गुरुवार, 4 मई 2023

 

‘राजनीति’, एक ऐसा शब्द है जो न चाहते हुए भी हम सबके जीवन में पूरी तरह प्रवेश कर चुका है। जहाँ देखिए वहाँ केवल और केवल चुनाव की चर्चा! चुनाव से पहले चुनाव की चर्चा और उसके बाद भी वही दृश्य। पहले अनुमान पर चर्चा, फिर परिणाम पर चर्चा। तत्पश्चात विजयी दुंदुभि बजाने के विविध प्रकारों पर चर्चा, हार के कारणों पर चर्चा! वे नागरिक जिन्हें लगता है कि देश में और भी बहुत सी घटनाएं हो रहीं हैं जिन्हें चर्चा का विषय बनाया जाना चाहिए था, तंग आकर उन्होंने अखबार पढ़ना बंद कर दिया है।

मनुष्य अपने मनोरंजन के लिए या कुछ पल सुख से बिताने के लिए चैनल बदलता है लेकिन यहाँ तो हर जगह ही चीखपुकार, उठापटक और गालीगलौज है। चर्चाएं ऐसी, जिनका कोई निष्कर्ष ही नहीं निकलता! गोया वह प्रवक्ताओं को लड़ने के लिए उकसाने के ‘पवित्र’ उद्देश्य को ध्यान में रखकर ही बनाई गईं हों! इसका साक्ष्य कार्यक्रम का नाम ही दे देता है। इतने तूफ़ानी नाम रखे हुए हैं जिन्हें सुनकर ही पता चल जाता है कि अब इस अखाड़े में दंगल ही हो सकता है। यूँ अतिथिगण पूरी तैयारी के साथ ही इस रणभूमि में उतरते हैं। चुनावी मंचों पर सौम्यता, सज्जनता, शिष्टता, नैतिकता और अनुशासन का ज्ञान बाँटने वाले नेताओं के मुखारविंद से जो पुष्प यहाँ झरते हैं उसके आगे सारे मानवीय भाव माथा टेक लेते हैं। उस पर उनकी भावभंगिमाएं और अनूठी शब्दावली! अब इन्हें देख-सुन आपका सिर शर्म से झुक जाए अथवा आप टीवी बंद कर दें; यह आपका निर्णय है। लेकिन सार यह है कि टीवी से मोहभंग होने लगा है। जिस माध्यम का कार्य, खबरें पहुँचाना है वह या तो तमाशा दिखा रहा या न्यायाधीश बना बैठा है। आम नागरिक के पास मुद्दों की पूरी सूची है, जिन पर बात करने को इक्का-दुक्का चेहरे ही उत्सुक दिखाई पड़ते हैं।

क्या मीडिया का एक बड़ा हिस्सा अपना उत्तरदायित्व भूल बैठा है? क्या उसमें निर्भीकतापूर्वक तथ्य कहने का साहस नहीं बचा? क्या वह अपने मूल्यों, सरोकार और निष्पक्ष पत्रकारिता के तमाम पाठ स्मरण नहीं करना चाहता? यह सब विमर्श का हिस्सा हो सकता है लेकिन उससे भी अधिक आवश्यक यह जानना है कि मलीन राजनीति का आम नागरिकों के मानसिक स्वास्थ्य और सोच पर कितना दुष्प्रभाव पड़ रहा है! राजनीति में शून्य रुचि रखने वाला व्यक्ति भी इससे प्रभावित है। रिश्तों पर इसके प्रतिकूल परिणाम देखने को मिल रहे और कुंठाएं अपने चरम पर हैं। तात्पर्य यह कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य से जितनी दूरी बनाई जा सकती है, बनाइए। क्योंकि आम नागरिक के जीवन में यह किसी भी प्रकार का कोई हित नहीं कर रहा। बल्कि तनाव, अनिश्चितता, भय, चिंता, अलगाव, हताशा और अन्य नकारात्मक भावनाओं में वृद्धि ही हो रही है।

सोशल मीडिया और चौबीसों घंटों चलते समाचार चक्र, सूचनाओं के अधिभार के साथ मस्तिष्क पर हावी हो रहे हैं। विविध विचारधाराओं के समर्थक आपस में उलझ रहे हैं। सकारात्मक चर्चा अब होती ही नहीं! अलग-अलग राजनीतिक विचारों वाले व्यक्तियों के लिए घनिष्ठ संबंध बनाए रखना कठिन हो रहा है। विभाजन और संघर्ष की कठोर स्थिति पनप रही जो कि अत्यधिक चुनौतीपूर्ण एवं भावनात्मक रूप से तोड़ देने वाली हो सकती है। कोई आश्चर्य नहीं कि कई तो निराशा एवं गहन उदासी के भंवर में जा भी चुके हैं। सोशल मीडिया पर विभिन्न दृष्टिकोणों के साथ व्यक्तियों को समझना या समझाना लगभग असंभव सा है।

यूँ भी राजनीति एक बहुत ही विवादास्पद विषय है। इससे संबंधित विवाद लोगों के बीच असंतोष का कारण सदा ही बनते आए हैं जो उन्हें तो तनावग्रस्त रखते ही हैं, साथ ही समाज की स्थिरता और शांति को भी खतरे में डालते हैं। यह सत्य है कि दुनिया में क्या हो रहा है, इसके बारे में सूचित रहना महत्वपूर्ण है। यह भी मानती हूँ कि विभिन्न स्रोतों से प्राप्त नकारात्मक समाचारों और सूचनाओं से बचना या दूर रहना भी चुनौतीपूर्ण है, लेकिन फिर भी इस जोखिम को कम करने और अधिक सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करने के लिए कुछ प्रयास तो किए ही जा सकते हैं।

राजनीतिक चर्चाओं के दौर में अपने मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान रखना अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि नकारात्मक सोच प्रायः लोगों को संभावनाओं की बजाय समस्या पर ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रेरित करती है। इसके परिणामस्वरूप लोग समाधान खोजने के स्थान पर चुनौतियों से हतोत्साहित होने की प्रवृत्ति दर्शाते हैं। यह उनके वैयक्तिक विकास के लिए हानिकारक है।

यही प्रतिकूल सोच, समाज के भीतर विभाजन और संघर्ष को जन्म देती है। जब लोग किसी स्थिति या व्यक्तियों के नकारात्मक पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो उनके ध्रुवीकृत होने और दूसरों को संदेह या शत्रुता की दृष्टि से देखने की आशंका बढ़ जाती है। इससे सामाजिक विखंडन हो सकता है, एकता और सहयोग बढ़ाने के प्रयासों को कमजोर किया जा सकता है।

राजनीति से दूर रहकर कुछ हद तक तनावमुक्त रहा जा सकता है। निरर्थक समय एवं ऊर्जा भी नष्ट नहीं होती। इसलिए यह समय अन्य महत्वपूर्ण उत्पादक कार्यों पर लगाया जाए तो ही अच्छा! स्पष्टतः यह मानसिक शांति और बेहतर स्वास्थ्य की दृष्टि से भी लाभकारी सिद्ध होगा। इसके लिए आवश्यक है कि सचेतन भाव से बिना किसी को जज किए या उसकी बातों से आहत हुए बिना अपने विचारों और भावनाओं के बारे में जागरूक रहा जाए। हम अपने आप को उन लोगों के संपर्क में रखें जो हमारे व्यक्तित्व में निखार एवं जीवन में सकारात्मकता लाते हैं। अकेले हैं तो हम प्रेरणास्पद वीडियोज़ या हास्य कार्यक्रम देखें तथा समाचारों से अपने संपर्क को एकदम सीमित कर दें।

