गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

#ऋषि कपूर #chintuji होगा तुमसे प्यारा कौन, हमको तो तुमसे है.....

  
ऋषि कपूर यूँ तो अपने बचपन में ही 'प्यार हुआ इक़रार हुआ' गीत पर रेनकोट पहने ठुमक-ठुमक चलते नज़र आये थे लेकिन इस बात को मैंने जाना बहुत समय बाद ही था. मैंने उन्हें पहली बार किस फ़िल्म में देखा, ये याद कर पाना अभी मुश्किल है लेकिन इतना जरूर याद है कि 'मेरा नाम जोकर' का एक मासूम बच्चा और उसका भोला चेहरा हमेशा मेरी आँखों में तैरता रहा. फिर एक दिन 'बॉबी' के हीरो से सामना हुआ तो इश्क़ की हज़ार कलियाँ खिलने लगी हों जैसे और यूँ लगा कि यार! अपना भी कोई हीरो हो कभी तो ऐसा ही ज़िद्दी निकले. इन्हीं दिनों अमिताभ का जादू भी अपने चरम पर था, उनकी फ़िल्मों कुली, नसीब, अमर अक़बर एंथोनी, कभी-कभी से 102 नॉट आउट तक पहुँचते हुए भी कई बार ऋषि कपूर को जानने-समझने का मौक़ा मिलता रहा. लेकिन इससे अलग भी उनकी अपनी एक ख़ास पहचान थी.

उनके डांस करने का तरीक़ा सबसे अलग था और जब वो स्टेज पर चढ़ पूछते कि 'तुमने कभी किसी से प्यार किया है?' तो उनके प्रशंसक जैसे पागल ही हो जाते थे. अभी उनके हिट हुए गीतों का लिखने बैठूं तो ये सूची कभी थमने का नाम ही न लेगी. लैला मजनूं, रफूचक्कर, सरगम, कर्ज़, बोल राधा बोल, हम किसी से कम नही, हिना, सागर, दीवाना, खेल-खेल में और भी न जाने क्या-क्या गड्डम गड्ड होने लगा है. वो भोला लड़का कब चॉकलेटी बॉय बनकर दिलों पर राज़ करने लगा, पता ही न चला. इस समय मुझे दो नाम याद आ रहे हैं, 'प्रेमरोग' और 'चाँदनी', ये दोनों ऐसी फ़िल्में थीं जिन्हें देख उनसे बेशुमार मोहब्बत होने लगी थी और जैसे  इक उम्र की लड़कियाँ अपने सपनों के राजकुमार की तस्वीर बुनती हैं वो अब थोड़ा-थोड़ा खुलकर दिखने लगी थी. उनके लिए किसी ने, कभी ये नहीं कहा कि 'सोचेंगे तुम्हें प्यार करें कि नहीं', सब करने ही लगे थे. अब कोई सुने तो हँसने ही लग जाए पर मुझे तो उनके स्वेटर भी रोमांटिक लगा करते थे. वे हरदिल अज़ीज़ थे. इसीलिए शायद उनकी फ़िल्में हिट रहीं हों या फ्लॉप, उनकी लोकप्रियता रत्ती भर भी प्रभावित नहीं हुई और वे सबके चहेते चिंटू जी ही बने रहे.

कल इरफ़ान और आज इस कैंसर ने ऋषि कपूर को हमसे छीन लिया है. लेकिन वे भी क्या ख़ूब लड़े इससे. अंत तक अपना खिलंदड़पन नहीं छोड़ा और वो गुलाबी मुस्कान उनके चेहरे पर हमेशा खिलती रही.
लोग कहेंगे एक युग का अंत हो गया, रोमांस का अंत हो गया, सुनहरी वादियों में चाँदनी-चाँदनी पुकारता कोई दीवाना चला गया, मैं बैठी-बैठी इससे इतर यह सोच रही हूँ कि वो जो बचपन से मेरे साथ चला था और जिसकी खिलखिलाहट दिल में सैकड़ों फ़ूल बिखरा देती थी वो अभी भी इस दुनिया से गुज़रा ही नहीं है बल्कि कहीं किसी पेड़ के पीछे छुपा कोई नई शैतानी करने की जुगत लगा रहा है.

हर व्यक्ति की जिंदगी में एक ऐसा शख्स होता है जो बेहद खिलंदड़ होता है. वो शरारत भी करता है तो बुरा नहीं लगता कभी बल्कि उसे तुरंत ही माफ़ कर देने, गले लगाने को जी चाहता है और फिर उसकी अगली शरारत का बेसब्री से इंतज़ार भी रहता है. एक अज़ीब सी क़शिश और मोहब्बत होती है उस शख़्स से कि बस वो आसपास ही महसूस होता रहे. ऋषि कपूर, हम सबकी ज़िंदग़ी का वही शरारती हिस्सा हैं. उन्होंने हमें मुस्कुराना सिखाया, प्यार में दीवाना हो खुल्लमखुल्ला प्यार का इज़हार करना सिखाया और ये भी बताया कि झूठ बोलने पर कौआ काट लेगा. वो कहते हैं, 'बचना ए हसीनों, लो मैं आ गया' तो कोई भी बचना नहीं चाहता जी और सब यही कहना चाहते हैं उनसे, 'अरे, होगा तुमसे प्यारा कौन, हमको तो तुमसे है... हे कांची, हो  प्याआआर, ट न टन  टनन टनन'

ऋषि कपूर मतलब ज़िंदादिली, इस इंसान का मृत्यु से कोई कनेक्शन है ही नहीं. एक हँसमुख इंसान जो ख़ूब बोलता है, ख़ूब हँसता है और कभी गुस्सा भी कर दे तो पलटकर गले लगाना नहीं भूलता. चिंटू जी, आप जहाँ भी रहें, वहां इश्क़ के हज़ार फूल महकेंगे.
न! अलविदा नहीं कहूँगी आपको क्योंकि मैं जानती हूँ कि जब तक इश्क़ की सारी कहानियाँ ज़िंदा हैं और मोहब्बत की खातिर मर-मिटने वाले दीवाने हैं, आप रहेंगे तब तक. अपने चाहने वालों के साथ, अपनी नीतू और परिवार दोस्तों के साथ. ख़ूब सारा प्यार आपको.
- प्रीति 'अज्ञात' 

बुधवार, 29 अप्रैल 2020

#Irrfan Khan Death: उफ़! ये क्या कर दिया भगवान!

हर रात जब हम नींद की आगोश में होते हैं तो ये मानकर चलते हैं कि अगली सुबह ख़ूबसूरत ही होगी. प्रातःकालीन दिनचर्या से निबट अचानक आपकी नज़र एक मैसेज पर जाती है और उसी वक़्त सुबह की सारी रोशनी बेमानी हो जाती है जब आपको पता चलता है कि आपका प्रिय कलाकार इस दुनिया में नहीं रहा! पहली प्रतिक्रिया इस ख़बर को झूठा मान लेना चाहती है लेकिन फिर भी आप सारी दुआओं को दोहराते हुए टीवी की तरफ दौड़ पड़ते हैं और पता चलता है कि हम सबका दुलारा कलाकार इरफ़ान खान अब इस दुनिया को अलविदा कह चुका है.

मुझे सदैव ही  इस बात का अफ़सोस होता रहा है कि तीन खानों और घरानों की भीड़ में राहुल बोस, मनोज बाजपेई, इरफ़ान ख़ान और नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी सरीखे कई बेहतरीन कलाकारों को उनके हिस्से की उतनी ज़मीं नहीं मिलती जिसके ये सदैव हक़दार रहे हैं. लेकिन हर बार ही मैंने यह कह अपने दिल को तसल्ली भी दी कि हीरा कहीं भी रहे...इससे उसकी श्रेष्ठता पर असर नहीं पड़ता! वही एक हीरा आज हमसे जुदा हो गया, यह बात मन अब भी मानने को तैयार नहीं.    

इरफ़ान के अभिनय की प्रशंसा करना भी जैसे सूरज को दीया दिखाना है. उनकी आँखें ही आधा अभिनय कर जाती थीं. आँखें ही बोलती थीं,  आँखें ही हँसती थीं और आँखें ही दर्द और दुःख की पूरी किताब जैसे खोलकर रख देती थीं. उनके अभिनय की रेंज पकड़ पाना हर किसी के बस की बात नहीं. हास्य जितनी सहजता से निभा जाते थे, आम आदमी के जीवन संघर्ष को भी उतनी ही संजीदगी से बयां किया है उन्होंने. डायलॉग बोलने का उनका अपना एक निराला अंदाज था.      हर तरह की भूमिका को पूरे दिलोजान और ईमानदारी से निभाया है, इरफ़ान ने. उनकी हर फिल्म ऐसी है जिसे देखकर लगता है कि ये सिर्फ उन्हें ही ध्यान में रख लिखी गई है. ऐसे अद्भुत अभिनेता थे वो.

लेकिन इन सबसे इतर जो एक सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है वो है इरफ़ान का अपना व्यक्तित्त्व, जिसने न जाने कितने लोगों को प्रभावित और प्रेरित किया होगा.  मार्च 2018 में लिखी उनकी वह पोस्ट याद आती है जिसमें उन्होंने स्वयं को न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर होने की ख़बर बेहद भावुक अंदाज़ में दी थी और उनके करोड़ों प्रशंसक घबरा गए थे. लेकिन यकीन भी था कि हमारा फाइटर इरफ़ान वापिस आएगा, अपने उसी संवेदनशीलता से भरे कम शब्दों और हँसती आँखों के साथ. इरफ़ान ने हमारा ये विश्वास नहीं तोडा और वे लौट आये थे. अब जबकि हम उस तरफ से निश्चिन्त हो 'अंग्रेज़ी मीडियम' को देख खुश हो ही रहे थे कि अचानक हमारा प्रिय अभिनेता हमारे बीच से निकल आसमान पर जा तारा बन बैठा.  

कब से उसको ढूंढता हूँ/ भीगी पलकों से यहाँ/ अब न जाने वो कहाँ है/था जो मेरा आशियाँ
वक्त के कितने निशाँ है/ ज़र्रे ज़र्रे में यहाँ/ दोस्तों के साथ के पल/ कुछ हसीं कुछ ग़मज़दा
सब हुआ अब तो फना/ बस रहा बाकी धुंआ
बिल्लू बारबर के इस गीत के साथ मैं अपने प्रिय कलाकार को विदाई देती हूँ जो हम सबके बीच सदा रहेगा लेकिन ईश्वर से नाराज़गी अवश्य हो रही है कि वो अच्छे लोगों को सदा अपने पास क्यों बुला लेता है! दुःख में भर जब ये बात मैंने अपने मित्र से साझा की तो उनका जो जवाब मिला, उससे मेरी शिकायत कुछ कम जरुर हुई. 
मित्र ने कहा कि "इसका दूसरा पक्ष देखो, इरफ़ान को बनाया भी तो भगवान ने ही था न! और हमारे पास भेजा भी." 
तो मैं इस बात का शुक्रिया अदा जरुर करना चाहूंगी कि ईश्वर ने हमें इरफ़ान खान से मिलवाया और अच्छे इंसानों की पहचान कराई. अब शायद उन्हें उनकी माँ से मिलाने ले गए होंगे. आप जहाँ भी हैं इरफ़ान वहां जमकर रौनकें होंगीं. खुश रहिये. 
आपको भावभीनी विदाई और खूब सारा स्नेह, शुक्रिया कि आप इस दुनिया में आये.
- प्रीति 'अज्ञात' 
#IrrfanKhan  #RIPIrfan  #iChowk #preetiagyaat

सोमवार, 27 अप्रैल 2020

#लूडो की हार पचती क्यों नहीं!

