रविवार, 28 जून 2020

जब रक्षकों की हैवानियत और बर्बरता की भेंट चढ़ा एक और परिवार


सेवा, सुरक्षा और शांति; ये तीन शब्द हैं जिन्हें लेते ही यूनिफॉर्म में एक छवि उभर कर आती है, हमारी पुलिस की. वे लोग जो विपदा के समय में रक्षक बन किसी ईश्वरीय दूत की तरह हमें उबार ले जाते हैं. दुर्भाग्य यह कि ये रक्षक ही जब भक्षक बन जाते हैं. तब इनकी शिकायत किससे हो? कहाँ हो? कैसे हो? ये तमाम बातें प्रश्नचिह्न बन झूलती रहती हैं. कहते हैं जब सत्ता निरंकुश हो तो तंत्र- व्यवस्था भी बर्बर और पाशविक हो जाती है.  हमारे देश में हर राज्य की परेशानी आम परेशानी अब तक नहीं बन पाई है. बात चाहे Seven Sisters की हो या South की, उनकी समस्या आम पब्लिक और मीडिया की नज़रों में जरा देर से ही आती है. तूतीकोरिन (Thoothukudi) की इस वीभत्स और अमानवीय घटना में भी ठीक यही हुआ. हैवानियत का ऐसा नंगा नाच कि रूह सिहर जाए.

मामला क्या था?
लॉकडाउन के दौरान पिता-पुत्र को, अपनी दुकान को खुला रखने के आरोप में सथानकुलम पुलिस 19 जून को गिरफ्तार करके ले गई थी. गिरफ़्तारी पूछताछ के नाम पर हुई थी. कहा जा रहा है कि दुकान बंद करने की कहते समय किसी ने पुलिस पर टिप्पणी की. बस यही उन्हें खल गया. उन्हें लगा कि टिप्पणी जयराज ने की. परिणामस्वरूप पहले जयराज को थाने ले जाया गया था. जब उनकी जानकारी लेने पुत्र वहाँ पहुँचा तो उसे भी इस हिंसक बर्बरता का शिकार होना पड़ा. 

पुलिस की क्रूरता की घिनौनी कहानी-
पुलिसिया बर्बरता की ऐसी नृशंस घटना इस पीढ़ी ने कभी देखी-सुनी न होगी. उस घटना का संपूर्ण विवरण लिख पाना मेरे वश के बाहर की बात है, फिर भी कोशिश करती हूँ. आपको निर्भया याद है न? बस, उसी जघन्यता को दोहरा लीजिए. अंतर यही कि इस बार पीड़ित चेहरे दो पुरुषों के हैं. 'हैं' को 'थे' कर  लीजिए क्योंकि भीषण शारीरिक यातना और गंभीर चोटों के चलते ये पिता-पुत्र दम तोड़ चुके हैं. उन्हें इस हद तक पीटा गया कि उनके शरीर का कोई भी हिस्सा सलामत न रहे. 
पुलिस हिरासत में जयराज और उनके बेटे फीनिक्स को निर्वस्त्र कर उन पर लाठियों से ताबड़तोड़ वार किये गए. उनके चेहरों को दीवार पर मारा गया. उनके जननांगों को चीर दिया गया. अकथनीय यातनाओं के बाद रक्तस्त्राव इस हद तक था कि सात बार लुंगियां खून से भीगती रहीं. उसके बाद वहाँ कुछ शेष ही नहीं था. जयराज जी की बेटी और फीनिक्स की बहन इससे ज्यादा और कुछ भी नहीं कह सकीं. पिता-पुत्र की मौत को लेकर तमिलनाडु में बहुत आक्रोश है. एक दिन पूरे राज्य में बंद का ऐलान भी हुआ. आरोपी पुलिसकर्मियों पर हत्या का मामला दर्ज किये जाने की मांग भी जोर पकड़ रही है.

न्याय कुछ यूँ हुआ -
सुनने में आया है कि इस घटना में शामिल कुछ पुलिसकर्मियों का ट्रांसफर हो गया है और जिन्होंने इस बर्बरता को अंजाम दिया वे बर्ख़ास्त  किये जा चुके हैं. 
माननीय मुख्यमंत्री जी ने मौतों पर शोक व्यक्त कर, प्रत्येक परिवार को 20 लाख रुपये और परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने की घोषणा कर दी है. लेकिन भीषण यातना पर उनकी चुप्पी ही सब कुछ कह जाती है. पोस्टमार्टम रिपोर्ट ने भी शारीरिक यंत्रणा की पुष्टि कर दी है. लेकिन सरकारें तो जाँच कमेटी बिठाकर ही सब जानने-समझने का ढोंग रचती आई हैं. वो क्या है न कि हम लोग तब तक भूल भी तो जाते हैं. आपको यह जानकर ख़ुशी होगी कि उन्होंने जांच का आदेश दे दिया है.  

हम कब बोलेंगे?
पुलिस संरक्षण में हुई हत्या की या  मानवाधिकारों के हनन की  यह कोई पहली घटना नहीं है. हम कड़ी निंदा करते हुए वही पुराना राग भी अलापेंगे कि एक सभ्य समाज में ऐसी घटनाओं का कोई स्थान नहीं होता! इस समाज में कितनी सभ्यता शेष है, वह सेलेक्टिव चुप्पी ही ज़ाहिर कर रही है. क्या भविष्य होगा उस समाज का? जब राज्यों के नाम के आधार पर अपराध की जघन्यता की चर्चा होना तय होता है. चुप रह जाना सबसे सरल है, चादर तानकर ओढ़ लेना और भी आसान, लेकिन तब तक ही, जब तक कि पीड़ित के स्थान पर हम स्वयं या हमारा कोई अपना न खड़ा हो! क्या इस बार भी बोलने के पहले हम अपनी बारी की ही प्रतीक्षा करेंगे?
- प्रीति 'अज्ञात'

#Jayaraj #Fenix #Thoothukudi #Tamilnadu #Justice

शुक्रवार, 26 जून 2020

सफ़लता को मारिये गोली, पहले असफ़ल होना सीखिए!


बच्चों को हर हाल में ये समझना होगा कि परिवार के लिए उनसे ज्यादा जरुरी कुछ नहीं होता! ये नाम, पैसा, शोहरत किसी के साथ नहीं टिकते, कभी नहीं टिकते फिर इनके पीछे इस हद तक क्यों भागना कि एक दिन इनके बिना जीना ही दूभर लगने लगे!
यदि आप अपनी समस्या बताएंगे नहीं, तो किसी को पता कैसे चलेगा? घर, परिवार, मित्र में से कोई-न -कोई तो अवश्य ही सुनता है, हमेशा सुनता है. ये मानती हूँ कि बहुधा हमारे पास किसी की समस्या का समाधान नहीं होता लेकिन उससे भी कहीं ज्यादा ये विश्वास रखती हूँ कि कह देने से मनों बोझ हट जाता है दिल से. दुःख की परतें थोड़ी झीनी होने लगती हैं. जीवन उतना कठिन नहीं लगता कि जिया ही न जा सके! ऐसे कैसे आप किसी भी समस्या को जीवन से बड़ा मान लेते हो कि वो न सुलझी तो सब कुछ बेकार है? ख़त्म हो गया है!

जब आप इस दुनिया में अपनी मर्ज़ी से आए नहीं तो आपको कोई हक नहीं कि जाने का रास्ता स्वयं चुनें. वृक्ष में फूल आते हैं, सूख जाते हैं. फल बनते हैं, खा लिए जाते हैं. तो क्या वृक्ष फलना-फूलना बंद कर दे?  वनस्पति तो फिर उगे ही न कभी! प्रकृति में जितनी ख़ूबसूरत चीज़ें हैं, सदियों से सब अपनी जगह हैं. हम मनुष्यों ने इनका सीना चीर दिया है पर वे तब भी हैं...अडिग! पता है क्यों? क्योंकि इन्हें किसी से कोई अपेक्षा नहीं होती. इन्होंने देना ही सीखा है, इसीलिए निराशा इनके पास फटकने के बहुत पहले उलटे पाँव लौट जाना ही पसंद करती है. आप वृक्ष बनना सीखिए. 
सपने देखना अच्छी बात है. उसे पूरा करने की कोशिश, उससे भी कहीं अधिक अच्छा. लेकिन जो ये सपने पूरे न हुए तो बिखरना क्यों है?  एक कोशिश और नहीं हो सकती क्या? भूलिए मत कि आप भी किसी का सपना हो सकते हैं.

क़ामयाबी की कहानी उन पुराने लोगों से सुनिए, जिन्होंने अपना घर बनाने में ही पूरा जीवन निकाल दिया. जिन्होंने कभी AC वाला अपना कमरा या हवाई जहाज की यात्रा का ख्व़ाब तक नहीं देखा. वो इसलिए क्योंकि उन्हें अपने पैरों और चादर का माप पता था. उनके लिए आज भी उस वस्तु की अहमियत है जो उन्होंने पाई-पाई जोडकर खरीदी थी. फिर चाहे वो पुराना रेडियो हो या फ्रिज़. आपको भी हर सुविधा की क़ीमत और अहमियत समझनी होगी. रिश्तों का मूल्य समझना होगा. उन लोगों की भावनाओं की क़द्र करनी होगी जो आपसे हृदय से जुड़े हुए हैं. मौत को गले लगाने का निर्णय लेने से पहले एक बार उन्हें गले लगाइए. कुछ भी न महसूस हो तो बात कीजिए उनसे. हद है! ऐसे कैसे सबको छोडकर यकायक चले जाते हैं लोग.

अरे, जिसका जितना जीवन है वो जीता है. परेशानियाँ, संघर्ष, दुःख किसके साथ नहीं चलते? इन्हीं से जूझते, लड़ते, कभी गिरते, कभी उठते, संभलकर चलने का नाम ही तो है ज़िंदगी. इसमें घबराने जैसा क्या है? हिम्मत है तो जीकर दिखाइए और नहीं है तो.....! सीखिए जीना!

सफ़लता को मारिये गोली, पहले असफ़ल होना सीखिए. जीने की राह यहीं से निकलती है. चखिए, हारने का स्वाद! पीजिये खून के घूँट! जी करे तो बाल्टी भर रो लीजिए. मन लगाने के लिए संगीत सुनिए, बागवानी कीजिए, पढ़िए-लिखिए. कुछ भी कीजिए, जो आपको कभी पसंद हुआ करता था पर प्लीज मरने का ख्याल भी न लाइए. जीवटता बनाए रखिए. 

एक बात जो मैं बीते 3 वर्षों से लगातार लिख रही हूँ, फिर कहती हूँ -
 इस समय के बच्चों को भी तमाम मानसिक तनावों से होकर गुज़रना होता है. उनकी छोटी-सी दुनिया में भी कई परेशानियाँ होती हैं. उनके शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए यह बेहद आवश्यक है कि उम्र के हर दौर में उनके पास ऐसे कुछ नाम ज़रूर हों; जिनके बारे में वो निश्चिन्त होकर सोच सकें कि "हाँ, ये वे लोग हैं जिनसे मैं अपनी कोई भी समस्या कभी भी साझा कर सकता/ सकती  हूँ. जो किसी भी निर्णय को मुझ पर थोपेंगे नहीं और मेरी बात ध्यान से सुनेंगे, समझेंगे." यह काम परिवार के सदस्यों से बेहतर और कोई भी नहीं कर सकता क्योंकि यही वे लोग हैं जिनके साथ बच्चा सर्वाधिक समय व्यतीत करता है. अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाओं और धन के पीछे भागती दुनिया में यदि कहीं कुछ पीछे छूट रहा है तो वह बचपन ही है. वही बचपन, जो समय की माँग करता है! स्वयं को सुने जाने की गुज़ारिश करता है. कहते हैं, इंसान के पास जो घर में नहीं होता, वह उसी की खोज में बाहर जुटा रहता है. कितना अच्छा हो कि बच्चों को सबसे पहले यह बतला दिया जाए कि हम उनके 'सपोर्ट सिस्टम' हैं और वे जीवन की किसी भी रेस में जीतें या हारें, हर चिंता को छोड़ अपनी परेशानियों में आँख मूंदकर सीधे हमारे पास चले आयें, बेझिझक अपनी बात कहें! न केवल परिवार अपितु एक सकारात्मक समाज के लिए भी यह विश्वास और जुड़ाव अत्यावश्यक है.
 