व्यायाम, संतुलित भोजन और पर्याप्त नींद के माध्यम से भी अपने शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य का ख्याल रखना मूड को बेहतर बनाने और नकारात्मक भावनाओं को कम करने में सहायक सिद्ध होता है।

हमें कृतज्ञता का अभ्यास करना चाहिए। ऐसे बहुत लोग हैं जिन्होंने कभी-न-कभी हमारा साथ दिया है, उनके प्रति आभार व्यक्त करने की आदत अपनाएंगे तो हमें भी अच्छा लगेगा और उनके चेहरे पर भी मुस्कान आएगी।

याद रखें कि नकारात्मकता से दूरी बनाना एक दुष्कर यात्रा है और इसके लिए निरंतर प्रयास और अभ्यास की आवश्यकता होती है। कुछ आदतों को अपनी दिनचर्या में शामिल करके ही हम अधिक सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित कर सकते हैं। जहाँ तक राजनीति का प्रश्न है तो यह सर्वविदित है कि मैली राजनीति के बिना दुनिया एक अधिक सुंदर और सामंजस्यपूर्ण जगह होगी, लेकिन ऐसी दुनिया को हासिल करने के लिए इस क्षेत्र में रहने वालों के मूल्यों और व्यवहार में एक महत्वपूर्ण बदलाव की दरकार है। इस बीच आम नागरिकों द्वारा अपने मानसिक स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहते हुए, राजनीति से जुड़े लोगों के सुधरने और मूल्यपरक होने की प्रार्थना ही की जा सकती है।

- प्रीति अज्ञात  https://hastaksher.com/

'हस्ताक्षर' मई 2023 अंक, संपादकीय 

https://hastaksher.com/are-we-sacrificing-our-mental-health-in-the-era-of-political-discussions/

#हस्ताक्षरवेबपत्रिका #हस्ताक्षरहिंदीसाहित्यकीमासिकवेबपत्रिका #हस्ताक्षरउत्कृष्टसाहित्यकामासिकदस्तावेज #हस्ताक्षरवेबपत्रिका #संपादकीय #हस्ताक्षर #हिन्दीसाहित्य #हिन्दी #प्रीतिअज्ञात #PreetiAgyaat


गुरुवार, 13 अप्रैल 2023

अधिनियम के बाड़े में फंसा सारस

 


आरिफ़ और सारस का किस्सा हम सभी जानते हैं। ‘वन्य जीव संरक्षण अधिनियम’ की दुहाई देकर सारस को आरिफ़ से अलग तो कर दिया गया लेकिन जिस तरह से उसे रखा जा रहा है, वह कई प्रश्नचिह्न अवश्य खड़े करता है। यह कैसा अधिनियम है जो आसमान को नाप लेने वाले एक पक्षी को बाड़े में क़ैद कर अपने न्यायसंगत होने का प्रमाण प्रस्तुत कर रहा है? आप उस पक्षी की व्यग्रता और छटपटाहट को समझिए जो उसे आरिफ़ को सामने देखकर हुई। वह उसके पास जाने को तड़प रहा था। उसका उछल-उछलकर जाली से टकराना और बाहर न निकल पाने की विवशता किसी का भी हृदय पसीज दे लेकिन वन्य विभाग का नहीं! उन्हें यह सही लगता है कि एक पक्षी जो अब तक स्वतंत्र भाव से अपने एक मित्र के साथ रह रहा था, उसे पकड़कर बंद कर दिया जाए। फिर चाहे वह टकरा-टकराकर लहूलुहान हो जाए, भूखा रहे, क्या ही फ़र्क़ पड़ता है! ‘नियम’ हर भाव, हर संवेदना से ऊपर की बात है! और यह इतने ऊपर की बात है जो उड़ने वाले पक्षी को उसके पंख पसारने का ही अवसर नहीं देती! लेकिन इस कृत्य को सही ठहराने में कोई क़सर बाकी नहीं रखती।

घोर आश्चर्य की बात है कि वन्य प्राणियों के प्रति नियम और व्यवस्था की दुहाई देने वाले इस तंत्र को ‘चिड़ियाघरों’ से कभी कोई परेशानी नहीं होती! हमारे यहाँ तो दूसरे देशों से भी वन्य जीवों को लाया जाता रहा है, उन्हें उनके वातावरण और पारिस्थितिकी से पृथक कर कहीं और लाना या ले जाना किस अधिनियम के अंतर्गत आता होगा? क्या यह अन्याय नहीं? उन निरीह प्राणियों के जीवन के प्रति खिलवाड़ नहीं?

सब जानते हैं कि विकास और आधुनिकता के नाम पर जंगल समाप्त किए जा रहे हैं। जंगलों में आग के मामले भी प्रायः सामने आते रहते हैं। कितनी ही बार वन्यजीवों के शहर में घुस आने की घटनाएं सामने आती हैं। कुछ जीव या तो गाड़ियों से कुचलकर मर जाते हैं या मार दिए जाते हैं। अपने आनंद के लिए इन जंतुओं का शिकार भी मनुष्य करता रहा है और इनके अंगों से निर्मित सामान से जुड़े अनगिनत उद्योग भी वर्षों से फलफूल रहे हैं।

इन सब मामलों में अब तक वन्यविभाग की जवाबदेही क्या रही और अधिनियम का वास्ता कभी क्यों नहीं दिया गया? बल्कि जनता के सामने बड़ी सरलता से आँकड़े जारी कर दिए जाते हैं कि लीजिए यह प्रजाति अब विलुप्त हो गई या उसके कगार पर है। हम जैसे कवि लोग विलुप्त गौरैया, कम होते चीते और सिंहराज पर भावुक कविताएं रच अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। पर वो जंगल कहाँ गए? इन पशु-पक्षियों का घर किसने उजाड़ा? कौन हैं जो इनका शिकार कर रहे? ये सभी प्रश्न कौन करेगा? क्या इनके उत्तर मिलेंगे कभी?