लॉक डाउन के इस लम्बे समय में लोग घर पर हैं. टाइमपास और एंटरटेनमेंट के लिए नए-नए आइडियाज निकाले जा रहे हैं. लेकिन हाल ही में गुजरात के बडौदा शहर से जो ख़बर सुनने को मिली, उसने सकते में डाल दिया है. यहाँ ऑनलाइन लूडो खेल में एक पति, जब अपनी पत्नी से चार राउंड लगातार हार गया तो इस हार को बर्दाश्त न कर सकने के कारण उसने लड़ाई शुरू कर दी. बात इतनी आगे बढ़ गई कि उसने गुस्से में पीट-पीटकर कर, पत्नी की रीढ़ की हड्डी ही तोड़ दी. शीघ्र ही उसे अपनी गलती का अहसास हुआ और वह तुरंत उसे लेकर अस्पताल पहुंचा. पहले तो पत्नी ने उसके साथ घर लौटने से इनकार कर दिया लेकिन उसके माफ़ी मांगने के बाद वह मान गई. पति को भी भविष्य में ऐसा दुर्व्यवहार न करने एवं हाथ उठाने पर कानूनी कार्रवाई की चेतावनी दे दी गई है. 

इस घटना ने बचपन के तमाम ज़ख्म ताजा कर दिए. याद कीजिये जब लूडो में हार सामने आती दिखाई देती है तो हालत कैसे 'जल बिन मछली, नृत्य बिन बिजली' की तरह हो जाती थी. उस भीषण तड़पन का भी सोचिये जब एन घर के अन्दर पहुँचने से ठीक पहले अचानक ही अपनी गोटी काल कवलित हो जाये तो दिल कैसा हाहाकार कर उठता था. ये दुःख बस बार-बार हारने वाले इंसान ही बयां कर सकता है कि उस समय ऐसा क्यूँ लगता है कि ईश्वर ने पीड़ा की बहती गंगा में हमें ही नाक पकडकर अठारह बार डुबकी लगवा दी हो. वो हर इक बच्चा जो अब बड़ा होकर ज्ञान बाँटने लगा है और इस मुद्दे पर भी जमकर बोलेगा एक बार उसको भी हौले से विद्या क़सम खिला तनिक पूछियेगा कि बेटा, जब बचपन में लूडो या साँप-सीढ़ी में हारते थे तो कैसा लगता था आपको? यकीन मानिये वो वहीं उठकर तांडव नृत्य करने लगेगा.
हम कह तो रहे हैं ... भिया, ये गेम ही ऐसा है जिसने हम सबके पूरे बचपन के लड़ाई के इतिहास में मुख्य भूमिका निभाई है. हमें तो ख़ूब याद है कि गेम की शुरुआत तो 'हरी हरावे, लाल जितावे, पीली चोट उड़ावे' के मंत्रोच्चार के साथ शुरू कर हम लाल गोटी चुन लेते थे. और फिर पता चलता कि पासा फेंकते ही भैया के तो छह दो बार आ गए, फिर एक भी आ गया, तीन गोटी निकल लीं. पड़ोसी का बिट्टू जिसे हमने इस मन्त्र में भी स्थान न दिया था, वो भी अपने नीले वाले  घर से निकलकर जब हमरी लाल खिड़की से आगे बढ़ जाता था तो क़सम से ऐसा मुँह दबा के रोना आता था कि का कहें! कई बार सब ठीक होता तो सेंटर में फिनिश वाले चौकोर स्वर्ग के दरवाज़े पर अपन एंट्री की राह में पासे में 1 नंबर का यूँ इंतज़ार करते जैसे देवदास ने पारो का भी न किया होगा कभी!

तो कुल मिलाकर तात्पर्य यह है कि साहब ये खेल ही पनौती है जिसने हर घर में महाभारत के सौ- सौ धुआंधार एपिसोड चलवाए हैं. कभी तूने पासा गलत फेंका तो कभी 'देख छह है, न-न तीन है' में ही बाल-फुटौवल हो जाती थी. ये बाल-फुटौवल शब्द तो हम थोडा सही एवं मर्यादित लगे इसलिए ही कह रहे वरना एक्चुअली में तो परखच्चे उड़ते थे और होता तो असुर युद्ध ही था. अजी, बाल खींचे जाते, टांग पकड़ घसीटा जाता, लात घूंसे सबका पिरसाद बंटता और अंत में लूडो अंकल को बीच से चीरकर दो भागों में विभाजित करने के बाद ही प्यासी-खूनी आत्मा को शान्ति मिलती लेकिन अगले ही दिन  'खीखीखी. भैया लूडो खेलोगे?' की मनुहार के साथ उसे पुराने गत्ते के टुकड़े पर चिपका, अगले महाभारत की मधुर नींव रखी जाती. 
इसलिए अपना तो ये मानना है कि ये जो घटना है वो घरेलू हिंसा का मामला बिल्कुल नहीं है बल्कि सब इस नामुराद लूडो का किया धरा है. पत्नी हारती तो पति की भी यही दुर्गति होनी थी!  लेकिन हाँ, हमें यह बात किसी भी स्थिति में नहीं भूलनी चाहिए कि बचपन में खेल के दौरान हुई लड़ाई बचपना होती है और बड़े होकर यही अपराध बन जाती है. इसलिए लॉक डाउन में सब कुछ करें पर संयम भी धरें. हो सके तो लूडो, साँप सीढ़ी जैसे हिंसक खेलों से स्वयं को आइसोलेट कर लें क्योंकि इनसे बड़ी पनौती मैंने आज तक नहीं देखी! इस दुनिया में ऐसा कोई भी घर नहीं, जहां इस गेम की समाप्ति पर एक तरफ उत्साह में भरा और दूसरी तरफ पछाड़ें खाकर सर फोड़ता चेहरा न नज़र आया हो. सार यह कि जहाँ लूडो है, वहाँ सौहार्द्र की सोच भी लेना इस सदी का सबसे बड़ा जोक और इस खेल की मूल भावना की सरासर तौहीन है. 

भूलिए मत कि पासे का खेल, औरत की पनौती ही साबित होता आया है. हम जानते ही हैं कि इस खेल का उद्गम शकुनि मामा से हुआ है जिसने अपनी गोटियों से महाभारत रच डाली.  साथ ही यह संदेसा भी दिया कि  शुरू में गोटियाँ जीतने वाला अंत में जरुर कुटता है. यह दुनिया का अकेला ऐसा गेम है जिसमें जीतने वाले को स्वयं पर हिंसक प्रहार एवं अभद्र भाषा के हमले का अत्यधिक भय रहता है. मैं चाहती हूँ कि यदि देश में प्रेम और भाईचारे का वातावरण पुनर्स्थापित करना है तो तत्काल प्रभाव के साथ सबसे पहले इस लूडो को आग लगाइए . साथ ही इस देश के मनोवैज्ञानिकों एवं जांच आयोगों से भी विनम्र अनुरोध है कि वे भी इस बात पर शोध करें कि इंसान बड़ा हो या छोटा पर "यार, लूडो की हार पचती क्यों नहीं?"
#lockdownStories23 #lockdown2 #लूडो #ludo #Vadodara Ludo case #Coronavirus_Lockdown #iChowk #preetiagyaat #प्रीतिअज्ञात

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

यह शहर कभी हारता नहीं!

इस कोरोना वायरस से लड़ते-लड़ते हम सबको एक माह से अधिक हो गया है, लेकिन केसेस की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है. राज्य प्रशासन और सरकार सभी इस मुद्दे को लेकर चिंतित हैं और जो बन पड़ा; कर भी रहे हैं. विभिन्न संगठनों और व्यक्ति विशेष ने भी इस युद्ध में अपनी भागीदारी निश्चित की है लेकिन समस्या सुधरने के स्थान पर और जटिल होती जा रही है. ऐसे में चूक कहाँ हो रही है? क्या हमसे ही? यदि हाँ, और अब न संभले तो आगे संभल पाना बहुत मुश्क़िल होगा. क्या हम कुछ दिनों के लिए घर नहीं बैठ सकते? जो भी किचन में है उसी से काम नहीं चला सकते? जब जीवन का सवाल है तो दाल-रोटी भी इसके लिए काफ़ी है. समय साथ देगा तो आगे व्यंजन भी मिलेंगे पर हमेशा के लिए घर में क़ैद होने से बचना है तो अभी हमें समय के साथ चलना ही पड़ेगा.

देश-दुनिया में कहीं, कुछ  भी बुरा हो तो तक़लीफ़ होना स्वाभाविक है लेकिन जब आग अपने घर तक पहुँच जाए तो पीड़ा और भी बढ़ जाती है. आज मेरा अहमदाबाद ख़बरों में है. 
अब तक अहमदाबाद शहर में 1,638 कोरोना वायरस पॉजिटिव मामले सामने आए हैं जो गुजरात में सबसे ज्यादा है. महाराष्ट्र के बाद देश में दूसरे स्थान पर गुजरात ही है. अहमदाबाद नगरपालिका आयुक्त (म्युनिसिपल कमिश्नर) विजय नेहरा ने एक वीडियो संदेश में बताया कि इनमें से 75 मरीजों की मृत्यु हो गई और 105 स्वस्थ हो चुके हैं. शेष मामले सक्रिय हैं.
उन्होंने यह भी कहा कि "वर्तमान में, अहमदाबाद में COVID-19 के दोहरीकरण की दर चार दिन है, जिसका अर्थ है कि मामले हर चार दिन में दोगुने हो जाते हैं. यदि यह दर जारी रहती है, तो हमारे पास 15 मई तक 50,000 मामले और 31 मई तक लगभग 8 लाख मामले होंगे."

