शनिवार, 26 जनवरी 2019

#गणतंत्र_दिवस

एक पुरानी फ़िलम है 'गोलमाल',अपने अमोल पालेकर वाली. उसके सपने वाले गाने में एक बड़ी क्यूट लाइन है..."इक दिन सपने में देखी सपनी"..... तो आज हमने भी एक सपनी देखी कि हम स्कूल के बच्चों की उस लाइन में खड़े हैं जो बूँदी के लड्डू पाने को अपनी बारी की बड़ी अधीरता से प्रतीक्षा कर रहे हैं.
आँख खुली तो इधर घर के सदस्य इस प्रतीक्षा में थे कि महारानी उठें तो चाय नसीब हो! 😂उस पर बेटी ने भी याद दिलाया कि हाफ डे है सो स्कूल में फुल मील की बजाय टिफ़िन भी आधा ही चाहिए. अपन भी गणतंत्र दिवस की भोर में आलू का पराँठा बनाने किचन को प्राप्त हुए.😎
आप सबको गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएँ और छुट्टी की असीम बधाई. साथ ही उन लोगों के प्रति भी हार्दिक संवेदनाएँ व्यक्त करती हूँ जो गणतंत्र दिवस, फ़ोर्थ सैटरडे के दिन पड़ने के कारण एक छुट्टी डूबने के सदमे से अब तक उबर नहीं सके हैं. भई, अभी तो अउर डूबना है 😜.....छुटंकी गुमटी से लेकर amazon तक सब SALE लगाये बैठे हैं. सुनो, अब नहा-धोकर शॉपिंग को निकल ही लो...देशभक्ति के सुर में डूबा ये समां कहाँ रोज-रोज देखने को मिलता है! झंडा है, गुब्बारे हैं, कप हैं और इस बार तो बड़ी प्यारी कैप भी launch हुई है. फोटू लगाए हैं. 😍
- प्रीति 'अज्ञात' 
#गणतंत्र_दिवस #Republic_day

रविवार, 13 जनवरी 2019

#मकरसंक्रांति #उत्तरायण

संक्रांति के पावन पर्व पर जहाँ आसमान में लहराती, बलखाती हजारों पतंगें एक ख़ूबसूरत तस्वीर जड़ती हैं वहीं पक्षियों के बीच एक अजीब क़िस्म की बदहवासी फ़ैल जाती है. कई-कई दिन ये इमारतों की मुंडेरों से चिपक सहमे बैठ जाते हैं और जो हिम्मत कर निकलते भी हैं तो उनके सुरक्षित लौट आने की सम्भावना प्रायः कम ही होती है. जनवरी माह इन पक्षियों के लिए सबसे मनहूस समय होता है. जहाँ दाना-पानी की तलाश में सुबह को निकले ये मासूम मुसाफ़िर शाम को घर लौट ही नहीं पाते! इनके टूटे-फूटे, कटे पंख, क्षतविक्षत शरीर और उससे बहता लहू मनुष्य की उमंग और उत्साह की बलिवेदी पर प्रतिदिन क़ुर्बान होता है.  उल्लास और मेल-मिलाप में भरे हम मनुष्य छत पर पतंग उड़ा पूरी, मिठाई और तिल के बने विविध व्यंजनों का सेवन करते हैं और इधर किसी घोंसले में अंडे से झाँकते नन्हे चूज़े प्रतीक्षा की आँख आसमां पर टिका किसी और लोक की ओर भूखे ही प्रस्थान कर जाते हैं. हमें इनका भी सोचना है जो सुबह की पहली धूप के साथ हमारे आँगन में चहचहाहट बन उतरते हैं, जो किसी बच्चे की तरह खिड़कियों से लटक सैकड़ों करतब किया करते हैं, जो अलगनी को अपने बाग़ का झूला समझ दिन-रात फुदकते हैं.

पक्षियों के बिना ये दुनिया कैसी सन्नाटे भरी होगी, इसकी कल्पनामात्र सिहरा देने के लिए काफ़ी है. हमने तालाबों का पानी चुरा लिया, नदियों को विषैला कर दिया, बारिश से उसके हिस्से की माटी छीन उस जमीं पर सीमेंट-कंक्रीट से भर अपना पट्टा लगा लिया, जंगलों को ऊँची इमारतों की तस्वीर दे दी, प्रकृति का जितना और जिस हद तक शोषण कर सकते थे, किया. अब हमारे पास अपना कहने को ज्यादा कुछ शेष नहीं है. आसमां पर दीवारें खड़ी हो सकतीं तो अब तक इसका भी बँटवारा हो गया होता! ये मासूम पक्षी ही हैं जो सबके आँगन में एक सी ख़ुशी लेकर उतरते हैं, हर वृक्ष को अपना घर समझ हमारी सुबह-शाम रोशन करते हैं. इनकी राहें उसी आसमां से होकर गुजरती हैं जहाँ हम काँच लगे मांज़े का नेटवर्क बिछाते हुए पल भर भी नहीं हिचकते!

