फंस गया है। एक लड़की ने कई किलोमीटर तक घिसट-घिसट लहूलुहान हो दम तोड़ दिया, उसके कपड़े फट गए, फेफड़े बाहर आ गए  और अंदर बैठे राजकुमारों को पता तक न चला! इसे सपोर्ट करने को एक सिद्धांत सामने आया कि वे नशे में थे। अच्छा! फिर गाड़ी कैसे सुरक्षित चलती रही?

गाड़ी नहीं रुकती क्योंकि किसी को कुछ सुनाई ही नहीं दिया। क़माल है! दिन के समय भरी सड़क पर चलते वाहन में एक पत्ता भी फंस जाए तो न केवल ड्राइवर बल्कि अंदर बैठे सभी सवारों को उसकी खड़खड़ाहट सुनाई देती है। लेकिन यहाँ देर रात, सुनसान सड़क पर भी उन्हें कुछ सुनाई नहीं दिया होगा? जबकि सन्नाटे में तो पानी की गिरती बूंद भी शोर लगती है। स्पष्ट है, अब उनके नेताजी फंसे हैं तो कान में रुई डालकर ही बैठना होगा।

अपने आकाओं को बचाने के लिए कई कुतर्क भी गढ़े जाएंगे। लेकिन पुलिस, सड़क सुरक्षा और सीसीटीवी कैमरा पर उठे प्रश्नों को तब भी दबा ही दिया जाएगा।

समाज के रटे रटाए पाठ और अपराधियों के बढ़ते हौसले

कंझावला की घटना कोई अकेली घटना नहीं है। लड़कियों के साथ विभिन्न तरह के अपराध की दसियों भयावह घटनाएं प्रतिदिन हर शहर में होती हैं। तेजाब डालने की घटना के बाद, ‘तेजाब मत बेचो’ की मांग उठती है। इस पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है लेकिन यह बोतल उतनी ही सरलता से उपलब्ध हो जाती है जैसे ड्राई स्टेट में अल्कोहल। क्या इससे अपराध रुक जाएंगे? फिर तो मारपीट, हत्याओं को रोकने के लिए चाकू मत बेचो, डंडे, बैट मत बेचो।

लड़ना मानसिकता से है। नागरिकों को शिक्षित, सभ्य मनुष्य बनाना है। यह भी हो कि अपराध करते समय उनके भीतर सजा का इतना भय व्याप्त रहे कि वे गलत कार्य का दुस्साहस ही न करें। पर सारा कष्ट यही करने में तो है।

लड़कियों को सिखाया जाएगा कि ऐसे दोस्तों से बचकर रहो। देर रात मत निकलो। देह को पूरी तरह ढके हुए वस्त्र पहनकर चलो। लेकिन ऐसी मानसिकता में सुधार करने की आवश्यकता किसी को महसूस नहीं होगी जो लड़कों के हौसले बुलंद करती है। न ही अपराधियों को इस तरह से दंडित किया जाएगा कि लगे कोई न्याय हुआ है। हाँ, हर घटना के बाद ज्ञान पूरा दिया जाता है, निंदा भरपूर होती है, कड़े फ़ैसले लेने का आह्वान होता है लेकिन परिणाम के नाम पर जीरो बटा सन्नाटा ही सामने आता है।

चैनलों का महाभारत

चैनलों का किस्सा और भी अनूठा है। न्यूज चैनल अब विशुद्ध मनोरंजन परोसने वाले बन चुके हैं। इनका काम सूचना देना नहीं बल्कि सुविधानुसार एक तय सोच दर्शकों को थमाना है। किस घटना को दबाना और किसे बढ़ा-चढ़ाकर बताना है, ये इनके मालिक तय करते हैं। इसका समाज पर क्या और कितना प्रतिकूल असर पड़ेगा इससे किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। यहाँ चर्चा में, चुन-चुनकर वही लोग बैठाए जाते हैं जिनसे आग  भड़कती रहे, भले ही हल कोई न निकले। विषय कोई भी हो, कैची टाइटल और बैकग्राउंड म्यूजिक के साथ हुई ‘निष्पक्ष’ चर्चा में सभी दलों के प्रवक्ताओं को बुलाकर बिठा लिया जाता है। फिर मासूम एंकर कहती हैं कि यह संवेदनशील विषय है कृपया राजनीति न करें! अरे! राजनीति करने को ही तो ऐसे नेताओं को आमंत्रित किया गया है, जिनका विषय से कोई लेना-देना ही नहीं! ये केवल यही बोल सकते हैं कि जहाँ हमारी सरकार है वहाँ तो अपराध के आँकड़े कम हैं। उन्हें इस बात से कोई अंतर ही नहीं पड़ता कि किसी बेटी की जान गई, एक माँ ने अपने जिगर के टुकड़े को खो दिया, एक घर को चलाने वाला मार डाला गया।