मैं इस शहर को पिछले बीस वर्षों से जानती हूँ. इस शहर के उत्सवों की साक्षी रही हूँ. यहाँ नवरात्रि के नौ रंग देखे तो पतंग की डोर चढ़ आसमान चूमते हौसले भी. उत्तरायण की मीठी जलेबियों और पूरी उन्धियु का स्वाद भी अभी जुबां से गया नहीं है!  इस शहर में रहने से कहीं ज्यादा जिया है मैंने इसे. यह त्योहारों को सीने से लगाकर चलने वाला शहर है जो गरबा में किसी अज़नबी के हाथों में भी डांडिया थमा अपने दिल के घेरे को थोडा और चौड़ा कर देता है. यहाँ मिठास सिर्फ़ खाने में ही नहीं, व्यवहार में भी बसती है.
मैंने यहाँ की बाढ़ भी देखी और भूकंप भी. कभी लाशों के ढेर पर सिसकते तो कभी दंगों की आग से झुलसते इस शहर को देख बार-बार आँखें नम की हैं लेकिन उसके बाद मदद को आगे आये लाखों हाथ भी देखे, संवेदनशीलता देखी और यह जाना कि जूझना, उठना और फिर चल पड़ना किसे कहते हैं! दूसरों के जीवन को संवारने का ज़ज़्बा मुझे इसी शहर ने सिखाया है. इसलिए इतना अवश्य जान गई हूँ कि यह शहर कभी हारता नहीं! इसे पूरे दिलोजान से जीना आता है! हर कठिनाई को पार कर आगे बढ़ने की जो क्षमता है न इसमें; उसकी जितनी भी प्रशंसा की जाए वो कम है. अहमदाबाद और उल्लास, ये दोनों ट्रेन की पटरियों से साथ ही चलते हैं सदा.

मैं जानती हूँ कि आवश्यक सेवाओं के अतिरिक्त सभी काम बंद हैं. व्यापारियों को लाखों का नुकसान भी हो रहा होगा लेकिन जब सोचती हूँ कि गली के मोड़ पर जो मोची बैठता था उसका चूल्हा आज जला कि नहीं! कपड़े रिपेयरिंग करने वाले काका के पास खाने लायक़ पैसा तो जमा होगा न अभी! वो चाकू की धार तेज करने वाला और आज के जमाने में भी प्लास्टिक के दस-दस रूपये के सामान बेचते ठेले वाले का क्या हुआ! तब मुझे सारे बड़े दुःख बेहद बौने लगने लगते हैं. इसलिए जब तक ये संकट टल नहीं जाता ये हमारी ही जिम्मेदारी है कि अपनी सामर्थ्य से जिसके लिए जो और जितना बन पड़े, करें. लोगों को समझाएं, हेल्पर्स को न बुलाएं और न ही उनकी सैलरी काटें. इससे न केवल उनको ही तसल्ली मिलेगी बल्कि आपकी यह भलाई आपको भी संतुष्टि देगी. जरा सोचिये, जब बाद में कभी आप अगली पीढ़ी को इस संकटकाल की कहानियाँ सुनायेंगे और वे आपसे पूछेंगे कि "जब देश कष्ट में था तो आपने क्या किया?" तो उस समय आप शर्मिंदा होने की बजाय शान से कहेंगे कि "मैंने उन सभी की सहायता की जो मुझ पर निर्भर थे." बस इतना ही तो करना है हम सबको कि जो हम पर निर्भर हैं, उन्हें यह विश्वास दिलाएं कि हम उनके साथ खड़े हैं और वे घर से बाहर न निकलें.

अहमदाबाद ही क्यों, गुजरात ही क्यों, भारत ही क्यों, सम्पूर्ण विश्व को यही सोचना है कि हमने इस लड़ाई में अपना क्या योगदान दिया या दे सकते हैं! मैं जानती हूँ कि हम सब हारेंगे नहीं! बस कुछ ही दिनों की बात है ये. निकल जाएगा ये दौर भी और एक दिन हम सब अपनी पुरानी दिनचर्या में लौट इन पलों के किस्से गढ़ रहे होंगे.
न घबराना है और न हताश होना है हमें. बस अपना और अपनों के स्वास्थ्य का पूरा ख्याल रखना है.
- प्रीति 'अज्ञात'
https://www.ichowk.in/society/coronavirus-cases-in-ahmedabad-city-and-its-will-to-fightback/story/1/17408.html
#lockdownStories22 #Ahmedabad  #lockdown2 #Coronavirus_Lockdown  #preetiagyaat #iChowk #प्रीतिअज्ञात

गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

कोरोना,देख लेना....इस लॉकडाउन में सबसे ज्यादा हाय तुम्हें प्रेमियों की ही लगेगी.


हाल ही में अहमदाबाद में एक प्रेमी जोड़े को पुलिस द्वारा गिरफ़्तार कर लिया गया. पुलिस के अनुसार दोनों ने लॉकडाउन का उल्लंघन किया और कार में पकड़े गए. बताइये, ये भी कोई बात हुई. कार लॉक तो कर रखी थी न दोनों ने. अब आख़िर प्रेमी लोग जाएं तो जाएं कहाँ! घर में पहले से ही बैन चल रहा तो कैसे भी करके, छुपते-छुपाते मिलने के 100 आइडियाज आते थे. मॉल, सिनेमा, पार्क, रेस्टोरेंट, कॉलेज केंटीन, हाईवे, टूरिस्ट स्पॉट इतने तो हमें ही बिना जाए पता हैं तो जिसको जाना है उसके पास तो कितनी लम्बी लिस्ट होगी मिलने-मिलाने वाली जगहों की! लेकिन ये मुआ लॉकडाउन तो बजरंग दल की वैलेंटाइन लाठी (सहारे वाली नहीं, कुटाई वाली) बन गया है कि जहाँ जाओ वहीं से बेइज़्ज़ती का मुकुट पहन निकल जाना पड़ता है. तब्लीग़ी ज़मात के लोग जमा हो गए, हाईवे पर हजारों की भीड़ इकट्ठी हुई, मुंबई में भी यही दृश्य लेकिन प्रेमी! उफ़! उनका इस जगत में कोई खिवैया, कोई पालनहार नहीं! 

अब पिलीज़ इसे भड़काऊ पोस्ट समझकर इस लॉकडाउन के मौसम में हमें लॉकअप में मत डाल देना पर जरा एक बार सोचकर तो देखो कि थाली संगीत वाले दिन या फिर आतिशबाज़ी के समय अगर प्रेमी जोड़े 'प्यार किया तो डरना क्या' पर साल्सा या चलो भरतनाट्यम (देसी नृत्य से देशभक्ति की भीनी सुगंध आती है जी) करते हुए सड़कों पर निकलते तो कितना ग़ज़ब का प्रेममयी वातावरण होता! कुछ नहीं तो इन्हें वो नई वाली ट्रेन की बोगियों में बिठाने की ही व्यवस्था कर दी जाती कि वे एक-दूसरे के आँखों में आँखें डाल (यह विश्व की बिना औज़ार वाली पहली शल्य क्रिया के रूप में प्रचलित है) कुछ कह सकें, सुन सकें, कोरोना को जी भर कोस सकें. 

मेरी तो यह बेशक़ीमती राय है कि एक संडे विश्वभर के सभी प्रेमी अपनी-अपनी छतों पर इकट्ठे हों 'कोरोना तेरा सर्वनाश हो' भजन का नौ बार पाठ करें. उसके बाद नीचे वाले फ्लोर की खिड़की (जहाँ इंतज़ार में पहले पगलाते थे, वही स्थान) से गुलाब की इक्यावन पंखुड़ियाँ पूर्व दिशा की तरफ़ उछाल दें. तत्पश्चात फरवरी माह में प्राप्त हुए टेडी को डेटॉल से धोकर तीन चॉकलेट का सेवन करें. सभी जातकों के लिए यह उत्तम फलदायी रहेगा. कृपया, इसे हास्य समझकर अपने दन्तकांति( ऊप्स प्रचार हो गया) के दर्शन न करवाएं यह बेहद गंभीर समस्या है जिसका शीघ्र ही निदान आवश्यक है. वैसे भी खाली उदास, मुँह लटकाये बैठने से अच्छा कुछ कीजिये. 

जहाँ तक पुलिस और प्रशासन की बात है तो उनके हिसाब से तो वे अपनी ड्यूटी ही निभा रहे हैं वरना प्रेमियों को अलग करना किसे अच्छा लगता और फिर अपने देश में तो भाई लोग ही आधों के सिर फोड़ आते हैं, कुछ के माता-पिता उनकी शादी कहीं और कर देते हैं. तो अब बचे कितने प्रतिशत? उतने ही न, जितने कोरोना से बचते हैं! लेकिन हम इन प्रेमियों के प्रतिनिधि बनकर दुश्मनों को ठीक वही समझाए देते हैं जो वर्ष 1991, माह दिसंबर, शुक्ल पक्ष में 'सड़क' फिल्म के माध्यम से कुमार शानू एवं अनुराधा पौडवाल जी समझा चुके हैं, कि 
"जब-जब प्यार पे पहरा हुआ है/ प्यार और भी गहरा, गहरा हुआ है
दो प्यार करने वालों को,जब-जब दुनिया तड़पाएगी/ मोहब्बत बढ़ती जाएगी"

मैं विश्वभर के समस्त प्रेमियों के प्रति सहानुभूति रखती हुई इस 'कोरोना वायरस' की कड़े शब्दों में निंदा करती हूँ साथ ही सरकार से यह मांग भी करती हूँ कि यथाशीघ्र इसे कठोरतम सजा दिलवाने का प्रबंध करें जिससे यह नासपीटा विषाणु किसी को मुँह भी न दिखा सके. इसकी हरकतों की वज़ह से कितने दिलों को आघात पहुँचा है, कितनी भावनायें आहत हुई हैं, इसका निश्चित आंकड़ा अभी तक प्राप्त नहीं हो सका है. वो क्या है न कि आधी प्रेम कहानियाँ तो छुपकर चलती रहती हैं. खी-खी-खी

पर फिर भी मेरा प्रश्न आप सबके गले में तलवार की तरह झूलता रहेगा कि आख़िर हर मौसम में गाज़ प्रेमियों पर ही क्यों गिरती है? प्रेमियों के हिस्से में ही झिड़की- दुत्कार और चौराहों पर मुर्गा बनना क्यों लिखा है? व्यवस्था की बलिवेदी पर प्यार के पंछियों के फुर्र वाले पर काट क्यों दिए जाते हैं जी? आख़िर सारा ज़माना, प्रेम का दीवाना क्यों नहीं है जज साहब? मैं पूछती हूँ नफ़रतों से भरी इस दुनिया को, आख़िर प्रेम इतना अखरता क्यों है?