मैं पतंग उड़ाने या उत्सव को पूरे हर्षोल्लास से मनाने का पूरी तरह समर्थन करती हूँ पर हर वर्ष यह पतंगबाज़ी कितने निर्दोष पक्षियों को घायल करती है, उनकी जान ले लेती है; इस बात से भी वाकिफ़ हूँ. दुपहिया वाहनों या पैदल चलते राहगीरों के लिए भी ये कई बार जानलेवा साबित होता है और पतंग लूटते हुए बच्चों की दुर्घटनाओं के हृदयविदारक किस्से भी हर बार सामने आते हैं. इनमें से कई घटनाओं को सावधान रहने और बच्चों को समझाने भर से रोका जा सकता है. जहाँ तक पक्षियों और नागरिकों की सुरक्षा का प्रश्न है तो निम्नलिखित बातों को अपनाकर हादसों को कम किया जा सकता है -

सुबह और शाम के समय पतंग उड़ाने से बचा जाए क्योंकि यह पक्षियों की आवाजाही का समय होता है. 
काँच लगा मांज़ा इस्तेमाल न करें. 
उड़ाते समय यदि कोई पक्षी इसकी चपेट में आ जाता है तो डोर खींचने की बजाय ढीली छोड़ दें.
घायल पक्षियों की रक्षा/ देखभाल करने वाली संस्थाओं के संपर्क नंबर अपने पास रखें. 
टू-व्हीलर पर लोहे का गार्ड लगवा लें तथा वाहन चलाते समय हेलमेट पहनें. इसकी गति भी बहुत तेज न रखें. बच्चा अगर साथ में हो तो उसे आगे खड़ा न रखकर पीछे ही बिठाएँ. 
पैदल चलते समय अपनी गर्दन और सिर पर दुपट्टा/मफ़लर लपेट लें.
बहुत आवश्यक हो तो ही बाहर निकलें. 
यह सब सुनिश्चित करने के बाद पूरी, जलेबी, उंधियु और तिल के बने स्वादिष्ट व्यंजनों का अपने परिवार और मित्रों के साथ भरपूर स्वाद लें. त्योहार को पूरे जोश और उल्लास के साथ मनायें.
मकर संक्रांति की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
- प्रीति 'अज्ञात' 

#savebirds #rescue #uttarayan #safeuttarayan #makarsankranti #14Jan2019 #Preetiagyaat #प्रीतिअज्ञात

#मकरसंक्रांति और पक्षी #Rescued



परसों सुबह की ही बात है. बालकनी में बैठ मम्मी से फ़ोन पर बात कर रही थी कि अचानक नज़र बिजली के तार से झूलते एक कबूतर पर पड़ी, जो कि बुरी तरह से मांज़े में फँसा हुआ था. उसके शरीर में कोई भी हरक़त नहीं हो रही थी. एक पल को तो लगा शायद वह जीवित ही नहीं! यह सोच भी मुझे काफ़ी घबराहट दे रही थी. दौड़कर नीचे गई और मेरी बेटी को बताते हुए घर के बाहर निकल गई. तार इतना ऊँचा था कि सबसे बड़े वाले स्टूल के ऊपर खड़े होकर भी हम वहाँ नहीं पहुँच सकते थे. तभी हमने देखा कि मांज़े का दूसरा हिस्सा भी लटक रहा है. थोड़ी उम्मीद बंधी और मैंने धीरे से उसे नीचे खींचा. खींचते ही कबूतर इतनी बुरी तरह फड़फड़ाया कि हमारे तो होश ही उड़ गए और लगा कि शायद खींचने से उसकी गर्दन पर दबाव और बढ़ रहा है. फिर दोबारा ऐसा करने की हिम्मत ही न हुई. तब तक अड़ोस-पड़ोस के दरवाजे-खिड़कियों से लोगों का झाँकना प्रारंभ हो चुका था. कुछ बर्ड रेस्क्यू टीम को बुलाने की सलाह भी दे रहे थे जो कि उचित भी थी. पर उस समय किसी को कॉल लगाना भी समय नष्ट करने जैसा लग रहा था क्योंकि यह कबूतर काफ़ी देर से जूझ रहा था.