बच्चे ही क्यों, हम सभी को ये प्रश्न अपने-आप से करना चाहिए और इनके उत्तर भी कंठस्थ होने चाहिए कि हमारे जीवन में ऐसे कितने 'अपने' हैं? क्या हम अपने घनिष्ठ मित्रों के संपर्क में हैं? ऐसे कितने नाम हैं, जिन पर भरोसा किया जा सकता है? उनसे अपनी मुश्किल साझा की जा सकती है? कौन हैं वे लोग जो हमारी बात सुनने या समाधान ढूँढने से पहले घड़ी नहीं देखेंगें और न ही समयाभाव का रोना रो अनायास विलुप्त हो जायेंगे? सोचना होगा, जब हर तरफ निराशा हो और आपका मन उदास...तो कौन है, जो ख़ुद बढ़कर आपको थाम लेगा? यदि ऐसा एक भी नाम न निकला तो विचारणीय है कि क्या कमाया? क्या जिया? क्या पाया? लेकिन हार तो तब भी नहीं माननी है.
 
हमें न केवल हमारे बच्चों का 'सपोर्ट सिस्टम' बनना है बल्कि उन्हें यह भी सिखाना है कि वे स्वयं कैसे दूसरों के जीवन में यही रोल प्ले कर कई मुस्कुराहटें उगा सकते हैं. हारते इंसानों का हौसला बन उनके जीने का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं. निराशा की स्याह रात में उम्मीदों के असंख्य दीप जला सकते हैं.
'आत्महत्या' धोखा है, सारे रिश्तों के साथ.
परी सी लड़की कि छूने भर से ही मैली हो जाए. एक टिक टॉक स्टार, लाखों फॉलोअर्स  ....बस एक दिन कह गई, अलविदा! 
सिया, अभी तो जीवन शुरू हुआ था. यूँ हारना नहीं था तुम्हें! 
 -प्रीति 'अज्ञात' 
#Suicide  #Siya_kakkar #Depression #Tiktok_star 

गुरुवार, 25 जून 2020

बाबा रामदेव जी की दिव्यता


मोदी जी भले ही 'विश्व योग दिवस' का श्रेय ले लें पर इस बात में कोई संदेह नहीं कि योग को दुनिया भर में यदि किसी व्यक्ति ने पहुँचाया है तो वो बाबा रामदेव ही हैं. इसके लिए तो 'विश्व स्वास्थ्य संगठन' WHO द्वारा उन्हें एक पुरस्कार देना बनता ही है. हाँ, उनकी 'दिव्य कोरोना किट' के साथ दिक़्क़त ये हो गई कि बाबा ने इन्हें कोरोना के शर्तिया इलाज़ की तरह प्रचारित कर डाला. बस, किरपा इधर ही अटक गई है जी. अरे, कह देते कि इससे अच्छा इम्युनिटी बूस्टर दुनिया में कोई न बना सकता! दुनिया तो तब भी आपके उत्पादों को हाथों-हाथ लेती. बाबाजी की ब्रांड कोई जेम्स बॉन्ड से कम थोड़े न है! सच तो यह है कि पतंजलि का कोई दुश्मन ही नहीं! अब वो स्वयं ही कुल्हाड़ी पर पैर मार लें तो हम भौंचक्के ही हो सकते हैं और क्या!
आप उनकी वेबसाइट पर चले जाइए. प्रवेश द्वार पर ही दो मुस्कुराते चेहरों के साथ 'योग और आयुर्वेद का दिव्य संगम' पढ़ मन-मस्तिष्क सुखद अनुभूति से भर उठता है. हृदय आह्लादित हो अपने चारों प्रकोष्ठों संग इस दिव्यता को पाने का घनघोर नाद कर उठता है. लालची मनुष्य थोड़ा और जीवन पाने को लालायित होने लगता है. 
 
हम सब जानते ही हैं कि समय के साथ-साथ बाबा रामदेव जी का भी विकास होता रहा और देखते ही देखते पतंजलि पीठ ने देश भर में अपनी पैठ बना ली. अब व्यवसायी होना तो कोई ग़ुनाह नहीं! विकास पर सबका हक़ है. हम भी चाहते हैं कि हमारा आने वाला कल बीते हुए कल से बेहतर हो! यहाँ तो एक व्यक्ति आपके सभी तंत्रों की शुद्धि और उत्तम स्वास्थ्य की बात कर रहा है, उसके पास जड़ी-बूटियाँ हैं, तमाम वनस्पतियों को उनके श्रेष्ठतम रूप में औषधि की तरह परोस देने का हुनर है तो उसका स्वागत क्यों न हो! एलोपैथी के साइड इफेक्ट्स तो हम सब जानते ही हैं. इन्हीं कारणों से स्वहित के उद्देश्य से सबने दिल खोलकर पतंजलि के उत्पादों का स्वागत किया. एक- एक कर हम सबके घरों में इन उत्पादों ने घर कर लिया.  

शुरुआत भले ही औषधि से हुई पर उसके बाद हमारी रसोई का भी उन्हें पूरा ख़्याल रहा. जब सही खाओगे तभी तो दवा और असरकारी होगी तो हम इस दिव्य कंपनी का गुड़, घी, तेल बूरा,ओट्स सब गुणकारी खाद्य पदार्थों का नियमित सेवन करने लगे. पर हाय इन निर्जीव बर्तनों को कैसे शक्ति दें? ये चिंता हमें खाए जा रही थी. चिंता नक्को, अपने प्रिय अलादीन बाबा ने तुरंत ही डिश वाश बार पेश किया फिर अपन ने डिटर्जेंट भी ले लिया. एक प्रश्न अब भी शेष था कि आंतरिक तो ठीक पर इस बाहरी काया का क्या करें? कैसे इसके हुस्न में इज़ाफ़ा हो? ये अरमान भी पूरे हुए. दाँतों के लिए दंतकांति ने हमारी मुस्कान में ऐसे वृद्धि की कि हमसे जुडी सारी भ्रांतियाँ दूर हो गईं और हम हँसमुख कहलाये जाने लगे. सौंदर्य निखारने को दिव्य उबटन की प्राप्ति हुई. तत्पश्चात सौंदर्य एलोवेरा gel, फेसवाश से मित्रता हुई. उस पर कायाकल्प ऑयल, शैम्पू, बॉडी लोशन और मेंहंदी ने तो हमारा कायापलट ही कर दिया. तात्पर्य यह कि हमारे घर का प्रत्येक कक्ष बाबा का ऋणी है. जी, हम पतंजलि की पूजा हवन सामग्री, ग्लास क्लीनर, एयर फ्रेशनर को भी भूले नहीं हैं. उऋण होने के लिए हमें अब कोरोना किट का सेवन करना ही होगा! मरते दम तक हम आदरणीय के साथ खड़े हैं. यूँ हम मरेंगे ही कायको? अपन तो दिव्या हैं और अमरत्व की ओर हौले-हौले बढ़ रहे हैं. 
 
हम तो चाहते ही यही हैं कि अगली बार बाबा अपनी टीम से कोई औषधि बनवाएं और बस ग़लती से इतना कह जाएँ कि 'इसके सेवन से कोई मरेगा नहीं!' फिर देखिये उनकी इस बात को अपने हिसाब से एडजस्ट कर लोग ये समझेंगे कि अरे, वाह! अब तो अमरत्व प्राप्त करके ही रहना है. भोले लोग, बस मन का ही तो सोच लेते हैं. इसमें उनका क्या दोष!  बड़े ही दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि इस समय स्वामी जी की स्थिति 'चौबे जी छब्बे बनने गए और दुबे होकर लौटे' की मानिंद है. पर मुझे मेरे बाबा रामदेव पर पूर्ण विश्वास है. मैं जानती हूँ कि इस विवाद का भी कोई तोड़ निकलेगा और एक दिन परम पूज्य जी चक्रवर्ती अवश्य बनेंगे.
 
और बाबा के दुश्मनों, कान खोलकर सुन लो! "पर्वत में से मुट्ठी भर मिट्टी खुरचने से पर्वत को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता बल्कि उसे तो गुदगुदी ही होगी". सार यह है कि चाहे कोई कितने ही गाल बजा ले, कुछ समय बाद ये कोरोना किट सब घरों की शोभा बढ़ाएगी. ज़िन्दग़ी किसे प्यारी नहीं! जब इसकी बेहतरी की कोई बात हो तो लोग तो टूट ही पड़ेंगे. बाद में जो होगा देखा जाएगा. अब हम ही 30 वर्षों से अब तक एक ट्रक भर 'फेयर एन्ड लवली' लगा चुके पर अब तक सबसे उजले शेड तक पहुँचने की उम्मीद न छोड़ी है जी! जब ऐसी तमाम कंपनियों को खुश रखा है तो फिर ये तो हमारे अपने योग गुरु हैं! जय सियाराम!
- प्रीति 'अज्ञात'
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कोरोनिल तो गुजरात में पहले से ही आ गई थी


जैसा कि हम जानते हैं कि बाबा रामदेव और उनके पतंजलि की 'दिव्य कोरोनिल टेबलेट' इन दिनों ख़ूब चर्चा में हैं. क्यों न हो! कोरोना वायरस से त्रस्त इस दुनिया में पहली बार उम्मीद की लहर जो उमड़ी है. ये टेबलेट केवल 7 दिनों में Covid-19 से पीड़ित मरीज़ के ठीक होने का दावा करती है. ज़ाहिर है, हम सबको खुश होना चाहिए और हैं भी.

जब मैंने इस न्यूज़ को पहली बार सुना तो मेरा दिमाग़ इसके नाम पर अटक गया. मई में 'इम्युनिटी बूस्टर्स' पर एक स्टोरी के लिए रिसर्च करते समय यही नाम मैंने 'अहमदाबाद मिरर' में पढ़ा था. यह न्यूज़ निकिर लेबोरेटरीज (इंडिया) के मालिक डॉ. राजेश शाह के बारे में थी, जिन्होंने इस महामारी से लड़ने के लिए कुछ करने की ठानी थी.
उन्होंने कहा था, "हमने लोगों को स्वस्थ रहने में मदद करने के लिए होम्योपैथिक कोरोनिल पिल्स बनाने का फैसला किया. एफडीसीए (FDCA) की अनुमति मिलने के बाद इसका उत्पादन शुरू किया तथा इम्युनिटी सिस्टम मजबूत करने वाली इन पिल्स को निशुल्क ही वितरित कर रहे हैं". मुश्क़िल समय में यह भी कोई कम राहत की ख़बर नहीं थी.
पर क्या ये कोरोनिल और पतंजलि की कोरोनिल एक ही हैं? यह प्रश्न अब भी दिमाग़ में चल रहा था.

जब डॉ. राजेश शाह से इस एक जैसे नाम के बारे में चर्चा की तो उन्होंने बहुत ही विनम्रतापूर्वक इस बात को स्वीकार किया कि 'कोरोनिल' नाम उनकी कम्पनी ने ही पहले approve (फरवरी में) कराया था. पतंजलि TM logo नहीं रखते. लेकिन डॉ.शाह इस बात को लेकर कोई इशू नहीं खड़ा करना चाहते! उनका कहना है कि “वे बाबा रामदेव का बहुत आदर करते हैं और बाबा को उनकी दवाई के बारे में पता भी नहीं होगा. फिर इस दवाई का उद्देश्य तो महामारी से लड़ना है. वे भी समाज की बेहतरी के लिए कर रहे हैं और हम भी. अगर नाम एक सा है भी तो क्या हुआ? हमें तो सबकी सहायता करने से मतलब!” उन्होंने यह भी कहा कि "अगर बाबा को कोई दिक़्क़त होगी तो हम नाम बदलने को तैयार हैं. हमारा उद्देश्य तो सबकी सहायता करना है, फिर माध्यम कोई भी हो. पतंजलि ब्रांड नेम है. उसकी पहुँच दूर-दूर तक है. निश्चित रूप से बाबा रामदेव की कम्पनी सब तक ये प्रॉडक्ट पहुँचा सकेगी. हमारी तो छोटी सी कम्पनी है और हम तो केवल इम्युनिटी बढ़ाने की बात कर रहे हैं जबकि पतंजलि बीमार को ठीक करने का”. 

आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि डॉ. राजेश ने VMC (वडोदरा म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन) को पंद्रह लाख़ doses पहले phase में वितरित की हैं. तीन लाख अपने क्लिनिक से भी दी हैं. वे सबको मुफ़्त ही देते हैं. यदि कोई उनके क्लिनिक तक नहीं पहुँच सकता है तो नज़दीकी मेडिकल स्टोर में (बड़ौदा में) यह केवल बीस रूपये में उपलब्ध है. वे कहते हैं कि इस कठिन महामारी से जूझने के लिए ये हम सबकी जिम्मेदारी बनती है कि जितना हो सकें हम कम्युनिटी की मदद करें. उनका यह उत्तर गर्व से भर देता है और हम निश्चिन्त महसूस करने लगते हैं. जब तक मानवता के ऐसे रक्षक उपस्थित हैं तब तक हमारे हौसले बुलंद रहेंगे. कोरोना से लड़ते-लड़ते अब कुछेक रौशनी की किरणें आने लगी हैं, यह अच्छी ख़बर है. 