प्रेम, इश्क़, मोहब्बत और लव करने वालों, मेरी सारी संवेदनायें तुम्हारे साथ हैं. देखना, इस दुष्ट कोरोना के जाते ही प्रशासन आपको किसी पहाड़ या झील के पास भेजने की व्यवस्था करेगा. तब तक के लिए मैं अखिल भारतीय प्रेमी संघ से फ़ोन रिचार्ज राशि के लिए अनुरोध याचिका लगा रही हूँ. पर कोरोना याद रखना तुम भी बचोगे नहीं! देख लेना इस लॉकडाउन के समय में तुम्हें सबसे ज्यादा हाय प्रेमियों की ही लगेगी. 
और प्रेमियों आप भी समझो थोड़ा...ईश्वर आप और आपके प्रेम को सदैव बनाये रखे इसके लिए जरुरी है कि आप नियमों का पालन करें. जीवित रहेंगे तभी तो प्रेम निभा पाएंगे न! उदास न होइए. ये समय भी कट जाएगा जैसे एग्जाम वाला काटा था. यह भी आपके प्रेम की परीक्षा ही तो है.
अब आपके लिए इस प्रेरक गीत की पंक्तियाँ छोड़ मैं विदा लेती हूँ-
"एक डाल पर तोता बोले, एक डाल पर मैना
दूर-दूर बैठे हैं लेकिन प्यार तो फिर भी है न 
बोलो है न?"
कठिन काल में यही मुस्कान सलामत रहे! आमीन 
- प्रीति 'अज्ञात'

#lockdownStories21 #lockdown2 #Coronavirus_Lockdown #iChowk #preetiagyaat #प्रीतिअज्ञात

बुधवार, 22 अप्रैल 2020

#worldEarthDay: पहली बार हम रोए तो पृथ्वी मुस्कुराई! #lockdownStories



Earth Day 2020: कोरोना महामारी (Coronavirus) के इस कठिन समय में जबकि मनुष्य आंखों में भय की परिभाषा लिए अत्यधिक परेशान एवं दुखी है और सम्पूर्ण विश्व औंधें मुंह गिरा दिखाई दे रहा है. सरकारों के हाथ-पैर फूल चुके हैं और हर जगह अब प्रार्थना को हाथ उठने लगे हैं. ऐसे में यदि कहीं, किसी की खोई रंगत लौट आई है और कोई अब खुलकर सांसें ले पा रहा है तो वह है हमारी प्रकृति (Nature) और पर्यावरण (Environment) . उन्होंने आधुनिक मनुष्यों के उस घमंड को पल भर में चकनाचूर कर दिया जो स्वयं को इस विशाल सृष्टि का विधाता समझ बैठे थे. कोरोना वायरस ने जो वैश्विक तबाही मचाई है. उसका असर आने वाले कई वर्षों तक रहेगा. पीढियां इसे याद रखेंगी और इसकी दुःख भरी तमाम कहानियां इतिहास में दर्ज़ होंगीं. यह भी लिखा जायेगा कि इस आपदा का जो भी एकमात्र सुखद पहलू था वह केवल प्रकृति के पक्ष में खड़ा था. इसके चलते ही दुनिया भर में लॉक डाउन (Lockdown) करना पड़ा. मनुष्य (Human) घरों में क़ैद हो गए और इसी कारण प्रकृति को अपने उन घावों को भरने का समय मिला. जिसे मनुष्य दशकों से कुरेद रहा था.

समझाने भर से जो मान जाए वह मनुष्य कहाँ? युगों से स्वार्थी इंसान बस अपनी ही सोचता आया है और जितना, जिस हद तक हो सकता था. उसने प्रकृति का शोषण किया. मनुष्य पर्यावरण की सुध लेना भूल गया तो इस आपदा ने उसे चारों खाने चित्त करने में कोई दुविधा नहीं समझी. तभी तो आज दुनिया का चेहरा जितना बेनूर और रंगहीन होता जा रहा. प्रकृति उतनी ही जोरों से खिलखिलाने लगी है. आसमान का असल रंग लौट आया है और वृक्षों की हरीतिमा. पहाड़ अब दूर से हाथ हिलाते दिखाई देते हैं तो अपनी स्वच्छता को देख नदियों ने भी गति पकड़ ली है.

प्रकृति की प्रकृति में तो अब भी कुछ नहीं बदला. बस, मनुष्य ही खोटा निकला. हमें प्रकृति जैसा बनना होगा. इससे जीने की प्रेरणा लेनी होगी. आसमान सिखाता है कि मां के आंचल का अर्थ क्या है. पहाड़ सच्चे दोस्त की तरह, किसी अपने के लिए डटकर खड़े रहने की बात कहते हैं. सहनशक्ति धरती से सीखनी होगी.

प्रेम क्या होता है और बिना किसी अपेक्षा के अगाध स्नेह कैसे किया जाता है. किसी के दुख में साथ कैसे दिया जाता है. इस कला को पशु-पक्षियों से बेहतर कोई नहीं जानता.  कट-कटकर गिरने के बाद फिर कैसे बारम्बार उठना है, आगे बढ़ना है.जीवन का यह पाठ पौधे सिखाते हैं. जब तक ये जीवित हैं निस्वार्थ प्राणवायु भी देते हैं कि हमारे अस्तित्त्व को कोई ख़तरा न रहे.

धूप, हवा, पानी से दान की प्रसन्नता महसूस करनी होगी. सभ्यता, बीजों और माटी से समझनी होगी जो उगने के लिए धूप और पोषक तत्त्व साझा करते हैं. ये इंसानों की तरह झगड़ा नहीं करते.

मनुष्य जाति पर यह वो ऋण है, जो हम कभी चुका नहीं सकते लेकिन इसको सहेजकर धन्यवाद अवश्य दे सकते हैं. दुर्भाग्यपूर्ण है कि धन्यवाद देना तो दूर, हम तो इसका उचित प्रकार से संरक्षण भी न कर सके. आज धरती का अस्तित्व ख़तरे में है. वायुमंडल में जो भीषण प्रतिकूल परिवर्तन हुए हैं और प्राकृतिक आपदाओं के रूप में जिसका परिणाम विश्वभर को झेलना पड़ रहा है, वह मानव के अपने कुकृत्यों की ही देन है.

यदि हम प्रकृति की सीख को आत्मसात कर पाते हैं तो ही मनुष्यता को पा सकेंगे. उसके पश्चात् ही प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षित होने की आशा रख सकते हैं. सरकारें कुछ नहीं कर सकतीं जब तक कि हम मनुष्यों की सोच निज हितों से ऊपर न उठे. जिन कारणों से पर्यावरण को हानि पहुंच रही है उन क्रियाकलापों का उचित प्रबंधन होना आवश्यक है साथ ही पर्यावरण संरक्षण हेतु जनमानस को जागरूक एवं सचेत भी करना होगा.

सृष्टि ने हमें वो सब दिया जो इस धरती को स्वर्ग बना सकता था लेकिन हम उसे प्लास्टिक और विषैले पदार्थों से भर अपनी असभ्यता का परिचय देते रहे. परिस्थितियां इतनी विकट हो चुकी हैं कि अब वैश्विक स्तर पर यह घनघोर चिंता का विषय बन चुका है. यहां तक कि पृथ्वी के समाप्त होने की तिथि भी आये दिन घोषित होने लगी है. कोरोना भी यही संकेत दे रहा है.

समय तेजी से आगे बढ़ रहा है पर अभी बीता नहीं. हम सब को अपनी इस धरा से प्रेम है तो इसे ज़ाहिर करना भी सीखना होगा और जब तक ये प्रेम जीवित है तब तक पृथ्वी के बचे रहने की उम्मीद क़ायम है. यदि प्रेम ही ख़तरे में है तो फिर यूं ही जीकर करेंगे भी क्या और किसके लिए! झरनों में जो संगीत है, नदी की जो कलकल है, पहाड़ों से लिपटी जो बर्फ़ है, तारों से खिलखिलाता जो आकाश है, ये बाँहें फैलाए जो वृक्ष खड़े हैं और फूलों की ये सुगंध जिसे घृणा की हजारों जंजीरें भी अब तक बाँध नहीं सकी हैं. ये पक्षी जो आसपास फुदकते, चहचहाते हैं... यही प्रेम है, यही हमारी प्यारी पृथ्वी है.

यह हमारी वो विरासत है जिसे हमें आने वाली नस्लों के लिए सुरक्षित रख छोड़ना है कि वे जब इस दुनिया में आयें तो ये उन्हें भी इतनी ही सुन्दर दिखाई दे जिसके प्रत्यक्षदर्शी हम सब रहे हैं. दुआ करती हूं कि हम सब स्वस्थ, सुरक्षित रहें एवं जब इस संकटकाल से बचकर बाहर आयें तो भूलें नहीं कि अब हमें अपनी इस पृथ्वी को भी बचाना है.

रविन्द्र नाथ टैगोर ने कहा था कि 'पृथ्वी को पेड़ से सजाकर स्वर्ग जैसा बनाने के लिए प्रयास करते रहना चाहिए. पेड़ से बातें करना, उन्हें सुनना यह सब महसूस करना ही स्वर्ग सी अनुभूति देता है.'

पृथ्वी ने हमें जीव-जंतुओं, वनस्पतियों की लाखों प्रजातियां उपहार में दी हैं जिनमें से कई प्राकृतिक असंतुलन के कारण विलुप्त हो गईं और कुछ हम मनुष्यों के कारण. विश्व भर को पर्यावरण सम्बन्धी मुद्दों के प्रति जागरूक करने एवं शुद्ध जल, वायु और पर्यावरण के लिए लोगों को प्रेरित करने के उद्देश्य से 22 अप्रैल को पृथ्वी दिवस (Earth Day) के रूप में मनाया जाता है. 'पर्यावरण संरक्षण' के लिए संकल्प लेने का आज से बेहतर और क्या दिन होगा. 'पृथ्वी दिवस' की शुभकामनाएं.

- प्रीति 'अज्ञात'
इसे आप इंडिया टुडे की ओपिनियन वेबसाइट iChowk पर भी पढ़ सकते हैं -
https://www.ichowk.in/society/earth-day-2020-how-planet-earth-detoxing-in-the-time-of-coronavirus-outbreak/story/1/17387.html
#lockdownStories20  

सोमवार, 20 अप्रैल 2020

हमारी पुलिस भी उतनी ही निरीह है जितने कि हम और आप!

एक ऐसे समय में जबकि पूरा विश्व कोरोना महामारी से जूझ रहा है.  हर तरफ़ मृत्यु का भय व्याप्त है और लोग स्वयं एवं अपने प्रियजनों की जीवन रक्षा को लेकर चिंतित हैं ऐसे महासंकटकाल में पालघर से आया वीडियो और दुखद समाचार स्तब्ध कर देता है. वे लोग जिन्हें घर के अन्दर रहकर lockdown का पूरा पालन करना था वे लाठी और घातक हथियारों से लैस हैं. इन्हें मास्क की भी कोई जरुरत नहीं इन मूर्खों को तो खुद ही मर जाना चाहिए जो निहत्थे साधुओं और उनके ड्राईवर पर एक अफ़वाह के तहत हमला कर उनकी नृशंस हत्या कर देते हैं. कोई कहता है कि उन पर बच्चा चोरी का शक था तो किसी को किडनी चोरी का. किसका बच्चा चोरी हुआ था और किसकी किडनियाँ गायब की थीं इन साधुओं ने? इसका जवाब देने वाला कोई नज़र नहीं आया! कुछ लोग इस आदिवासी समाज का जाति धर्म तलाश रहे हैं तो कुछ पुलिस पर दोष मढ़ रहे हैं. 

