रविवार, 21 जून 2020

#Father's Day: पिता महान कहलाने की अपेक्षा भी नहीं रखते!


हमारी पुरानी सामाजिक व्यवस्था ऐसी थी कि अलिखित होते हुए भी स्त्री-पुरुष की भूमिका तय सी ही रहती थी. मतलब पुरुष बाहर के कामकाज देखेगा और स्त्रियाँ घर के. संभवतः इसी समझ के चलते माता-पिता के कार्यों का बँटवारा भी स्वतः ही होता गया. माँ, बच्चों के जितना क़रीब थीं, पिता उतने ही दूर. अब ये तो सृष्टि का नियम है कि जो अधिक दुलार देता है और मौक़े-बेमौक़े काम आता है, गीत उसी के ही अधिक गाये जाते हैं. तभी तो माँ की महिमा, त्याग और बलिदान की अनगिनत कहानियों से पुस्तकें पटी पड़ी हैं वहीं पिता के साथ लगभग सौतेला सा व्यवहार किया गया है. हमारी फिल्मों ने भी पिता को खलनायक की तरह पेश करने में कोई क़सर नहीं छोड़ी है. उस पर घर-घर में बच्चों को शुरू से ही यह कहकर धमकाया, डराया जाता रहा है कि 'आने दे आज पापा को, वही तेरी सही ख़बर लेंगे'. गोया पापा न हुए गब्बर सिंह हो गए. इधर नाम  लिया, उधर बच्चा थर-थर कांपने लग गया. हम भारतीयों के घरों में जब माँओं का बच्चों पर बस नहीं चलता तो प्रायः पिता नामक तलवार सामने रख दी जाती है.  

हम सबके पास अपनी-अपनी शिकायतों का पुलिंदा उड़ेल देने के लिए माँ हैं और माँ के पास पिता. लेकिन पिता अपने दुःख किसके साथ बाँटेंगें, इस बारे में कभी सोचा ही न गया. हम ये मानकर ही चलते हैं कि इनको क्या परेशानी! जो मर्ज़ी हो कर सकते हैं. जहाँ जाना हो जाएँ -आएं, कौन पूछने वाला है! गोया सुख की बस इतनी सी ही परिभाषा है.
जिम्मेदारियों के बोझ तले और तनाव भरे इस जीवन को जीते-जीते पिता कब कम बात करने लग जाते हैं, पता ही नहीं चलता. हम भूल ही जाते हैं कि सुबह से रात तक रोटी की जुगाड़ में लगे, हमारी हर अपेक्षा को पूरा करने वाले व्यक्ति को भी आराम की आवश्यकता होती है. उसे भी कुछ पल सुकून भरे और एकांत के चाहिए होंगे. पर होता यह है कि उसके घर में घुसते ही इसकी-उसकी शिकवे शिकायतों का लम्बा दौर और सबकी फरमाइशों की सूची के नीचे यह प्रश्न दबा ही रह जाता है कि पिता का दिन कैसा गुज़रा! दरअसल पिता इसकी अपेक्षा भी नहीं रखते.उनकी चुप्पी में भी तहज़ीब होती है. अगर 'धरती' हमारी माँ है, तो 'संस्कार' हमारे पिता हैं. 

पिता हमारे नायक हैं. हमारे भीतर का सारा साहस उनकी ही धरोहर है. हमें हिम्मत देने वाले और हमारी ताक़त भी वही हैं. उन्हीं की उँगलियों को थाम हमने मेले की तमाम रौनकें देखी हैं. झूलों का रोमांच जिया है. उनके मजबूत कंधों पर बैठकर हमने इन आँखों में सैकड़ों ख्व़ाब भरे. हमारे टूटते हौसलों को उनके ही मुलायम शब्दों ने संभाला है. संघर्ष के दिनों में वही चट्टान बन डटे रहे हैं. माँ ने हमारे पंखों को प्रेम से सींचा तो पिता ने उसे दुनिया के आसमान में ऊंची उड़ान दी है. याद है न वो साइकिल सिखाते समय उनका अचानक ही पीछे से अपना हाथ हटा लेना! यह उनका अथाह विश्वास था हम पर, जिसने हमें भी आत्मविश्वास से भर दिया था. 
माँ ने हमें जन्म दिया, पालन-पोषण किया तो पिता ने नेपथ्य में रहकर हमारे जीवन को सुदृढ़ आकार दिया और संवारा है. हमारी समस्याओं की अनगिनत गांठों को पल में सुलझा इस जीवन को सरल किया है. वही हमारे संकटमोचक रहे हैं. माँ ने व्यवस्थित होना सिखाया तो पिता ने आर्थिक संबल और अनुशासित होने का ढंग दिया.

पिता की चुप्पी उनकी परेशानियों का मौन शोक है. वे अपने दुःख को शर्ट से पसीने की तरह पोंछ एक तरफ़ झटक देते हैं और उफ़ तक नहीं करते. जबकि उनके माथे से ढुलकता पसीना ही उनके अश्रुकण हैं. इन अश्रुकणों का मोल चुका पाना असंभव है और हम इसके कर्ज़दार बने ही रहेंगे.
हमारे जीवन के इस महानायक को Happy Father's Day! 
- प्रीति 'अज्ञात'
#FathersDay #PreetiAgyaat #पिता
Photo Credit: Google

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