सोमवार, 1 मार्च 2021

आख़िर दुनिया में सुसाइड करने वाली हर तीसरी महिला, भारतीय ही क्यों है?


आयशा की आत्महत्या ने फिर से वही सारे प्रश्न खड़े कर दिए हैं जिनसे हम बार-बार बचकर निकलना चाहते हैं. लेकिन क्या इस तरह की घटनाओं और आत्महत्या का ज़िम्मेदार वो समाज नहीं? जो बचपन से ही एक लड़की के दिमाग़ में यह कूट-कूटकर भर देता है कि "वह फूलों की डोली में बैठकर जिस घर में प्रवेश करेगी, उसकी अर्थी भी वहीं से उठेगी!" क्यों उठे उसकी अर्थी वहीं से? यदि वह उस घर में ख़ुश नहीं तो क्या वो उस घर को छोड़कर नया जीवन नहीं जी सकती? कब तक वो अभिशप्त जीवन जीती रहे? 

उसे ये भी समझाया जाता है कि "मारे या पीटे पर पति तो परमेश्वर होता है. थोड़ा तो सहन कर ही लेना चाहिए". हाँ, बिलकुल कर लेगी  लेकिन तब ही, जब पति भी उसके हाथ का थप्पड़ खाकर बर्दाश्त करना सीख जाए और चुप रहे. पढ़ते ही कैसे धक् से चुभ गई न ये बात?

यही होता है कि जब तक स्त्री सहन कर रही है, सब अच्छा है. वो मर भी गई, तब भी हम उन सारे कारणों को ढूँढने में लग जाते हैं जो हमें दोषमुक्त कर दे. लेकिन कब तक? आयशा तो एक नाम भर है जो हमारे समाज की स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करता है. लेकिन आँकड़े जो सच्चाई बयान कर रहे हैं, उनसे आख़िर कैसे मुँह फेरा जा सकता है?

भारत में होने वाले तलाक़ की दर दुनिया में सबसे कम है -

प्रतिवर्ष यूनाइटेड नेशंस, ग्लोबल डिवोर्स रेट दर्ज़ करता है. इसके अनुसार पूरी दुनिया में भारत में होने वाले तलाक़ की दर सबसे कम है. यहाँ 1000 शादियों में से केवल 13 में तलाक़ होता है. यह आँकड़ा डेढ़ प्रतिशत से भी कम है. जबकि स्पेन, फ़्रांस, यूनाइटेड स्टेट में सर्वाधिक मामले दर्ज किये गए हैं.

लेकिन इसका मतलब ये क़तई नहीं कि हमारे यहाँ सभी खुशहाल वैवाहिक जीवन जी रहे हैं. दरअसल 'हैप्पी मैरिज लाइफ' एक मिथ्या है. हम लोग तोड़ने से बेहतर, बर्दाश्त करने को मानते हैं. समझौता मंज़ूर है हमें, पर अलग होना नहीं!

जो स्त्रियाँ वैवाहिक जीवन से तंग आकर आत्महत्या करती हैं, उन्हें पता है कि इस देश में तलाक़ लेकर जीना आसान नहीं. अकेली स्त्री को उपभोग की वस्तु की तरह देखा जाता है. वो अपने पिता और पति के अलावा और किसी पर आसानी से विश्वास नहीं कर पाती. गृहिणियों को आर्थिक असुरक्षा का भय भी सालता है. ऐसे में उन्हें यही सही लगता है कि जैसे-तैसे इसी चारदीवारी में जीवन काट दें. वे तलाक़ के स्थान पर, सहजता से घुटन भरे जीवन में रहने के विकल्प को चुन लेती हैं. वे पितृसत्तात्मक समाज के इस सूत्र को अपना ध्येय वाक्य बना बैठती हैं कि 'सुहागन मरना सौभाग्य की निशानी है'.

दुनिया में सुसाइड करने वाली हर तीसरी महिला भारतीय है- 

विश्व की महिला जनसंख्या में भारतीय महिलाओं की हिस्सेदारी 18 प्रतिशत है, जबकि महिलाओं की आत्महत्या के मामलों में यह 36 प्रतिशत तक बढ़ जाती है. यानी घुट-घुटकर मरने वाली स्त्री, एक दिन मौत को ही चुन लेती है. दरअसल भारतीय समाज की मानसिकता ऐसी है कि विवाह के बाद बेटी पराया धन मान ली जाती है. मायके में उसका स्वागत तो सदैव होता है लेकिन यदि वो किसी परेशानी के चलते पति का घर छोड़कर आना चाहे तो उसके अपने ही, उसके लिए दरवाज़ा बंद करते नहीं हिचकते. उसे समझौते के लिए समझाया जाता है कि थोडा बर्दाश्त कर, सब ठीक हो जाएगा. समाज के सामने अपनी नाक का हवाला दिया जाता है कि तू मायके आकर बैठ गई तो लोग सवाल करेंगे. लड़की इशारे समझ जाती है और फिर कभी अपनी पीड़ा नहीं बाँटती. 

