रविवार, 26 फ़रवरी 2023

निर्भया के 10 साल बाद, कितनी निर्भय हैं स्त्रियाँ?

 

16 दिसंबर 2021 की एक घटना पुनः लिख रही हूँ जिसमें एक व्यक्ति कहता है “एक कहावत है कि यदि आप रेप रोक नहीं सकते हैं तो लेटो और मजे लो!” यह सुनकर सामने कुर्सी पर बैठा तथाकथित सम्माननीय व्यक्ति ठहाका लगाने लगता है और फिर उसका साथ देने को इस हँसी में अनगिनत भद्दी आवाजें शामिल हो जाती हैं। यह किसी C- ग्रेड फ़िल्म की पटकथा नहीं बल्कि कर्नाटक विधानसभा से प्रसारित निर्लज्जता की जीती जागती तस्वीर थी। हाँ, हम स्त्रियाँ फिर एक बार इस अश्लील हँसी पर शर्मिंदा हुईं थीं, जो गाहे-बगाहे हमारे कानों में अक्सर पड़ती ही रहती है। इन आदमियों और संभावित बलात्कारियों के बीच में कितना अंतर था, यह आप तय कीजिए! मैं इतना ही बताना चाहूँगी कि उस दिन निर्भया कांड की बरसी थी! पर इन मरी हुई आत्माओं को इससे भी क्या ही लेना-देना रहा होगा!

निर्भया कांड (16 दिसंबर 2012) अर्थात वह वीभत्स और क्रूरतम घटना जिसने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था। प्रतिक्रिया स्वरूप देश भर में धरने और जन आंदोलन हुए। इस उभरे आक्रोश के चलते बलात्कार से जुड़ी, कानून की कई धाराओं में परिवर्तन किये गए। गलत तरीके से छेड़छाड़ एवं अन्य प्रकार के यौन शोषण को भी इन धाराओं में सम्मिलित किया गया। फास्ट ट्रैक कोर्ट की आवश्यकता महसूस की गई जिसमें फैसला आने में अपेक्षाकृत कम समय लगता है। इसी वर्ष ही लैंगिक उत्पीड़न से बच्चों के संरक्षण हेतु पॉक्सो एक्ट 2012 अस्तित्व में आया। साथ ही जुवेनाइल जस्टिस बिल भी पास हुआ।

कहने को तो निर्भया के अपराधियों को 20 मार्च 2020 को फ़ांसी की सजा मिली लेकिन अब जबकि इस माह उस अमानवीय घटना के दस वर्ष पूर्ण हो रहे हैं तो मन में बार-बार यह प्रश्न उठ रहा है कि निर्भया के 10 साल बाद, कितनी निर्भय हैं स्त्रियाँ?

सतही तौर पर तो तस्वीर उजली ही नज़र आती है पर जरा यह भी जान लें –

क्या कहते हैं आँकड़े?

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की इस वर्ष (2022) जारी रिपोर्ट में बताया गया है कि महिलाओं के विरुद्ध अपराध की दर जो  कि 2020 में 56.5% थी, 2021 में वह बढ़कर 64.5 % हो गई है। यह दर प्रति 1 लाख जनसंख्या पर घटनाओं की संख्या के आधार पर निकाली जाती है।

इसके अनुसार वर्ष 2020 में महिलाओं के विरुद्ध अपराध के 3,71,503 मामले सामने आए थे जबकि 2021 में 4,28,278 मामले पंजीकृत किए गए। इसमें बलात्कार की पंजीकृत घटनाओं में 13% वृद्धि हुई है। वर्ष 2020 में यह संख्या 28,046 थी जो कि वर्ष 2021 में बढ़कर 31,677 हो गई है।

महिलाओं के प्रति अपराध के इन दर्ज़ आंकड़ों में 7.40% बलात्कार, 17.66% अपहरण, 20.8% हमले तथा 31.8%पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता के हैं।

पंजीकृत अपराध की सूची में घरेलू हिंसा, अपहरण, हमला, हत्या, बलात्कार आदि सम्मिलित होते हैं।

आपको याद होगा कि 2020 में यह कहा जा रहा था कि कोविड के चलते घरेलू हिंसा में भी वृद्धि हुई है। लेकिन बढ़े हुए आँकड़े स्पष्ट बता रहे कि कोविड महामारी के बाद भी स्थिति निराशाजनक ही है।

कानून में परिवर्तन के बाद क्या अपराधी डरे?