क्या मुर्गा, बत्तख, बकरी, गाय, भैंस, सूअर और ऐसे ही तमाम जीवों को पकाकर खाना किसी ‘पालतू या घरेलू जीव अधिनियम’ के तहत हो रहा है? उन्हें कौन रोकेगा? एक ओर तो पशुओं को अपनी संस्कृति का प्रतीक बताकर उनकी महानता के गान किये जाते हैं और अगले ही पल चटखारे लेकर उनका भक्षण किया जाता है। मनुष्य की महानता और संवेदनशीलता की पराकाष्ठा तो देखिए कि गाय, भैंस का पर्याप्त दोहन करने के बाद वह उसे कसाई को दे आता है लेकिन जब तक उससे लाभ मिलता रहे, हाथ जोड़ उसे पूजता है। आपकी स्मृति में हो शायद कि बर्ड फ्लू के चलते कानपुर ज़ू के सभी पक्षियों को मारने का आदेश दे दिया गया था और अधिनियम के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी थी।

एक शोध के अनुसार “कुल मांस उत्पादन के मामले में, भारत 2020-21 में 8.80 मिलियन टन मांस के उत्पादन के साथ विश्व स्तर पर 5वें स्थान पर है। 2022-2023 में मांस उत्पादन बढ़कर 90 लाख टन होने का अनुमान है।” क्या इस पर गर्व करें? कर ही लेना चाहिए! लेकिन फिर सारे अधिनियम और उसकी बातें बेमानी हैं।

सारस का क्या होगा! पता नहीं! लेकिन इतनी मनुष्यता और संवेदना तो शेष रहनी ही चाहिए जो किसी पक्षी के प्रेम के आड़े न आएं! अब आप कहेंगे कि हम तो मनुष्यों के प्रेम के भी आड़े आते रहे हैं, प्रेमियों का लहू बहाने में भी गुरेज नहीं करते! तो मैं प्रेम से विनती ही कर सकती हूँ कि निरीह पक्षी पर यह निर्णय छोड़ दें कि उसे कहाँ जाना है! वह मनुष्यों के बनाए नियमों के प्रति बाध्य तो नहीं है न! या उसे भी आपकी नैतिक कक्षा में बैठ ‘अ’ से अधिनियम का पहाड़ा याद करना होगा!
प्रीति अज्ञात https://hastaksher.com/
#​संपादकीय अप्रैल 2023
https://hastaksher.com/vanya-jeev-adhiniyam-aur-baade.../

#हस्ताक्षरवेबपत्रिका #हस्ताक्षर #हिन्दी #प्रीतिअज्ञात #PreetiAgyaat 

गुरुवार, 16 मार्च 2023

चेतना को पुकारती, जंगल की आवाज

सर्वप्रथम तो यह स्पष्ट कर दूँ कि भले ही ‘The Elephant Whisperers’ को लघु वृत्तचित्र की श्रेणी में ऑस्कर पुरस्कार मिला हो लेकिन इसे किसी उबाऊ वृत्तचित्र समझने की भूल बिल्कुल भी नहीं कीजिएगा। यह अपने-आप में परिपूर्ण एक ऐसी उत्कृष्ट लघु फिल्म है जो आपको अंत तक एकटक बाँधे रखती है और मन-मस्तिष्क में सदा के लिए ठहर जाती है। गिलहरी, उल्लू, गिरगिट के चेहरों से प्रारंभ हुई इस फ़िल्म का प्रथम दृश्य ही मंत्रमुग्ध कर देता है और दर्शक को समझ आ जाता है कि वह अपने जीवन के श्रेष्ठतम 41 मिनट का साक्षी होने वाला है।

यह तमिलनाडु के कट्‌टुनायकन (kings of the forest) समुदाय के दो लोगों की कहानी है। मानवीय संवेदनाएं क्या और कैसी होती हैं, हम मनुष्यों का प्रकृति से रिश्ता कैसा होना चाहिए, पर्यावरण के प्रति प्रेम का सही मायनों में अर्थ क्या है इन सभी मूल्यों को गहराई से समझाने में ‘The Elephant Whisperers’ पूर्ण रूप से सफ़ल सिद्ध हुई है। न तो इसमें भारी-भरकम संवाद या नाच गाना हैं और न ही कोई अतिनाटकीयता से भरा वातावरण! बल्कि अपने हर दृश्य में यह बड़ी सहजता से आपको प्रकृति की गोद में लिए आगे बढ़ती है। छायांकन तो अद्भुत है ही, साथ ही इसमें इतने सुंदर पल हैं जो आपके हृदय को भीतर तक नम कर जाते हैं।

यूँ इस वृत्तचित्र का मूल विषय तो रघु (हाथी) ही है लेकिन भावनात्मक स्तर पर यह मनुष्य और उससे जुड़ी संवेदनाओं की भी उतनी ही दक्षता से बात करती है। यह बताती है कि अनेक कठिनाइयों से किसी को पाल-पोसकर बड़ा करना क्या होता है और उसके बाद उसे किसी और के हाथों सौंप देने में दिल पर क्या गुजरती है। कितने भावुक होते हैं वे पल, जब आप उस अपने को दूर से निहारते हैं। यह रघु और अमु की दोस्ती और उससे पहले की उनकी मनःस्थिति को भी सटीक तरीके से उभारती है। मनुष्यों के घर में जब दूसरा बच्चा आता है तो पहला जिस असमंजसता और असुरक्षा से गुजरता है उसकी एक झलक भी यहाँ देखने को मिलती है। लेकिन उसके जाने के बाद की व्याकुलता ..उफ़! जी करता है कि उठकर अमु के आँसू पोंछ दें और उसे रघु से मिला दें। रघु के दूसरे सहायक के पास जाने का दृश्य भी अत्यंत मार्मिक बन पड़ा है। जैसे कोई किसी बच्चे को जबरन बोर्डिंग भेज रहा हो। कहने को हाथी के लालन-पालन से जुड़ी कथा पर भाव जैसे हर पल हम पर बीत रही हो।

एक बच्चे को पालते हुए कैसे दो मन परस्पर बंध जाते हैं और वह बच्चा भी हाथी का हो तो ये बात कई लोगों को अचंभित कर सकती है! लेकिन यह ऐसे ही प्यारे परिवार की कहानी है। उन लोगों की कहानी जिन्हें प्रकृति प्रेम का सही अर्थ पता है, जो जानते हैं कि जंगलों से उतना ही लेना है जितनी जीवन की आवश्यकता है। जब हम प्रकृति से जुड़ी हर बात से प्रेम करते हैं तो बदले में प्रेम ही मिलता है। यह बात जंगल के जानवर भी हमसे बेहतर जानते हैं। वे निरर्थक ही किसी को हानि नहीं पहुँचाते। उन्हें प्रेमिल स्पर्श समझ आता है और वे इसका उत्तर भी कई गुना बढ़ाकर देते हैं।

सार यह कि ‘The Elephant Whisperers’ वर्तमान समय के उन सभी प्रासंगिक विषयों पर सशक्त रूप से बात करती है

जिसमें प्रकृति और मनुष्य के मध्य सामंजस्य स्थापित हो, उनका सह-अस्तित्व हो, जीव-जंतुओं के अधिकार के प्रति संवेदनाएं उत्पन्न हों, पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता बढ़े और ज्यादा से ज्यादा पा लेने की मनुष्य की महत्वाकांक्षा पर विराम लगे। प्रकृति है तो जीवन है। इस कठिन लेकिन बेहद आवश्यक फ़िल्म को बनाने के लिए कार्तिकी गोंज़ाल्विस को बधाई के साथ-साथ ढेर सारा स्नेह। समाज को इसी चेतना भरी फिल्मों की दरकार है। वृत्तचित्र से जुड़ी ऊब भरी धारणाओं को ध्वस्त करने का भी शुक्रिया, कार्तिकी! 💖

- प्रीति अज्ञात इसे आप यहाँ भी पढ़ सकते हैं - https://hastaksher.com/the-elephant-whisperers-oscar-winning-amazing-documentary-on-environmental-protection-and-animal-rights/ #TheElephantWhisperers #Oscars2023 #KartikiGonsalves #PreetiAgyaat #प्रीतिअज्ञात #हस्ताक्षर #हस्ताक्षरवेबपत्रिका





All reac

मंगलवार, 14 मार्च 2023

नाटू-नाटू के साथ जमकर नाचो!