अंत में डॉ.शाह एक बात और जोड़ते हैं कि चूँकि ये दवाई हर वर्ग के लिए है, आम लोगों के लिए हैं इसलिए पतंजलि को भी इसकी क़ीमत कम रखनी चाहिए. आपको बता दें कि पतंजलि की कोरोना किट  545 की मिलेगी. बाबा रामदेव को गरीबों का सोच जरा इस मूल्य वाली बात पर पुनर्विचार कर लेना चाहिए.
- प्रीति 'अज्ञात' #iChowk
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रविवार, 21 जून 2020

#Father's Day: पिता महान कहलाने की अपेक्षा भी नहीं रखते!


हमारी पुरानी सामाजिक व्यवस्था ऐसी थी कि अलिखित होते हुए भी स्त्री-पुरुष की भूमिका तय सी ही रहती थी. मतलब पुरुष बाहर के कामकाज देखेगा और स्त्रियाँ घर के. संभवतः इसी समझ के चलते माता-पिता के कार्यों का बँटवारा भी स्वतः ही होता गया. माँ, बच्चों के जितना क़रीब थीं, पिता उतने ही दूर. अब ये तो सृष्टि का नियम है कि जो अधिक दुलार देता है और मौक़े-बेमौक़े काम आता है, गीत उसी के ही अधिक गाये जाते हैं. तभी तो माँ की महिमा, त्याग और बलिदान की अनगिनत कहानियों से पुस्तकें पटी पड़ी हैं वहीं पिता के साथ लगभग सौतेला सा व्यवहार किया गया है. हमारी फिल्मों ने भी पिता को खलनायक की तरह पेश करने में कोई क़सर नहीं छोड़ी है. उस पर घर-घर में बच्चों को शुरू से ही यह कहकर धमकाया, डराया जाता रहा है कि 'आने दे आज पापा को, वही तेरी सही ख़बर लेंगे'. गोया पापा न हुए गब्बर सिंह हो गए. इधर नाम  लिया, उधर बच्चा थर-थर कांपने लग गया. हम भारतीयों के घरों में जब माँओं का बच्चों पर बस नहीं चलता तो प्रायः पिता नामक तलवार सामने रख दी जाती है.  

हम सबके पास अपनी-अपनी शिकायतों का पुलिंदा उड़ेल देने के लिए माँ हैं और माँ के पास पिता. लेकिन पिता अपने दुःख किसके साथ बाँटेंगें, इस बारे में कभी सोचा ही न गया. हम ये मानकर ही चलते हैं कि इनको क्या परेशानी! जो मर्ज़ी हो कर सकते हैं. जहाँ जाना हो जाएँ -आएं, कौन पूछने वाला है! गोया सुख की बस इतनी सी ही परिभाषा है.
जिम्मेदारियों के बोझ तले और तनाव भरे इस जीवन को जीते-जीते पिता कब कम बात करने लग जाते हैं, पता ही नहीं चलता. हम भूल ही जाते हैं कि सुबह से रात तक रोटी की जुगाड़ में लगे, हमारी हर अपेक्षा को पूरा करने वाले व्यक्ति को भी आराम की आवश्यकता होती है. उसे भी कुछ पल सुकून भरे और एकांत के चाहिए होंगे. पर होता यह है कि उसके घर में घुसते ही इसकी-उसकी शिकवे शिकायतों का लम्बा दौर और सबकी फरमाइशों की सूची के नीचे यह प्रश्न दबा ही रह जाता है कि पिता का दिन कैसा गुज़रा! दरअसल पिता इसकी अपेक्षा भी नहीं रखते.उनकी चुप्पी में भी तहज़ीब होती है. अगर 'धरती' हमारी माँ है, तो 'संस्कार' हमारे पिता हैं. 

पिता हमारे नायक हैं. हमारे भीतर का सारा साहस उनकी ही धरोहर है. हमें हिम्मत देने वाले और हमारी ताक़त भी वही हैं. उन्हीं की उँगलियों को थाम हमने मेले की तमाम रौनकें देखी हैं. झूलों का रोमांच जिया है. उनके मजबूत कंधों पर बैठकर हमने इन आँखों में सैकड़ों ख्व़ाब भरे. हमारे टूटते हौसलों को उनके ही मुलायम शब्दों ने संभाला है. संघर्ष के दिनों में वही चट्टान बन डटे रहे हैं. माँ ने हमारे पंखों को प्रेम से सींचा तो पिता ने उसे दुनिया के आसमान में ऊंची उड़ान दी है. याद है न वो साइकिल सिखाते समय उनका अचानक ही पीछे से अपना हाथ हटा लेना! यह उनका अथाह विश्वास था हम पर, जिसने हमें भी आत्मविश्वास से भर दिया था. 
माँ ने हमें जन्म दिया, पालन-पोषण किया तो पिता ने नेपथ्य में रहकर हमारे जीवन को सुदृढ़ आकार दिया और संवारा है. हमारी समस्याओं की अनगिनत गांठों को पल में सुलझा इस जीवन को सरल किया है. वही हमारे संकटमोचक रहे हैं. माँ ने व्यवस्थित होना सिखाया तो पिता ने आर्थिक संबल और अनुशासित होने का ढंग दिया.

पिता की चुप्पी उनकी परेशानियों का मौन शोक है. वे अपने दुःख को शर्ट से पसीने की तरह पोंछ एक तरफ़ झटक देते हैं और उफ़ तक नहीं करते. जबकि उनके माथे से ढुलकता पसीना ही उनके अश्रुकण हैं. इन अश्रुकणों का मोल चुका पाना असंभव है और हम इसके कर्ज़दार बने ही रहेंगे.
हमारे जीवन के इस महानायक को Happy Father's Day! 
- प्रीति 'अज्ञात'
#FathersDay #PreetiAgyaat #पिता
Photo Credit: Google

मंगलवार, 16 जून 2020

#Sushant Singh Rajput death: घायल शेरनी बनी कंगना की दहाड़ ही सुशांत को सच्ची श्रद्धांजलि है

सच्चाई कड़वी कुनैन की गोली की तरह होती है जिसे निगलना सबके बस की बात नहीं. कंगना रनौत ने वही गोली बॉलीवुड को गटकने को दे दी है. इससे अधिकांश सरदार ख़ेमों में चुप्पी छाई है तो मुट्ठी भर कलाकार समर्थन में भी आ खड़े हुए हैं. शेखर कपूर और सिकंदर खेर के वक्तव्य भी उसी तथ्य की पुष्टि करते हैं जिसे कंगना ने पूरी बेबाक़ी से अपने वीडियो में बयां किया है. उन्हें ध्यान से सुनिएगा. 

इस बार तीर निशाने पर लगा है 
कंगना को मैं एक घायल शेरनी की तरह देखती हूँ. सुशांत के आत्महत्या प्रकरण से उनके दिल के ज़ख्म भी उघड़ने लगे हैं. आख़िर क्यूँ न कहें वो ऐसा, वे भी तो यही सब झेलती आई हैं. भले ही उन्होंने ऐसी कोई नई बात नहीं की है जिससे हम सब अंजान थे. लेकिन उनका प्रहार सही समय पर, सही जग़ह जाकर लगा है. यही कारण है कि उनका वीडियो वायरल हो रहा है.
अपनी तमाम शानदार परफॉरमेंस के बावजूद भी बॉलीवुड से उनको मिली उपेक्षा के हम सब साक्षी हैं. आज कंगना का वही दर्द सामने आ गया है. उनकी सच्चाई को अक़्सर बड़बोलेपन या सनकी होने का नाम दे ढकने की कोशिश होती रही है. इसमें कोई संदेह नहीं कि वे एक उत्कृष्ट एवं मेहनती अदाकारा हैं लेकिन सच और झूठ को जस का तस कह देने का उनका अंदाज़ उन्हें शुरू से ही भारी पड़ता रहा है. इस वीडियो के जरिये उन्होंने कहीं अपनी क़सक भी साझा कर दी है.

दमन  का रिमोट कंट्रोल   
फिल्म उद्योग में बड़े नामों को खुश करने के चक्कर में प्रतिभाओं का गला हमेशा से ही घोंटा जाता रहा है. यह इस भय से भी होता है कि फ़लाने को काम दिया तो कहीं भाई बुरा न मान जाए. विवेक ओबेरॉय, अरिजीत सिंह के किस्से भूले नहीं हैं हम. विवेक ओबेरॉय ने तो किसी शो में एक बार बोला भी था कि 'टपर वेयर से ज्यादा प्लास्टिक इस इंडस्ट्री में है’. पुरस्कारों की ख़रीद-फ़रोख़्त या सिफ़ारिश की बातें भी अब खुलकर बाहर आने ही लगी हैं. 
प्रतिभा को दबाया नहीं जा सकता, यह बात जितनी सच है उससे भी बड़ा सच यह है कि उसे तोड़ने की कोशिश बार-बार की जाती है जो अपने उसूलों पर चलने का हुनर रखता हो. चाटुकारिता में विश्वास न रखता हो और गुटबाज़ी से कोसों दूर रह सिर्फ़ अपनी मेहनत के बल पर जीता हो. ये हर क्षेत्र में है. हममें से कइयों ने इसे अपने जीवन में भुगता है. अब भी भुगत रहे हैं. हर क्षेत्र के अपने तय आक़ा हैं जिनके पास रिमोट कंट्रोल है.

इनके साथ भी अन्याय हुआ है 
कंगना की बातों से शत-प्रतिशत सहमत होते हुए मुझे इसमें एक बात और जोड़नी है कि भाई-भतीजावाद के चलते बॉलीवुड में अयोग्य के लिए भले ही सौ रास्ते खोल दिए जाएं, उन्हें पुरस्कारों से नवाज़ा जाए लेकिन दर्शक इन्हें एक ही झटके में बाहर का रास्ता दिखाना नहीं भूलते. अभी आपको बहुत से ऐसे नाम याद आ रहे होंगे जो 'वन फिल्म वंडर' बन के ही रह गए. हाँ, Nepotism का ये दुखद पक्ष जरूर है कि यह कई प्रतिभावान कलाकारों को निगल लेता है. उन्हें इस इंडस्ट्री में वह स्थान नहीं देता जिसके कि वे हक़दार रहे हैं. अच्छे अभिनय से ज्यादा यहाँ खानदान और रसूख़  की पूजा होती है. जिमी शेरगिल, मनोज बाजपेई, नवाज़ुद्दीन, अक्षय खन्ना, कोंकणा सेन, नंदिता दास जैसे कितने ही उम्दा कलाकार हैं जिन्हें उनके हिस्से की जमीन देने में बॉलीवुड हिचकिचाता रहा है. यदि आपका कोई गॉडफ़ादर नहीं हैं तो आप बाहर वाले ही माने जाएंगे. इन तथाकथित रहनुमाओं की नज़रों में आपसे निकृष्ट और कोई नहीं!

बॉलीवुड का क्रूर सच   
सपनों की नगरी में स्वार्थी, बेरहम लोग भी रहते हैं. ये आपके मुँह से निवाला तक छीनने में संकोच नहीं करते. ये चाहते ही यही हैं कि अगर आप इनकी शर्तों पर जी नहीं सकते तो हारकर लौट जाएं. गुटबाज़ी को पोसते ये लोग नित नए षड्यंत्र रच आपका जीना हराम कर देते हैं. ध्यान रहे! 'सीधे वृक्ष सबसे पहले काटे जाते हैं, टेढ़े-मेढ़े अंत तक नहीं कटते!' इसलिए क्रूर लोगों की इस दुनिया में रहने के लिए बहुत हिम्मत और आत्मविश्वास चाहिए. कंगना जैसी हिम्मत! जो सुशांत के लिए बिना भयभीत हुए जमकर बोलीं. उनके वक्तव्य से कई चेहरों के नक़ाब उतर चुके हैं. फ़िलहाल कंगना ने उनकी रातों की नींद छीन वहां बेचैनी और घबराहट तो भर ही दी है.  सही मायनों में सुशांत को यही सच्ची श्रद्धांजलि है. 
कंगना, तुम यूँ ही बेख़ौफ़ और इन दुष्टों के लिए टेढ़ी बनी रहना! अपना ख्याल भी रखना. 
- प्रीति 'अज्ञात'
#SushantSinghRajput #suicide #Nepotism #depression #KanganaRanaut #PreetiAgyaat #iChowk

रविवार, 14 जून 2020

एक जादू की झप्पी की तलाश सबको है!


