बुधवार, 28 नवंबर 2018

फ़ुरसतिया लोग

आप इन्हें चाहें कितने ही ऊँचे पदों पर बिठा दें लेकिन इनके दिमाग की सुई सीधा जाति पर ही पहुँच अटक जाती है और उसके बाद बहकी-बहकी बातों का धार्मिक मौसम शुरू होता है. हम फ़ुरसतिया लोग हैं और ऐसी चर्चाओं से ही अपना जीवन पूर्णतः सार्थक मानते हैं. मंदिर वहीं बनायेंगे, सबसे ऊँची मूर्ति लगायेंगे के मनोहारी, पावन और सद्भावना से ओतप्रोत नारों ने इस बार भी न केवल इस धरती को धन्य किया है बल्कि देशवासियों को भी उतना ही भावुक कर दिया है.....उतना ही भावुक कर दिया है, जितना कि वे कई वर्षों से अपनी मर्ज़ी से लगातार होते आ रहे हैं. इसमें चिंता जैसी कोई बात ही नहीं, दरअस्ल हम बड़े भावुकता और आहत पसंद लोग हैं. हमारे कोमल ह्रदय और संवेदनशील मन ने हमें यही सुघड़ भाव जागृत करने की टुच्च शिक्षा दी है. ओह, सॉरी उच्च पढ़िएगा. 
यूँ भी आम इंसान को और करना ही क्या है वो तो अपनी सुध-बुध भूल कल्लू दीवाने की तरह दिन रात इसी सोच में डूबा रहता है कि जब मंदिर बनेगा तभी उसकी नैया पार होगी. बिटिया का ब्याह होगा, बेटे की बेरोज़गारी दूर हो जायेगी, गाँव में बिजली आएगी, अपना घर होगा, जिसमें जगमग लट्टू जलेगा और घरवाली को दूर कुँए से पानी भरकर नहीं लाना पड़ेगा क्योंकि चौबीस घंटे नल से टनाटन पानी मिलेगा... उस पगले ने तो दूध की नदियों के ख़्वाब भी सँजो लिए हैं. कल ही मरघिल्ली गाय को बेच स्टील की पूरे पाँच लीटर की कैपेसिटी वाली टंकी खरीद लाया है. अब तो घर की ही बनी रबड़ी खायेगा जी. 
कुल मिलाकर सांध्य -आरती की पूरी तैयारियाँ हैं और रामराज्य की झीनी रौशनी में, गरमागरम बनती कुरकुरी जलेबियों की महक़ ने सबको एडवांस में ही दीवाना बना डाला है. इमरती बाई ने तब तक समोसे की मैदा गूँध, कड़ाही में पतंजलि का कच्ची धानी का शुद्ध सरसों तेल चढ़ा दिया है. बस, सिलबट्टे पे दरदरी पिसी हरे-धनिये मिर्च की चटपटी चटनी और मिल जाए तो जीवन सफ़ल है. किरपा की चेरापूँजी बरसात होगी. 
अरे हाँ, अदरक की चाय भी add कर ल्यो...उसके बिना तो जिनगी भौतई बरबाद है. 
इतना काफ़ी है न कि और भी कुछ चैये? 👿
- प्रीति 'अज्ञात'

शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

चाँद और बारिश

वो बात करता है तो जवाब में पक्षी चहचहाते हैं, हँसता है तो फूलों की सुगंध तेजी से पसरने लगती है, इश्क़ की दुआ करता है तो तितलियाँ उसके बालों से अठखेलियाँ कर खिलखिलाने लगती हैं. खुश होता है तो तारे थोड़ा और पास आकर बैठ जाते हैं लेकिन इस चाँद को जब भी देखती हूँ, बेहद अकेला और उदास पाती हूँ. मुझे लगता है कि जैसे वो इस बड़ी दुनिया में नदी के किनारे बैठे उस निराश प्रेमी की तरह है जिसके इश्क़ की कोई मंजिल नहीं और उसके फूटे नसीब में बुदबुदाता, निरर्थक एकालाप ही लिखा है.