हर परिवार ऐसी ही संस्कारी लड़की और बहू की अपेक्षा रखता है. "लड़का चाहे कुछ करे, उसका चल जाएगा. पर तू तो लड़की है!"

"मैं तो लड़की हूँ!" यही बात उस लड़की के दिल में भी गहरे बैठ जाती है और फिर वो अपनी महानता, त्याग और बलिदान की पुस्तक भरने के लिए खुद ही अपना सिर, कलम करवाने को तैयार रहती है. क्योंकि वो तो लड़की है! उसे तो महान बनना ही होगा! दुनिया के सामने महान बनते बनते ये लड़की अपनी ही नज़रों में रोज़ गिरती है. सबको खुश रखने वाली ये लड़की, अकेले में रोज़ रोती है. 

हमारे तथाकथित संस्कार हमें हर दर्द को सहने की शक्ति सिखाते ही आये हैं. ऐसे में स्त्रियों के पास उसी नर्क में रहने के अलावा और कोई चारा नहीं होता! और फिर एक दिन जब पानी सिर से ऊपर निकलने लगता है तो वे हारकर इस दुनिया को अलविदा कह देती हैं.

सबसे अधिक सुसाइड के मामले 15 से 29 आयु वर्ग वाली युवतियों के - 

नई पीढ़ी में आत्महत्या की बढ़ती दर बेहद चौंका देने वाली है. प्रेम, बेमेल विवाह, उनके प्रति होने वाले अपराध के चलते युवतियां भावनात्मक रूप से बेहद कमजोर एवं असहाय महसूस करती हैं. कई बार नौकरी में होने वाली परेशानियों से भी वे तंग आ जाती हैं. भविष्य के लिए देखे गए सुन्दर सपनों की तस्वीर, जब उनके वर्तमान से मैच खाती नहीं दिखती तो वे हताश हो जाती हैं. पापा की परी के भीतर जैसे ही सामाजिक चेतना जागृत होती है, उसके सामने कई भयावह चुनौतियां आ खड़ी होती हैं. उसमें लड़ने की हिम्मत और जज़्बा तो होता है पर धैर्य नहीं. कई बार इनके लिए विद्रोह का तरीका मर जाना ही होता है. वे इतने गहरे अवसाद में चले जाते हैं कि फिर लौट ही नहीं पाते. दोष सामाजिक और पारिवारिक वातावरण का ही है क्योंकि हमने अपने बच्चों को जीतना सिखाया है, सफ़लता पाने की सारी क़िताबें रटा रखी हैं लेकिन असफ़लता से जूझने का पाठ कभी नहीं पढ़ाया. उनके सिर पर हाथ फेरकर कभी नहीं कहा कि हारना भी उतनी ही स्वाभाविक प्रक्रिया है जितनी कि जीतना.

बढ़ती आत्महत्या के कई कारण हैं-

* बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ हासिल कर लेने के बाद भी स्त्रियों में सशक्तिकरण का अभाव है. वे अपनी हर ख़ुशी को किसी एक व्यक्ति की उपस्थिति या अनुपस्थिति से जोड़कर देखती हैं. अपना सारा जीवन उसी के इर्दगिर्द समर्पित कर देती हैं और जब एक दिन उससे अलग होने की सोच भी सामने आती है तो वे इस स्थिति के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं हो पातीं. उन्हें पुरुष के बिना रहना आया ही नहीं.

* पितृसत्तात्मक समाज में घरेलू स्तर पर वे, प्रारंभ से ही निचले दर्जे पर खड़ी नज़र आती हैं. अपने जीवन से जुड़े हर निर्णय के लिए बचपन में पिता, भाई, फिर पति और अंत में बेटे पर निर्भर. एक परजीवी सा जीवन उन्हें तथाकथित संस्कारों का संरक्षण करना ही सिखाता आ रहा है. अत्याचार सहना पर उफ़ न करना, बचपन में भाई और बड़े होकर पति, बेटे को बचाना, उनकी उम्र के लिए व्रत करना. उन्हें लगता है कि पिता. पति या भाई के अलावा दुनिया उन्हें नोच खाएगी.

* पहले महिलाएं अपने साथ होने वाले दुर्व्यवहार को अपना भाग्य मानकर जीवन काट देती थीं. "भला है बुरा है, जैसा भी है/ मेरा पति मेरा देवता है" को ब्रह्मवाक्य बनाकर जी लेती थीं. अब वे शिक्षित हैं और अपने अधिकारों के प्रति सजग भी. जब हल नहीं निकलता तो वे कुंठा से भर जाती हैं. कुछ रास्ता नहीं सूझता तो आत्महत्या कर जीवन समाप्त कर लेती हैं.  

