रविवार, 13 जनवरी 2019

#विश्व_पुस्तक_मेला

लेखकों की दुनिया में 'विश्व पुस्तक मेला' एक बहुत बड़ा आयोजन माना जाता है. लेखक, प्रकाशक, पाठक तीनों से यदि एक साथ मुलाक़ात करनी हो तो इससे बेहतर कोई स्थान नहीं! पुस्तकों के विमोचन और प्रचार-प्रसार के साथ अलग-अलग शहरों में रहने वाले मित्रों से एक साथ मिल पाना भी यही संभव है. इसी कारण इस मेले को लेकर ख़ासा उत्साह बना रहता है. सोशल मीडिया पर भी 9-10 दिनों तक इसकी ख़ूब धूम मची रहती है.

लेकिन दिल्ली से बाहर के लोगों के लिए पुस्तक मेले में जाना बिटिया के ब्याह जैसा है. पहले तो सभी उपलब्ध शुभ तिथियों में से एक को चुनकर दिवस सुनिश्चित किया जाता है. उसके बाद जान-पहचान वालों, दूर-पास के रिश्तेदार, मित्र आदि को इसकी पूर्व सूचना दे दी जाती है. तत्पश्चात विविध प्रसंगों और मौसम के हिसाब से वस्त्रों का चयन होता है. महिलाओं को ब्यूटी पार्लर जाना पड़ता है तो पुरुष भी युवाओं की श्रेणी में पिछले 50 वर्षों से अपना स्थान पक्का करते हुए इस बार भी स्लेटी बालों को काले में बदलने हेतु गार्नियर men का डिब्बा चुपके से ख़रीद लाते हैं. सेलेब्रिटी लुक को प्राथमिकता देने के बाद अब कुछ लोगों को इस बात की परेशानी से भी दो-चार होना पड़ता है कि गोष्ठी में ऐसा क्या धांसू पढ़ें कि श्रोताओं की आँखों से आँसू बहने लगें.

जुगाड़-तंत्र और अव्यवस्था के विरुद्ध क्रांतिकारी पोस्टों से पाठकों का सीना छलनी कर उन्हें भावुकता के सागर में डुबोने वाले साहित्यकार तय रचनाओं के अतिरिक्त अपनी 8 अन्य रचनाएँ उन गोष्ठियों के लिए बैकअप में रखते हैं जहाँ बिन बुलाये बेधड़क घुसा जा सकता है. उपहारस्वरुप देने के लिए अपनी उन पुस्तकों का Gift wrap बना गट्ठर तैयार कर लिया जाता है जिनके प्रकाशक महोदय इस बार stall लगाने की भारी-भरकम राशि देने में असमर्थ रहे. ये ठीक वैसा ही है जैसे कि कोई बड़ा-बूढ़ा अस्वस्थता के कारण ब्याह में न जाने पर लिफ़ाफ़ा भिजवा दिया करता है.

इन सारी तैयारियों के बाद घटनास्थल से सीधा प्रसारण प्रारंभ होता है. प्रथम चरण में रेलवे स्टेशन या एअरपोर्ट के विहंगम दृश्य के साथ कुछ पंक्तियाँ नज़र आती हैं जिन्हें पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि यहाँ तक आने के लिए इस इंसान ने जिन भीषण कठिनाइयों का सामना किया, उतना तो देश को आज़ाद कराते वक़्त हमारे परमपूज्य स्वतंत्रता सेनानियों को भी नहीं हुआ होगा. सहानुभूति और प्रेम की ठंडी छाँव से भरी प्रतिक्रियाएँ यह सुनिश्चित कर पाने में सफ़ल होती हैं कि कौन-कौन उससे दिल से मिलना चाहता है और कौन बच निकलना!
द्वितीय चरण में ट्रेन की बर्थ पर बैठ खाने के फोटो, मोबाइल बैटरी के ख़त्म होने के मार्मिक किस्से, टैक्सी इत्यादि बातों पर सार्थक चर्चा होती है. कभी-कभी विषयांतर हेतु बाथरूम की ख़स्ता हालत पर अफ़सोस और रेलवे का निंदा रस भी चलता है.
इन सारी प्रक्रियाओं से गुजरते हुए हौले-हौले अब ये नाजुक क़दम तृतीय चरण की ओर बढ़ते हैं और अंततः वह घड़ी आ ही जाती है जहाँ चेहरे पर हीरो-हीरोइन की माफ़िक मुस्कान धारण करते हुए गेट नंबर 7 से प्रवेश करना होता है. अरे हाँ, उससे पहले मुख्य द्वार पर लगे पुस्तक मेले के होर्डिंग के साथ चित्र खिंचाना भी प्रोटोकॉल में आता है. शादी के venue पर पहुँचकर फोटुआ नहीं खिंचाते क्या, बुड़बक?

चतुर्थ चरण में नेत्र और नेट के द्वारा संपर्क किया जाता है और एक-एक कर उन सभी के गले लग प्रसन्नता का वह भाव जागृत होता है जैसा कि अपने चचेरे, ममेरे, मौसेरे, फुफेरे भाई-बहिन को देखकर उत्पन्न होता आया है. वही हँसी, ठहाके और पीठ पर धौल जमाकर  मस्ताना कि बाक़ी लोग भी पलटकर देखने लगें. 
उसके बाद वह अमृत पेय मँगाया जाता है जो इस बंधन को सदा के लिए जोड़ देता है. जी हाँ, चाय चाय चाय.
तत्पश्चात एक stall से दूसरे stall पर फुदकने, पुस्तकें ख़रीदने, विमोचने, बड़े-छोटे, ऊँचे-नीचे सभी प्रकार के मनुष्यों के साथ सेल्फियाने का सुन्दरतम दौर चलता है.
अंतिम चरण में भारी मन और ख़ाली जेब के साथ पुस्तकों के थैले को घसीटते हुए बस पर चढ़ाने का समय आ जाता है और नम आँखों से हॉल नंबर 12-A को विदाई दी जाती है. वैसे यहाँ ये स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि मेले में इसके अलावा भी कई हॉल हैं पर चूँकि वहाँ के अपडेट नहीं दिखते तो उन्हें गिना ही नहीं जाता. जैसे घर के छोटे सदस्य भी तो शादी के समय कितनी दौड़भाग करते हैं पर मंच पर दूल्हा-दुल्हिन को निहारते, प्रशंसा करते लोगों के बीच उनका यह योगदान वीरगति को प्राप्त होता है.
और हाँ, जो टिकट कराने के बाद भी जा नहीं पाता...उसकी हालत उस इंसान की तरह होती है जिसकी सगाई होने के कुछ ही दिन बाद रिश्ता टूट गया हो. और वो अपने दुःख से दुखी होने की बजाय इस सदमे से इसलिए नहीं उबर पाता कि लोग क्या कहेंगे!
- प्रीति 'अज्ञात'
#विश्व_पुस्तक_मेला

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