 

खेतों की धूल में कूदते हुए बैल की तरह नाचो, तुम इस बजते हुए ढोल पर उड़-उड़कर नाचो। ऐसे नाचो जैसे चप्पल-जूते पहन छड़ी से लड़ते हैं। ऐसे नाचो कि विशाल बरगद की छाया तले युवाओं का झुंड थिरक रहा है। तुम ऐसे प्रसन्न हो नाचो जैसे कि आज ज्वार की रोटी के साथ मिर्च का अचार भी खाने को मिला हो। नाचो मेरे वीर! तुम पूरे पागलपन से नाचो। इस क़दर नाचो कि हरी मिर्च का तीखापन दिखाई दे और उसमें चाकू सी धार हो। जैसे ढोल पीटने पर कान सुन्न हो जाते हैं और हृदय की धड़कनें बढ़ जाती हैं, नाचो नाचो। मेरे भाई! उस गीत की तरह नाचो जो आपकी उंगलियों को भी थिरकने पर मजबूर कर दे। तेज ताल पर जंगली नृत्य की तरह नाचो। तुम ऐसे नाचो जैसे पृथ्वी हिलने लगे। धूल-धूसरित होकर नाचो, धूल उड़ाकर नाचो। नाचो नाचो।

यूँ तो  'नाटू नाटू'  गीत हिन्दी में भी उपलब्ध है लेकिन मेरी रुचि इसके मूल भाव को समझने में थी। तेलुगू में लिखे गए इस गीत के अनुवाद को जब समझा तो हैरान हो गई। यह मनुष्य की उन भावनाओं से जुड़ा गीत है जो उसे उल्लास से भर देती हैं। जब खुशियों से उसका मन झूमता है, तब ही वह यूँ नाचता है जैसे  'नाटू नाटू' में नाचा है। इस गीत के बोल भावविह्वल कर देते हैं और यह भी बताते हैं कि एक आम आदमी के जीवन में खुशी के पलों का अर्थ क्या है और अपनी जमीन से जुड़े रहना क्या होता है। मानव मन असल में इतना ही भोला है कि छोटी-छोटी खुशियाँ ही उसे एक भरपूर जीवन दे जाती हैं। ये तो राजनीति ने सबके दिमाग में ज़हर घोल रखा है वरना हर मनुष्य अच्छा ही बना रह सकता है। 

किसी भारतीय भाषा में लिखे गीत को ऑस्कर मिलना देश के लिए गौरवान्वित करने वाला पल है। ये आह्लाद के, उल्लास के वे क्षण हैं जिनकी प्रतीक्षा एक लंबे समय से थी। इस पुरस्कार को किसी ट्रॉफी के प्राप्त कर लेने भर से नहीं आंका जा सकता बल्कि यह इस भाव को भी वैश्विक रूप से प्रतिष्ठित करता है कि हमारे संगीत में वह जादू है जो हर पैर को थिरकने पर विवश कर दे और इसके लिए 'नाटू नाटू' की पूरी टीम बधाई की पात्र है।  

अब इस गीत को ऑस्कर मिलना चाहिए था या नहीं! इस पर भी चर्चाओं का दौर चल पड़ा है। लेकिन मेरा मानना है कि घर बैठे सपने बुनते रहने से कुछ नहीं होता! जीतेगा वही जो प्रतियोगिता में भाग लेगा। मुझे तो लगता है कि 'जीना यहाँ, मरना यहाँ'', ' इक प्यार का नगमा है', 'नैन लड़ जइहैं', 'फूलों के रंग से' और ऐसे तमाम सादगी से भरे लेकिन जीवन रंग में घुले गीत भी ऑस्कर योग्य हैं। जाने भेजे गए होंगे या नहीं!  

कुढ़ने वालों का तो क्या ही कहा जाए पर अधिकांश जनता तो प्रसन्नचित्त ही है और भारतीयता का यह भाव जो अभी हमारे भीतर है, वह ओलंपिक या क्रिकेट के समय भी भरपूर देखने को मिलता है। शेष समय हम फ़लाने की हाय हाय, ढिमके की बॉयकॉट या ज़िंदाबाद/ अमर रहें में निकाल देते हैं। भारतीय सिनेमा को भी बॉलीवुड तक ही सीमित मान लिया जाता है। यहाँ तक कि अन्य राज्यों के कलाकारों को भी यह लगता है कि हिन्दी फिल्मों में आए बिना उनकी प्रतिभा को वह मान न मिल सकेगा जिसके वे हक़दार हैं! 

हाँ, एक बात और ... जिस दीपिका के विरुद्ध एक वर्ग ने भीषण हाहाकार मचा रखा था। वही प्रतिभावान और आत्मविश्वास से भरी दीपिका पादुकोण ऑस्कर में भारत का प्रतिनिधित्व करती नज़र आईं। मंच पर हों या श्रोताओं में बैठीं, उनकी खुशी, उनकी मुस्कान, उनके आँसू सब कह रहे थे कि एक सच्चा भारतीय देश के लिए ऐसे ही गर्व अनुभव करता है और देशभक्ति कोई ढोल पीट-पीटकर, अपने-अपने झंडे लहराकर सार्वजनिक प्रदर्शन की वस्तु क़तई नहीं होती! देशप्रेम कट्टर नहीं, एक सहज, कोमल भाव है जो अधिकांश भारतीयों की रगों में स्वतः ही दौड़ा करता है। प्रेम से रहकर देखो, सब अपने हैं। 
खैर! आओ, नाटू-नाटू के साथ नाचें।   
- प्रीति अज्ञात 

#NaatuNaatu #Oscar #RRR #Oscars2023 #Chandrabose #MMKreem #India #Preetiagyaat #प्रीतिअज्ञात 
Song: Naatu Naatu
Movie: RRR
Singer: Rahul Sipligunj, Kaala Bhairava
Lyrics: Chandrabose
Music: M.M. Keeravaani
Starring: NTR, Ram Charan
Label: Lahari Music

सोमवार, 13 मार्च 2023

अमृत काल में स्त्रियों के मन की बात

स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर अब तक राष्ट्र के निर्माण में महिलाओं की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता! जब-जब उन्हें अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर मिला है उन्होंने उल्लेखनीय सफ़लता प्राप्त की है।  चाहे वह युद्ध भूमि हो या राजनीति, प्रारम्भ से ही हर क्षेत्र में स्त्री की सुनिश्चित भागीदारी रही है एवं सामाजिक -आर्थिक परिवर्तनों के लिए उसकी भूमिका सराहनीय रही है। वह सत्ता भी संभालती रही, घर-बार भी। उसने लड़ाइयां भी जीतीं और खेती-बाड़ी में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। समाज का उनके प्रति दृष्टिकोण जो भी रहा हो पर वह अपने कर्तव्यों एवं अधिकारों के प्रति हमेशा सजग रही है।

यदि स्त्री पीड़ित, कमजोर और शोषित वर्ग का हिस्सा रही है तो उसने देश में व्याप्त कुरीतियों, अत्याचार, अनाचार के विरुद्ध भी खुलकर बोला है और यह कहना गलत न होगा कि उसकी अभिव्यक्ति में विद्रोह के स्वर भी सदैव ही मुखरित होते रहे हैं।