जब हम खून से लथपथ हुए एक साधु को पुलिस वाले का हाथ पकड़ जाते हुए या फिर भयाक्रांत हो उनका कन्धा थामने की कोशिश करते देखते हैं तो यक़ीन मानिए उस वक़्त पूरी मानवता एक साथ शर्मसार होती है. तुरंत प्रश्न उठता है कि क्या इससे भी बुरी कोई तस्वीर कभी देखी है हमने? दुर्भाग्य कि जो उत्तर हमें प्राप्त होता है, वह हमारा सिर थोडा और झुका देता है. मॉब लिंचिंग की कई घटनाएँ आँखों के सामने तैरने लगती हैं. जहाँ भीड़ ने अपने आप को न्यायपालिका समझ किसी भी सिद्ध या असिद्ध घटना के दोषियों को अपना निर्णय सुना दिया था. 

भीड़ यही करती आई है क्योंकि भीड़ सदैव बचती आई है. भीड़ के चेहरे नहीं होते, भेड़ियों के झुण्ड में एक कुत्सित सोच काम करती है.  घृणा से लबरेज़ एक विकृति है जो उन्हें न्यायाधीश के पद पर आसीन कर देती है. वे जानते हैं कि हाँ, शायद कभी नामों की सूची बनेगी पर इससे बेहतर वे ये भी जानते हैं कि हमारा लचर 'सिस्टम' इस बार भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा. शायद इन्होने  मॉब लिंचिंग को वैध ही मान लिया हो क्योंकि जब हत्या की सजा न हो, फाँसी न हो तो अपराधियों के हौसले तो बुलंद होते ही हैं. इन घटनाओं पर रोया जा सकता है, दीवारों से सर टकराया जा सकता है, चीखते हुए पुलिस वालों को गाली दी जा सकती है पर इस सबसे अपराध रुकेंगे, यह सोचना स्वयं को धोखा देने से अधिक और कुछ भी नहीं! 

आख़िर मॉब लिंचिंग के खिलाफ़ एक सख्त कानून क्यों नहीं बना अब तक? किस मानसिकता ने हाथ बांधे रखे होंगे? और मैं केवल चंद कागजों पर लिखे कुछ शब्दों की मांग नहीं करती जिन्हें जब चाहे जैसे तोड़ा-मरोड़ा जाए, मैं ऐसे नियम की मांग करती हूँ कि जिसका लिखा एक भी शब्द कोई हिला न सके! एक ऐसा कानून, जिससे न्याय की प्रतीक्षा में वर्षों अदालतों में चक्कर काटते और सैकड़ों दरवाजों को पीट निराश हो लौटते चेहरे न के बराबर मिलें और हमें हमारी न्यायिक व्यवस्था पर पूरा भरोसा हो, सम्मान रहे. कब हो पायेगा ऐसा कि समाज किसी को कुचलते समय भयभीत हो!


एक पल को लगता है कि इस पूरे प्रकरण में पुलिस ही दोषी है जो भीड़ से साधुओं एवं उनके ड्राईवर को बचा न सकी! लेकिन हमारी पुलिस के पास एक लाठी के सिवाय है ही क्या! उसके भी चलाने के आदेश मिलेंगे तब  ही न चलाएगी. रही बात गोलियों की तो वो कहीं शादियों में नेता चलाते हैं तो कहीं किसी महापुरुष की तस्वीर उससे छलनी कर दी जाती हैं. 
सच तो ये है कि हमारी पुलिस भी उतनी ही निरीह है जितने कि हम और आप! सोचना यह है कि आने वाले समय में हम बचेंगे कैसे? तब तक थोड़े दुःख हैं, थोड़े आँसू और एक आशावादी सोच जो अब भी कहती है कि घबराओ मत! ये समय भी बीत जाएगा और कल सुनहरा होगा. वीडियो देखने के बाद मैं निशब्द हूँ और न जाने कितना क्षोभ ह्रदय में भर गया है. मैं उन मृतात्माओं की भीषण वेदना की कल्पना कर भी सिहर जाती हूँ जिनकी रूह की शांति की दुआ कर रही हूँ. लेकिन किसी भी पूर्वाग्रह, आक्षेप से कोसों दूर रह मैं अब भी उम्मीद की एक अकेली धुंधली खिड़की पर सिर को टिकाये बैठी हूँ.
- प्रीति 'अज्ञात'
https://www.ichowk.in/society/palghar-lynching-incident-viral-video-exposed-maharashtra-police-and-society-coronavirus-lockdown/story/1/17376.html

#lockdownStories19 #lockdown2  #Coronavirus_Lockdown #iChowk #preetiagyaat #प्रीतिअज्ञात

रविवार, 19 अप्रैल 2020

स्विट्जरलैंड का पर्वत और हमारा तिरंगा







आज की सुबह एक बेहद ख़ूबसूरत तस्वीर के साथ शुरू हुई जिसमें स्विट्जरलैंड का महत्वपूर्ण लैंडमार्क मैटरहॉर्न पर्वत, तिरंगे की रोशनी में रंगा हुआ था. 1000 मीटर से अधिक आकार का हमारा तिरंगा COVID 19 के खिलाफ लड़ाई में सभी भारतीयों की एकजुटता व्यक्त करने के लिए प्रदर्शित किया गया है. राष्ट्र्रीय ध्वज की झलक भर ही हम भारतीयों में अद्भुत भाव पैदा करती है. हममें स्वतः ही एक अज़ब सा आत्मविश्वास और सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है.  कोरोना वायरस के विरुद्ध लड़ाई में यही उम्मीद और दृढ़ निश्चय हम सबमें बना रहे, इसी सोच को समर्पित यह तिरंगा इस त्रिकोणीय पर्वत पर जगमगा रहा है.

इस एक दृश्य ने हमें यह भी बताया कि तस्वीरों की भी अपनी इक भाषा होती है जो मौन रहकर भी संवाद करती है, प्रेरणा देती है. इसमें यह सन्देश भी निहित है कि महासंक्रमण के इस  काल में सब कुछ बिखरने के बजाय, यह सभी सीमाओं को फिर से जोड़ने और साथ चलने का समय है. स्विट्जरलैंड ने यह भाव प्रस्तुत करके न केवल वैश्विक समाज को एक आदर्श उदाहरण ही दिया है बल्कि विश्वभर को अपनी सोच के विस्तार की ओर इंगित भी किया है. इसके लिए स्विट्जरलैंड निश्चित रूप से सराहना एवं बधाई का पात्र है और हम भारतवासियों के लिए यह गौरवशाली पल के रूप में साथ रहेगा.

इस वायरस के हमले ने एक बार फिर यह भी सिद्ध कर दिया है कि हम किसी भी देश, धर्म, जाति के हों पर सबके दुःख का रंग एक-सा ही होता है. ये पीड़ा ही है जो हमारी सोच को एकाकार कर मनुष्यता जीवित रखती है और हमारी परेशानियाँ, हमारे दर्द जब-जब भी आँखों से उतर रिसने लगते हैं तो सारे भेदभाव किसी कोने में स्वतः ही सरक जाते हैं. इस समय सम्पूर्ण विश्व की जो तस्वीर दृष्टमान है वही तो हमारे 'वसुधैव: कुटुम्बकम्‌' की अवधारणा का मूलभाव है.
             सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः
             सर्वे भद्राणिपश्यन्तु मा कश्चिद्दुःख भाग भवेत्
यह सह अस्तित्व से जुड़ी शाश्वत भावना है जिसमें संकीर्ण सोच के लिए कोई स्थान नहीं होता! यही वर्तमान समय की अनिवार्यता भी है. अब जबकि इस वायरस के विरुद्ध पूरा विश्व एकजुट है तो आशा करते हैं कि इस समस्या से निकल आने के बाद भी राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सौहार्द्र का यही भाव बना रहे!

ऐसे में बशीर बद्र साहब का यह शे'र और भी प्रासंगिक हो जाता है कि
           "सात संदूक़ों में भर कर दफ़्न कर दो नफ़रतें
            आज इंसाँ को मोहब्बत की ज़रूरत है बहुत"
lockdown के इस कठिन समय में ऐसे किस्से चेहरे पर मुस्कान लाने और हौसला बढ़ाने के लिए काफ़ी हैं. मैं जानती हूँ कि हम सब जल्द ही इस महामारी को परास्त कर सकेंगे. बस सारी वैमनस्यता छोड़ साथ चलना होगा. 
तिरंगे को हम सबका सलाम और स्विट्जरलैंड, तुम्हारा शुक्रिया :)
- प्रीति 'अज्ञात'
https://www.ichowk.in/society/switzerland-mountain-lit-uo-with-indian-tricolor-flag-will-keep-our-moral-high-in-coronavirus-fightback/story/1/17372.html
#lockdownStories18 
#lockdown2  #Coronavirus_Lockdown #iChowk #preetiagyaat #प्रीतिअज्ञात

गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

सलमान, आप सही मायने में नायक हैं!



मेरी तरह बहुत से लोग होंगे जिनके प्रिय सिने अभिनेताओं की सूची में सलमान खान का नाम शायद शामिल न भी हो लेकिन फ़िल्मों से इतर  सलमान की वो निज़ी ज़िंदगी जिसमें वे सामाजिक कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं और जितना बन पड़े, मदद करते ही हैं; उसकी मैं हमेशा से ही प्रशंसक रही हूँ. बीते दिनों ही इंडस्ट्री के लॉक डाउन के चलते बेरोजगार हुए हजारों दिहाड़ी मजदूरों के अकाउंट में उन्होंने लगभग पाँच करोड़ रुपये ट्रांसफर किए हैं, साथ ही उनके घर राशन भी पहुँचाया है. नायक होने के यही सही मायने हैं.

आज इसी सलमान खान ने एक इतना प्रभावपूर्ण वीडियो शेयर किया है कि जो भी देखेगा उसके दिल से सलमान के लिए दुआ ही निकलेगी. कोरोना वायरस से जूझते देश के इस विपत्ति काल में उनकी मानवीय संवेदना और गंभीरता झकझोरकर रख देती है और आप यह मानने को विवश हो जाते हैं कि ये दबंग ही असली सुल्तान है.

हम सभी जानते हैं कि कोरोना के विरुद्ध, युद्ध में खड़े होने के लिए    लॉकडाउन का पालन ही एकमात्र सबसे बड़ा हथियार है. इसके लिए हर उपलब्ध माध्यम से निरंतर अपील भी की जा रही है. लेकिन फिर भी जनता में से बहुत से ऐसे लोग हैं जो अभी भी इसे हल्के में ले रहे हैं. लॉकडाउन का उल्लंघन करने वाले इन्हीं लोगों को सलमान ने जमकर लताड़ा है. साथ ही सभी आवश्यक सेवाओं में जुटे लोगों पर हमला करने वालों पर ख़ासी नाराज़गी भी ज़ाहिर की है. 