कैसा दुर्भाग्य है कि हमने अपनी दुनिया को इतना बदसूरत और असुरक्षित बना डाला है कि स्त्रियाँ यहाँ अकेले जीना ही नहीं चाहतीं. हमें अपनी बेटियों, अपने आसपास की स्त्रियों को सबसे पहला पाठ यही देना है कि वे हर हाल में किसी से कमतर नहीं हैं. हमें उन्हें मुश्किलों से लड़ना सिखाना है और धोखे से संभलना भी. उनके दर्द को बांटना, उनकी परेशानियों को सुनना भी सीखना है. उन्हें यह विश्वास भी दिलाना है कि हम उनके साथ खड़े हैं. 

और लड़कियों, तुम आत्मनिर्भर, निडर और सशक्त बनो. हर बात के लिए किसी का मुँह न ताको. जब तक तुम हो, ये दुनिया सुंदर है. तुम्हारी हार, इस दुनिया की हार है.

- प्रीति अज्ञात 

https://www.ichowk.in/society/ayesha-suicide-sabarmati-riverfront-video-every-third-women-committing-suicide-in-world-is-indian-major-women-suicide-reasons/story/1/19566.html

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एक चिट्ठी, इस दुनिया की हर आयशा के नाम!

मेरी प्यारी आयशा 

अभी जबकि लगभग एक सप्ताह बाद पूरा देश मिलकर, महिलाओं को उनके दिवस की बधाई देने में जुट जाएगा, इस बीच तुमने साबरमती में कूदकर अपनी जान दे दी है. इतना ही नहीं बल्कि आत्महत्या से पहले एक वीडियो भी बनाया है जिसका एक-एक शब्द झकझोर कर रख देता है. जीवन के आखिरी पलों के दौरान भी अभिवादन की तुम्हारी तहज़ीब देखकर मैं हैरान हूँ. तुम अंत में थैंक यू कहना भी नहीं भूलतीं. लेकिन सच कहूँ तो तुम्हारी निडर आवाज़ और मुस्कान ने डरा दिया है  मुझे. न जाने वो कौन से पल रहे होंगे कि तुमने मृत्यु को सुख पाने का मार्ग समझ लिया.

मुझे बेहद दुःख और अफ़सोस है कि हम इस दुनिया को तुम्हारे जीने लायक बनाने में विफ़ल रहे.

हम एक ही शहर के हैं पर कभी मिले नहीं. मेरा तुमसे जो नाता है वो साबरमती का है, रिवर फ्रंट का है. ये जगह मुझे हमेशा से सुकून भरी लगती रही है. तुमने भी अपने वीडियो में सुकून की बात कही है. पर कितना फ़र्क है तुम्हारे और मेरे सुकून में! तुम कहती हो "मैं हवाओं की तरह हूँ, बस बहना चाहती हूँ और बहते रहना चाहती हूँ. किसी के लिए नहीं रुकना". और मैं चाहती हूँ कि काश तुम नदी के पानी से अठखेलियाँ करतीं और जीवन धार में बहती जातीं. हर संघर्ष का सामना करतीं. ये जीवन तुम्हारा अपना है, तुम्हें इसे पूरा और बेबाकी के साथ जीना था.

तुम्हारे चेहरे पर सहज मुस्कान है लेकिन आँखों में दर्द का इक सैलाब भरा है. एक ऐसा सैलाब, जिससे हर स्त्री किसी-न-किसी रूप में जरुर रिलेट कर सकेगी. तुम्हारे जो शब्द हैं, वो हमारे मस्तिष्क पर तमाचे की तरह पड़ते हैं. तमाचा, जो बार-बार यही याद दिलाता है कि तुम में और आयशा में कोई फ़र्क नहीं! 

लेकिन ये बताओ कि इतनी मानसिक पीड़ा के बावजूद भी तुमने महान बनने का वह नैसर्गिक गुण क्यों नहीं छोड़ा? जिसे हम स्त्रियों ने सदियों से किसी मंगलसूत्र की तरह दिल से लगाकर रखा है. तुम्हें एक बार को भी नहीं लगा? कि जब तक स्त्रियाँ अन्याय को सहती रहेंगी, उसके विरोध में आवाज़ उठाने की बजाय चुप्पी साध लेंगी और उफ़ तक न करेंगी, तब तक उनकी असमय मृत्यु का ये दौर अनवरत जारी रहेगा! तुम्हें बहुत हिम्मत दिखानी थी, गुड़िया. 