लोग अपनी प्रेम कहानियां उससे बाँटते हैं, अपने महबूब का अक्स उसमें झांकते हैं, उसकी क़सम खाकर आहें भरते हैं पर ख़ुद चाँद के हिस्से में ही कोई महबूब नहीं! सदियों से सबकी मोहब्बत के साक्षी रहे इस चाँद के पाले में उसका चाँद कभी आया ही नहीं! सबके बीच भी वो कितना अकेला है. तमाम तारे उसे अपना कहते जरुर हैं पर दिल से मानते नहीं! कभी उसकी भरी आँखों में अपनी उमंगों की परछाई तक नहीं पड़ने देते. वो उस पल बेहद हारा हुआ महसूस करता है. दुःख अब उसके चेहरे पर झाइयाँ बन उभरने लगा है.
तभी तो कितनी मर्तबा वो भीतर-ही -भीतर ख़ुद को सिकोड़, डबडबाई पलकों से अपने कमरे का दरवाज़ा बंद कर चुपचाप बैठ जाता है. सुना है, उस रात फिर ख़ूब बारिश होती है. - प्रीति 'अज्ञात'

सोमवार, 19 नवंबर 2018

#पुरुषदिवस

पुरुष होने के भी अपने फ़ायदे हैं. जब भी दिल करे आप जब चाहें, जहाँ चाहें, बे-रोकटोक आ-जा सकते हैं. आपके आने-जाने, सुरक्षा-संबंधी फ़िक्र करने और बेतुके प्रश्न पूछने वाला कोई नहीं होता. 
ऐसा नहीं कि स्त्रियाँ घर से निकलती नहीं पर उस समय भी उन्हें बहुत कुछ manage करके जाना पड़ता है और आने के बाद भी वही प्रक्रिया दोहरानी होती है. मसलन पति, बच्चे, सास-ससुर कोई भी बाहर जाए तो वही है जो सभी घरेलू कार्यों के साथ-साथ सबका खाना पैक करके देगी, हर वस्तु का ख्याल रखेगी और किसी मशीन की तरह धडाधड लगी रहेगी. दिक्कत यह है कि जब वो बाहर जाए तब भी उसे यही सब करके जाना होता है. वो कहीं भी चली जाए, बार-बार फ़ोन करके निश्चिन्त होना चाहती है कि उसके पीछे सब कुछ सुचारू रूप से चल रहा है या नहीं! दुःख यह है कि घर में घुसते ही उसे पानी की पूछने वाला भी कोई नहीं होता, चाहे कितनी ही लम्बी/छोटी, थकान/परेशानी भरी यात्रा हो...घर में घुसते ही सब यूँ फरमाइशें करते हैं, गोया अभी पांच मिनट पहले ही बगीचे से टहल घर में घुसी हो!
कुछेक अपवाद को छोड़ दिया जाए तो कहीं कम; कहीं और भी ज्यादा पर कुल मिलाकर आम भारतीय स्त्री की यही कहानी है. पर मैं इसका दोष घरवालों से कहीं अधिक स्वयं स्त्रियों को ही देती हूँ क्योंकि -
* हमने ही अपने मन को इस चारदीवारी से इस क़दर बाँध रखा है और इस भरम में जीने लगे हैं कि हमारी अनुपस्थिति में ये सब असहाय हो जाते हैं. बेचारों को चाय भी बनानी नहीं आती, बाहर का खाने की आदत नहीं इत्यादि, इत्यादि. जबकि सब ख़ूब मस्त रहते हैं और हमारे घर में प्रवेश करते ही पुराने फॉर्म में लौट आते हैं.
*हमें अपने-आप पर आवश्यकता से अधिक गर्व है और अपने perfectionist होने का अहसास भी भरपूर हिलोरें मारता है. इसलिए हम यह भरोसा कर ही नहीं पाते कि हमारे बिना सब ठीक रहेगा.
*हमने इसे अपना कर्त्तव्य मानकर पूरी तरह ओढ़ लिया है, इतना कि अपने लिए जीना ही भूल चुके हैं. हमें त्याग और बलिदान की मूर्ति बनना ही भाता रहा है. फिर उसके बाद अपने दुखड़े रोना भी नहीं भूलते कि शादी न की होती तो मैं ये कर सकती थी, वो कर सकती थी. मज़ेदार बात ये है कि जिन सदस्यों को हम अड़चन समझ कोसते रहे हैं, उनके बिना न तो रह सकते हैं और न ही कहीं कोई ठौर है.
*हम बड़े डरपोक क़िस्म के जीव हैं और आजकल के हालातों में कहीं आने-जाने में हमारे ही पसीने छूट जाते हैं और हम पुरुष का साथ चाहते हैं. जबकि पुरुषों ने भी कोई मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग नहीं ली हुई होती है, न ही उनकी चमड़ी बुलेट प्रूफ है. गोली लगने या लूटपाट होने पर उनको भी वही दर्द होगा जिससे हम हाहाकार मचाते हैं. 'मर्द को दर्द नहीं होता' वाली कहावत कितनी ही हिट हो गई हो पर सच यह है कि 'मर्द को भी ख़ूब ज़बर दर्द होता है, बस इस डायलाग के बोझ तले दब वो बेचारा कह ही न पाया कभी! पर फिर ये क्या है कि उनका साथ हममें साहस भर देता है, सुरक्षित होने का अहसास कराता है? कहीं ये इश्क़ वाला लव तो नहीं!
जो भी है, स्त्री होना बहुत अच्छा भी लगता है और नहीं भी...ये सोच भी बड़ी situational चीज है. जब देखो, नेताओं की तरह पाला बदल लेती है.