मृतक के बदले, धनराशि और नौकरी का लालच देकर मुँह बंद किए जाने की प्रथा यूँ भी समाज में ‘सराहनीय’ मानी जाती रही है। उस भीषण, अकल्पनीय, असह्य पीड़ा से किसी को क्या करना और उसके बारे में क्या ही सोचना जो एक लड़की ने अपने शरीर को टुकड़ा-टुकड़ा समाप्त होते देख सही होगी! सड़क पर बिखरा खून भी धुल जाएगा और तत्काल हिन्दू-मुस्लिम का कार्ड खेलती एक नई कहानी मार्केट में लॉन्च कर दी जाएगी जिससे जनता शीघ्र ही यह घटना भूल जाए। आँख बंद कर सोचिए कि बीते माह की घटनाओं में कितनों को न्याय की उम्मीद शेष है! नाम भी याद न होंगे।

मासूम जनता क्या करे!

जनता भूल ही जाएगी! कोई एक किस्सा हो तो याद रखे न! जब दिन -रात लूट, हत्या, बलात्कार एवं अन्य अपराधों के सैकड़ों मामले सामने आते रहें तो कौन, कितना याद रखेगा भई! जब अपनी बारी आएगी, तब बोलेंगे, चीखेंगे और दीवारों पर सिर मार इस व्यवस्था को कोसेंगे जिससे न्याय की उम्मीद करना इस सदी का सबसे बड़ा मजाक होगा!

कहने को ‘न्याय व्यवस्था’ है लेकिन इसमें चहेतों अर्थात अपनी टोली को न्याय देने की ही व्यवस्था है। आम जनता पिसी है, पिसती रहेगी। मरी है, मरती रहेगी। अच्छे दिनों की यही परिभाषा है कि सच न बोलिए, जो हो रहा है उसे रामराज्य समझ हाथ जोड़ लीजिए। चुप रहिए और नववर्ष की शुरुआत में मनहूस बातें बोल किसी का दिमाग और वर्ष खराब न कीजिए। उन्हें पार्टी करनी है, करने दें। डिस्टर्ब न कीजिए। जब नशा उतरेगा तो होश भी आएगा, लेकिन प्रश्न यह है कि नशा उतरेगा कैसे? जब उसे चढ़ाने वाली भी ये जनता ही है।

चलते-चलते: अभी तो हम अभिव्यक्ति के रंगों में डूबे हुए हैं। किसी ने केसरिया थाम गर्व किया है तो किसी ने हरा! लेकिन विश्वास रखिए इनके मध्य का श्वेत वर्ण गणतंत्र दिवस के दिन अपनी सम्पूर्ण आभा लिए अवश्य दिखाई देगा। जी भरकर देख नमन कीजिएगा उसे। क्योंकि नेताओं को तो बस अपने रंग ही दिखाई देते हैं। लेकिन हमें तो केवल हमारे तिरंगे को ही अपना मानना है। यही देश को जोड़ता है। यह मृत्यु और अपराध की गंभीरता को रंगों से नहीं तौलता। हमें इसके तीनों रंगों को दिल में बसा, उन सबको करारा जवाब देना है जो जोड़ने की बजाय तोड़ने को अपनी विजय मान अकड़ते घूमते हैं।

जय भारत!

- प्रीति अज्ञात

'हस्ताक्षर' जनवरी 2023 में प्रकाशित संपादकीय -

https://hastaksher.com/1kanjhaavala-kee-ghatana-antim-nahin-hai5182-2editorial-by-preeti-agyaat/

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निर्भया के 10 साल बाद, कितनी निर्भय हैं स्त्रियाँ?