हम सबके मन के भीतर एक कोना ख़ालिस अँधेरे से भी भरा होता है. इस कोने में तमाम टूटे सपने, दबी हुई ख्वाहिशें, खोए हुए रिश्ते और कुछ ऐसी  विषाक्त तस्वीरें ठसाठस भरी होती हैं जिन्हें इंसान चाहकर भी भुला नहीं सकता. उदासी और निराशा भरे दौर में इसी  कोने की खिड़कियाँ अनायास ही धीरे-धीरे फिर खुलने लगती हैं. इससे जुड़ी बुरी स्मृतियाँ चारों ओर से घेर बेतहाशा प्रहार करती हैं. अब मन ये मान लेना चाहता है कि 'मेरा कोई नहीं!' यही वो पल है जब इंसान अपने जीवन का सबसे मुश्किल और ख़तरनाक निर्णय ले लिया करता है. अपने-आप से दूरी बनाने की इस सोच में उसे 'आत्महत्या' ही एकमात्र तरीक़ा नज़र आता है. वो यह भूल जाता है कि उसके जाने के बाद उन लोगों का क्या होगा, जिन्होंने अपना जीवन उससे जोड़ रखा था! क्या मृत्यु सभी शंकाओं का समाधान है? क्या जीवन से हार मान लेना, मृत्यु पर विजय का संकेत है? क्या आत्महत्या संघर्ष से मुँह छुपाकर भागना नहीं होता? लेकिन इस सबके साथ एक प्रश्न और भी उठता है कि इंसान किन परिस्थितियों में मौत को गले लगाता होगा? मर जाना इतना आसान होता है क्या?

आत्महत्या का निर्णय लेते समय, आँखों के सामने माता-पिता का बिलखता चेहरा जरुर झूलता होगा. मन जरुर सोचता होगा कि माँ जाने कब तक आकाश को ताक बादलों में मेरी तस्वीर तलाशेगी. बेसुध हो घंटों रोएगी और एक दिन पागल हो मर ही जाएगी.  पिता के सारे सपने भी उन्हीं की तरह उम्र भर के लिए बिखर जाएंगे. दोस्त फूट-फूटकर रोएंगे और उलाहना देते हुए कहेंगे, "कमीने, एक बार तो गले लग दिल का हाल बताता यार!' कितने सपने जो एक इंसान अपने-आप के लिए देखा करता है, क्या वे सब उस एक पल में आँखों के पानी से न बह जाते होंगे! ख़ुशी के मुट्ठी भर पल ही सही, एक बार तो याद आते होंगे. इन सारे पलों से जीतकर, ऊपर उठ व्यक्ति मर जाने की चाह रख पाता है; तो यह भी हिम्मत का ही काम है. मैं इसे महिमामंडित नहीं कर रही पर क़ाश! यही हिम्मत उसने जीने के लिए जुटा दी होती! 

दिक्कत यही है कि हम सब अपने दुखों को बांटने के लिए एक कंधा तलाश रहे होते हैं कि कोई तो ऐसा हो जो हमें समझे. हमारे सुख-दुःख में साथी बन साथ खड़ा हो. एक ऐसा इंसान जिसके गले लग दुनिया भर के ग़म सदा के लिए अलविदा कह दें. एक ऐसा साथ, जिसका हाथ थाम चल हर यात्रा छोटी लगे. एक ऐसी मुस्कान जिस पर सारे जहां की खुशियाँ क़ुर्बान हो जाएँ. ये ख्व़ाब हम सब देखते हैं. रोज़ देखते हैं.
पैसा, पद, भौतिक सुख-सुविधाएँ ये सब बातें बेमानी हैं यदि आपके जीवन में आपको प्यार करने या समझने वाला शख्स न हो. हर वो ख़ुशी खोखली है जब आप उसे किसी के साथ सेलिब्रेट न कर पाएँ. वो हँसी भी फ़ीकी ही है जिसमें साथी की आवाज़ मिल ठहाकों में तब्दील न हो जाए. दुःख में झरते उन आंसुओं का भी क्या, जो कोई आगे बढ़ उन्हें पोंछ यूँ न कहे कि 'मैं हूँ न!' एक जादू की झप्पी की तलाश सबको है.

ये अपेक्षा ही इंसानों को भीतर से तोड़ रही है. जबकि होना ये चाहिए कि कोई हमारा न भी बन सका तो क्या! हम तो लोगों के जीवन में खुशियाँ भर दें. किसी ने हमें मुसीबत में बीच राह भले ही छोड़ दिया, हम तो किसी की सहायता कर सकें. दूसरों के सुख-दुःख को अपना समझ जिस दिन जीने लगेंगे, उस दिन सारी परेशानियाँ बौनी नज़र आएंगीं. 
समय का रोना सबके पास है. तनाव सबके जीवन में है. डिप्रेशन से बहुत लोग जूझ रहे हैं. इन्हें अपने दुःख का साझेदार न मिला. आसानी से मिलता भी नहीं! ख़ुद को प्यार करना ही इससे निकलने की सरल, सुलभ दवा है. मन कहे तो ढूंढिए किसी ऐसे शख्स को, जो आपकी ख़ुशी का मोल समझे, कुछ लोग आप ही की तरह होते हैं. ग़र  ख़ुशकिस्मती हुई तो अनायास मिल भी सकते हैं. न हों तो आप किसी की ख़ुशी बन जाइए. जीवन ऐसे ही जीता जा सकता है. 
मैं बार- बार आपको कह रही हूँ कि कभी नाउम्मीद न हों. जीवन में रहकर ही इसकी मुश्किलों से लड़ा जा सकता है. समस्याओं का समाधान निकाला जा सकता है. ‘जीवन से बेहतर कोई विकल्प नहीं!’ किसी हाल में नहीं!
 - प्रीति 'अज्ञात'
#suicide #sushant_singh_rajput #bollywood #सुशांत_सिंह_राजपूत #आत्महत्या 

#सुशांत_सिंह_राजपूत #क़िरदारों में जान फूँक देने वाला अपनी जान कैसे ले सकता है?


Actor Sushant Singh Rajput Suicide news: जी हाँ, सुशांत सिंह राजपूत नहीं रहे! यह चौंका देने वाली दुखद ख़बर तुरंत ही यक़ीन में नहीं बदल पाती. लगता है जैसे हादसों की एक गहरी खाई है और एक-एक कर सब उसमें डूबते जा रहे हैं. कौन, किसको कब और कैसे बचा पाएगा, ये कोई नहीं जानता.
वो शख़्स जो क़िरदारों में जान फूँक देता था वो अपनी जान कैसे ले सकता है? अब ऐसे में ये क़यास कि कुछ दिनों पहले ही सुशांत की मैनेजर ने भी आत्महत्या की और सुशांत की आत्महत्या की कहानी के तार भी इससे कहीं जुड़े हुए हैं,  मेरा मन ये मानने को अब भी तैयार नहीं! कहते हैं उनकी मैनेजर की मृत्यु के कारणों का भी कुछ पता नहीं चला. जाने वाले तो चले गए, शेष लोगों के हिस्से कहानी के कुछ टुकड़े भर रह जाते हैं जिन्हें जोड़ कारण ज्ञात हो जाए शायद. पर उससे जाने वाला कहाँ लौट सकेगा!  
यूँ कहने को जाना तो हम सबको है, एक न एक दिन. लेकिन यूँ असमय, अचानक किसी का अलविदा कह देना स्तब्ध कर देता है. इस ख़बर को पचा पाना जरा भी आसान नहीं है.

आख़िर सुशांत की मृत्यु पर कैसे विश्वास कर लिया जाए. जबकि हम ये जानते हैं कि वे इस समय बॉलीवुड के सबसे प्रॉमिसिंग कलाकार थे. इनके कैरियर के ग्राफ़ को सबने ऊपर उठते ही देखा है. अपनी सफ़लताओं से जाने कितने युवाओं की आँखों में सुनहरे सपने के बीज बो दिए होंगे सुशांत ने. फ़ौलादी इरादे, आत्मविश्वास और अपार संभावनाओं से भरा चेहरा था उनका. आप वो इंसान भी थे जिसने जीवन के कठिनतम संघर्षों से जूझकर आगे बढ़ना सीखा. अपनी एक पहचान हासिल की. टूटते हौसलों के आगे दम तोड़ते नए कलाकारों के लिए एक जीता-जागता उदाहरण था कि ग़र प्रतिभा हो तो हर हाल में बेहतर मुक़ाम पाया जा सकता है.

इन दिनों कोरोना वायरस के भय और इससे जुड़ी ख़बरों ने यूँ भी भीतर से तोड़ ही रखा है. अवसाद भरे इस काल में मन भविष्य को लेकर तमाम अनिश्चितताओं और आशंकाओं से घिरा हुआ है.बुरी ख़बरों की जैसे बाढ़ सी आ गई है और एक अच्छी ख़बर पाने को दिल तरस रहा है. ऐसे में सुशांत के आत्महत्या करने की न्यूज़ तमाम उम्मीदों पर गहरे तुषारापात सी नज़र आती है. मृत्यु तो वैसे भी नकारात्मकता ही लाती है. बेहद हैरान हूँ और दुखी भी कि अपनी तमाम फ़िल्मों से सकारात्मक संदेश देने वाला, ख़ुशदिल इंसान आख़िर किन परिस्थितियों में जीवन को अलविदा कह देने का निर्णय ले लेता होगा!

कुछ समय पहले सुशांत ने ट्वीट किया था, "पुरुषों में भी भावनाएं होती हैं इसलिए रोने में संकोच न करें. इनको अंदर न रख, बाहर उड़ेल देना सही है. यह कमजोरी नहीं बल्कि ताकत का प्रतीक है. मानव हैं तो महसूस करें. अनुभूति मानवीय होती है."
कितना सही कहा था. इसे पढ़कर लगा था कि ये हम सा ही इंसान है जो हँसता-रोता है और जीवन की ख़ूबसूरती को समझता भी है.
उसके बाद अभी जून में ही सुशांत ने अपनी स्वर्गीय माँ को याद करते हुए एक भावनात्मक इंस्टाग्राम पोस्ट साझा किया था. उन्होंने लिखा, "धुंधला अतीत आंसुओं से वाष्पीकृत हो रहा है. कभी न ख़त्म होने वाले सपने मुस्कुराहट और एक क्षणभंगुर जीवन को गढ़ रहे हैं. दोनों के मध्य बातचीत चल रही है, माँ."
यह पोस्ट अवसाद से कहीं अधिक माँ के प्रति उनका असीम स्नेह कह रही थी. न जाने इस सितारे के मन में क्या था जो किसी से बाँट न सका!

मौत से यूँ कोई कैसे हार सकता है. सुशांत तुम भी नहीं कर सकते थे ऐसा. सौ परेशानियों के बीच भी जीवन कहाँ रुकता है. हजारों किलोमीटर पैदल चलते कामगारों का हौसला भी कहाँ टूटा था. भूख से रोज़ लड़ते हुए लोग भी जी ही लेते हैं एक नई सुबह की आस में. वे लोग जो आधे-अधूरे हैं, वे स्त्रियाँ जिनका मन या चेहरा झुलस गया है वे भी जीवन में उजास भरना जानती हैं. जीवन आसान तो किसी का नहीं होता. सब अपने हिस्से की लड़ाई लड़ ही रहे हैं. तुम तो इन सबसे कहीं ऊपर थे फिर यह कमजोर निर्णय क्यों और कैसे? बहुत से प्रश्न हैं जो अब मन को लम्बे समय तक मथते रहेंगे.  
- प्रीति ’अज्ञात’ #iChowk
#suicide #sushant_singh_rajput #bollywood #सुशांत_सिंह_राजपूत #आत्महत्या 

शनिवार, 13 जून 2020

परांठा तो जिल्लेइलाही लाए थे!


आजकल परांठे और GST को लेकर बड़ी चर्चाएं चल रही हैं. अब GST लगे या न लगे, ये तो आप ज्ञानी लोग आपस में तय कर लो. हम तो ये देख रहे कि आपकी दुआ से अपने परांठे मियाँ की चाल में ग़ज़ब की अकड़ और ऐंठन आ गई है. अब भाईसाब,परांठा है तो असाधारण. उसे कमतर आंकना या रोटी के बराबर मान लेना उसकी सरासर तौहीन ही मानी जाएगी. 
माना कि रोटी सबकी जरुरत है और हम उसे हीन कहने/समझने की ग़ुस्ताख़ी ग़लती से भी न कर रहे. न ही ये रोटी-परांठे के बीच सशक्तिकरण या साज़िश वाला मामला है. इन मासूमों के बीच कोई झगड़ा ही नहीं. अरे, दोनों सदियों से प्रेमपूर्वक ही रह रहे हैं. लेकिन अब परांठे को एक मौक़ा मिला है तो उसे 'स्पेशल' फील हो लेने दो न!