वैसे कई फ़ायदों के बावजूद भी पुरुष होने की कई दिक्कतें हैं -
* बचपन से ही अच्छी नौकरी पाने की टेंशन वरना घरवालों को चिंता कि इस नाकारा से कौन ब्याह रचाएगा।
* नौकरी मिल गई तो सबकी उम्मीदों पर खरा उतरने की जी-तोड़ कोशिश. यद्यपि यह हमेशा नाकाम ही होती पाई गई है.
* घर-परिवार, बॉस-नौकरी में सामंजस्य बिठाने की कोशिश उसे चकरघिन्नी बना डालती है. उस पर भी किसी-न-किसी का मुँह फूला हुआ मिलना तय है. 
*छुट्टियों की मारामारी से जूझता यह प्राणी अपने सारे शौक़ भूल चुका होता है और उसका पूरा जीवन घर-बच्चों को खुश करने में बीतता चला जाता है, हालांकि सब अंत तक असंतुष्ट ही बने रहते हैं.
*वो जो शादी से पहले एक गिलास पानी तक भी न लेता था, आज बोतलों में पानी भर फ्रिज़ में रखना सीख गया है.
*अपना जन्मदिन भले ही भूल जाए पर बाक़ी सबकी तिथियाँ रटनी पड़ती हैं उसे.
* कहाँ दस हजार में भी अकेले ठाट से रहता था अब लाखों भी जैसे नित कोई अज़गर निगल लेता है.
*कितनी भी थकान हो, pick & drop करने की ड्यूटी तो उसी की लकीरों में रच दी गई है.
*उसके जीने का एकमात्र उद्देश्य अपने परिवार का भरण-पोषण है और उसके बाद के लिए भी वह जुटाकर रखने की लाख कोशिशें करता है.
*और हाँ, इन्हें भी मशीन समझा जाता है. कौन सी? ATM ...
हाय ख़र्चा कर-करके हम लोग इनका जीना मुहाल कर देते हैं.

पर चूँकि प्रथा है तो 'पुरुष दिवस' मुबारक़ हो! 🤣- प्रीति 'अज्ञात'
#Repost #पुरुषदिवस

बुधवार, 14 नवंबर 2018

मुख्तार सिंह का नाम सुना है तुमने?

उन दिनों अच्छे स्कूलों का एक ही मतलब  हुआ करता था....न्यूनतम छुट्टियाँ, जमकर पढ़ाई और जबरदस्त अनुशासन (+ कुटाई किसी inbuilt app की तरह). आजकल की तरह नहीं कि जितनी अधिक फ़ीस, उतना बढ़िया स्कूल! और हाँ, ये कुटाई भी आवश्यकता पड़ने पर पर्याप्त समय लेकर पूरी तसल्ली से ऐसे की जाती थी कि क़ब्र में उतरते समय तक के लिए उसका कलर्ड नक़्शा बालक के ज़हन में छप जाए! मज़ेदार (ही,ही अब लग रही) बात ये थी कि बच्चों को अपने लक्षणों और बदलते मौसम को देख पहले से ही ज्ञात होता था कि आज किसका खेला जोरदार होगा!
 
बड़े सर के आते ही वातावरण में गंभीर हवाएँ चलने लगती थीं. उड़े हुए चेहरों को देख किसी नए उत्सुक बच्चे को उनके बारे में मुँह पर हाथ रख जानकारी कुछ यूँ दी जाती थी कि जैसे कोई कह रहा हो, "मुख्तार सिंह का नाम सुना है तुमने? उसके नाम से शहर की पुलिस भी काँपती है और पब्लिक भी." या फिर वही गब्बरी आवाज़ गूँजती थी, "यहाँ से पचास-पचास कोस दूर......" कुल मिलाकर स्थिति अत्यधिक तनावपूर्ण किन्तु नियंत्रण में नज़र आती थी. यद्यपि एक करारे थप्पड़ की मासूम ध्वनि के पश्चात बुहहाआआ, बुहहाआआ की दर्दीली चीत्कार इसी नीरवता को पल भर में तहस-नहस कर कक्षा का इतिहास और भूगोल एक साथ बदल देती थी. उन बच्चों में से दस प्रतिशत के भविष्य का ख़ाक़ा तो बस एक थप्पड़ ही तत्काल खींच देता था लेकिन शेष नब्बे प्रतिशत के लिए यह क्रम किसी धारावाहिक (डेली सोप) की तरह चला करता था, जहाँ बीस-पच्चीस एपिसोड तक तो स्टोरी लाइन आगे बढ़ती ही नहीं थी लेकिन हर एपिसोड के अंतिम दृश्य में सबका मुँह खुला का खुला रह जाता था. क्या?क्या?क्या? (आज फिर पिटा?) की साइलेंट ध्वनि के साथ.