यह वीडियो ऐसे समय पर आया है जब मुरादाबाद में डॉक्टर और एम्बुलेंस पर हुए दुर्भाग्यपूर्ण हमले की देश भर में निंदा हो रही है. साढ़े 9 मिनट के इस वीडियो में सलमान कहते हैं कि "ज़िंदगी का 'बिग बॉस' शुरू हो चुका है. ये बीमारी ऊँचनीच, जातपात, उम्र कुछ नहीं देखती. बाहर मत जाओ, गैदरिंग न करो. भगवान हमारे अन्दर है जो करना है घर पर करो."
नाराज़गी जताते हुए वे आगे कहते हैं, "आख़िर ये सब किसके लिए है?  लोग इस बात का जवाब दें जो सरकार की बात नहीं सुन रहे. जो आपकी सेवा कर रहे हैं, उन पर आपने पत्थर बरसा दिए? चंद जोकरों की वजह से ये बीमारी फैली जा रही है." उन्होंने यह भी चेतावनी दी कि "दुआ करो वो नौबत न आये कि आपको समझाने के लिए मिलिट्री बुलाई जाए."

खैर, सबके चहेते सल्लू का राष्ट्र के नाम संबोधन तो वैसे भी पेंडिंग था ही. अच्छा ये हुआ कि इधर मोदी जी ने अपील की और उधर सलमान ने इस अपील का उल्लंघन कर रहे लोगों की अच्छे से क्लास ले ली. 
सलमान की अपनी फैन फॉलोइंग है. अपने प्रिय सेलिब्रिटी की कही बात लोग ध्यान से सुनते भी हैं. ऐसे में माना जा सकता है कि lockdown का पालन करवाने के लिये मोदी और सलमान की ये जुगलबंदी और डबल डोज़ अवश्य ही कारगर सिद्ध होगी. 
इस वीडियो के लिए सलमान की जितनी भी प्रशंसा की जाए वो कम है. उन्हें हम सबका सलाम, शुक्रिया. 
##lockdownstories17  #lockdown2.0   #Coronavirus_Lockdown #iChowk #preetiagyaat #प्रीति_अज्ञात




बुधवार, 15 अप्रैल 2020

कोरोना के साथ-साथ 'छींको-फ़ोबिया' से भी बचना जरुरी #lockdownStories2.0 #lockdownstories16



जहाँ एक ओर देश भर में कोरोना वायरस से बचने और इसके लक्षणों को समझाने के लिए कोई भी क़सर नहीं छोड़ी जा रही है वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने इस बात को मरते दम तक न समझने और भ्रांतियों पर भरोसा करने की ही ठान रखी है. यह अंधविश्वास भी नहीं कोरी बेवकूफ़ी ही है. यही बेवकूफ़ी तब अपराध में बदल जाती है जब मात्र खाँसने भर से कोई किसी को गोली मार देता है! जी हाँ, पिस्तौल से निकलती गोली की ही बात हो रही है.


क्या है यह घटना?
यह अज़ीबोग़रीब घटना उत्तर प्रदेश के गौतमबुद्ध नगर की है. जहाँ ग्रेटर नोएडा क्षेत्र में लूडो खेल रहे चार युवकों में से एक, प्रशांत को खाँसी आ गई. बात बढ़ते-बढ़ते कोरोना वायरस फ़ैलाने के इल्ज़ाम तक पहुँच गई और वीर उर्फ गुल्लू ने गुस्से में आकर तमंचे से प्रशांत पर गोली चला दी, जिससे प्रशांत घायल हो गया. गोली उसकी जाँघ पर लगी है और फ़िलहाल वह ख़तरे से बाहर है. 
यह उसकी क़िस्मत थी कि वह बच गया लेकिन ऐसे न जाने कितने किस्से सोशल मीडिया पर रोज़ दिखाई दे जाते हैं जहाँ कोरोना वायरस फैलाने का आरोप लगाकर लोगों से दुर्व्यवहार किया जाता है उन्हें प्रताड़ना दी जाती है. मृत्यु का भय समझ आता है पर स्वयं को बचाने के लिए किसी और की जान ले लेना कहाँ की बुद्धिमानी है!

क्या  खाँसना और छींकना ग़ुनाह है?
इस वायरस से पीड़ित मरीज़ों के लक्षण संचार के हर माध्यम फ़ोन, मैसेज, टीवी, रेडियो, अख़बार, सोशल मीडिया के द्वारा हम तक प्रतिदिन पहुँच रहे हैं. उसके बावजूद भी ऐसी घटनाएँ हैरानी में डाल देती हैं. छींकना-खाँसना स्वाभविक और अनैच्छिक क्रियाएँ हैं, इन्हें चाहकर भी रोका नहीं जा सकता. Spring का यह मौसम ही एलर्जी का होता है जहाँ वातावरण में परागकण (pollens) उपस्थित होते हैं जिससे हमें खाँसी, छींक, रैशेज़ या अन्य तरह की एलर्जी प्रतिवर्ष होती है, इस बार कुछ नया नहीं हो रहा है. सर्दी-गर्मी के कारण कितने ही लोग इस समय ज़ुकाम के भी शिकार हो जाते हैं.  

तात्पर्य यह है कि खाँसना और छींकना ग़ुनाह नहीं है! हर बात को कोरोना से जोड़ना ठीक नहीं. जनता को चाहिए कि इस 'छींको-फ़ोबिया' से बाहर निकले और इसे कोरोना जैसा घातक रंग देने की कोशिश न करे. इतना जरूर है कि कोरोना हो न हो पर इन क्रियाओं (coughing & sneezing) के शिष्टाचार (etiquette) का पालन सदैव और अवश्य ही होना चाहिए क्योंकि स्वच्छता की महत्ता हमेशा ही रहती है. यदि आपके पास रूमाल नहीं है  तो आप अपनी कोहनी की तरफ़ छींक या खाँस सकते हैं. डिस्पोज़ेबल टिशु भी स्वीकार्य है. यदि आपने हाथों का इस्तेमाल कर ही लिया है तो फिर वही 20 सेकंड तक साबुन से हाथ धो लीजिये या सैनीटाइज़र का प्रयोग कीजिये. 

लक्षणों का पुनर्पठन 
WHO द्वारा जारी एक चार्ट के अनुसार बुख़ार, सूखी खाँसी, साँस लेने में तक़लीफ़ COVID-19 के सामान्य लक्षण हैं कभी-कभी सिरदर्द,थकान और गले में दर्द भी रह सकता है. डायरिया, नाक बहना न्यूनतम है तथा केवल खाँसना/ छींकना इस बीमारी का लक्षण नहीं देखा गया है.
चूंकि यह वायरस, संक्रमित मरीज़ के खाँसने से उसके आसपास दो मीटर के क्षेत्र में रह सकता है और यदि कोई स्वस्थ व्यक्ति उस समय वहाँ से गुजर रहा हो या वहाँ उपस्थित हो तो श्वाँस नलिका के माध्यम से यह वायरस उसके शरीर में प्रवेश कर सकता है. सामान्यजन को यह सावधानी रखनी है कि सार्वजनिक स्थानों पर दरवाजे, कुर्सी या अन्य वस्तुओं को स्पर्श करने के बाद अपने चेहरे को न छुएँ और यथाशीघ्र अपने हाथ अच्छी तरह से स्वच्छ कर लें. धोना संभव नहीं हो तो सैनिटाइज़र का प्रयोग करें. 

हमें बस इतना ही करना है 
बीमारी को समझें और अन्य गंभीर लक्षण दिखने पर भी तुरंत डॉक्टर से संपर्क करें लेकिन यह कभी न भूलें कि सामान्य रूप से छींकने और खाँसने में शर्मिंदा होने जैसा कुछ नहीं है. हमारे पास पर्याप्त मात्रा में समस्याएँ हैं, नित नई अफ़वाहें फ़ैलाने से बेहतर कि हम अपनी ऊर्जा और समय उनको दूर करने और बीमारी से बचाव की सही प्रक्रिया में लगाएँ. जनता को जागरूक करें. यह इस 'वैश्विक बीमारी' से एकजुट हो लड़ने का समय है.
तब तक अपना ख़्याल रखें, स्वस्थ रहें. 
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Photo Credit: Google

मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

lockdown के प्रथम चरण से उपजते पाँच महत्पूर्ण प्रश्न #lockdownstories15

अब जबकि मार्च के अंतिम सप्ताह से प्रारम्भ lockdown का प्रथम चरण ख़त्म होने को है तो मैं यह सोचने पर विवश हो गई हूँ कि इन इक्कीस दिनों में हमने क्या सीखा? हमने जीवन को जिस तरह जीना सत्य मान लिया था, क्या वह सही था? उतना ही था? ऐसे में पांच प्रश्न इस समय ह्रदय को उद्वेलित कर रहे हैं -

1. क्या अब हम पहले से बेहतर मनुष्य हो गए हैं? 
किसी के भी व्यक्तित्व में दृष्टमान परिवर्तन इतनी आसानी से नहीं होते! एक ही झटके में सारे बुरे लोग अच्छे नहीं हो सकते और न ही सबमें सामूहिक मानवता जाग सकती है. ईर्ष्या-द्वेष, घृणा की राजनीति और समाज में दुर्भावना फैलाने वाले लोगों में भी सेंसेक्स की तरह भीषण गिरावट नहीं आई है लेकिन जो थोड़े कम बुरे हैं या कुंठा ने जिनकी अच्छाइयों को अपने घेरे में ले लिया था; उन्होंने विनम्र होना अवश्य सीख लिया है. उनकी आवाज की तल्ख़ी विलुप्तप्राय है.
अब वे डॉक्टर्स को लूटने वाला नहीं कहते बल्कि उनकी कहानियाँ कहते-सुनते आँख नम कर लेते हैं. 
हमें छोटी-बड़ी  वस्तुओं की क़द्र करना आ गया है. वो सब्जी वाला जिससे मुफ़्त में धनिया लेने और सब्जियों को सही तौलकर देने के लिए चिकचिक हुआ करती थी अब उसकी एक पुकार पर मन कृतज्ञ हो उठता है कि इतने मुश्किल समय में भी उसने हम सबकी गलियों से गुजरने में कोई आपत्ति नहीं दर्ज़ की! साथ ही उसी मुस्कान के साथ यह ढांढस बंधाना नहीं भूलता कि "बहनजी, कल फिर आऊंगा." 
वो स्वीपर अब भी उसी तन्मयता के साथ सड़क पर झाड़ू फेर जाती है और कचरे वाला भी बिना नागा आकर गंदगी समेट लेता है.  ग़र ये न आते तो सोचो किस तरह रहा जाता, हमारे अपने ही घरों में! इनका नियमित आना हमारी संवेदनाओं को पुनर्जीवित करने जैसा है.