 

16 दिसंबर 2021 की एक घटना पुनः लिख रही हूँ जिसमें एक व्यक्ति कहता है “एक कहावत है कि यदि आप रेप रोक नहीं सकते हैं तो लेटो और मजे लो!” यह सुनकर सामने कुर्सी पर बैठा तथाकथित सम्माननीय व्यक्ति ठहाका लगाने लगता है और फिर उसका साथ देने को इस हँसी में अनगिनत भद्दी आवाजें शामिल हो जाती हैं। यह किसी C- ग्रेड फ़िल्म की पटकथा नहीं बल्कि कर्नाटक विधानसभा से प्रसारित निर्लज्जता की जीती जागती तस्वीर थी। हाँ, हम स्त्रियाँ फिर एक बार इस अश्लील हँसी पर शर्मिंदा हुईं थीं, जो गाहे-बगाहे हमारे कानों में अक्सर पड़ती ही रहती है। इन आदमियों और संभावित बलात्कारियों के बीच में कितना अंतर था, यह आप तय कीजिए! मैं इतना ही बताना चाहूँगी कि उस दिन निर्भया कांड की बरसी थी! पर इन मरी हुई आत्माओं को इससे भी क्या ही लेना-देना रहा होगा!

निर्भया कांड (16 दिसंबर 2012) अर्थात वह वीभत्स और क्रूरतम घटना जिसने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था। प्रतिक्रिया स्वरूप देश भर में धरने और जन आंदोलन हुए। इस उभरे आक्रोश के चलते बलात्कार से जुड़ी, कानून की कई धाराओं में परिवर्तन किये गए। गलत तरीके से छेड़छाड़ एवं अन्य प्रकार के यौन शोषण को भी इन धाराओं में सम्मिलित किया गया। फास्ट ट्रैक कोर्ट की आवश्यकता महसूस की गई जिसमें फैसला आने में अपेक्षाकृत कम समय लगता है। इसी वर्ष ही लैंगिक उत्पीड़न से बच्चों के संरक्षण हेतु पॉक्सो एक्ट 2012 अस्तित्व में आया। साथ ही जुवेनाइल जस्टिस बिल भी पास हुआ।

कहने को तो निर्भया के अपराधियों को 20 मार्च 2020 को फ़ांसी की सजा मिली लेकिन अब जबकि इस माह उस अमानवीय घटना के दस वर्ष पूर्ण हो रहे हैं तो मन में बार-बार यह प्रश्न उठ रहा है कि निर्भया के 10 साल बाद, कितनी निर्भय हैं स्त्रियाँ?

सतही तौर पर तो तस्वीर उजली ही नज़र आती है पर जरा यह भी जान लें –

क्या कहते हैं आँकड़े?

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की इस वर्ष (2022) जारी रिपोर्ट में बताया गया है कि महिलाओं के विरुद्ध अपराध की दर जो  कि 2020 में 56.5% थी, 2021 में वह बढ़कर 64.5 % हो गई है। यह दर प्रति 1 लाख जनसंख्या पर घटनाओं की संख्या के आधार पर निकाली जाती है।

इसके अनुसार वर्ष 2020 में महिलाओं के विरुद्ध अपराध के 3,71,503 मामले सामने आए थे जबकि 2021 में 4,28,278 मामले पंजीकृत किए गए। इसमें बलात्कार की पंजीकृत घटनाओं में 13% वृद्धि हुई है। वर्ष 2020 में यह संख्या 28,046 थी जो कि वर्ष 2021 में बढ़कर 31,677 हो गई है।

महिलाओं के प्रति अपराध के इन दर्ज़ आंकड़ों में 7.40% बलात्कार, 17.66% अपहरण, 20.8% हमले तथा 31.8%पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता के हैं।

पंजीकृत अपराध की सूची में घरेलू हिंसा, अपहरण, हमला, हत्या, बलात्कार आदि सम्मिलित होते हैं।

आपको याद होगा कि 2020 में यह कहा जा रहा था कि कोविड के चलते घरेलू हिंसा में भी वृद्धि हुई है। लेकिन बढ़े हुए आँकड़े स्पष्ट बता रहे कि कोविड महामारी के बाद भी स्थिति निराशाजनक ही है।

कानून में परिवर्तन के बाद क्या अपराधी डरे?