परांठे का साम्राज्य विस्तार तो मुग़लकाल से हो गया था -
देखिए, परांठा अंतर्राष्ट्र्रीय हीरो बन चुका है. विश्वभर में इसका निर्यात किया जाता है. जबकि अपनी रोटी एकदम घरेलू और देसी आइटम है. बच गई तो बेचारी चुपचाप डिब्बे में पड़ी रहती. उसका कोई खिवैया नहीं. बलि भी उसकी ही चढ़ाई जाती. याद है न, 'पहली रोटी गाय की' वाली संस्कारी बात? कभी सुना, पहला परांठा गाय को दो? न, वो तो अपन खुद ही हज़म कर जाते. 
अब मुग़लकाल में  बादशाह सलामत ने जब 'परांठे वाली गली' को लाल किले से कुछ ही दूरी पर फ़लने-फूलने दिया तो बात ख़ास ही हुई न. तनिक सोचिए, कितना प्रेम रहा होगा उन्हें अपने परांठे मियाँ से. 
रोटी अफॉर्डेबल कैटेग़री में आती है. रोज़ का किस्सा है इसलिए इसकी डिमांड घर से बाहर नहीं होती. जबकि देश भर में आपको कई डेडिकेटेड परांठा आउटलेट देखने को मिल जाएंगे. 

परांठा लग्ज़री आइटम है -
जी, ग़रीब इंसान के लिए परांठा, पूरी लग्ज़री ही है. इसे वो ख़ास मौक़े पर ही बनाता है. इसमें घी/तेल, समय, इंग्रेडिएंट सब ज्यादा लगते हैं. तवे पर ख़ूब ग़ुलाबी रंगत दे इसका रूप निखरता है. स्टफ्ड हो तो अपने आप में पूर्ण संतुष्टि देता है. रोटी के साथ दाल, सब्ज़ी तो चाहिए ही. अब बताइए, परांठा क्यूँ न इतराए? जब भी किसी को स्पेशल फ़ील करना/कराना हो तो सबसे पहले अपन अद्वितीय आलू के परांठे को याद करते हैं. इसी USP का फ़ायदा इसे मिल रहा है. 

एक परांठा, सौ अफ़साने -
आप दुनिया भर में घूम आइए. रोटी में अधिक बदलाव नहीं आया है. ले देकर वही मिस्सी/तंदूरी रोटी या कभी आटे में कोई प्यूरी मिला दी. शेप भी वही गोलू सिंह. इस पगलैट ने समय के साथ चलना सीख ही न पाया. परांठे के जलवे निराले. ये आपको गोल, तिकोना, चौकोर, पर्त वाला हर आकार में उपलब्ध होगा. 
अब गृहिणी होने के नाते आलू, मैथी, बेसन, मूली, गोभी, पनीर, चीज़, पालक, दाल, जीरा, अजवाइन, प्याज़ इत्यादि पचासों तरह के परांठे तो हम भी बनाते हैं. लेकिन एक दिन कुछ कंपनीज़ के फ्रोज़न(Frozen) परांठों ने हमें भयंकरतम चकित ही कर दिया. कोठू, मलाबारी, गोल्डन डिलाइट ये नाम परांठों के तो क़तई नहीं लगते! बीड़ी-सिगरेट के भले हों. पर नहीं, ये परांठों के ही नाम हैं. रबड़ी परांठा भी देखा. मतलब हद है! ये ठीक वैसा ही समझो जैसे कि चाशनी वाली पानीपूरी! धत्त! ये क्या कह गए हम. अरे, नमकीन को मीठा काहे बनाना? अलग से रबड़ी खा लो न! 

ख़ैर! ये सब दृश्य देख हमें अपनी लिमिटेड कुकिंग होने का आत्मज्ञान प्राप्त हुआ. हम इस ग्लानि समारोह की भीषण अग्नि में झुलस ही रहे थे, पर गुनाहों के सदक़े थोड़ी बेइज़्ज़ती और होना अभी बाक़ी थी. एक लिंक मिली जिसने हमारे इस भरम को ऑन द स्पॉट ध्वस्त कर दिया कि परांठा वेजीटेरियन ही होता है. भिया, बहुत दुःख के साथ सूचित कर रहे हैं कि अब कहीं कोई पूछे, "परांठे खाओगे?" तो पहले ही क्लियर कर लेना कि वेज़ है या नॉन-वेज़! बताओ तो अंडा, चिकन कीमा, मटन कीमा परांठे भी बनते हैं और बाहर भी भेजे जाते. हाय राम! कोरोना के बाद एक यही दुर्लभ पल देखने को ही तो हम जीवित पड़े हैं.
परांठा उद्योग की अच्छी-ख़ासी सूची है. हर कंपनी के अपने विशिष्ट परांठे हैं जो दुनिया भर की सैर कर रहे. भई, सारे सिंगलों! अगले लॉकडाउन से पहले ही अपने फ्रीज़र में इनको झटपट पनाह दे दो.
हे परांठे, तुम्हें इस अलौकिक एवं दिव्य रूप की कोटिशः बधाई. पर पता नहीं क्यों, आज रोटी रानी का सोचकर दिल बहुत भारी हो रहा. 😔😭
- प्रीति 'अज्ञात'
#परांठा #Frozenfood #GST #iChowk

गुरुवार, 11 जून 2020

Gujarat में संक्रमित शख्स, उसके परिवार की कहानी Unlock 1.0 का भयानक भविष्य है!


कोरोना वायरस जब दबे पाँव बिना दस्तक़ हमारे देश में घुस आया था, तब और अब की स्थिति में जमीन-आसमान का फ़र्क आ चुका है. उस समय हम सबके मन में भय से कहीं अधिक जोश था. दुश्मन को धूल चटाने का जोश! हम ये मानकर ही चलते हैं कि किसी में इतना दम ही नहीं जो हमें हरा सके! लेकिन अदृश्य से जूझने का अनुभव नहीं था हमें. हमने उसे कम आँका और बार-बार गलती करते रहे. शायद आत्मविश्वास की यही अधिकता हमें ले डूबी है. मार्च के महीने के वे आंकड़ें जो उँगलियों पर गिन लिये जाते थे, अब उनका हिसाब कैलकुलेटर पर लगने लगा है. संख्या दो लाख को पार कर चुकी है. कितने मरे, कितने जीवित, कितने संदिग्ध, कितनों की जाँच और कितने बिना जाँच के! ख़बर बस यही है. वायरस लौटकर भले ही न गया लेकिन जीवन पटरी पर लौटने लगा है. इस बात में दो राय नहीं कि देश की गिरती अर्थव्यवस्था में प्राण फूँकने की दरक़ार थी ही. लेकिन जनता अति उत्साह में भर इस तरह अपना आपा खो देगी, इसका इल्म क़तई नहीं था! बिना मास्क के घूमते लोग, मिलने-मिलाने या तफ़रीह के लिए बस यूँ ही भटकते लोग हर जगह देखे जा रहे हैं. ऐसा लगता है कि अनलॉक-1 को इन्होंने कोरोना वायरस पर जीत की तरह ले लिया है. चार लॉकडाउन (lockdown) के बाद ये पिंजरे में क़ैद किसी पक्षी की तरह व्यवहार कर रहे हैं जिसे अचानक ही उड़ने को सारा आकाश मिल गया हो.
अहमदाबाद में इस समय जो मंज़र है,  दुआ करती हूँ ऐसा किसी शहर में  न हो. जबकि आज ही ये ख़बर भी सुनी है कि दिल्ली और NCR में भी कमोबेश यही स्थिति है. देश के शेष हिस्सों में भी कहाँ सुकून है! मरीज़ों की संख्या इस हद तक बढ़ चुकी है कि अस्पतालों ने अपने दरवाज़े लगभग बंद ही कर लिए हैं. शुरुआत में सरकारी अस्पतालों की स्थिति और व्यवस्था दोनों बेहतर थी लेकिन अब वहाँ जाने के नाम पर लोग हाथ जोड़ लेते हैं. वैसे भी अब सरकारी और निजी दोनों ही अस्पतालों में बेड का मिलना असंभव सा होने लगा है. जान लीजिये कि आपके परिवार में भले ही कोई कोरोना पॉजिटिव हो, बाकियों में लक्षण हों लेकिन test तब तक नहीं होगा जब तक कि उन्हें सुनिश्चित न हो जाए कि आप पॉजिटिव ही निकलेंगे. आपको एक परिवार की कहानी बताती हूँ–

मरीज़ की ज़ुबानी
Covid-19 का परीक्षण कराना आसान नहीं रहा. प्राइवेट हॉस्पिटल एक टेस्ट का तीस हज़ार (30,000) रूपये तक चार्ज कर रहे हैं. नाम तो कोरोना का, पर मरीज़ के प्रवेश करते ही उन्हें अपनी सारी मशीनों के उपयोग का उम्मीदवार दिख जाता है. फिर CT Scan, Echo और जितने भी टेस्ट संभव हैं सबकी उपयोगिता बताते हुए मरीज़ को डराया जा रहा है. बात इतने पर भी नहीं रूकती. जैसे ही पॉजिटिव निकला, उसे बेड (Bed) न होने की असमर्थता जता दी जाती है. मानकर चलिए यदि आप एक संभावित मरीज़ हैं तो दो दिन केवल परीक्षण के लिए भटकेंगे, उसके बाद तीन दिन हॉस्पिटल की खोज में गुजर जायेंगे. भटकने की इस प्रक्रिया में आप कितने लोगों के संपर्क में आकर उन्हें संक्रमित कर सकते हैं, इस बात से किसी को कोई लेना-देना नहीं! यह भी गाँठ बाँध लीजिए कि निजी अस्पताल एक दिन के पच्चीस हज़ार रुपए (25,000) तक चार्ज कर रहे हैं. अब पंद्रह दिन तो वहां रुकना ही पड़ेगा तो जरा अपना बैंक अकाउंट देख लीजिए कि क्या आपमें इतना खर्चा करने की हिम्मत है? दिल्ली में आठ लाख का पैकेज है.

घर की दुर्दशा 
मरीज़ को हॉस्पिटल ले जाते समय घर के बाहर ताला मार दिया गया. जब उन्हें ये कहा गया कि घर में एक वर्ष से भी कम उम्र का छोटा बच्चा है तो यह कहकर तसल्ली दी गई कि “अरे, हम हैं न! आप इस नंबर पर कॉल कर लेना.” पच्चीसों कॉल किये गए, लेकिन कुछ उठाये नहीं गए और कुछ में यह कह दिया गया कि “अभी इन साहब को बताते हैं.” साहब से साहब तक बात घूमती रही लेकिन 36 घंटे तक किसी ने संपर्क करना आवश्यक नहीं समझा. उसके बाद आये और ताला खोल दिया गया. ताला लगाना और खोलना, दोनों ही बेतुका है. यहाँ एक अच्छी बात जोड़ना चाहूँगी कि इस परिवार को पाँच दिन की दवाइयाँ दे दी गईं थीं. घर के दो अन्य सदस्यों में संक्रमण के कुछ लक्षण दिख रहे थे.
समाज का वही रवैया रहा जो ज्यादातर केसेस में देख ही रहे हैं कि आपको अपराधी मान लिया जाता है. कुछ मित्र बिल्डिंग तक सामान पहुँचा गए. घर में जा नहीं सकते थे. अब दरवाज़े तक उस सामान को सोसाइटी का ही कोई सदस्य पहुँचा सकता था. सबने हाथ खड़े कर दिए और वाचमेन ने भी साफ़ इंकार कर दिया. 

सस्पेक्ट का हाल
जब एक सदस्य का बुखार बढ़ने लगा तो सौ मिन्नतों के बाद जाँच के लिए ले जाया गया. यहाँ कोरोना पॉजिटिव मरीजों के साथ ही उन्हें रखा गया. बाथरूम, बेसिन सब कॉमन शेयर करने थे. तबियत में सुधार हुआ तो  होम क्वारंटाइन की हिदायत देकर घर भेज दिया गया. उनकी रिपोर्ट नेगटिव आई है. क्या कोरोना सस्पेक्ट और पॉजिटिव को एक साथ रखना सही है? क्या इससे संक्रमण फैलने की आशंका और बढ़ नहीं जाती?

चेत जाइए 
मानकर चलिए कि यदि आप कोरोना से पीड़ित हो जाते हैं तो संघर्ष का एक ऐसा भीषण दौर शुरू हो जायेगा जो आपका पूरा जीवन उलट-पुलट कर देगा! आप बेधड़क घर से बाहर निकल रहे हैं तो ये वायरस गला दबोचने को ही तैयार बैठा है. केंद्र या राज्य सरकारों पर आरोप लगा लेने से कुछ हल नहीं निकलेगा. वो रोज़ आपके मुँह पर मास्क नहीं बाँध सकते हैं. अपनी सुरक्षा हमें स्वयं ही करनी है. संक्रमण का खतरा हर जगह है, हर किसी से है. 
अब दोबारा सोचिए कि जान कैसे बचेगी? क्या पूरी सावधानी एवं सुरक्षा के बिना घर से बाहर निकलना, जान से भी ज्यादा जरुरी है? मास्क कोई हेलमेट नहीं है कि कहीं भी अटकाया और चल पड़े. ये जीवन है आपका, जिस पर आपका परिवार भी निर्भर करता है. अपना नहीं तो उन अपनों का सोचिए जिनकी ज़िंदगी आपसे जुड़ी है. कहीं आपकी तफ़रीह और अनावश्यक जोश उनकी ख़ुशियों का बलिदान न ले ले!
- प्रीति ‘अज्ञात’
#coronavirus #the_real_story #Ahmedabad #iChowk #Gujarat

बुधवार, 10 जून 2020

ये मेटाबॉलिज्म हमको दे दे ठाकुर!