उसे कितना दर्द हो रहा था, इसका अनुमान लगा पाना भी बेहद मुश्किल था क्योंकि मूलतः कबूतर अत्यंत  शांत स्वभाव के पक्षी होते हैं और जितना मुझे याद आता है उसके आधार पर मैंने इन्हें कभी भी चिल्लाते हुए नहीं देखा. बिल्ली को देखकर जहाँ सभी पक्षी चींचीं कर सारा घर सर पर उठा लेते हैं और उस दुष्ट बिल्ली को भगाने तुरंत आना ही पड़ता है, तब भी मैंने इन कबूतरों को बस सहमा हुआ ही पाया. सच कहूँ तो प्यारी गुटरगूं के अलावा मैंने इनकी कोई अन्य आवाज कभी सुनी ही नहीं अब तक. इनकी आँखों में बला की मासूमियत और चाल में एक विशेष अदा सदा ही मेरा मन लुभाती आई है. आज वही पिज्जू इतनी परेशानी में था.

तभी सामने एक महिला दिखाई दीं, वे मुझे ही आवाज देकर पूछ रहीं थीं कि "बेन, क्या हुआ?" मॉर्निंग वाक के लिए जाते समय ये अक्सर गायों को घुमाती हुई दिखती हैं. यूँ हम एक-दूसरे के नाम नहीं जानते पर हमारे बीच एक मुस्कुराहट का आदान-प्रदान हुआ करता है. बस, यही मुस्कान का रिश्ता आज पुकार बन सामने था.
मैं कुछ जवाब देती तब तक वे आकर वस्तुस्थिति समझ चुकी थीं. बिना डरे, उन्होंने मांज़े को झटका दिया और वो कबूतर उसी फँसी हुई अवस्था में मांज़े के साथ नीचे की ओर गिरने लगा जिसे उनके मजबूत हाथों ने बेहद सलीक़े से थाम लिया. तब तक बेटी घर से कैंची ले आई थी. पहले तो पिज्जू भयभीत था और फड़फड़ा रहा था पर बाद में समझ गया और एक-एक करके उसके पंखों, पैरों, गर्दन में लिपटी डोरियों को चुपचाप हटवाता रहा. गले में दो फंदे इतने टाइट थे कि हम तीनों में से कोई वहाँ कट कर ही नहीं पा रहा था. तभी दो बाइक सवार वहाँ से निकले और स्वतः ही रुक गये. उनकी सहायता से पिज्जू अब स्वतंत्र हो चुका था. कुछ सेकंड्स हथेली में रहने के बाद उसने पुनः अपनी उड़ान भरी.

लगभग 50 मिनट चले इस रेस्क्यू ऑपरेशन का सुखद अंत बेहद सुकून भरा अवश्य था पर ये भी जानती हूँ कि हर बार ऐसा नहीं होता!
- प्रीति 'अज्ञात' 

#विश्व_पुस्तक_मेला

लेखकों की दुनिया में 'विश्व पुस्तक मेला' एक बहुत बड़ा आयोजन माना जाता है. लेखक, प्रकाशक, पाठक तीनों से यदि एक साथ मुलाक़ात करनी हो तो इससे बेहतर कोई स्थान नहीं! पुस्तकों के विमोचन और प्रचार-प्रसार के साथ अलग-अलग शहरों में रहने वाले मित्रों से एक साथ मिल पाना भी यही संभव है. इसी कारण इस मेले को लेकर ख़ासा उत्साह बना रहता है. सोशल मीडिया पर भी 9-10 दिनों तक इसकी ख़ूब धूम मची रहती है.

लेकिन दिल्ली से बाहर के लोगों के लिए पुस्तक मेले में जाना बिटिया के ब्याह जैसा है. पहले तो सभी उपलब्ध शुभ तिथियों में से एक को चुनकर दिवस सुनिश्चित किया जाता है. उसके बाद जान-पहचान वालों, दूर-पास के रिश्तेदार, मित्र आदि को इसकी पूर्व सूचना दे दी जाती है. तत्पश्चात विविध प्रसंगों और मौसम के हिसाब से वस्त्रों का चयन होता है. महिलाओं को ब्यूटी पार्लर जाना पड़ता है तो पुरुष भी युवाओं की श्रेणी में पिछले 50 वर्षों से अपना स्थान पक्का करते हुए इस बार भी स्लेटी बालों को काले में बदलने हेतु गार्नियर men का डिब्बा चुपके से ख़रीद लाते हैं. सेलेब्रिटी लुक को प्राथमिकता देने के बाद अब कुछ लोगों को इस बात की परेशानी से भी दो-चार होना पड़ता है कि गोष्ठी में ऐसा क्या धांसू पढ़ें कि श्रोताओं की आँखों से आँसू बहने लगें.