‘मी टू’ आंदोलन इन्हीं मुखर स्वरों का सशक्त उदाहरण बन सामने आया था। यह एक बहुत बड़े परिवर्तन के रूप में उभरा कि अब स्त्री की झिझक खुलती जा रही थी। वह अपने भीतर के भय पर काबू पाना सीख रही थी और उसने अपनी समस्याओं और पीड़ा पर बोलने का साहस भी जुटा लिया था।

इस तथ्य को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि चिरकाल से स्त्रियों के साथ असमानता, उत्पीड़न का व्यवहार होता रहा है। उनके साथ हुए अमानवीय अपराधों की भी एक लंबी फेहरिस्त है। यही कारण है कि स्त्री-पुरुष से बने इस सदियों पुराने समाज में अब भी उसे अपने अधिकारों और समानता की लड़ाई लड़नी पड़ रही है। इसलिए फेमिनिज्म को बवाल समझने वालों को यह जानना आवश्यक है कि लड़ाई समानता की है, पुरुषों के विरुद्ध नहीं! स्त्रियों की पुकार उन सामाजिक व्यवस्थाओं के ख़िलाफ़ हुंकार है, जिसमें समाज का हर वर्ग सम्मिलित है। जहाँ तक पितृसत्तात्मकता का प्रश्न है तो यह वर्षों से चली आ रही एक सामाजिक व्यवस्था है जिस पर कुंठा नहीं, विमर्श की आवश्यकता है।

हम आजादी के अमृतकाल में हैं लेकिन स्त्रियों की सुरक्षा आज भी बहुत बड़ा मुद्दा है। कई जघन्य घटनाएं हमारे सामने हैं और उस पर समाज की असंवेदनशीलता दुख से भर देती है। चाहे वह माँ बेटी का ज़िंदा जल जाना हो,  सब्जी की तरह किसी लड़की को काटकर फ़्रिज में रखे जाना हो या तंदूर में भूनकर लाश को ठिकाने लगाना; ये सब सनसनीखेज तब बनती हैं जब उसमें किसी दल को राजनीतिक लाभ मिल रहा हो। उस समय ऐसी घटनाएं प्रायः ‘आपदा में अवसर’ का महत्वपूर्ण उदाहरण बन प्रस्तुत होती हैं। अन्यथा कभी सड़क किनारे, कभी जंगल, कभी पानी में स्त्री की लाश का मिलना सौ खबरों की सूची में 90 के बाद स्थान पा लेता है, बस उसकी नियति यहीं तक ही सीमित है। इन गरीबों, अचर्चित जीवों की मृत्यु भी उनके जीवन की तरह चर्चा योग्य नहीं समझी जाती।  स्त्रियाँ केवल अपने अधिकारों के लिए ही नहीं, बल्कि अपने अस्तित्व के लिए भी लड़ रही है कि उन्हें कम-से-कम मनुष्य तो समझा जाए!

उत्सवों का दौर है लेकिन स्त्रियाँ क्या पहनें, कैसे रहें, क्या और कितना बोलें, यह तय करने का और उस पर टीका-टिप्पणी करने का बीड़ा अभी भी समाज के ठेकेदारों ने स्वयं के पास ही रखा है। याद नहीं पड़ता कि कभी किसी स्त्री ने, पुरुष के पहनावे को लेकर कोई आपत्ति दर्ज़ की हो!

इतिहास वीरांगनाओं के तमाम किस्से बताता है लेकिन आधुनिक युग में न जाने क्यों वे आत्मरक्षा के लिए प्रशिक्षित ही नहीं की गईं। बढ़ते अपराध को देखते हुए एवं सुरक्षा के लिए अब स्कूली शिक्षा में ‘आत्म-रक्षा’ को एक विषय की तरह सिखाया जाना चाहिए तथा विद्यार्थियों को इसका पूरा प्रशिक्षण भी देना चाहिए।

स्त्रियों को सदा से नाजुक ही माना और रखा गया। इसलिए यह एक अलिखित नियम सा रहा ही कि लड़की कहीं भी जाएगी तो उसका भाई, पिता, पति अर्थात कोई भी एक पुरुष तो बॉडीगार्ड के रूप में साथ होगा ही। यही पोषित मानसिकता है कि आज भी स्त्रियाँ अकेले कहीं जाने में असहज, असहाय अनुभव करतीं हैं। उन्हें एक साथ की आवश्यकता हमेशा महसूस होती है। लैंगिक समानता के आह्वान के साथ अब इन आदतों से मुक्ति पाने का समय तो अवश्य आ गया है लेकिन परिवर्तन की उम्मीद भर रखने से, परिवर्तन हो नहीं जाता! अतः समाज और अपराधी की मानसिकता को अभी भी ध्यान में रख सावधान रहना ही श्रेयस्कर होगा।

इस वर्ष ‘अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस’ की थीम ‘डिजिटऑल: लैंगिक समानता हेतु नवाचार एवं प्रौद्योगिकी’ है। हर वर्ष की थीम का मूल उद्देश्य लिंगभेद को समाप्त करना ही होता है। महिला दिवस के तय तीन रंग बैंगनी, हरा और सफेद है। बैंगनी रंग, न्याय और गरिमा का प्रतीक है। हरा रंग, जीत की उम्मीद बँधाता है और सफेद शुद्धता का प्रतीक है। यानी न्याय, गरिमा और हृदय की शुद्धता के साथ जीत की आश्वस्ति लिए इस दिन को मनाना चाहिए।

एक सुखद तथ्य यह है कि बीते कुछ वर्षों में स्त्रियों के पक्ष में सोशल मीडिया, सच्चे साथी की तरह आ खड़ा हुआ है। एक दशक पूर्व तक कामकाजी और घरेलू स्त्री के बीच का अंतर साफ़ दिखाई देता था। वे स्त्रियाँ जो प्रतिभासंपन्न होते हुए भी घर से बाहर नहीं निकल सकतीं थीं, ‘घरेलू’ टैग उन्हें कुंठा में जकड़ना प्रारंभ कर चुका था। यह, वह समय भी था जब स्त्री के सहेजे हुए सपनों ने अंगड़ाइयाँ लेना प्रारंभ कर दिया था। स्व-अस्तित्व की तलाश में उसकी कसमसाहट कभी-कभार शाब्दिक रूप से झलकने और आँखों से छलकने लगी थी। यद्यपि पश्चिमी देशों की तरह ‘हाउस वाइफ’ को ‘होम मेकर’ कहकर, एक सुखद विचारधारा का मुलम्मा भी चढ़ाया गया। लेकिन इस तथाकथित पदोन्नति का सच, ठीक से किसी के भी गले नहीं उतरा!