बिहार के बक्सर जिले के अनूप ओझा आजकल सुर्ख़ियों में हैं. वे मंझवारी गांव में बने क्वारंटीन सेंटर के मेहमान हैं. आपने न तो माउंट एवरेस्ट पर फ़तह हासिल की है और न ही मंगल ग्रह पर अपने युवा चरण टच किये हैं. बल्कि आपने तो वो कर दिखाया है जिसे जानकर सबका मुँह हाय रब्बा कह खुला का खुला रह जाए.
सामान्य कद काठी के अनूप आम तौर पर एक बार में आठ-दस प्लेट चावल या 35-40 रोटी के साथ दाल-सब्जी खाते हैं. एक दिन 83 लिट्टी खाकर उन्होंने सबको हैरत में डाल दिया था. वे अपने गांव में भी कई बार शर्त लगाकर एक बार में करीब सौ समोसे खा जाते थे. इनकी डाइट हैरान कर देती है जिसकी बराबरी में बकासुर थाली को ही रखा जा सकता है. अच्छी बात यह है कि अनूप इस बात को लेकर बेहद सहज हैं. वे खूब कसरत भी करते हैं और दस लोगों के बराबर काम भी. उनका वज़न भी 70 किलो ही है. उनके भोजन के लिए यहाँ विशेष व्यवस्था होती है.

सबका अपना-अपना मेटाबॉलिज्म होता है भई. इसलिए हमें उनकी डाइट से कोई दिक्कत नहीं! बस, समोसे वाली बात ने ही थोड़ी हार्दिक तकलीफ़ दी है. हम तो आधा समोसा भी खाएं तो अगले दिन दोनों गालों पर एक-एक समोसे की हार्ड कॉपी उभर आती है. अब, अनूप जी को क्या पता कि इस जहान में हम जैसे दुखियारे लोग भी हैं जो इसी 70 को नीचे गिराने के लिए पाँच वर्षों से प्रयासरत हैं. पर अर्थव्यवस्था की तरह failure ही बनकर रह गए.  जिस दिन इतना खा लिया न, तो क़सम से रात को लिलिपुट के रूप में सोयेंगे और सुबह पुराने वाले अदनान सामी के रूप में पुनर्जन्म होयगा. ये दस लोगों का काम कर लेते हैं पर हमें तो उठाने ने में ही दस लोग लग जायेंगे. काम की बात तो एकदम फॉरगिव एंड फॉरगेट ही कर दीजिये. 

तभी तो अपन ने तो जब से ये न्यूज़ पढ़ी, मारे जलन के एकदम अटैक टाइप ही फ़ील होने लग गया था. हाथों में पसीना, जी घबराना और सीने में बहुत जोर वाला दरद. हमारा मेटाबॉलिज्म तो वर्षों से थाइरॉइड अंकल की दुआ को मद्देनज़र रखते हुए अघोषित हड़ताल पर चल रहा है तो भाईसाब इत्ती परेशानी है कि का बताएँ! आप ऐसे समझो कि हम तो सांस भी जोर से लें न, तो फेफड़ों में भरी हवा भी weighing मशीन पर शो होने लगती है और तुरंत तीन सौ पच्चीस ग्राम वज़न बढ़ा दिखता है.
चीनी के डर से चाय ही छोड़ दी हमने, मुई चाय क्या गई जैसे ज़िंदगी ही चुपचाप निकल गई हो हाथ से. बस जैसे-तैसे इस धरा को धन्य कर पाना मेन्टेन करे ले रहे हैं क्योंकि अभी देश को हमारी बहुत जरुरत है. आदरणीय मोदी जी ने भी एक बार समझाया था कि हमें इस कठिन घड़ी का डटकर सामना करना है. डटकर उत्ता  मैनेज हो नहीं पा रहा तो हँसकर ही करे लेते हैं. सुप्रभात में भी एक बार अठारह अलग-अलग फ़ोन नंबरों से डिट्टो फोटू वाला मेसेज आया था कि मुसीबतों का सामना हँसते हुए करना चाहिए. अब 'इत्ते लोग कह रहे हैं तो सही ही होगा' वाली शीपिश वॉक पालिसी पर हमको खूब भरोसा है. वैसे भी विज्ञान कहता है कि हँसने में रोने से कम मसल्स लगती हैं तो आलसी लोगों के लिए भी अच्छा! अपना क्या है, जब दिल हुलकारे मारेगा तो भीतर ही भीतर रो खुदै को किचकिचा लेंगे.

अब एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न आप सबके महान मस्तिष्क में सर्प कुंडली मार बैठ गया होगा कि यार! अपन मोटे हैं या नहीं, ये पता कैसे चलता है! अरे, बड़ी सिम्पल टेक्नोलॉजी है बस एक कुर्सी पर बैठ मोजे पहनने या जूते के फीते बाँधने की कोशिश करें. यदि आसानी से बँध जाए तो मुबारक़ है और लुढ़क गए तो चीख मार घर वालों को तुरंत अपने मोटे होने की मार्मिक सूचना दें.
हम तो आदरणीय चंचल जी के गाने का सत्यानाश कर रोज़ ही ख़ुद को भोरे-भोरे श्रद्धांजलि पहुँचा देते हैं -
मोटे का दुःख क्या होता है, और कोई ये क्या जाने
उसका खाSSना देखूँ मैं, जिसने थाली भर खाSSया हैSS
हो चलो बुला SSवा आया है, योगा ने बुलाया है.
भाड़ में जाओ, ओ सॉरी जय ट्रेडमिल की
हर बात 'दर्द-ए-ज़िगर' नहीं होती हज़ूर! कभी-कभी 'दर्द-ए-फ़िगर' भी होता है.

अनूप जी, आप तो मस्त रहिये और हम जैसे जलकुकड़ों को इंस्टेंट इग्नोर कर दीजिये. हो सके, तो बस एक दिन के लिए ये मेटाबॉलिज्म हमको दे दो जी.
- प्रीति 'अज्ञात' 28 May 2020 #Latepost #Metabolism #thyroid #weightloss

रविवार, 7 जून 2020

रतलामी सेव और पोहे की जोड़ी स्वर्ग से बनकर आई है.



मेरा मानना है कि रतलामी सेव और पोहे की जोड़ी ईश्वरीय देन है. इंदौर के लोग पोहे पर जितना इतराते हैं उतना ही रतलाम वाले अपने सेव पर. एक इंदौरी और रतलामी के बीच में स्वादिष्ट स्नेह का जो पुल बनता है न, वो पोहे की नमकीन वादियों से होकर ही गुजरता है. अब किसने किसको प्रसिद्ध किया, इस पर विवादित चर्चा नहीं करेंगे क्योंकि ये दोनों शहर और यहाँ के लोग बहुत अच्छे और मिलनसार होते हैं. आग नहीं लगानी हमको! ख़ैर! पोहे संग सेव ने राष्ट्र भर की रसोई में पैठ कब बना ली, इसका कोई प्रामाणिक तथ्य तो हमारे पास है नहीं. बस, ऐसा मानना है कि जबसे शरीर के ENT डिपार्टमेंट ने काम करना शुरू किया है तबसे इनकी जोड़ी अजर-अमर है. एक बार बैंगलोर एयरपोर्ट पर चटनी के साथ भी पोहा खाया था. ये कॉम्बिनेशन पहली बार ही देखा था पर स्वाद अच्छा था. वैसे भी जब भूख उग्र आंदोलन पर हो, मसाला चाय साथ हो तो हर बात हसीन लगती है और उस समय प्राप्त नाश्ता स्वादिष्ट होने की उच्चतम सीमा को प्राप्त कर मनुष्य के मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है. वैसे इस बात को बताते हुए हमें भीषण दुःख और शर्मिंदगी का अनुभव हो रहा कि पोहा हमें उतना पसंद नहीं है जी. लेकिन अब हम ख़ुद ही अपनी स्वाद कलिकाओं को सॉरी बोलते-बोलते थक चुके हैं क्योंकि इधर घर में भी सबको संडे स्पेशल के रूप में यही पसंद. बच्चे हों या उनके पिताजी, सब मानकर ही चलते हैं कि आज तो ये देवी (हमहि) पोहा ही बनाएंगी. अब उनको कैसे बताएँ कि इस पोहे ने ही हमारे बचपन के हर संडे का नाश्ता ख़राब करने में अहम भूमिका निभाई है. मम्मी से पूछते, "नाश्ते में क्या है?" और उत्तर में पोहा सुनते ही हमारा चेहरा मुरझाये बैंगन सरीख़ा हो जाता. दिल ऐसा भिचभिचा जाता, मानो किसी ने अदरक समझकर कूट दिया हो. फिर अदरक, मिर्च, नींबू और आलू भुजिया मिलाकर जीवन एडजस्ट कर लेते थे. कई बार पापा चम्पू के समोसे, कचौड़ी भी ले आते थे, साथ में जलेबी भी. उसकी कहानी फिर कभी. अभी पोहे पर फोकस करते हैं. हाँ, तो मैं कह रही थी कि पोहा, मनुष्य से कई गुना बेहतर सामाजिक प्राणी है. ये लड़ता नहीं किसी से. बल्कि इसके जैसा एडजस्टमेंट तो हमने किसी को भी न करते देखा. आलू, मटर, टमाटर, प्याज डालिए तो ख़ुश! मटर न हो तो मूँगफली के साथ मटरग़श्ती कर लेता है. करी पत्ता न हो तो धनिया को गले लगा लेता है. राई डालो या सौंफ़, सबको बराबर प्यार देता है. रतलामी सेव ख़त्म तो बीकानेरी भुजिया से दोस्ती निभा लेगा बच्चू. कुछ भी न हो तो नींबू के साथ ज़िंदाबाद के युगल गीत रचता है. इसके इन्हीं गुणों से प्रभावित होकर मैं इसे 'राष्ट्रीय नाश्ता' घोषित करने की माँग करती हूँ. हमें ही पोहे के अधिकारों के लिए खड़ा होना पड़ेगा! अब हर रविवार पूरा देश 'पोहा' ही खाएगा, इस डॉक्यूमेंट को लीगल कराने का समय आ चुका है. अच्छा! हम एक अर्जेंट बात बताना तो भूल ही गए. वो ये है भिया कि आपको पोहा पसंद हो या नापसंद, ये आपकी मर्ज़ी! लेकिन किसी इंदौरी के सामने ग़लती से भी इसकी बुराई न कर दीजिएगा. सच्ची! वरना उधर ही आपकी झमाझम बेइज़्ज़ती की स्वर्ण रथयात्रा निकल जाएगी. लोग कटोरा भर-भर इतनी लानतें फेंकेंगे न कि आपकी आगे वाली सात पीढ़ियाँ 'पोहा' सुनते ही नमन कह उठेंगी. अपनी एक मिश्टेक की सज़ा पीढ़ियों को न देना बाबू! - प्रीति 'अज्ञात' #poha #national_breakfast #पोहा #preeti_agyaat

शनिवार, 6 जून 2020

अनुराग की Choked ने बासु चटर्जी का दौर याद दिला दिया


मध्यमवर्ग की सबसे प्यारी बात यह है कि उसे अपनी ज़िन्दगी को परदे पर देखना बड़ा अच्छा लगता है. शायद एक सुकून सा मिलता है इसमें कि कोई तो है जिसने हमारे दर्द को समझा. इसलिए वह इस तरह की फिल्मों से कनेक्ट होता है, उन्हें सराहता है. अनुराग कश्यप की फ़िल्म 'चोक्ड: पैसा बोलता है' दर्शकों की इस नब्ज़ को हौले से थामने में पूरी तरह सफ़ल हुई है.
नोटबंदी पर आधारित Netflix पर रिलीज़ यह फ़िल्म मध्यमवर्गीय परिवार सरिता(सैयमी खेर) और सुशांत(रोशन मैथ्यू) की कहानी है. दोनों के सशक्त अभिनय ने इस वर्ग से जुड़ी रोज़मर्रा की किचकिच, आर्थिक संघर्ष और अन्य परेशानियों को दर्पण की तरह सामने रख दिया है. अच्छे और बुरे समय में पड़ोसियों, दोस्तों के कटाक्ष को भी यह बड़ी सरलता से स्पर्श करती चलती है. पति घर में बैठा है और पत्नी कमाए, यह बात आज भी हम भारतीयों के गले नहीं उतरती, इस मानसिकता को भी संज़ीदा तरीक़े से दिखाया गया है.
 