मुख़्तार सिंह के जाने के बाद किसी परंपरागत रस्म की तरह बाक़ी बच्चे उस कुटे-पिटे बच्चे को पुचकारते हुए, अपनी दर्दभरी कहानियाँ जमकर साझा करते कि उसका ग़म कुछ हल्क़ा हो सके. भाईचारे और वातावरण को सौहार्द्रपूर्ण बनाये रखने में क्षणिक एकता बड़ी ही महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती थी. प्रायः ये घटनायें भीतर-ही- भीतर दबा ली जातीं थीं और घरों तक इस प्रकार के ऐतिहासिक किस्से तब ही पहुँचते थे जबकि उनके साक्ष्य लाख बार धो लेने के बाद भी चेहरे पर टिके रहते या फिर अंक सूची में से अंक नदारद होते और बस सूजे मुँह के साथ सन्नाटा लिए ख़ाली 'सूची' ही घर पहुँचती.
इधर माँ सूजी का हलवा लिए इंतज़ार कर रही होती थी. परीक्षा परिणाम हाथ में आते ही वो हलवे में काजू-बादाम-किशमिश का गद्दा बनाना भूल जातीं. बेचारा बच्चा उस दिन चुपचाप ही बिना मेवे वाला हलवा गटक अपना गुजारा कर लेता.  
- प्रीति 'अज्ञात'
#बाल_दिवस पे बड़े हो गए बच्चों को और क्या याद आएगा!
#बाल_दिवस 

बच्चों की मासूमियत और भोलेपन का उड़ता रंग

परिवर्तन के इस दौर में विकास की चाल यदि कहीं द्रुतगति से चलती नज़र आती है तो वह है 'बचपन'। समय और सामाजिक परिस्थितियों से जूझते हुए बच्चों की मासूमियत और भोलेपन का चटख़ रंग कबका उड़ चुका है। आज जिसे हम 'समय के साथ चलना' कहकर धीरज धर लेते हैं, वास्तविकता में वह समय को फ़र्लांगकर ली गई मजबूर उड़ान ही है। अब बचपन की बात करते ही वो सुनहरा चित्र कहीं नहीं खिंचता जिसमें रंग-बिरंगे गुब्बारे और उसमें भरी तमाम खुशियाँ घर-बार को रौशन कर उनमें जीवन भर दिया करतीं थीं। 'बाल-दिवस' स्कूल में बंटती मिठाईयों को खा लेने या जमकर मस्ती और खिलंदड़ी करने का नाम भर ही नहीं था अपितु यह उस बचपन को जी भरकर जी लेने का एक अतिरिक्त और विशेष दिन हुआ करता था। हाईस्कूल तक न भी सही पर आठवीं कक्षा तक तो हर घर में बचपन यूँ ही गुलाटियाँ मार आँखों में तमाम खुशियाँ भर इतराता फिरता था। लेकिन आज जब हम इस बचपन का चेहरा टटोलते हैं तो बमुश्क़िल इक्का-दुक्का जगह ही इसकी मुस्कान उपस्थित दिखाई देती है अन्यथा यह तो निर्धारित समय से पूर्व ही अपने स्थान से हटकर कभी भय, कभी समझदारी और कभी तनाव के स्टेशन पर पैर टिकाए बड़ा होने की राह जोहता नज़र आता है। वही यक्ष प्रश्न फिर उठ खड़ा होता है...आख़िर दोष किसका है? पर दोषी का नाम लेने से बेहतर यही होगा कि हम कारणों पर विचार कर इस समस्या के समाधान की ओर प्रयास करें।