ऐसे ही असमंजस के दौर में इंटरनेट और सोशल मीडिया का आगमन हुआ, जिसे स्त्रियों ने हाथों-हाथ लिया। यदि यह कहा जाए कि फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर इत्यादि प्लेटफ़ॉर्म स्त्रियों के लिए वरदान सिद्ध हुए हैं तो भी गलत नहीं होगा! माना कि इस मंच से जुड़ी कई असुविधाएं हैं लेकिन यदि पूरी समझदारी और संयत भाव के साथ इनका उपयोग किया जाए, सच और झूठ का भेद समझ आ सके तो ये आपकी क़िस्मत बदल सकते हैं। कारण स्पष्ट है कि स्त्रियाँ चाहें किसी भी क्षेत्र से जुड़ी हों, यह माध्यम सभी को समान रूप से अभिव्यक्ति का मंच प्रदान करने में सक्षम है।

वे स्त्रियाँ जो पाक कला, नृत्य, गायन, योग आदि में निपुण थीं और डिग्रियों को सहेजे, कुछ न कर पाने के अवसाद में डूब रहीं थीं, अब अपने वीडियोज़ बनाकर या ऑनलाइन कक्षाओं के द्वारा पैसा कमा रहीं हैं। कुछ अपने पेज बनाकर अपनी कला को लोगों तक पहुँचा रहीं हैं। उन्हें घर बैठे ऑर्डर मिल रहे हैं। उनकी अभिव्यक्ति को पंख लग गए हैं। वे जिनकी पहुँच केवल अपनी, गली, मोहल्ले या शहर तक सीमित थी; अब वैश्विक स्तर पर पहचान पा रहीं हैं। आत्मनिर्भर होने का सुख भोग रहीं सो अलग।

लेकिन इस सब के बावजूद भी ‘महिला दिवस’ की प्रासंगिकता कम नहीं हुई। इस जीत को हासिल करने के लिए स्त्रियों को सहारे की नहीं, साथ की ज़रूरत है। अहंकार की नहीं, प्रेम की ज़रूरत है। विरोध की नहीं, सहयोग की ज़रूरत है। ऐसे समस्त विशेषणों का बहिष्कार करने की भी आवश्यकता है, जो स्त्री पर दया-रहम के द्योतक हों। उसे न तो अबला, बेचारी बनना है और न देवी। उस पर बनी उन कहावतों से भी पल्ला झाड़िए जो उसे कमजोर साबित करने को कही जाती रहीं हैं। उन गालियों और अभद्र भाषा के प्रयोग को भी रोकना होगा जो स्त्री को नीचा दिखाने, उसके अपमान के लिए बनाई गई हैं।

स्त्रियों को एक बात गांठ बाँधनी होगी कि हर बार समाज ही दुश्मन नहीं होता। व्यक्तिगत जीवन में कभी-कभी हम लोग ही स्वयं पीड़िता, मजबूर, त्याग और बलिदान की देवी बनकर अपना जीना दूभर कर लेते हैं। महान बनने से कुछ नहीं होता सिवाय दुख, परेशानी और तनाव के क्योंकि कुछ वर्षों बाद यही महानता और ‘DISEASE TO PLEASE’ घुटन बनकर भीतर से ख़त्म करने लगती है। इसीलिए सच के साथ खड़े होकर अपनी बात कहना सबसे पहले सीखना है। क्या अब समय नहीं आ गया है कि हम स्वयं को एक नई पहचान दें, खुलकर जिएं और राष्ट्र निर्माण में अपना सक्रिय योगदान दें!

- प्रीति अज्ञात 

'हस्ताक्षर' मार्च 2023 अंक संपादकीय - https://hastaksher.com/amrit-kaal-mein-striyon-ke-mann-kee-baat-editorial-by-preeti-agyaat/

https://hastaksher.com/

#हस्ताक्षरवेबपत्रिका #हस्ताक्षरहिंदीसाहित्यकीमासिकवेबपत्रिका #हस्ताक्षरउत्कृष्टसाहित्यकामासिकदस्तावेज #हस्ताक्षरवेबपत्रिका #हस्ताक्षर #हिन्दीसाहित्य #हिन्दी #प्रीतिअज्ञात #PreetiAgyaat

रविवार, 5 मार्च 2023

सुख की परिभाषा

 इतने विशाल संसार में न जाने ऐसी कितनी वस्तुएं हैं जिनके न होने का दुख हमारे साथ चलता है। दुख न भी हो तो कम-से-कम उन्हें पा लेने की ख्वाहिश तो अवश्य ही रहती है। हम सबके पास अपनी-अपनी सूची है जिसमें एक-एक कर tick लगाते हुए हम प्रसन्न भी अनुभव करते हैं पर इस सूची का अंत नहीं है क्योंकि इच्छाओं का अंत नहीं, सपनों का अंत नहीं, लालसा, महत्वाकांक्षा का कोई अंत नहीं! यह सब कुछ जानते, समझते हुए भी हम अपना जीवन कुछ पाने की दौड़ में लगा देते हैं।

 जीवन की इसी भागदौड़ और तनाव में हम प्रायः उनका धन्यवाद करना भूल जाते हैं जो हमारे लिए हैं तो सबसे कीमती, पर हमें उसका अहसास नहीं। जो सुविधा जन्म से ही साथ हो तो उसमें कुछ खास नहीं लगता न! लेकिन सामान्य बच्चे की तरह जन्म लेना भी एक खास घटना है, ईश्वर का आशीर्वाद है कि आप सारे अंगों के साथ सही-सलामत इस संसार में आए हैं। 
उन माता-पिता के दर्द को कौन समझेगा, जिनके बच्चे जन्म से ही किसी गंभीर बीमारी के शिकार है। कुछ ऐसे हैं जो बोल नहीं सकते, कुछ सुन नहीं सकते, कुछ चल नहीं सकते, देख नहीं सकते, कुछ लिख-पढ़ नहीं सकते और दुर्भाग्य से भरी यह सूची लंबी होती चली जाती है। बहुत भाग्यशाली हैं वे लोग जो अपने पैरों पर चल सकते हैं, अपने हाथों से लिख सकते हैं, संगीत की मधुर ध्वनि सुन सकते हैं और खुली आँखों से प्रकृति की अथाह सुंदरता निहार सकते हैं। सबके हिस्से यह सुख नहीं होता! फिर कहती हूँ कि यक़ीन कीजिए, "सामान्य बच्चे की तरह पैदा होना बहुत असाधारण घटना है।" 

आज इस video को देख आँख भर आई। https://twitter.com/ValaAfshar/status/1632059491393892353
इस सबके बाद मैं सोचती हूँ कि जिसने जीवन में रंग नहीं देखे वह सृष्टि की सबसे सुंदर प्रस्तुति को देखने से वंचित रह गया। भाग्यशाली हैं वे लोग जो अपनी आँखों से जी भरकर इस दुनिया को देख पाते हैं, रंगों को महसूस कर जीते हैं, उन्हें दुलार देते हैं। इसलिए आँखों में बस प्यार हो और गर कभी आँसू छलकें भी, तो वे खुशी के हों, श्रद्धा के हों और इस भाव की कृतज्ञता से भरे कि हम सब कुछ देख पाने, महसूस करने में सक्षम हैं। क्योंकि इस दुनिया में करोड़ों ऐसे लोग हैं जिन्हें यह आशीर्वाद नहीं मिला है। 
जैसे दुखों का अंत नहीं दिखता, वैसे ही सुख की भी अपनी कई परिभाषाएं हैं। है न!
- प्रीति अज्ञात 


रविवार, 26 फ़रवरी 2023

जन्मदिन मुबारक़ अमदावाद!