जैसा कि हम जानते हैं कि फ़िल्म का कथानक नोटबंदी पर आधारित है. इसे किचन-सिंक और मनी स्टोरी भी कहा जा सकता है. मोदी जी की एक उद्घोषणा के बाद जहाँ आम आदमी ख़ुश था तो ब्लैकमनी वालों की हालत ख़स्ता हो गई थी. सुशांत, मोदी जी को उस इन्सान के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं जो अकेले ही काला धन वापिस ले आयेंगे. वहीं सरिता, इन सब बातों पर तालियाँ मारने की बजाय बैंक की लंबी कतारों और बिगड़ते ग्राहकों को लेकर चिंताग्रस्त है. उसे घर का वित्तीय संकट देखना है और बाहर के भ्रष्ट लोगों से भी निपटना है.
इस जोड़े का भाग्य तब बदलता है जब एक नेता जी का पी. ए. अपना पैसा ड्रेनेज पाइप में डाल देता है. उसी बिल्डिंग में नीचे फ्लैट में रहने के कारण इनकी  चोक्ड सिंक से पैसों की बरसात होने लगती है. यह बात सरिता को ही पता है. इस धन के कारण उसका जीवन पटरी पर आने लगता है. इसी के साथ कहानी आगे बढ़ती है.
उस दौरान शादियों में कैसी मुश्किल हुई थी, इस पक्ष को भी सतही तौर पर स्पर्श किया गया है. चूँकि नायिका बैंक में नौकरी करती है इसलिए बैंक वालों का जीवन कैसा हराम हो जाता है, इस तथ्य को परदे पर अच्छे से उतारा गया है. एक डायलाग याद भी रह जाता है कि "बैंक में पैसे मिलते हैं, sympathy नहीं मिलती".

इस गंभीर फ़िल्म के कुछेक दृश्य मुस्कान भी ले आते हैं. नोटों की गिनती का दृश्य जिसमें कैशियर का किरदार निभाती सरिता को  तीन बार  नोट गिनने के लिए कस्टमर जब टोकता है तो वह पूछती है, "आप तो नहीं गिनेंगे न?" नए नोटों के साथ सेल्फी लेते हुए लोग,  माइक्रोचिप जैसी छोटी-छोटी बातें भी ख़ूबसूरती से पकड़ी हैं फ़िल्मकार ने.
 
प्रशंसनीय बात यह है कि फिल्म का गीत-संगीत पक्ष कमज़ोर होते हुए भी ये बात लेशमात्र नहीं अखरती. यूँ तो पूरी तरह से कोई गीत है ही नहीं इसमें. बस कुछेक अंश भर हैं. फ़िल्म समाप्ति के बाद शायद ही आपको कुछ गुनगुनाने लायक याद रह जाए. लेकिन फिर भी इन फ़िलर्स की ख़ासियत ये है कि ये कहानी में व्यवधान पैदा नहीं करते बल्कि उसे गति ही देते हैं. एकाध दृश्यों में रोचक भी बनाते हैं.

बहुत ही मुलायम तरीके से, बिना रोए धोए एक साफ़-सुथरी, बेहतरीन फ़िल्म कैसे बनती है. ये अनुराग कश्यप ने करके दिखा दिया है. उन्होंने यह भी बताया कि सेक्स और हिंसा के तडके के बिना भी दर्शक एक अच्छी फिल्म को हाथोंहाथ लेते हैं. हाँ, यदि आप मोदी समर्थक/ विरोधी हैं और नोटबंदी की सफ़लता/विफ़लता जानने में ही रुचि रखते हैं तो ज़रा दूर ही रहिये. इस मामले में आपको निराशा ही मिलेगी. Choked आपको ऐसे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचाती और यही बात फ़िल्म को देखने लायक भी बनाती है. फिल्म के सभी कलाकारों ने अपनी भूमिका को दमदार तरीक़े निभाया है.

हाल ही में बासु चटर्जी का निधन हुआ है. इस फिल्म से यह उम्मीद भी बनी रहती है कि बासु दा जैसी फ़िल्में फिर से बनाने वाले फ़िल्मकार अभी भी हैं.
-- प्रीति ‘अज्ञात’ 
#ChokedReview #Netflix_Movie_Release #Anurag_Kashyap #Preeti_Agyaat #Demonetization #नोटबंदी #iChowk 

शुक्रवार, 5 जून 2020

Breaking news: विजय माल्या आएगा, आएगा, आएगा... नहीं आएगा!

 
लग्ज़री लाइफ कब भावुक कविता में बदल जाए, ये कोई विजय माल्या से पूछे. जिनके मस्तक पर पराजय का मुकुट बस सजते-सजते रह गया. लक्ज़री लाइफ और ब्यूटीफुल वाइफ (कृपया बहुवचन में पढ़ें) के कारण चर्चा में रहे, किंग ऑफ गुड टाइम्स का Worst nightmare बस आने ही वाला है. फिलहाल जरुर आते-आते रह गए.
बताओ, आ जाते तो क्या दिक्क़त थी! पर नहीं, इस कोरोना काल में ढंग की एक भी ख़बर कायको मिलेगी हमको! लाइफ उतनी भी अच्छी कहाँ रही कि जीने का मज़ा ले सकें. बस जैसे-तैसे ऑक्सीजन लेकर, कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जित कर रहे हैं.  इस बात का भी असीम दुःख है कि लॉक डाउन में परम पूज्य जनता के ऊलजलूल व्यवहार से निराश मोदी जी के चेहरे पर मुस्कान की लालिमा एक यही शख्स बिखेर सकता था. 56 इंच को 156 बनने में एक पल न लगता. पर हमारा और प्यारे देशवासियों का ये सुंदर सपना चकनाचूर हो गया. ये जरुर उनकी बददुआओं का फ़ल है जो हमारे इस स्वप्न से जलकर खाक़ हुए जा रहे. इसके लिए मैं पर्सनल डीपली आघात महसूस कर रही हूँ.

वैसे कोई भी मामला हो, सबसे ज्यादा क्यूट रिएक्शन मेहनतक़श वर्ग का होता है. कल से एवीं उछले पड़े जा रहे हैं जैसे सबके हिस्से पौने सात-सात करोड़ आने ही वाले हैं. अरे पगलैटों! जब ये साब जी आयेंगे न; तब तुम अपनी कटी हुई जेब को फिर जाँचना और पुनः हाहाकार प्रारम्भ कर देना. पर हमें अभी ठीक से उदास तो हो लेने दो. हाय! मीडिया ने ‘आएगा, आ रहा’ कहते हुए आशा की जो किरणें फैलाई थीं, उसे काली रात निगल गई.

अदालत ने माल्या को भगोड़ा घोषित किया हुआ है. दूसरी तरफ जनता भी कोड़ा लेकर तैयार है.  हम लोगों को तो खैर! यूँ भी किसी को पीटने में बड़ा आनंद आता ही है. एक बार इन्हें भारत में आने तो दीजिये, फिर देखिये सब तरफ कैसे जलवे बिखरेंगे. बस कैलेंडर वाली सुंदरियां विलुप्त होंगीं और उनके स्थान पर सैल (cell) नंबर अठारह में कोई अकड़कर आ के बोलेगी, "ए जरा साइड वाली वाल पे सरककर बैठने का! जेलर साब ने झाड़ू कटका मारने का बोला रे”.
 
तीन बार अपने प्यार को इकरार में बदलने वाले किंगफिशर के मालिक, बस एक ही चीज़ के लिए बेक़रार हैं और वो है आसान ज़िन्दगी. ये अब इस जनम में तो मिलने से रही. सभी के पाप का घड़ा एक न एक दिन फूटता ही है और इधर तो पूरा बोरवेल है. खेलों के जबरदस्त शौक़ीन इंसान का ये वाला खेल फ़ेल होता दिख रहा और अबकी तो कोई 'सहारा' भी न रहा.
जब सुना कि अंकल जी धार्मिक प्रवृत्ति के भी हैं तो हमें कोई ताज्जुब न हुआ. अब प्रायश्चित करने के लिए किसी के दरबार में जाकर तो नाक रगड़नी ही पड़ती है. तो फ़िलहाल सारा मामला भगवान जी के हाथ में है कि वो अपने भक्त को पास बुलाकर अन्दर करवाते हैं या फिर यहाँ बैठे-बैठे ही इग्नोर मार देते हैं.

आर्थर रोड जेल की एक सैल का वीडियो ब्रिटेन की अदालत को उपलब्ध कराया गया था. हो सकता है लाट साब को उसका इंटीरियर न जंचा हो. अब भिया! शौक बड़ी चीज़ है.
सुना है कोई गोपनीय मुद्दा है. जब तक वो नहीं सुलझेगा, तब तक अंकल जी नहीं भेजे जा सकते. ये 'गोपनीय' जो है न, बड़ा ही तिलिस्मी शब्द है. इसने अच्छे-अच्छों को कच्चा चबा डाला है. उनकी नींदें हराम कर दी हैं. जब कोई ये कहे कि "मामला सुलझाने में वक्त लगेगा" तो समझ जाओ कि अंकल जी उनके पैर कस के पकड़ क्षमा याचना के एपिसोड नंबर बत्तीस में जुटे पड़े हैं...कि "बस इस बार माफ़ कर दो, हमसे गलती हो गई, अगली बार नहीं करेंगे. वो भारत की जनता हमपे हँसे जा रही, खिल्ली उड़ा रही. बुहु-बुहु, सुबक-सुबक”.

खेल के शौक़ीन एक दिन खुद ही क्लीन बोल्ड हो जायेंगे ये किसको पता था. फ़िलहाल तो ये ऐसी इनिंग खेल रहे कि गेम ओवर होने के बाद भी बस दौड़ते ही जा रहे हैं और देश भर के थर्ड अंपायर हैरान-परेशान हैं. ओ शाब जी! तनिक रुक जाओ.
इधर हमने ख़ुद के उम्मीद के दरवाजे FM के नाम कर दिए जो दिलासा दे रहा है, "आएगा, आएगा, आएगा आने वाला...आएगाआआ,आएगाआआ”.  
हे ईश्वर! एक अच्छी  ख़बर देकर जीवन सुधार दो न प्लीज़!
- प्रीति ‘अज्ञात’
#विजय_माल्या #Vijay_mallya #iChowk #rumour

गुरुवार, 4 जून 2020

कोरोना के दौर में कन्या राशि वालों के साथ ऐसा क्रूर मज़ाक!



'आज का राशिफल', गूगल सर्च पे ये पेज अचानक ही खुल गया. अब इस मुश्क़िल समय में देश-दुनिया के भविष्य को लेकर अपन चिंतित तो हैं ही. सो थोड़ा जानने का कौतुहल हुआ. यूँ  तो हम सब आधुनिक लोग बिल्ली के रास्ते काटने वाली बात पर भी विश्वास नहीं करते, पर किसी न किसी बहाने से रुक तो जाते ही हैं न! बस, डिट्टो इसी भाव से ओतप्रोत थे हम. बस दिक़्क़त ये है कि हमारी राशि अब तक क्लियर नहीं हो पाई है. पंडिज्जी ने 'ह' पर नाम रख कर्क राशि डिक्लेअर कर दी. नाम रखा गया 'प' से, तो अपन कन्या की तरफ लुढ़क लिए. अब जन्म की तारीख़ अगस्त में है, वो हमें सीधा लियो(Leo) बन दहाड़ने को कहती है. सो अपन इन तीनों त्रिवेणी को बड़े चाव से पढ़ते हैं और अपनी पसंद का माल चुन लिया करते हैं. आज बहुत फ़ुर्सत थी तो हमने सारी राशियों की सैर की. अब पछता रहे.