2. क्या हमारे जीवन मूल्य बदल गए हैं?
इस समय मृत्यु भय इस क़दर हावी है कि हर तरफ़ जीवन को बचा लेने की क़वायद जारी है. यह एक ऐसा पाठ है जो विश्व भर ने लिया होगा. कुछ ही दिनों में हमारी प्राथमिकताओं की सूची में वृहद रूप से बदलाव आया है और हमने यह भी सीखा कि जीवन जीना उतना भी कठिन नहीं जितना हम और आप माने बैठे थे! आख़िर हमारी मूलभूत आवश्यकतायें हैं ही क्या? रोटी, कपड़ा और मकान के सिवा! कोरोना महामारी के इस घातक समय में जिसे देखिये वह बस एकमुश्त की रोटी और एक सुरक्षित छत से अधिक कुछ नहीं चाहता! हम कम ख़र्च में जीना भी सीख गए हैं.

3. सुख की परिभाषा क्या है और क्या है जीवन की जरूरतें?
वो जिन्होंने भौतिक सुख सुविधाओं और भोग विलास को ही सच्चा सुख मान लिया था उनके लिए सुख के मायने बदल गए हैं. अब वे सुरक्षित और स्वस्थ रहने से अधिक आवश्यक किसी बात को नहीं मानते वरना सोचिये कि दिन-रात समाज के बीच रहने वाले लोग बाहर निकलने से स्वयं को यूँ कभी नियंत्रित कर पाते! अब ग्रॉसरी खरीदते समय चटकारे से कहीं ज्यादा दाल- रोटी की फ़िक़्र सताती है. 'दाल-रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ' को हम सब इस समय जी रहे हैं.
असल में जीवन तो सदा से ही सरल रहा है,बाज़ारवाद और अनौचित्यपूर्ण प्रतिस्पर्धा ने इसे जटिल बना दिया. काम और बातें ऑनलाइन हो रही हैं. आप कह सकते हैं कि मनुष्य की परस्पर दूरी बढ़ रही है लेकिन यह भी समझिये कि कुछ रिश्ते परवान चढ़ नई ऊंचाइयों को भी छू रहे हैं. कहीं दूरियां प्रेम को घटा देती हैं तो कहीं इसे स्नेह के कोमल धागे से बाँध आसमान की छत पर चुपके से टांक भी आती हैं.   

4. क्या हममें आत्मनिर्भरता आई?
इसका जवाब इस समय घर में अकेले रह रहे पुरुषों और गृहिणियों से बेहतर कोई नहीं दे सकता! कितने ही पुरुष और युवा इस समय कहीं किसी दूसरे शहर में हैं. किसी भी तरह के हेल्पर्स की आवाजाही इन दिनों बाधित है तो ऐसे में क्या करें वो? झक मारकर ही सही पर जैसे-तैसे सीख रहे हैं. यह अभी के लिए बहुत कठिन समय है लेकिन उनका भविष्य आगे थोड़ा सरल हो जाएगा. गृहिणियाँ काम से थककर परेशान हैं लेकिन टाइम मैनेजमेंट सीखती जा रहीं हैं, इसका सबसे  प्रमाण और क्या होगा कि हेल्पर्स के बिना भी उनकी मुस्कान सलामत है. 

5. क्या प्रकृति का यह प्रकोप और इससे सबक़ लेना जरुरी था? 
मनुष्य ने जिस तरह और जितनी क्रूरता से प्रकृति का दोहन किया है, उसके प्रतिशोध में यह प्रकृति की Self Healing Process कही जा सकती है. इसके लिए हमें जो क़ीमत चुकानी पड़ रही है वह अत्यंत ही दुखद है. न जाने ये कौन सा नियम है कि सज़ा निर्दोष ही पाता है! कितनों के परिवार ख़त्म हो गए, घर उजड़ गए, नौकरियां छूट गईं और तबाही का ये मंज़र अब तक थमा नहीं है. 
हमारी सावधानी, स्वच्छता और आत्म संयम के साथ जीना सीखने की कला ही अब इससे जीत सकती है लेकिन बदले में हमें भी प्रकृति को यह वादा देना होगा कि इसे विनाश और प्रदूषण से बचाना अब हम सबकी नैतिक जिम्मेदारी है. ग़र हम ये न कर सके तो अगली बार चेतावनी दिए बिना ही ये प्रकृति हमें एक झटके में पलट देगी. 
बेहतर है कि हम प्रकृति से प्रेम करें, स्वस्थ रहें, सुरक्षित रहें.  
- प्रीति 'अज्ञात'
https://www.ichowk.in/society/coronavirus-pandemic-5-prominent-questions-related-to-coronavirus-arise-after-lockdown-first-stage/story/1/17338.html
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रविवार, 12 अप्रैल 2020

लौट आई हैं, ग़ुमशुदा छतों की रौनक़ें! #lockdownstories14



"चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है
हम को अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है" 
हसरत मोहानी की लिखी इस ग़ज़ल को ग़ुलाम अली साहब ने  यादग़ार बना दिया है. उदास मूड में ये ग़ज़ल बहुत ही गहरा असर करती हैं पर आज मेरा मूड अच्छा था और "दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिए/ वो तिरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है" सुनते ही मेरी आँखों में शेरवानी पहने दीपक पाराशर और लजाती हुई सलमा आगा की तस्वीर सज गई. इस एक दृश्य में दोनों अलग-अलग छत पर खड़े थे पर उनके दिल एक थे.
असल में दिलों को मिलाने में इन छतों का बहुत योगदान है. याद है न 'नया दौर' में दिलीप कुमार जब मचलती ज़ुल्फ़ों को लहराते, हँसते हुए कहते हैं. "तुझे चाँद के बहाने देखूँ/ तू छत पर आजा गोरिये/ तू छत पर आजा गोरिये,ज़ींद मेरिये" तो उनकी इस अदा पर कितनी हसीनाएँ क़ुर्बान हो जाया करती थीं! इसी बात को आगे बढ़ाते हुए साधना ने अपनी परेशानी यूँ बयां की थी, "घर की छत पे मैं खड़ी/ गली में दिलबर जानी/ हँस के बोले नीचे आ/ अब नीचे आ दीवानी/ या अँगूठी दे अपनी/ या छल्ला दे निशानी/ घर की छत पे खड़ी-खड़ी/ मैं हुई शरम से पानी"
फिर क्या होना था? "दैया! फिर झुमका गिरा रे!"
'मैंने प्यार किया' फ़िल्म के "मेरे रंग में रंगने वाली'' गीत ने भी सफलता के कई कीर्तिमान गड़े थे. इसमें छत पर नायिका का जन्मदिन मनाया गया था.
उन दिनों करवा चौथ के व्रत तोड़ने वाले दृश्य हों या फिर पतंगबाज़ी के गीत; बॉलीवुड ने छत पर पूरा कब्ज़ा जमा लिया था. फिर वह दौर भी आया जब ये छतें हमसे दूर होती गईं और इन पर जाना इन्हीं दो त्योहारों तक सीमित होकर रह गया.

बहुमंज़िली इमारतों की भीड़ में तो इन छतों का खोना स्वाभाविक ही था लेकिन जिनके पास अपनी थी; व्यस्तता की आड़ में उसकी रंगत भी खोती चली गई. इन्होंने वह सुनहरा समय भी देखा है जब ये कभी सुबह कपडे सुखाने तो दोपहरी में चिप्स, पापड़ बिछाने और अचार की बरनी रखने के काम आती. ढलती शामों को स्त्रियों की दिनभर की बातें भी इसी के फर्श पर बिछी चटाइयों पर साझा होतीं, अपने पति का इंतज़ार करतीं पत्नियां और उनकी निगरानी में छोटे बच्चों की टोली आइस- पाइस खेलती तो कभी रोते-झींकते माँ के पास आ ढेरों शिक़ायतों की पोटली उलट दिया करती. अधिकांश मामले वहीं रफ़ा-दफ़ा भी हो जाते थे! कुछ बच्चे पढ़ाई के लिए भी सुबह-शाम आया करते थे हालाँकि वे पढ़ाई से ज्यादा समय उसकी व्यवस्था में लगाते थे. नाश्ता-पानी, पेन-पेन्सिल क़िताबें ऐसे लेकर आते जैसे ज़िन्दग़ी गुज़ारने आये हों! ये बीते समय की ही बात हुआ करती थी.

इधर लॉक डाउन के इस संक्रमित एवं कठिन समय में एक सकारात्मक दृश्य यह देखने को आया है कि इन बंद छतों के दरवाजे अब धीरे-धीरे खुलने लगे हैं. आख़िर दिन भर घर में बैठने के बाद इंसान उकता ही जाता है. कहते हैं कि 'आवश्यकता, अविष्कार की जननी है' तो लोगों ने भी नया आउटिंग प्लेस ढूंढ निकाला है. यह है घर की छत. इन दिनों सुबह-शाम छतों का नज़ारा बदल गया है. ये धोयी जा रहीं हैं. जिम जाने वाले लोगों ने अपने योगा मैट यहीं बिछा लिए हैं. पिता अपने बच्चों के साथ बैडमिंटन खेलते नज़र आ रहे हैं. कोई टेरेस गार्डन का प्लान कर पौधों की सूची बना रहा है. सुहानी, ताजा हवा का आनंद उठाती इवनिंग वॉक के लिए भी यही साथी बन बैठी हैं. महिलाएँ अपनी-अपनी छतों पर खड़ी परस्पर बातचीत न भी कर पाएं पर मुस्कराहट का आदान-प्रदान बदस्तूर जारी है. क्या पता, पुराने ज़माने की तरह चुपके से कहीं दो दिल भी मिल रहे हों!