मीठे नमकीन सा शहर है, अहमदाबाद

गुजरात का दिल यानी अहमदाबाद! 1960 से 1970 तक गुजरात की राजधानी रहने के कारण अब भी लोग इसे ही प्रदेश की राजधानी समझ बैठते हैं। यूँ इस शहर का ठाट-बाट और व्यवहार राजसी ही है। लोग घुमक्कड़ और खाने-पीने के बेहद शौकीन। वो गुजराती ही क्या जिसके घर रविवार को खाना पके। रेस्तरां में 40 मिनट का इंतज़ार भी सुखद है, उस पर पूरा कुनबा साथ हो तो वक़्त का पता भी कहाँ चलता है! उत्तरायण हो तब उंधियु, पूरी, चिक्की और मीठी जलेबियों के बगैर पतंगें आसमान नहीं चूमतीं। उस पर संगीत का साथ और मस्ती का चढ़ा रंग उत्सवों में जैसे भांग ही घोल देता है। दशहरे पर रावण दहन देखने जाओ न जाओ आपकी मर्ज़ी, पर  फाफड़ा जलेबी की दुकानों पर सुबह से लगी लंबी कतारें यह विश्वास दिला देती हैं कि सेनाओं ने आक्रमण की कमान संभाल ली है। खाखरा, ढोकला, खांडवी, हांडवा जैसे सारे सशक्त नाम यहीं के व्यंजनों के हैं। उस पर गुजराती थाली तो अहा! केवल बातों में ही नहीं, यहाँ के तो नमकीन में भी मिठास है।

एक समय था जब आप शहर के किसी भी हिस्से के निवासी हों, पानीपूरी खाने म्युनिसिपल मार्केट जाना तय रहता था।  अब हर सड़क सात-सात फ्लेवर के पानी वाले ठेले लिए सजी दिखती है। पुराने लोग अब भी जसुबेन का पिज़्ज़ा खाते हैं पर नई पीढ़ी, बाज़ार ने लूट ली है। बस एक परंपरा के चलते गुजराती थाली का लुत्फ़ उठाने किसी मेहमान को  गोरधन थाल ले जाया जाता है। यूँ इन थालियों का भी एक बहुत बड़ा बाज़ार लॉन्च हो चुका है। खाऊ गली अब 'हैप्पी स्ट्रीट' बन चुकी है। अशर्फी की कुल्फी अब भी पॉपुलर है। 

यहाँ की सबसे प्यारी बात कि हर घर में झूला झूलने का अवसर मिलेगा लेकिन जरा अपने एडिडास, नाइकी या वुडलैंड के ठसके से बाहर निकल आइएगा क्योंकि घर हो या दुकानचप्पल-जूते  बाहर उतारने का नियम सब जगह लागू है।   

लाड़ले अमदावाद में जीवन रस से परिपूर्ण नवरात्रि के नौ रंग जब सजते हैं तो पता चलता है कि यह त्योहारों को कलेजे से लगाकर चलने वाला शहर है। यहाँ के लोग गरबा में किसी अज़नबी के हाथों में भी डांडिया थमा अपने दिल के घेरे को थोडा और चौड़ा कर देते हैं। नवरात्रि की तैयारी घर के किसी ब्याह सरीखी होती है।  लहंगे (पारंपरिक चनिया) पर घुँघरू, मोती, सितारे टंकते हैं। कच्छी कढ़ाई वाला डिजाइनर ब्लाउज़ (चोली) बनता है। नौ दिन के हिसाब से मोजरी, दुपट्टा, गहने, टीका, बिंदिया सब चाहिए होता है। तभी तो लॉ गार्डन की कच्ची जमीन पर लगी पारंपरिक चनिया-चोली की तमाम दुकानों ने अब विकास का पक्का रंग ओढ़ लिया है। यूँ दाम बढ़ाकर आधे-पौने में देने का सिलसिला अब भी जारी है। वो तो भला हो, दूर देश से आए एनआरआई समूहों का, जो अब भी इनके चेहरे पर रौनक़ें भर जाते हैं।  

कभी बाढ़ का तांडव, कभी भूकंप का भीषण, भयावह मंज़र तो कभी लाशों के ढेर पर सिसकते, दंगों की आग से झुलसते  इस शहर को देख एक स्वप्न बिखरता सा भी लगता है। लेकिन उसके बाद सहायता हेतु बढ़ते हाथ और संवेदनशीलता, मृतप्रायः उम्मीद को पुनर्जीवित कर देती है। यहाँ के लोग जूझने, उठने और फिर चल पड़ने की जिजीविषा से लबरेज़ हैं। अहमदाबाद और उल्लासये दोनों संग-संग ही चलते  हैं सदा।

इस शहर में मेरा पहला दिन का और आज बाईस साल बाद का अहमदाबाद! यक़ीनन बहुत कुछ बदल गया है। पहले जो गलियाँ थीं, अब चार लेन वाली चौड़ी सड़कों का रूप धर इतराने लगी हैं। वो मॉल जो तब नए-नए खुले थे और जिन्हें बस देखने भर के लिए या एस्केलेटर का आनंद उठाने के लिए मन मचलता था, अब वहाँ बस फ़िल्में ही चलती हैं। जिन स्थानों को देख पहले आँखें भौंचक हो जाया करतीं थीं, अब उनसे जी ऊब सा गया है।

बढ़ती जनसंख्या ने मेट्रो की जरूरत ईज़ाद की तो शहर को खुदते रहने का श्राप ही मिल गया है जैसे। लोग बढ़े तो वाहन भी उसी अनुपात में जगह घेरने लगे। फ्लाईओवर का जाल इस समस्या का समाधान बन उभरा अवश्य लेकिन क्या इससे ट्रैफिक की समस्या हल हुई? तो बिल्कुल नहीं! एक परियोजना पूरी होती नहीं कि तब तक सारा अनुपात गड़बड़ा चुका होता है। 

कभी शहर के बाहरी इलाके कहे जाने वाले गाँव बोपल, घुमा, शिलज, शैला, थलतेज़ और इन जैसे कई अब लंबी दौड़ लगाते हुए शहर के हो गए हैं। इन्हें देख खुश होना चाहिए था लेकिन जिन जंगलों को रौंद इन्होंने कंक्रीट की चादर ओढ़ी है, उस हरियाली की अनुपस्थिति अवसाद से घेर लेती है। जरा बारिश क्या हुई कि बाढ़ का खतरा मँडराने लगता है। पक्की धरती पानी सोखती नहीं क्योंकि यह काम तो शुरू से माटी के जिम्मे रहा है। जब जंगल नहीं रहे तो माटी की भला क्या ही बिसात थी! छोटे पक्षियों ने तो गुजर-बसर के आसरे ढूँढ लिए लेकिन मोर, बंदर, लंगूर की मुश्किलें कम नहीं होतीं। ये अब भी अपने घरों को ढूँढते वहाँ जा पहुँचते हैं जहाँ मनुष्य दस्तावेज दिखा इन्हें भगा देता है। इनके घरों पर कब्ज़ा कर लिया गया है। 

शराबबंदी का सच

ड्राइ स्टेट होने के कारण यहाँ शराब नहीं मिलती, ऐसा नहीं है। जुगाड़ू लोग सफ़लता प्राप्त कर ही लेते हैं लेकिन अच्छी बात यह है कि यहाँ खुलेआम देशी, विदेशी ब्रांड की दुकानें और उनके बाहर लहराते लोग नहीं दिखते। नशे में गाड़ी चलाने वाले किस्से और उनसे जुड़े अपराध न्यूनप्रायः हैं। अन्य कई राज्यों की अपेक्षा यहाँ की स्त्रियाँ स्वयं को अधिक सुरक्षित अनुभव करती हैं। गाली कल्चर भी उतना नहीं कि सुनकर कानों से खून ही बहने लगे।

साबरमती का सलौना रूप

साबरमती किनारे बने नए नवेले रिवरफ्रंट ने युवा दिलों को धड़कने की एक नई जगह मुहैया करा दी है। यूँ यहाँ के तोते और कबूतर हर उम्र की मोहब्बतों के साक्षी हैं। लेकिन यहाँ की सुंदरता में खोते हुए भी यह क़सक मिटती नहीं कि इसे बनाते समय धोबियों, कलमकारी, माता नी पछेड़ी तथा ब्लॉक प्रिंटिंग से जुड़े कलाकारों के लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं हो सकी! इनका तो पूरा व्यवसाय ही इस नदी के बहाव पर निर्भर था। 

सुकून चाहिए?