जैसे ही पढ़ा कि "कन्या राशि वालों के विदेशी लोगों से रिश्ते बनेंगे", मारे घबराहट हम तो पसीना-पसीना हो गए. कोरोना दौर में कन्याओं के साथ ऐसा क्रूर मज़ाक करना अच्छी बात नहीं है. ये तो हमें मारने की सरासर धमकी है? आगे लिखते हैं, "विदेश यात्रा के योग हैं." क़सम से पहली बार हमको किसी अच्छी बात को पढ़कर भीषण दुःख और अपमान महसूस हुआ. आपसे ही अंतिम आसरा बँधा था हमरा. बहुत चोट पहुंची है आज हमारे कोमल ह्रदय को. 
मतलब महाराज, आप कहना क्या चाह रहे? कोरोना काल में जबकि यातायात के सभी साधन बंद हैं तो बताइये प्रभु, ऐसे में ये योग बनेगा कैसे! आप पर्सनल पुष्पक विमान भेज रहे हैं क्या? वरना तो एक ही तरीक़ा बचता  है कि यहाँ से सीधा नदी में छलांग मारें, लाश बनें और बहते-बहते डायरेक्ट अरब की खाड़ी में जा मिलें. अब आरती शाह तो हैं नहीं कि तैरते तैरते इंग्लिश चैनल पार कर लेंगे. आपको क्या पता कि इधर तो बरसाती खड्डों को लाँघते हुए भी चार बार 'पवनसुत हनुमान की जय' का जाप लगता है. उस पर भी तीन बार घनघोर कीचड़ में सनने का लुत्फ़ उठा चुके हैं. वो हमारी टाँग छोटी है न तो कैलकुलेशन गड़बड़ा जाता है. अब आप मुस्कियाकर कहेंगे कि कीचड़ में ही कमल खिलता है. लेकिन हम इस बात के राजनीतिकरण के सख़्त ख़िलाफ़ हैं. हो सकता है आप रातोंरात हमें पाकिस्तानी बॉर्डर पे ही फिंकवा दो, बाक़ी तो हमें कंटीले तारों के पास से घसीटते हुए ले जाने वाले कर ही देंगे. लो, जी हो गई विदेश यात्रा! आपके कट्टर वाले समर्थक तो इसे भी सही सिद्ध कर देंगे कि गुरूजी ने ज़िंदा या मुर्दा स्पष्ट ही कहाँ किया था! 
सुनो, आप हमको इधर ही गोली मार दो न. विदेशी कोरोना से काहे मरवा रहे. स्वदेशी भी ईक्वली (Equally) गुड हैं. अब लोकल पे वोकल होना तो मांगता है.

कन्या से निराशा मिली तो सिंह की ओर बढ़े. लेकिन आज तो भगवान जी ने हमसे जन्मों की खुन्नस निकालने का तय ही कर लिया था जैसे. यहाँ जो लिखा था उसने हमें गहरे शोक और अवसाद के कुँए में फिर जा फेंका. आदरणीय मुए जी ने लिखा था कि आपको रोज़गार में घाटा होगा. हमें इस 'घाटा' शब्द से तनिक भी आपत्ति नहीं है बल्कि दिक्कत 'रोज़गार' से है. अब ये तो सारी दुनिया जानती कि हम घोषित ‘कट्टर बेरोजगार’ हैं. हम ही क्या सभी हिंदी लेखक, समाज सेवक ही हैं. एक दिन स्वयं के ही समर्पण और लगन से सम्पूर्ण आहत होकर हमने ही खुद को ये नाम दे दिया था. वो क्या है न दुख की जड़ पता हो तो दरद थोड़ा कम होता है! अपनी लाइफ तो जैसे-तैसे धक्का मार चल ही रही, पर जाने क्यों आज ये तीन शब्द देख 'कंगाली में आटा गीला' वाला मन हो गया है. थोड़ा आगबबूला और मुँह फूला सा भी प्रतीत हो रहा.

सोचा, चलो कर्क राशि दग़ा न देगी. अब इस को पढ़कर ही अपने छालों पर रुई का ठंडा फाहा रख लेते हैं. इस उमस भरे मौसम में दिल की फ़िज़ूल जलन पे कुछ तो कूल लगे. पर या तो हम नासपीटे हैं या आज का दिन ही शनिच्चर निकला. यहाँ लिखा था कि "दोस्तों से मेल मिलाप का उत्तम योग है." अब हम समझ गए कि हमारा कुछ न हो सकता! मौत ने हमको चारों तरफ से घेर लिया है. मित्रों के गले लग उनकी हेल्थ को तो नुकसान नहीं पहुँचा सकते. क्या पता हम ही कोरोना पीड़ित हों. अब ये दुष्ट वायरस भी तो asymptomatic हो चला है. बस सारे मित्रों को दुआ देने के पश्चात हमने हालात से हार मानते हुए बिना लाइसेंस वाली चोरी की बंदूक निकाल ली है. पर अब भी एक भयंकर परेशानी है. सोच रहे हैं  कि गोली दाईं कनपटी में मारें कि बाईं? वो क्या है न कि हमें हिंसक गतिविधियों में लिप्त होने का थोड़ा कम एक्सपीरियंस है. हम तो झाड़ू मारते समय अगर चींटी  भी आ जाए तो उसे झाड़ू संग घसीटते नहीं बल्कि रुक जाते हैं. और प्यार से कहते हैं कि "कोई बात नहीं मुनिया रानी, पहले तू क्रॉस कर ले!" तो अब आप ही इस समस्या का निदान करो कि किधर मारना शुभ होगा पंडिज्जी? पिलीज़ निश्चित समय भी बता दो कि डायरेक्ट स्वर्ग में, फ्रंट रो में ही एंट्री मिले. हमको उधर पहुँच श्री बेजान दारुवाला जी को उनकी शानदार भविष्यवाणियों के लिए धन्यवाद देना है. तभहि चुपके से पूछ भी लेंगे कि "क्यूट वाले अंकल जी, क्या आप अपनी मृत्यु  का राज़ जानते थे?"

इधर शेष राशियों वाले कह रहे, "सावधानी बरतें वरना धोखा हो सकता है." अब ये इन्होने कौन सा आर्कमिडीज़ का नया सिद्धांत प्रतिपादित कर दिया है जो जनता को नहीं पता था? कोई सलाह दे रहा, "अपनी आँखें और नाक-कान खुले रखें." बताओ, हमाये मोई जी ख़ुद टीवी पे भी गमछा बाँध के आ रहे और ये लोग हैं कि हमें देशद्रोही बनाने को उकसा रहे!
बारह राशियाँ और जनता 130 करोड़. बहुत नाइंसाफ़ी है ठाकुर! औसतन 11-12 करोड़ लोगों के साथ रोज़, एक सा मज़ाक हो रहा जिसमें सारे अख़बार और चैनल वाले लोग भी सहायक हैं. आप भी कान खोलकर सुन लो जी. हम ये अत्याचार और नहीं सह सकते! हमारी कोमल भावनाओं की हत्या करके आपकी करोड़ों की कमाई आपको फलेगी नहीं!
ग्रह अपने हिसाब से घूम रहे, कोरोना अपने हिसाब से. इस समय 'कौन सी राशि फ़लदायक है', देखने से अच्छा है कि फ़ल को धोकर खाया जाए. 

अभी रात्रि के दो बजकर अठ्ठाईस मिनट हुआ चाहते हैं. कुछेक उलूक भी साथ जग रहे हैं. कुत्तों के रोने की आवाज़ वातावरण को मदहोश कर रही है. सन्नाटे ने ग़ज़ब हसीन समां बना रखा है. पेट में चूहों का कत्थक महोत्सव चल रहा है. आँखें मालपुए का रूप ले चुकी हैं. बस अब लाइट और चली जाए तो जीने का सही लुत्फ़ आए! हम अब अपने प्रेमी की तस्वीर को प्यार से देख उसे गुडनाइट कह रहे हैं. उफ़! ये क्या! अचानक जीवन की ललक बढ़ गई है. हाइला! अब हम जीकर ही रहेंगे.
सुनिए, राशिफ़ल वाले ज्योतिषी जी "स्टॉप प्लेयिंग विथ अवर मासूम इमोशंस. वन मोर थिंग...हे! व्हाई डोंट यू प्लीज किल योर सेल्फ़!"
क्या कहें, माथा ऐसा ठनका हुआ है कि जी कर रहा सबकी सामूहिक ठुकाई कर दें. पर हम हिंसक हो नहीं सकते न! मजबूरी है.
- प्रीति ‘अज्ञात’
#iChowk #corona #lockdown #Jyotish #Aaj_ka_rashifal #आज_का_राशिफल #preeti_agyaat 

बुधवार, 3 जून 2020

चांदी की साइकिल सोने की सीट


आज 'साइकिल दिवस' है पर ये बात हमें पहले से पता नहीं थी. वो तो भला हो गूगल कैलेंडर का जो आँख खुलते ही सारी सूचनाएँ सामने रख देता है. बहुमुखी प्रतिभा की धनी हमारी साइकिल एकमात्र ऐसा वाहन है जिसने अमीरी-ग़रीबी का भेद मिटा रखा है. हमारे आसपास कितने ही ऐसे हेल्पर्स हैं जो इस पर बैठ आते हैं. तो वहीं बड़ी-बड़ी गाड़ियों में निकलने वाले लोगों के घरों में भी एक कोना साइकिल को समर्पित होता है. इनका कारण स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता है तो पहले का आर्थिक मजबूरी. 

जब आप अपने बचपन की यादों में भ्रमण करते हैं तो ये दुपहिया वाहन अचानक ही घूमता-इठलाता साथ-साथ चलने लगता है. कितना कुछ याद आ जाता है. वो घर में पहली साइकिल का आना, डरते-डरते उसे सीखना, घुटनों का छिलना और पापा का हँसकर कहना कि "गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में, वो तिफ्ल क्या गिरे जो घुटनों के बल चले". समय के पहिये संग, कैंची चलाते हुए कब उचककर ड्राइविंग सीट पर बैठ गए, पता ही न चला!

देखा जाए तो इन दो पहियों ने ही हमारे 'आत्मनिर्भर' होने की पहली नींव रखी है. याद है न वो पहली बार इस पर बैठ घर से निकलना! कैसे हवा से बातें करते हुए चलते थे हम लोग. कॉलेज के शरारती स्टूडेंट्स का इसके पहियों की हवा निकाल देना और फिर मदद के बहाने आकर कैरियर में फंसे प्रेमपत्र की तरफ़ इशारा करना ही उस समय का एकमात्र रोमांस हुआ करता था. कई बार लड़के इम्प्रेस करने के चक्कर में हाथ छोड़कर साइकिल चलाने लगते थे. उसके बाद का दृश्य भी बड़ा यादगार बनता था. वैसे आपकी जानकारी के लिए बता दें कि उन्हीं दिनों एक गीत आया था 'चांदी की साइकिल सोने की सीट, आओ चले डार्लिंग चले डबल सीट' गोविंदा और जूही चावला पर फ़िल्माया यह गीत आशिक़ समाज में बड़ा लोकप्रिय हुआ करता था.

क्यों चलाई जाए साइकिल?
* एक तरफ़ पेट्रोल-डीज़ल के बढ़ते रेट जहाँ सबकी हवाइयाँ उड़ा रहे वहां साइकिल का होना बजट को संतुलन में रखना है. यह जीरो  मैन्टेनेंस वाला वाहन है जिसमें बस हवा ही तो भरनी है. इससे सस्ती यात्रा और क्या होगी!
* पर्यावरण को बचाने के लिए भी साइकिल से बेहतर कुछ नहीं! 
* अच्छे स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए भी ये आवश्यक है. रोज़ cycling की जाए तो फ़िटनेस बनी रहती है.
* ध्वनि प्रदूषण से मुक्ति मिलेगी.  
* ट्रैफिक जाम और दुर्घटनाओं से मुक्ति का भी यही उपाय है.
* सोशल डिस्टेंसिंग बनी रहेगी. 
* आम आदमी की पहुँच के भीतर है.
* इम्यून सिस्टम ठीक रहता है.
* घुटने और जोड़ों के दर्द की परेशानियाँ नहीं होतीं. 

दिक्क़त यहाँ हैं -
* साइकिल परिवहन के लिए यह एक सस्ता, अच्छा और टिकाऊ विकल्प है. लेकिन हमारी सड़कें इसके लिए पूरी तरह तैयार नहीं. अलग लेन की व्यवस्था होनी चाहिए. 
* परेशानी ये भी है कि हमने तो पर्यावरण बचाने की ठान ली लेकिन जब चारों तरफ़ से धुएँ के थपेड़े पड़ेंगे तो अपनी जान को ही न बचा पायेंगे. 
* इसे चलाते समय हेलमेट पहनने के लिए लोगों में अभी भी अवेयरनेस की कमी है.

कोरोना वायरस के क़हर के कारण लोग अब पब्लिक ट्रांसपोर्ट और कार पूलिंग से कन्नी काटने ही वाले हैं, ऐसे में जरुरी हो जाता है कि हमारी प्यारी साइकिल हम सबके जीवन में बहार बन लौट आये! इसके प्रति जनता में जागरूकता फैलाने के लिए एक 'साइकिल चलाओ  दिवस' भी मनाया जाना चाहिए. 
यही उचित समय है 'साइकिल क्रांति' के आह्वान का और कोरोना के मुंहतोड़ जवाब का!
- प्रीति 'अज्ञात' #World_Bicycle_Day #iChowk
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