सड़कें वीरान हैं तो क्या हुआ! वाहनों की चिल्लपों से बेहतर ये हँसते-खेलते परिवार की आवाजें हैं, शाम को घर लौटते पक्षियों का मीठा कलरव है जो अब साफ़-साफ़ सुनाई देता है, वो रंगीन आसमान है जिस पर चढ़ी मैल की परत अब शनैः शनैः ढलने लगी है.
यह बात भी सोलह आने सच है कि कुछ समय बाद ही सही पर इन सड़कों पर गाड़ियां फिर दौड़ेंगीं, दुकानों के शटर धड़ाधड़ खुलने लगेंगे. पुरानी दिनचर्या में हम सब लौट आयेंगे और अंतत: जीवन ठीक वहीं से रफ़्तार पकड़ लेगा जहाँ अभी विश्राम कर रहा है लेकिन तब तक इस बात से ख़ुश अवश्य हुआ जा सकता है कि हमारी इन ग़ुमशुदा छतों की रौनक़ें लौट आई हैं!
- प्रीति 'अज्ञात'
https://www.ichowk.in/humour/coronavirus-lockdown-turned-as-boon-for-roof-and-terraces-as-family-get-together-place/story/1/17333.html
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फोटो:साभार गूगल 

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

'कमांडो-डॉक्टर्स' #lockdownstories13 #commando_doctors

इस तथ्य से तो हम सब भलीभांति परिचित हैं कि मातृभूमि की सेवा करने से बेहतर कोई कार्य नहीं है. इसी विचार के साथ ही प्रत्येक सैनिक भी सेना में भर्ती होता है और अंतिम साँसों तक अपने देश के लिए लड़ता है. 
ऐसे ही एक युवा जांबाज़ पैराट्रूपर अमित की 14 अप्रैल कोशादी होने वाली थी लेकिन कोरोना पेंडैमिक के कारण, उन्होंने अपनी शादी अक्टूबर तक स्थगित कर दी और जम्मू-कश्मीर के केरन सेक्टर में ड्यूटी पर चले गए. उत्तरी कश्मीर के जुमगुंड क्षेत्र में भारतीय सीमाओं में घुसपैठ करने वाले पांच पाकिस्तानी आतंकवादियों से मुठभेड़ के दौरान उनके शरीर पर 15 गोलियां लगीं पर शहीद होने से पहले उन्होंने दो आतंकवादियों को मार गिराया. शहीद अमित कुमार, भारत के 2016 के सर्जिकल स्ट्राइक सदस्यों में से एक थे. इस मिशन में उनके साथ भारतीय विशेष बल के चार अन्य बहादुर सैनिक भी थे.हम इन पाँचों एसएफ सैनिकों के अदम्य साहस को सलाम करते हैं. यह देश और देशवासियों की सेवा करने के लिए उनका बलिदान और निस्वार्थ जुनून ही है जो हमें सुरक्षित और निश्चिन्तता भरे जीवन का आनंद लेने की अनुमति देता है.

एक तरफ़ देश की सीमाओं पर दुश्मन को ललकारते हमारे ये वीर जवान तैनात हैं तो वहीं इन सीमाओं के भीतर देशवासियों की रक्षा की जिम्मेदारी इन दिनों हमारे डॉक्टर्स ने संभाल रखी है. तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद भी इनका आत्मविश्वास नहीं डगमगाया है.जब-जब लॉकडाउन के इस संक्रमण काल पर विजय की बात होगी तब-तब Coronavirus पर सर्जिकल स्ट्राइक करने वाले हमारे इन 'कमांडो-डॉक्टर्स' की चर्चा होगी -

शहीद डॉक्टर:
गुरुवार 8 अप्रैल को इंदौर में फॅमिली फिजिशियन डॉ. शत्रुघ्न पंजवानी की घातक कोरोनावायरस के कारण मृत्यु हो गई. कोरोना पॉजिटिव आने के बाद उनका तीन हॉस्पिटल्स में इलाज़ चला लेकिन मृत्यु पर किसका वश है! डॉ. पंजवानी की मृत्यु के साथ, देश ने फ्रंटलाइन स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के बीच अपना पहला कमांडो खो दिया है.
इस बीच इटारसी, होशंगाबाद के एक डॉक्टर हेड़ा भी COVID-19 पॉजिटिव निकले हैं. उन्हें और उनके स्टाफ को आइसोलेशन में रखा गया है. भोपाल में भी स्वास्थ्य सुविधाओं में कार्यरत कई और फिजिशियन इस संक्रमण का शिकार हुए हैं. वायरस से युद्ध में घायल होते डॉक्टर:
इस पोस्ट के लिखे जाने तक भारत में 50 से भी अधिक डॉक्टर्स और मेडिकल स्टाफ Covid -19 पॉजिटिव निकले हैं, इस ख़बर ने यूनियन हेल्थ मिनिस्ट्री को बेहद चिंता में डाल दिया है. कहा जा रहा है कि PPE ( personal protective equipment) की संख्या में कमी के कारण ही डॉक्टर्स इस बीमारी की चपेट में आ रहे हैं. डॉक्टरों को यह संक्रमण मरीजों के इलाज़ के दौरान हुआ या अन्य किसी बाहरी स्त्रोत से; इसकी जांच चल रही है. साथ ही बड़े पैमाने पर PPE बनाने का काम भी जारी है.
*29 मार्च को, कर्नल-रैंक वाले भारतीय सेना के डॉक्टर, कोलकाता के आर्मी कमांड अस्पताल में Covid -19 पॉजिटिव पाए गए.
*केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (CRPF) के दिल्ली स्थित चीफ़ मेडिकल ऑफिसर को भी 1 अप्रैल को हरियाणा के झज्जर में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) में भर्ती कराया गया है.
*AIIMS दिल्ली के रेसीडेंट डॉक्टर और उनकी 9 माह गर्भवती पत्नी भी इसी वायरस की चपेट में हैं.
इन सभी केसेस में आइसोलेशन और क्वेरेंटाइन सम्बन्धी गाइडलाइन्स का पूरा पालन किया गया है.

बंकर में डॉक्टर:  
भोपाल, मध्यप्रदेश के जे.पी. हॉस्पिटल के डॉ. सचिन नायक ने तो कार को ही अपना घर बना लिया है. वे अपनी पत्नी और बच्चे को संक्रमित होने की आशंका से बचाने के लिए बीते सप्ताह से ऐसा कर रहे हैं. यहाँ तक कि उन्होंने अपनी कार भी हॉस्पिटल के पास ही पार्क की है इसमें रोजमर्रा की वस्तुओं और कुछ पुस्तकें के साथ वे समय काट रहे हैं.डॉ. सचिन के इस क़दम की मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी प्रशंसा की है और इसे अनुकरणीय बताया है.

एहसान फ़रामोशी के शिकार डॉक्टर्स:
एक तरफ तो हमारे डॉक्टर्स जान हथेली पर रख हमारी रक्षा में जुटे हुए हैं तो वहीं दूसरी ओर इस बुरे वक़्त में भी नफ़रतों के सौदागर अपना गन्दा खेल खेलने से बाज़ नहीं आते!

*इंदौर के टाट पट्टी बाखल एरिया में बीते बुधवार कोरोनो वायरस के चलते स्क्रीनिंग करने को गई मेडिकल टीम पर स्थानीय लोगों ने पत्थरबाज़ी की. इस घटना में कई डॉक्टर्स को चोटें आई हैं. लेकिन फिर भी अगले ही दिन डॉ. तृप्ति और उनकी टीम  इसी क्षेत्र में अपना कर्तव्य निभाने में पुनः जुट गई. डॉ. तृप्ति का कहना है क़ि "हम हार नहीं मानेंगे!" उसी टीम की डॉ. ज़ाकिया सईद भी कहती हैं कि "हमें चोटें अवश्य लगी हैं पर हमें बिना भयभीत हुए अपना काम करना है." बाद में स्थानीय लोगों ने इस कृत्य के लिए माफ़ी मांगी, साथ ही यह भी कहा कि "ये घटना कुछ भटके हुए युवाओं द्वारा अंजाम दी गई थी."
* इसी बीच एक ख़बर दक्षिण दिल्ली के गुलमोहर एन्क्लेव से भी आई है जहाँ एक इंटीरियर डिज़ाइनर को दो महिला डॉक्टर्स के साथ छेड़छाड़, मारपीट और धमकी देने के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया है. यह पूरा वाक़या सोशल डिस्टैन्सिंग की बात से शुरू हुआ था जिसने बाद में अलग रुख़ ले लिया. 
*निजामुद्दीन मरकज से निकले तब्लीगियों द्वारा अभद्रता के कई किस्से भी इन दिनों सोशल मीडिया पर सुर्ख़ियों में चल ही रहे हैं.
*AIIMS, भोपाल के दो डॉक्टर्स अपनी शिफ्ट पूरी करके बीते बुधवार रात घर जा रहे थे. उनके अनुसार, एम्स  के गेट नंबर 1 के पास गश्त कर रहे पुलिसकर्मियों ने उन्हें रोका और उनकी पहचान  पूछी. डॉक्टरों ने पुलिस को बताया कि पूरी बात बताने और पहचान पत्र दिखाने के बाद भी पुलिसकर्मियों  ने उन्हें अपमानजनक शब्द कहे और लाठियों से पीटा. इससे जूनियर डॉक्टर ,डॉ. रितुपर्णा के पैर में और डॉ. युवराज सिंह को हाथ में चोट लगी.
*सोशल मीडिया पर गुजरात के सूरत शहर का एक वीडियो वायरल हो रहा है जिसमें एक व्यक्ति को एक महिला डॉक्टर के साथ दुर्व्यवहार करते देखा जा सकता है. ड्यूटी से लौटी इस डॉक्टर को देख पड़ोसी ने उसे बिल्डिंग से चले जाने को कह, धक्का दिया और भला-बुरा कहा. 

डॉक्टरों पर कोरोना वायरस फैलाने के आरोप लगाते हुए ऐसे कई मामले रोज़ाना सामने आ रहे हैं.घटनाओं को मद्देनज़र रखते हुए दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन ने गुरुवार को कहा कि "डॉक्टरों, पैरामेडिक्स और हेल्थकेयर कार्यकर्ताओं के साथ भेदभाव, दुर्व्यवहार एवं किसी भी तरह की अभद्रता करने वालों के खिलाफ सख़्त कानूनी कार्रवाई की जाएगी."

कठिन समय में यह इस देश की विडम्बना ही कही जायेगी कि कुछ लोगों द्वारा इंसानियत के मसीहा हमारे इन रक्षकों को भक्षक की तरह ट्रीट किया जा रहा है. 
देश के गुनहगारों से बस इतनी ही गुज़ारिश है कि अगली बार किसी भी डॉक्टर को कोसने से पहले सौ बार ख़ुद को बताइयेगा कि जब आम जनता घरों में बंद एवं भयभीत हो, वायरस से बचने के उपाय सोच हलकान हो रही थी, उसी समय ये डॉक्टर्स संक्रमण के हजार खतरों के बावजूद भी इस Covid -19 से युद्धरत थे!
जब हम वातानुकूलित कमरों में चैन की नींद सो रहे थे, उस समय ये डॉक्टर्स खुले आसमान के नीचे, कार के अन्दर या किसी बेंच पर जैसे-तैसे सिमटकर थकन मिटा पाने की नाक़ाम कोशिशें कर रहे थे!
ये भी हमारे वीर सैनिकों की तरह ही अपने घरों में इसलिए न आ सके कि इन्हें आपकी फ़िक्र थी! ये हमारा कर्तव्य है कि इन्हें धन्यवाद कहा जाए.
सभी 'कमांडो-डॉक्टर्स' को देशवासियों का सलाम! शुक्रिया!
- प्रीति 'अज्ञात'
#lockdownstories13 #commando_doctors 

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