क़तई नहीं! जिस तरह से नित नई घटनाएं सामने आ रही हैं उसे देख यह कहीं से नहीं लगता कि अपराधियों के अंदर पकड़े जाने या सजा को लेकर कोई भय है। बल्कि उन्हें तो कानून की लचरता और कच्छप गति पर दृढ़ विश्वास ही होगा जिसके सहारे हाल ही के दिनों में बलात्कारियों को रिहा कर दिया गया। यह क़माल ही है कि अपराध हुआ है पर अपराधी कोई नहीं! यह न्याय व्यवस्था का कितना कमजोर पक्ष है कि अपराधी, अपनी गलती स्वीकार भी कर ले, तब भी अदालतों में वर्षों तक केस घिसटता है। कितनी ही बार पर्याप्त साक्ष्य और साक्षी के न मिलने से दुर्दान्त अपराधी भी बच निकलता है।

पेशेवर अपराधी की तो बात ही अलग है लेकिन दुर्भाग्य से इस समय हम ऐसे पाशविक, जघन्य और बर्बरतापूर्ण व्यवहार के साक्षी भी बन रहे हैं जिसने अमानवीयता की सारी सीमाएं लांघ ली हैं। उससे भी अधिक आश्चर्य यह कि ये आम दिखने वाले ऐसे लोग हैं जिनकी क्रूरता का हम अनुमान भी नहीं लगा सकते!

*हाल ही की घटनाएं लें तो बिहार के कैमूर जिले से एक बेहद शर्मनाक  समाचार सामने आया है। इसमें एक नाबालिग छात्रा के साथ कुछ लड़कों ने दुष्कर्म किया। विद्यालय के प्रधानाध्यापक को गुजरते देख छात्रा ने बचाने की गुहार लगाई लेकिन उस शैतान ने भी उसके साथ दुष्कर्म किया।

*दिल्ली में एक महिला ने बेटे के साथ मिलकर, अपने पति की हत्या कर दी और फिर दोनों रोज अलग-अलग स्थानों पर उसके टुकड़े फेंकते रहे। यह ठीक श्रद्धा हत्याकांड जैसी ही घटना थी लेकिन सुर्खियों में नहीं छाई क्योंकि यहाँ सनसनी फैलाने को कोई आफ़ताब नहीं था।

*आजमगढ़ में प्रिंस यादव नाम के युवक ने गला दबाकर, प्रेमिका आराधना प्रजापति की हत्या कर दी। उसके बाद लाश के पांच टुकड़े कर कुंए में फेंक दिए। क्योंकि प्रिंस के विदेश जाने के बाद लड़की ने कहीं और शादी कर ली थी। अब वह उस पर शादी को खत्म करने का दवाब बना रहा था।

*शहडोल जिले के करोंदिया गांव निवासी राम किशोर पटेल ने अपनी पत्नी सरस्वती पटेल की कुल्हाड़ी से हत्या कर दी। उसके बाद उसका सिर और धड़ अलग-अलग स्थानों पर गाड़ दिया। कारण अवैध संबंध का संदेह बताया गया।

*मथुरा के पास यमुना एक्सप्रेस-वे पर सूटकेस में एक लड़की आयुषी चौधरी की लाश मिली जिसे उसके पिता ने ही मारकर फेंक दिया था। मामला ऑनर किलिंग का था।

*नवम्बर माह में ही एक और ऐसी घटना हुई जिसमें जबलपुर स्थित मेखला रिसोर्ट में एक युवक अभिजीत पाटीदार ने अपनी प्रेमिका शिल्पा झरिया की हत्या कर दी। बाद में उसी के सोशल मीडिया अकाउंट  का प्रयोग करते हुए, एक वीडियो बनाकर डाला। इसमें उसने लड़की पर ब्लैकमेलिंग का आरोप लगाया।

ये मात्र नवम्बर माह की घटनाओं की बानगी भर है, सूची अंतहीन है। तनिक विचारिए कि मीडिया का ध्यानाकर्षण केवल एक ही स्टोरी ने क्यों किया? क्या बाकियों के लिए न्याय की कोई उम्मीद नज़र आती है? अपराधी कितना डरे, उत्तर हमारे पास है।

कितना बदला समाज का रवैया?