जुगाड़-तंत्र और अव्यवस्था के विरुद्ध क्रांतिकारी पोस्टों से पाठकों का सीना छलनी कर उन्हें भावुकता के सागर में डुबोने वाले साहित्यकार तय रचनाओं के अतिरिक्त अपनी 8 अन्य रचनाएँ उन गोष्ठियों के लिए बैकअप में रखते हैं जहाँ बिन बुलाये बेधड़क घुसा जा सकता है. उपहारस्वरुप देने के लिए अपनी उन पुस्तकों का Gift wrap बना गट्ठर तैयार कर लिया जाता है जिनके प्रकाशक महोदय इस बार stall लगाने की भारी-भरकम राशि देने में असमर्थ रहे. ये ठीक वैसा ही है जैसे कि कोई बड़ा-बूढ़ा अस्वस्थता के कारण ब्याह में न जाने पर लिफ़ाफ़ा भिजवा दिया करता है.

इन सारी तैयारियों के बाद घटनास्थल से सीधा प्रसारण प्रारंभ होता है. प्रथम चरण में रेलवे स्टेशन या एअरपोर्ट के विहंगम दृश्य के साथ कुछ पंक्तियाँ नज़र आती हैं जिन्हें पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि यहाँ तक आने के लिए इस इंसान ने जिन भीषण कठिनाइयों का सामना किया, उतना तो देश को आज़ाद कराते वक़्त हमारे परमपूज्य स्वतंत्रता सेनानियों को भी नहीं हुआ होगा. सहानुभूति और प्रेम की ठंडी छाँव से भरी प्रतिक्रियाएँ यह सुनिश्चित कर पाने में सफ़ल होती हैं कि कौन-कौन उससे दिल से मिलना चाहता है और कौन बच निकलना!
द्वितीय चरण में ट्रेन की बर्थ पर बैठ खाने के फोटो, मोबाइल बैटरी के ख़त्म होने के मार्मिक किस्से, टैक्सी इत्यादि बातों पर सार्थक चर्चा होती है. कभी-कभी विषयांतर हेतु बाथरूम की ख़स्ता हालत पर अफ़सोस और रेलवे का निंदा रस भी चलता है.
इन सारी प्रक्रियाओं से गुजरते हुए हौले-हौले अब ये नाजुक क़दम तृतीय चरण की ओर बढ़ते हैं और अंततः वह घड़ी आ ही जाती है जहाँ चेहरे पर हीरो-हीरोइन की माफ़िक मुस्कान धारण करते हुए गेट नंबर 7 से प्रवेश करना होता है. अरे हाँ, उससे पहले मुख्य द्वार पर लगे पुस्तक मेले के होर्डिंग के साथ चित्र खिंचाना भी प्रोटोकॉल में आता है. शादी के venue पर पहुँचकर फोटुआ नहीं खिंचाते क्या, बुड़बक?

चतुर्थ चरण में नेत्र और नेट के द्वारा संपर्क किया जाता है और एक-एक कर उन सभी के गले लग प्रसन्नता का वह भाव जागृत होता है जैसा कि अपने चचेरे, ममेरे, मौसेरे, फुफेरे भाई-बहिन को देखकर उत्पन्न होता आया है. वही हँसी, ठहाके और पीठ पर धौल जमाकर  मस्ताना कि बाक़ी लोग भी पलटकर देखने लगें. 
उसके बाद वह अमृत पेय मँगाया जाता है जो इस बंधन को सदा के लिए जोड़ देता है. जी हाँ, चाय चाय चाय.
तत्पश्चात एक stall से दूसरे stall पर फुदकने, पुस्तकें ख़रीदने, विमोचने, बड़े-छोटे, ऊँचे-नीचे सभी प्रकार के मनुष्यों के साथ सेल्फियाने का सुन्दरतम दौर चलता है.
अंतिम चरण में भारी मन और ख़ाली जेब के साथ पुस्तकों के थैले को घसीटते हुए बस पर चढ़ाने का समय आ जाता है और नम आँखों से हॉल नंबर 12-A को विदाई दी जाती है. वैसे यहाँ ये स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि मेले में इसके अलावा भी कई हॉल हैं पर चूँकि वहाँ के अपडेट नहीं दिखते तो उन्हें गिना ही नहीं जाता. जैसे घर के छोटे सदस्य भी तो शादी के समय कितनी दौड़भाग करते हैं पर मंच पर दूल्हा-दुल्हिन को निहारते, प्रशंसा करते लोगों के बीच उनका यह योगदान वीरगति को प्राप्त होता है.
और हाँ, जो टिकट कराने के बाद भी जा नहीं पाता...उसकी हालत उस इंसान की तरह होती है जिसकी सगाई होने के कुछ ही दिन बाद रिश्ता टूट गया हो. और वो अपने दुःख से दुखी होने की बजाय इस सदमे से इसलिए नहीं उबर पाता कि लोग क्या कहेंगे!
- प्रीति 'अज्ञात'
#विश्व_पुस्तक_मेला