आयशा, तुम्हारी बातें सुन जितनी पीड़ा हुई है, उतना ही क्रोध भी आया है. यूँ भी दिल किया कि तुम्हें डांटकर कहूँ "पागल लड़की! तुम्हें निकल आना था, उस ज़हन्नुम से! डूबते हुए भी तुम एक दहेज़ लोभी इंसान को बचाना चाहती हो? उसे बरी करना चाहती हो? ये कैसी मोहब्बत है तुम्हारी कि जिसने तुम्हारा जीवन बरबाद कर दिया, तुम अपनी जान देकर उसे बचा रही हो?" तुम्हारे पापा-मम्मी ने तुम्हें कितना रोका, क़समें दीं, मिन्नतें कीं. यहाँ तक कि दहेज़ का केस वापिस लेने को भी तैयार हो गए, तब भी तुम हार गईं? तुम्हें नहीं पता कि तुम कितनी भाग्यशाली थीं कि तुम्हारे पेरेंट्स तुम्हारे साथ थे. 

पता है, तुम केवल मोहब्बत हो! और तुम्हें खोने वाले अभागे. तुम अपने पिता से आग्रह करती हो कि "कब तक लड़ेंगे अपनों से? आयशा लड़ाइयों के लिए नहीं बनी. प्यार करते हैं उससे, उसे परेशान थोड़े न करेंगे. अगर उसे आज़ादी चाहिए, ठीक है वो आज़ाद रहे".

काश! तुम्हारी ये बात दुनिया समझ ले तो हर चीज़ सुंदर हो जाए. जो तुम ठहरतीं तो दुनिया आसानी से समझ पाती.

जानती हो, तुमसे कोई गलती नहीं हुई थी और न ही तुम में या तुम्हारी तक़दीर में कोई कमी थी. बस, तुम अपने-आप को नहीं जान पाई. तुम उन अपनों को भी नहीं देख पाई जो तुमसे बेपनाह प्यार करते हैं. तुमने अपना जीवन एक ऐसे इन्सान की ख़ातिर गँवा दिया, जिसे पैसे से प्यार था. लेकिन सारे इन्सान बुरे नहीं होते! 

हाँ, तुम्हारी ये बात सच है कि "मोहब्बत करनी है तो दोतरफा करो एकतरफा में कुछ हासिल नहीं!" इसमें एक बात और जोड़ती हूँ कि मोहब्बत दोबारा भी हो सकती है. ये बात याद रखना अब. 

तुम्हारा आखिरी फोन कॉल दिल दहला देने वाला है, आयशा. तुम्हारे आँसुओं ने बेहद रुलाया है. तुम्हारे माता-पिता का सोचकर भी कलेज़ा कांप उठता है. मैं उस पिता की निरीह अवस्था और हताशा को सोचती हूँ जिसे फ़ोन पर पता चलता है कि अगले ही पल उसकी बेटी नदी में छलांग लगाने वाली है. उस माँ के दर्द को समझने की नाकाम कोशिश करती हूँ जो बार-बार तुमसे रुकने का अनुरोध कर रही है. मासूम लड़की, तुम्हें परिस्थितियों का डटकर सामना करना था. अपने आप को किसी से कम नहीं आंकना था. तुम अपार संभावनाओं से भरा चेहरा थीं.

तुम्हारी विदाई का गुनहगार ये समाज भी है जो तुम्हारे लिए ऐसा वातावरण ही नहीं बना पाया कि तुम स्वयं को अकेला न महसूस कर सको. या फिर इसे तुम्हें अकेले चलना सिखा देना चाहिए था. तुम्हें बता देना चाहिए था कि तुम्हारी मुस्कान, तुम्हारे जीवन की तरह कितनी अनमोल है. 

मैं तुम जैसी तमाम लड़कियों से कहना चाहती हूँ कि आख़िर हम क्यों अपने सपनों और खुशियों को किसी और के जीवन से जोड़ें? हम क्यों न अपने हक़ की लड़ाई खुद लड़ें? किसी से इतनी अपेक्षा क्यों रखें कि उनके पूरा न होने पर हम ही टूट जाएँ. आत्महत्या, तो अवसाद की पराकाष्ठा है. हम इस राह से बाहर निकल, आत्मसम्मान के साथ जीना क्यों न चुनें? सब अच्छे लोग यूँ दुनिया को छोड़ देना चुन लेंगे, तो इसे संवारेगा कौन?

तुम जहाँ भी हो, हर ख़ुशी तुम्हारे साथ हो.

स्नेह तुम्हें 

प्रीति अज्ञात 

https://www.ichowk.in/society/ayesha-suicide-due-to-dowry-in-jalore-sabarmati-riverfront-in-ahmedabad-recorded-video-is-heart-breaking-open-letter-to-ayesha/story/1/19565.html

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