हमारी शिक्षा-प्रणाली ने बच्चों को 'सक्सेस' का ही पाठ पढ़ाया है। 'टॉप' किया तो सही और 'फ़ेल' हुए तो समाज में रहने लायक नहीं! नियम यह है कि बनना चाहे कुछ भी हो, पर हर विषय में अच्छे अंकों से पास होना बेहद जरुरी है। चूँकि विद्यालयों / विश्वविद्यालयों में प्रवेश का मापदंड भी यही है इसलिए व्यावहारिक योग्यता से कहीं अधिक प्रतिशत मायने रखते हैं। उस पर माता-पिता का 'हॉबी-क्लास' के लिए बच्चों को पूरे शहर में दौड़ाना उनके ज़ख्मों पर नमक मल देता है। इन मासूमों के पास समय ही नहीं बचता कि वे कुछ पल अपने लिए संभाल सकें। होमवर्क, प्रोजेक्ट, सबमिशन, मासिक, अर्धवार्षिक, वार्षिक और अभ्यास परीक्षाओं की लम्बी सूची के साथ दुनिया भर की एक्टिविटीज और अन्य प्रतियोगिताएँ इन्हें शारीरिक और मानसिक रूप से इस हद तक थका देती हैं कि फिर वे टोकाटाकी और रोज की वही घिसीपिटी सलाहों से भागकर एकांत की ओर बढ़ने लगते हैं। इधर माता-पिता, समाज और बच्चे के भविष्य को लेकर कुंठित होने लगते हैं और 'न जाने, इसके भविष्य का क्या होगा?' जैसा गंभीर प्रश्न उनके चेहरे पर असमय झुर्रियों के रूप में उभरने लगता है। 

दरअस्ल हम लोग दिखावे की मानसिकता के गुलाम बन चुके हैं. वो देश जो अभी भी गरीबी, बेरोजगारी और शिक्षा जैसी बुनियादी समस्याओं से जूझ रहा है वहाँ दूसरे से स्वयं को बेहतर प्रदर्शित करने की होड़ ने कई प्रकार की कुंठाओं और अपराधों को जन्म दिया है। कहीं यौन शोषण से जूझते बच्चे रोज घुट रहे हैं तो कहीं ये अपराधी के रूप में जघन्य अपराध को अंज़ाम दे रहे हैं। हैरानगी की बात है कि रेप और हत्या जैसे जुर्म के हत्यारों को उम्र के आधार पर नाबालिग़ क़रार कर दिया जाता है जबकि इनके कृत्यों की उम्र वयस्कों से कहीं ज्यादा वीभत्स हुआ करती है। डर है कि इस उदारता को देखते हुए अपराध की न्यायिक उम्र कहीं किशोरावस्था ही न समझ ली जाए, जहाँ अपराध तो संभव है पर सज़ा की कोई गुंजाइश नहीं। कमाल है, वे बच्चे तो परिपक्व हो चुके पर उनकी मासूमियत अब न्यायपालिका की सोच में पाई जाती है। 

टीवी चैनल पर बच्चों को उनके पढ़ने, खेलने की उम्र में उस स्टारडम का पाठ पढ़ाया जा रहा है जिसको बड़े-बड़े स्टार भी संभाल नहीं सके। ये बच्चे माता-पिता के स्वप्नों को पूरा कर अपना वर्तमान खो रहे हैं या कि इस वर्तमान की चकाचौंध से प्रभावित हो अपना भविष्य धुंधलाने में लगे हैं यह भी स्पष्ट नहीं। पर क्या इनके नाज़ुक कंधे इस व्यवसाय से जुड़े तनाव और अपेक्षाओं के भार को उठा पाने में समर्थ होते हैं? जब हम 'बाल-श्रमिकों' को (जो कि अपने परिवार का पेट भरते हैं) अपराध मानते हैं तो फिर ये बच्चे 'सेलेब्रिटी' की श्रेणी में कैसे आते हैं? इस विषय पर तमाम सामाजिक संगठनों की आँखें क्यों नहीं खुलतीं?

दुःख इस बात का है कि माता-पिता की व्यस्तता, कार्यभार का खामियाज़ा ये मासूम भुगतते हैं। बच्चों को हम भौतिक सुख-सुविधाएँ न दे सकें चलेगा, पर उन्हें उनके हिस्से का स्नेह, बचपन की मासूमियत और स्वतंत्रता तो देनी ही होगी। साथ ही यह विश्वास भी कि हम हर हाल में उनके साथ है। हमारा प्रेम उनके पास या फेल होने की शर्तों पर नहीं टिका हुआ है। सबसे जरुरी कि हम उनके सपनों को जीवित रखें और उन्हें पूरा करने के लिए अपना समय और बेशर्त प्रेम दें जिसके कि वे जन्म से ही हक़दार हैं।
- प्रीति अज्ञात
'हस्ताक्षर' नवम्बर 2017 में प्रकाशित (सम्पादकीय)
http://hastaksher.com/rachna.php?id=1136
#हस्ताक्षर #बाल_दिवस