न्यायिक व्यवस्था से असंतुष्ट होने के कारण बीते कुछ वर्षों में ऐसी कई घटनाएं  सामने आईं, जहाँ जनता ने ही अपराधी को दंड देना तय कर लिया और ‘मॉब लिंचिंग’ जैसे घातक शब्द का उदय हुआ। इस आदिम व्यवहार और मानसिकता का लाभ लेने में राजनीतिज्ञों ने जरा भी देर नहीं की और अपराधों का हिन्दू-मुस्लिमीकरण कर उन्हें अपने हित में साधना प्रारंभ कर दिया। किस मामले को कितना उठाना और कितना दबाना है, किसके नाम छुपाना और किसके चीख-चीखकर  उजागर करना है तथा किन घटनाओं पर मिट्टी डाल आगे बढ़ जाना है; उसके लिए कुछ मीडिया समूह और आई.टी. सैल पूरी तत्परता और समर्पण भाव से साथ देने को तैयार रहे ही। इसका उदाहरण ऊपर नवम्बर की घटनाओं के साथ दिया ही है।

*कई घटनाओं में तो बलात्कारी से ही विवाह कराने को न्याय की श्रेणी में रख दिया जाता है। एक बलात्कारी के साथ पूरा जीवन जीना, प्रतिदिन उस पल को जीना है जब उसके साथ दुष्कर्म किया गया था। लेकिन समाज के एक वर्ग को लगता है कि विवाह से उस लड़की का जीवन संवर गया जबकि यह स्पष्टतः एक बलात्कारी को बचाने की वैधानिक प्रक्रिया से जुड़ा उपक्रम है।  जिसमें परिवार की तथाकथित ‘नाक’ भी बचा ली जाती है।

*बहुधा मोटी धनराशि देकर मामले को रफ़ादफ़ा करने का प्रयास होता है तो कभी शिकायत दर्ज़ करने पर पूरे परिवार को नष्ट करने की धमकी दी जाती है। कहीं-कहीं ‘समाज में इज़्ज़त या स्वयं की रक्षा’ के नाम पर परिवार तैयार भी हो जाता है। उन्हें यह भय भी सालता है कि बात फैल गई तो ‘समाज में मुँह दिखाने लायक़ नहीं रहेंगे!” समझ रहे हैं न आप? यहाँ अपराधी नहीं बल्कि पीड़ित इंसान को भय है कि कहीं किसी को पता न चल जाए!

*वह ताजा उदाहरण तो आपको भी याद होगा जिसमें लगभग एक दर्ज़न बलात्कारियों को उनके ‘अच्छे व्यवहार’ के कारण स्वतंत्र कर दिया गया। उनका स्वागत हुआ एवं इन ‘अद्भुत’ पलों की आरती भी उतारी गई। तो जब तक समाज का यह दृष्टिकोण है, अपराध में कमी आने की कल्पना ही निरर्थक है।

संभवतः यही कारण है कि हमने हैरान होना तो अब छोड़ ही दिया है कि जिस देश में हर रोज बलात्कार होते हैं वहाँ तमाम कानूनों के बाद भी बलात्कारियों को सजा क्यों नहीं होती! फाँसी तो बहुत दूर की बात है। अपराधों के प्रति यह संवेदनहीनता ही एक ऐसे समाज को जन्म दे रही है जिसे अब सिवाय अपने और किसी से वास्ता नहीं रहा! वह तब ही जागरूक होगा, जब वह स्वयं प्रभावित हो या उस विषय पर दुनिया बोल रही हो। अपराधियों के हौसले इससे भी बढ़ते हैं। अतः केवल प्रार्थना ही की जा सकती है कि स्त्रियाँ, सुरक्षित रहें।

राजनीतिक दलों और मीडिया का व्यवहार 

*कभी ध्यान से टीवी के समाचार सुनिए। वहाँ सौ समाचारों के मध्य लगभग पचास अपराधों से जुड़े किस्से किसी घरेलू सामान की सूची की तरह भावहीनता से पढ़ दिए जाते हैं। ये वही मशहूर एंकर हैं जो राजनीतिक समाचारों में नथुने फुलाते घूमते हैं, प्रिय नेता और अभिनेता की बलैयां लेते नहीं अघाते! इधर अभ्यस्त दर्शक भी स्वादिष्ट खाना गटकते हुए, बड़ी ही सरलता से सब घटनाएं लील जाते हैं।

*समाचार-पत्रों में भी महिला अपराध की खबरों का जिक्र पाँचवे-छठे पृष्ठ पर कहीं कोने में कर दिया जाता है कि “पढ़ो तो ठीक, नहीं तो ऐसी भी कोई बड़ी बात नहीं इसमें!” कहने का तात्पर्य यह कि एकाध हाई प्रोफाइल/ हाईलाइटेड केस के अलावा अन्य चर्चा योग्य भी नहीं समझे जाते! न ही किसी चैनल की डिबेट का हिस्सा बनते हैं। अब बिना हिस्सा बने, न्याय तो क्या खाक ही मिलेगा!