क़तई नहीं! जिस तरह से नित नई घटनाएं सामने आ रही हैं उसे देख यह कहीं से नहीं लगता कि अपराधियों के अंदर पकड़े जाने या सजा को लेकर कोई भय है। बल्कि उन्हें तो कानून की लचरता और कच्छप गति पर दृढ़ विश्वास ही होगा जिसके सहारे हाल ही के दिनों में बलात्कारियों को रिहा कर दिया गया। यह क़माल ही है कि अपराध हुआ है पर अपराधी कोई नहीं! यह न्याय व्यवस्था का कितना कमजोर पक्ष है कि अपराधी, अपनी गलती स्वीकार भी कर ले, तब भी अदालतों में वर्षों तक केस घिसटता है। कितनी ही बार पर्याप्त साक्ष्य और साक्षी के न मिलने से दुर्दान्त अपराधी भी बच निकलता है।

पेशेवर अपराधी की तो बात ही अलग है लेकिन दुर्भाग्य से इस समय हम ऐसे पाशविक, जघन्य और बर्बरतापूर्ण व्यवहार के साक्षी भी बन रहे हैं जिसने अमानवीयता की सारी सीमाएं लांघ ली हैं। उससे भी अधिक आश्चर्य यह कि ये आम दिखने वाले ऐसे लोग हैं जिनकी क्रूरता का हम अनुमान भी नहीं लगा सकते!

*हाल ही की घटनाएं लें तो बिहार के कैमूर जिले से एक बेहद शर्मनाक  समाचार सामने आया है। इसमें एक नाबालिग छात्रा के साथ कुछ लड़कों ने दुष्कर्म किया। विद्यालय के प्रधानाध्यापक को गुजरते देख छात्रा ने बचाने की गुहार लगाई लेकिन उस शैतान ने भी उसके साथ दुष्कर्म किया।

*दिल्ली में एक महिला ने बेटे के साथ मिलकर, अपने पति की हत्या कर दी और फिर दोनों रोज अलग-अलग स्थानों पर उसके टुकड़े फेंकते रहे। यह ठीक श्रद्धा हत्याकांड जैसी ही घटना थी लेकिन सुर्खियों में नहीं छाई क्योंकि यहाँ सनसनी फैलाने को कोई आफ़ताब नहीं था।

*आजमगढ़ में प्रिंस यादव नाम के युवक ने गला दबाकर, प्रेमिका आराधना प्रजापति की हत्या कर दी। उसके बाद लाश के पांच टुकड़े कर कुंए में फेंक दिए। क्योंकि प्रिंस के विदेश जाने के बाद लड़की ने कहीं और शादी कर ली थी। अब वह उस पर शादी को खत्म करने का दवाब बना रहा था।

*शहडोल जिले के करोंदिया गांव निवासी राम किशोर पटेल ने अपनी पत्नी सरस्वती पटेल की कुल्हाड़ी से हत्या कर दी। उसके बाद उसका सिर और धड़ अलग-अलग स्थानों पर गाड़ दिया। कारण अवैध संबंध का संदेह बताया गया।

*मथुरा के पास यमुना एक्सप्रेस-वे पर सूटकेस में एक लड़की आयुषी चौधरी की लाश मिली जिसे उसके पिता ने ही मारकर फेंक दिया था। मामला ऑनर किलिंग का था।

*नवम्बर माह में ही एक और ऐसी घटना हुई जिसमें जबलपुर स्थित मेखला रिसोर्ट में एक युवक अभिजीत पाटीदार ने अपनी प्रेमिका शिल्पा झरिया की हत्या कर दी। बाद में उसी के सोशल मीडिया अकाउंट  का प्रयोग करते हुए, एक वीडियो बनाकर डाला। इसमें उसने लड़की पर ब्लैकमेलिंग का आरोप लगाया।

ये मात्र नवम्बर माह की घटनाओं की बानगी भर है, सूची अंतहीन है। तनिक विचारिए कि मीडिया का ध्यानाकर्षण केवल एक ही स्टोरी ने क्यों किया? क्या बाकियों के लिए न्याय की कोई उम्मीद नज़र आती है? अपराधी कितना डरे, उत्तर हमारे पास है।

कितना बदला समाज का रवैया?