https://www.ichowk.in/humour/world-book-fair-2019-how-people-prepare-himself-for-the-gala-event-popular-among-literature-love-known-as-book-fair/story/1/13641.html

शनिवार, 12 जनवरी 2019

विदा! एक भावुक कथा

विदा! एक भावुक कथा 

सर्दियों के नर्म मौसम में एक थकेहारे भारी-भरकम दिन के बाद, रात के ग्यारह बजे बड़े जतन से बनाई गई चाय का ढुलक जाना, उन अरमानों का भी अनायास लुढ़क जाना है, जो अदरक कूटते समय बस अभी मात्र तीन मिनट पहले ही दिमाग़ में बल्लियों उछल रहे थे. लगा जैसे तुषारापात हो गया, मस्तिष्क में घनघोर सूनामी जोर पकड़ने लगी. हर दिशा से बस एक ही सवाल गूँजने लगा, "अरे! ये कैसे हो गया?"

ये अकेली जां और क्या करती, क़ातर नज़रों से ज़मीं के आग़ोश से लिपटी उस चाय को देख बेबस आह भर मरघिल्ली आवाज़ में बच्चों को पुकारा, "कोई है!" "अरे! कोई है!" पर हमसा न तो कोई दीवाना पैदा हुआ और न ही इस भीषण दुःख की घड़ी में साथ देने कोई रजाई से बाहर ही आया. ये सर्दियाँ अच्छे-ख़ासे शख़्स को बेवफ़ा कैसे बना देती हैं, इसका बोध भी अनायास इन्हीं लम्हों में हुआ.
ख़ैर! हमारा दरद हमें ही झेलना है, इस सत्य को मन स्वीकार ही रहा था कि टूटते दिल की चारों खिड़कियों में से दर्द वाली खिड़की ने पुनश्च मुंडी घुमाकर हँसते हुए बोला,
"अब किसी से क्या बैर और कैसी रखें उम्मीद...
जिसे हमने बनाया जब 'वो' ही हमारे न हुए"  
असाहित्यिक लोगों को बताते चलें कि यहाँ 'वो' से तात्पर्य बेवफ़ा चाय के लिए है.
रोना तो बहुत जोर वाला आ रिया था पर हमने दिल को ढाँढस बँधाते हुए, ख़ाली कप पर दृष्टिपात करते हुए भरे गले से अपनी लाचारी की सुन्दर व्याख्या की -
"एक तरफ़ टूटा कप है 
दूसरी तरफ़ ज़ालिम ज़माना 
गिर जाने के बाद आसां नहीं 
उसी मदहोश चाय को बनाना" 
ताने धिन तन्नाना, ताने धिन तन्नाना...विपदा के समय rhyming वाली पंक्तियाँ मुझे अक़्सर याद आती हैं, हाय राम! अब इतने टेलेंट का मैं क्या करूँ? किधर जाऊँ?
अंत में गुरुश्रेष्ठ से बस इतना ही कह माफ़ी चाहूँगी -
"माफ़ कर देना मुझे अब ए ग़ालिब 
तुझे याद कर लेनी थी जो महक़ती ग़र्म चुस्कियाँ
वो डिज़ाइनर धारा बन इधर-उधर बहती रहीं 
इधर हम पोंछा थाम बस ठंडी सिसकियाँ भरते रहे"
उफ़्फ़्फ़.....अब और न कुछ कह पायेंगे!
विदा! 
Moral: जलने, कारपेट ख़राब होने, कप के टूटने से कहीं ज्यादा painful है, चाय का फ़ैल जाना. 
- प्रीति 'अज्ञात'