राज्य प्रमुखों का इस बात पर प्रसन्न होना समझ आता है कि उनके शासन में अपराध दर में कमी आई है लेकिन चर्चाओं के मध्य जब प्रवक्ता अपने विरोधियों को यह सुनाकर मुस्कुराते हुए तालियाँ पीटते हैं कि “देखो! तुम्हारे यहाँ तो इतनी हत्याएं और बलात्कार हुए जबकि हमारे यहाँ तो उससे कम हैं।’ तो हृदय दुख और क्षोभ से भर उठता है। नेताओं के इस तरह के संवेदनहीन वक्तव्य से स्पष्ट है कि उनके लिए अपराध, आंकड़ा भर है और पीड़िता कोई निर्जीव पड़ी वस्तु!

हमें वे अकड़ के साथ हँसते, घूमते अपराधी नेताओं के चेहरे भी याद हैं जो कि बलात्कार करने के बाद, उस लड़की के पूरे परिवार को खत्म करने से नहीं हिचकते। कभी लड़कों से हुई गलती का नाम देकर बात को रफ़ा-दफ़ा करने की कोशिश करते हैं तो कभी उसके छोटे कपड़ों को दिखा उसके चरित्र पर ही उंगली उठा देते हैं। महिला नेताओं के चरित्र को लेकर, तथाकथित स्वामियों के विचार भी कई बार सामने आए। याद पड़ता है क्या, कि किसी मामले में इन  स्वामियों/ नेताओं का कुछ बिगड़ा हो?

क्यों बिगड़ेगा भला! जब लगभग सभी की सोच इतनी ही छिछली और बजबजाती हुई हो! इस तरह की सारी घटनाएं, सभी दलों के लिए एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने का सुनहरा मौका हैं और कुछ नहीं! कांग्रेस नेता ने बोल दिया तो बीजेपी को मजे आ गए, बीजेपी ने बोल दिया तो कांग्रेसी खेमे में खुशी की लहर दौड़ने लगती है।

दंड की मांग, हमेशा सामने वाले के लिए ही की जाती है और अपने वाले पक्ष को बचाने की कोशिशें! यही राजनीति का चरित्र है और मीडिया की मजबूरी, जिसमें हम सबको पिसते रहना है।

यूँ भी जब दृष्टि अपराध से अधिक, अपराधी के धर्म और राज्य की खोज पर हो तो समझ जाइए कि न्याय देना उनकी प्राथमिकता में है ही नहीं। केस की फ़ाइल खुलती है, बंद हो जाती है। इन सबके बीच कितनी ही निर्भयाओं की कहानी बेहिसाब दफ़न होती चली जाती है, पता भी नहीं चलता। जिस दिन अपराधी को धर्म, जाति और राजनीति से परे देखकर सजा दी जाने लगेगी, तब ही समझिएगा कि कहीं कुछ उम्मीद बाकी है। वरना स्त्री को उसका अधिकार दिलाने वाले, सम्मान की बात करने वाले, बेटी-बहन को पूजने की सोच दिखाने वाले अधिकांश स्वार्थी ढोंगी ही बैठे हैं।

बहरहाल, बात तो राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) द्वारा जारी किये गए आंकड़ों की है, जिन पर हर जगह, विस्तृत चर्चा होनी चाहिए थी। यद्यपि उन घटनाओं का हिसाब लगाना तो अभी शेष है जो घर की चारदीवारी के भीतर क़ैद हैं और कभी दर्ज़ ही न हुईं।

- प्रीति अज्ञात 

'हस्ताक्षर' दिसम्बर 2022 में प्रकाशित संपादकीय -

https://hastaksher.com/after-10-years-of-nirbhaya-incident-are-women-fearless-now-what-do-ncrb-figures-say/

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