न्यायिक व्यवस्था से असंतुष्ट होने के कारण बीते कुछ वर्षों में ऐसी कई घटनाएं  सामने आईं, जहाँ जनता ने ही अपराधी को दंड देना तय कर लिया और ‘मॉब लिंचिंग’ जैसे घातक शब्द का उदय हुआ। इस आदिम व्यवहार और मानसिकता का लाभ लेने में राजनीतिज्ञों ने जरा भी देर नहीं की और अपराधों का हिन्दू-मुस्लिमीकरण कर उन्हें अपने हित में साधना प्रारंभ कर दिया। किस मामले को कितना उठाना और कितना दबाना है, किसके नाम छुपाना और किसके चीख-चीखकर  उजागर करना है तथा किन घटनाओं पर मिट्टी डाल आगे बढ़ जाना है; उसके लिए कुछ मीडिया समूह और आई.टी. सैल पूरी तत्परता और समर्पण भाव से साथ देने को तैयार रहे ही। इसका उदाहरण ऊपर नवम्बर की घटनाओं के साथ दिया ही है।

*कई घटनाओं में तो बलात्कारी से ही विवाह कराने को न्याय की श्रेणी में रख दिया जाता है। एक बलात्कारी के साथ पूरा जीवन जीना, प्रतिदिन उस पल को जीना है जब उसके साथ दुष्कर्म किया गया था। लेकिन समाज के एक वर्ग को लगता है कि विवाह से उस लड़की का जीवन संवर गया जबकि यह स्पष्टतः एक बलात्कारी को बचाने की वैधानिक प्रक्रिया से जुड़ा उपक्रम है।  जिसमें परिवार की तथाकथित ‘नाक’ भी बचा ली जाती है।

*बहुधा मोटी धनराशि देकर मामले को रफ़ादफ़ा करने का प्रयास होता है तो कभी शिकायत दर्ज़ करने पर पूरे परिवार को नष्ट करने की धमकी दी जाती है। कहीं-कहीं ‘समाज में इज़्ज़त या स्वयं की रक्षा’ के नाम पर परिवार तैयार भी हो जाता है। उन्हें यह भय भी सालता है कि बात फैल गई तो ‘समाज में मुँह दिखाने लायक़ नहीं रहेंगे!” समझ रहे हैं न आप? यहाँ अपराधी नहीं बल्कि पीड़ित इंसान को भय है कि कहीं किसी को पता न चल जाए!

*वह ताजा उदाहरण तो आपको भी याद होगा जिसमें लगभग एक दर्ज़न बलात्कारियों को उनके ‘अच्छे व्यवहार’ के कारण स्वतंत्र कर दिया गया। उनका स्वागत हुआ एवं इन ‘अद्भुत’ पलों की आरती भी उतारी गई। तो जब तक समाज का यह दृष्टिकोण है, अपराध में कमी आने की कल्पना ही निरर्थक है।

संभवतः यही कारण है कि हमने हैरान होना तो अब छोड़ ही दिया है कि जिस देश में हर रोज बलात्कार होते हैं वहाँ तमाम कानूनों के बाद भी बलात्कारियों को सजा क्यों नहीं होती! फाँसी तो बहुत दूर की बात है। अपराधों के प्रति यह संवेदनहीनता ही एक ऐसे समाज को जन्म दे रही है जिसे अब सिवाय अपने और किसी से वास्ता नहीं रहा! वह तब ही जागरूक होगा, जब वह स्वयं प्रभावित हो या उस विषय पर दुनिया बोल रही हो। अपराधियों के हौसले इससे भी बढ़ते हैं। अतः केवल प्रार्थना ही की जा सकती है कि स्त्रियाँ, सुरक्षित रहें।

राजनीतिक दलों और मीडिया का व्यवहार 

*कभी ध्यान से टीवी के समाचार सुनिए। वहाँ सौ समाचारों के मध्य लगभग पचास अपराधों से जुड़े किस्से किसी घरेलू सामान की सूची की तरह भावहीनता से पढ़ दिए जाते हैं। ये वही मशहूर एंकर हैं जो राजनीतिक समाचारों में नथुने फुलाते घूमते हैं, प्रिय नेता और अभिनेता की बलैयां लेते नहीं अघाते! इधर अभ्यस्त दर्शक भी स्वादिष्ट खाना गटकते हुए, बड़ी ही सरलता से सब घटनाएं लील जाते हैं।

*समाचार-पत्रों में भी महिला अपराध की खबरों का जिक्र पाँचवे-छठे पृष्ठ पर कहीं कोने में कर दिया जाता है कि “पढ़ो तो ठीक, नहीं तो ऐसी भी कोई बड़ी बात नहीं इसमें!” कहने का तात्पर्य यह कि एकाध हाई प्रोफाइल/ हाईलाइटेड केस के अलावा अन्य चर्चा योग्य भी नहीं समझे जाते! न ही किसी चैनल की डिबेट का हिस्सा बनते हैं। अब बिना हिस्सा बने, न्याय तो क्या खाक ही मिलेगा!

