शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

यह मानव जाति को बचाने का समय है, घटनाओं के हिन्दू-मुस्लिमीकरण का नहीं!

अफ़सोस होता है कि जब हमें किसी अदृश्य शक्ति (वायरस) के विरुद्ध एकजुट हो खड़े होने की आवश्यकता है तब भी हमने परस्पर आरोप-प्रत्यारोप का दामन थाम रखा है और महासंकट के इस दौर में कई मुद्दों पर हम एक-दूसरे के विपक्ष में विष वमन करते नज़र आते हैं. हमारी भारतीयता क्या थाली पीटने या तालियाँ मार सीटी बजाने तक ही सीमित है? देशहित के लिए जब उत्तरदायित्व के निर्वहन की बात आती है तब हम इतने संवेदनहीन क्यों हो जाते हैं?

सब जानते हैं कि हमारे प्रधानमंत्री जी ने 22 मार्च शाम पांच बजे का जो समय दिया था वह समय उत्सव मनाने का नहीं बल्कि उन सेवाकर्मियो को धन्यवाद देने का था जिन्होंने मुश्किल की इस घड़ी में देश का साथ दिया. इसमें हमारे परिवार के वे लोग शामिल थे जो अभी भी हम सबकी रक्षा और अन्य आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिए अपने कर्तव्य पालन में जुटे हुए हैं.
यह समय यह दिखाने का भी था कि #coronavirus से सुरक्षा के लिए और इसके ख़तरे से मानव जाति को बचाने के लिए हम घर से बाहर नहीं निकलेंगे.  किसी और के संपर्क में भी नहीं आएंगे. खिड़की या balcony से समर्थन दिखायेंगे. लेकिन हुआ यूँ कि कुछ लोग जोश में होश खो बैठे और उन घरों के मातम को भूल बैठे जिन्होंने किसी अपने को हमेशा के लिए खो दिया है! इन्हें जश्न से मतलब था, थाली पीटने से मतलब था लेकिन उसके उद्देश्य को ही भूल बैठे! भीड़, जुलूस से दूर रहना था और इन्होंने मजमा लगा दिया. सड़कों पर कर्फ्यू की तस्वीर निकालने ग्रुप में पहुँच गए और चुनावी रैली सा माहौल बना दिया.
शाम को जो ध्वनि सुखद लग रही थी, इन सबके व्यवहार ने उसे घोर दुख में बदल दिया. कुछ लोगों ने दिखा दिया कि किये कराए पर पानी कैसे फेरा जाता है जबकि यह शोक के बीच, जीवन रक्षक कोशिशों को धन्यवाद देने का समय था; किसी बीमारी के जश्न का नहीं! नतीज़तन लॉकडाउन की अवधि कड़े नियमों के साथ बढ़ानी पड़ी. 

उसके बाद यूपी और बिहार के लोगों के पलायन की ख़बरों ने देश को झकझोर दिया. यहाँ दोष इनका नहीं, गरीबी का था. उस भूख का था जो किसी की सग़ी नहीं होती! और बिना किसी वाहन ये सब हजारों किलोमीटर की दूरी तय करने पैदल ही निकल पड़े. बाद में बसों का इंतज़ाम हुआ, जिनमें भर इन्हें गंतव्य भेजा गया. तब तक कितनी देर हो चुकी थी यह आने वाला समय लिखेगा. 
बात फिर भी नहीं थमी और इसके बाद तमाम क़ायदे-क़ानून को ताक़ पर रख दूसरे समुदाय के लोगों की एक साथ जमा होने की ख़बरें आईं. पुलिस, डॉक्टर, नर्स सभी के साथ दुर्व्यवहार किया गया, उन पर थूका गया. इसकी जितनी भर्त्सना की जाए वो कम है!

कई सोसायटीज़ से भी इसी तरह की घटनाएँ सुनने को मिल रही हैं. मेरी एक मित्र ने बताया कि उसके मायके में सोसायटी के लोग सुरक्षा को धता बताते हुए रोज़ इकट्ठे हो रहे हैं, पिकनिक, पार्टीज़ चल रही हैं और वे किसी की सुनने को तैयार ही नहीं! जब मेरी मित्र की माँ एवं भाई ने इसका विरोध किया तो ये लोग उनके घर न केवल लड़ने ही पहुँच गये बल्कि ग़ालीगलौज़ कर भाई को मारने की धमकी भी दी. बीमार माँ की तबियत और बिगड़ गई और परिवार के लोग सकते में हैं क्योंकि धमकाने वाले लोग वो थे जो सोलह वर्षों से सोसायटी में साथ रह रहे थे.

लॉकडाउन में जबकि संयम, सौहार्द्रता और सहिष्णुता बनाये रखने की नितांत आवश्यकता है ऐसे में कुछ नागरिकों का इस तरह का ग़ैर-ज़िम्मेदाराना रवैया बीमारी के अगले स्टेज तक पहुँचने और इसकी भयावहता को बढ़ाने की ओर संकेत कर रहा है. इस तरह की छुद्र मानसिकता से भरे लोग अपनी संवेदनाओं को जागृत कर अब भी संभल जाएँ तो देश पर इनका बड़ा अहसान होगा! 
इस समय पूरे विश्व की निग़ाह हम पर है. हमारे लिए यह सुरक्षा सम्बन्धी निर्देशों का पूरी तरह से पालन कर मानव जाति को बचाने का समय है, जड़ बुद्धि के साथ घटनाओं के हिन्दू-मुस्लिमीकरण का नहीं! 
यूँ भी घृणा, किसी वायरस से कहीं अधिक संक्रमण फैलाने की ताक़त रखती है, मनुष्यता बचाये रखने के लिए बेहतर है कि इस वायरस से हम भारतीय हमेशा-हमेशा के लिए दूर हो जायें. 
बाक़ी सब बढ़िया है.
-प्रीति 'अज्ञात'
#Lockdown_stories6

3 टिप्‍पणियां:

  1. भी घृणा, किसी वायरस से कहीं अधिक संक्रमण फैलाने की ताक़त रखती है, मनुष्यता बचाये रखने के लिए बेहतर है कि इस वायरस से हम भारतीय हमेशा-हमेशा के लिए दूर हो जाये।
    खरा सत्य हम सहमत हैं।

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  2. प्रकृति का नियम है कि आपदाओं के भेष में यह इंसानियत को परखने के लिये लिटमस टेस्ट बनकर आती है। इंसान का मरना शुरू होते ही इंसानियत के जीने की तड़प बढ़ने लगती है। सभी वायरस एक साथ ही विदा होते हैं विचारों के कुछ नए बैक्टीरिया छोड़कर।

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