राज्य प्रमुखों का इस बात पर प्रसन्न होना समझ आता है कि उनके शासन में अपराध दर में कमी आई है लेकिन चर्चाओं के मध्य जब प्रवक्ता अपने विरोधियों को यह सुनाकर मुस्कुराते हुए तालियाँ पीटते हैं कि “देखो! तुम्हारे यहाँ तो इतनी हत्याएं और बलात्कार हुए जबकि हमारे यहाँ तो उससे कम हैं।’ तो हृदय दुख और क्षोभ से भर उठता है। नेताओं के इस तरह के संवेदनहीन वक्तव्य से स्पष्ट है कि उनके लिए अपराध, आंकड़ा भर है और पीड़िता कोई निर्जीव पड़ी वस्तु!

हमें वे अकड़ के साथ हँसते, घूमते अपराधी नेताओं के चेहरे भी याद हैं जो कि बलात्कार करने के बाद, उस लड़की के पूरे परिवार को खत्म करने से नहीं हिचकते। कभी लड़कों से हुई गलती का नाम देकर बात को रफ़ा-दफ़ा करने की कोशिश करते हैं तो कभी उसके छोटे कपड़ों को दिखा उसके चरित्र पर ही उंगली उठा देते हैं। महिला नेताओं के चरित्र को लेकर, तथाकथित स्वामियों के विचार भी कई बार सामने आए। याद पड़ता है क्या, कि किसी मामले में इन  स्वामियों/ नेताओं का कुछ बिगड़ा हो?

क्यों बिगड़ेगा भला! जब लगभग सभी की सोच इतनी ही छिछली और बजबजाती हुई हो! इस तरह की सारी घटनाएं, सभी दलों के लिए एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने का सुनहरा मौका हैं और कुछ नहीं! कांग्रेस नेता ने बोल दिया तो बीजेपी को मजे आ गए, बीजेपी ने बोल दिया तो कांग्रेसी खेमे में खुशी की लहर दौड़ने लगती है।

दंड की मांग, हमेशा सामने वाले के लिए ही की जाती है और अपने वाले पक्ष को बचाने की कोशिशें! यही राजनीति का चरित्र है और मीडिया की मजबूरी, जिसमें हम सबको पिसते रहना है।

यूँ भी जब दृष्टि अपराध से अधिक, अपराधी के धर्म और राज्य की खोज पर हो तो समझ जाइए कि न्याय देना उनकी प्राथमिकता में है ही नहीं। केस की फ़ाइल खुलती है, बंद हो जाती है। इन सबके बीच कितनी ही निर्भयाओं की कहानी बेहिसाब दफ़न होती चली जाती है, पता भी नहीं चलता। जिस दिन अपराधी को धर्म, जाति और राजनीति से परे देखकर सजा दी जाने लगेगी, तब ही समझिएगा कि कहीं कुछ उम्मीद बाकी है। वरना स्त्री को उसका अधिकार दिलाने वाले, सम्मान की बात करने वाले, बेटी-बहन को पूजने की सोच दिखाने वाले अधिकांश स्वार्थी ढोंगी ही बैठे हैं।

बहरहाल, बात तो राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) द्वारा जारी किये गए आंकड़ों की है, जिन पर हर जगह, विस्तृत चर्चा होनी चाहिए थी। यद्यपि उन घटनाओं का हिसाब लगाना तो अभी शेष है जो घर की चारदीवारी के भीतर क़ैद हैं और कभी दर्ज़ ही न हुईं।

- प्रीति अज्ञात 

'हस्ताक्षर' दिसम्बर 2022 में प्रकाशित संपादकीय -

https://hastaksher.com/after-10-years-of-nirbhaya-incident-are-women-fearless-now-what-do-ncrb-figures-say/

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