सुकून के कुछ पल गुजारने के लिए आज भी अपने बापू के साथ से बेहतर कुछ नहीं। साबरमती आश्रम में पूरा दिन बहुत ही श्रद्धा और शांति से गुजारा जा सकता है। यहाँ का सुरम्य, पवित्र  वातावरण आपको बारम्बार आमंत्रित करता है। सकारात्मक ऊर्जा का अद्भुत केंद्र है यह। लगभग यही आभास हथीसिंह मंदिर और अमदावाद   नी गुफा में भी होता है पर हरियाली के मामले में ये मात खा जाते हैं। 

धरोहरों से मुलाक़ात

यहाँ की वास्तुकला में इस्लामी और हिंदू शैली का अनूठा, अद्भुत मेल है। पुराने शहर और पोल जीवन से रूबरू होना हो तो दो घंटे की हेरिटेज वॉक यह इच्छा पूरी कर देती है। वाव माने ताल तलैया नहीं बल्कि कलात्मकता का बेजोड़ नमूना होता है, यह मैंने अडालज की वाव देखकर ही जाना। जब धरोहरों की बात चल ही रही है तो कर्णावती यानी अपने अमदावाद के पुराने शहर स्थित सिद्दी सैय्यद की जाली का ज़िक्र जरूरी है। यह एक मशहूर मस्जिद है। वास्तुकला की इस उत्कृष्ट धरोहर की नक्काशीदार जाली दुनिया भर में प्रसिद्ध है। इसमें पत्थर की खिड़कियां, एक पेड़ की शाखाओं को आपस में जोड़े हुए दर्शाती हैं, जिसे 'द ट्री ऑफ लाइफ' के नाम से जाना जाता है। जो इस शहर में आता है, इसकी तस्वीर लेना नहीं भूलता। इसमें निहित संदेश भी आत्मसात कर ले तो बात ही क्या! ऐतिहासिक इमारतों में सारखेज़ रोज़ा, जामा मस्जिद भी दर्शनीय है। सिंधु घाटी सभ्यता का महत्वपूर्ण शहर और मिनी हड़प्पा कहा जाने वाला लोथल इस शहर में तो नहीं लेकिन यह और अक्षरधाम अपना ही लगता है।

चाय संग घुमक्कड़ी

चयक्कड़ों के दिल लूटने के लिए विश्व का पहला किटली सर्कल है यहाँ! अख़बार नगर सर्कल में, आग की लपटों से घिरे केतली के इस विशाल एवं प्रभावशाली मॉडल को देखा जा सकता है.  एक तस्वीर खींचिए, फिर चाय पीने के लिए कहीं और का रुख कीजिए। घुमक्कड़ों के लिए पूर्व के मैनचेस्टर कहे जाने वाले इस शहर में टेक्सटाइल का केलिको संग्रहालय है। कुतुबउद्दीन एबक द्वारा बनवाई गई कांकरिया झील और गलबहियाँ करता सामने बना चिड़ियाघर बच्चों के आकर्षण का प्रमुख केंद्र है। इसके अलावा इस्कॉन मंदिर, भद्र किला, हिलती मीनारें, साइंस सिटी, वैष्णो देवी है। शहर से थोड़ा आगे बढ़ें तो नालसरोवर के प्राकृतिक सौंदर्य को निहारने और विलुप्तप्राय: प्रजातियों के पक्षियों से मिलने का आनंद भी उठाया जा सकता है।

आसमान की छत तले थिएटर का मज़ा 

वर्तमान समय में भले ही मल्टीप्लेक्स ने सोफ़े पर लेटते हुए फ़िल्म देखने की सुविधा उपलब्ध करा दी हो लेकिन तारों भरी रात में अपनी दरी, चटाई पर तकिये से टिके हुए फ़िल्म देखने का आनंद ही कुछ और है। ठंडी बयार बह रही, बगल में टोसा, हाथ में गरमागरम चाय और सामने एशिया की सबसे बड़ी स्क्रीन में से एक पर आपकी पसंदीदा फ़िल्म चल रही। जीने को और क्या चाहिए! 'सनसेट ड्राइव-इन-सिनेमा' आपको श्रेष्ठ गुणवत्ता वाली ध्वनि से सजी इसी अद्भुत दुनिया में ले आता है। जी चाहे, तो दरी उठाकर वहीं कार में ही बैठ जाइए। 

कब्रों के बीच बैठ चाय नाश्ता किया है कभी?

नहीं किया तो लाल दरवाजा के पास स्थित न्यू लकी रेस्टोरेंटमें चले आइए। 12 कब्रें हैं और उन्हीं के इर्द गिर्द टेबल और बेंच लगाकर बैठने की समुचित व्यवस्था है। यहाँ की दीवारें मक़बूल फ़िदा हुसैन और उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान की उपस्थिति की साक्षी हैं। हुसैन जी का तो इस स्थान से लगाव ही इतना था कि यहीं बैठ उन्होंने एक पेंटिंग बनाई और इस रेस्टोरेंट को उपहार में दे दी। वह पेंटिंग अभी भी यहाँ सुसज्जित है। 

जब रेस्तरां ही घूमने लगे!

जी हाँ, अहमदाबाद में घूमने वाला पतंग रेस्तरां भी है। इसकी डिजाइन पक्षियों को दाना खिलाने वाले चबूतरे से प्रेरित है। यह अपनी तरह का एक रेस्तरां है जो  90 मिनट में 360 डिग्री का चक्कर पूरा करता है। यह धीरे-धीरे घूमता है ताकि आप  डिनर करते हुए  पुराने और नए शहर  को देख सकें।

है न, अद्भुत, अकल्पनीय, अलौकिक આપણું અમદાવાદ!

प्रीतिअज्ञात

'आउटलुक' हिन्दी के 31 अक्टूबर 2022 अंक में प्रकाशित (शहरनामा: अहमदाबाद) 

'आउटलुक' के डिजिटल संस्करण में भी इसे पढ़ा जा सकता है -

https://www.outlookhindi.com/story/shaharnama-ahmdabad-by-preeti-agyat-3744?fbclid=IwAR3xWaNDeWC3GQSPmLzU8h0KJK4gZugOPix0GPEnc7DxONpK_NC6pj-vbkc

#आउटलुक #amdavad #अहमदाबाद #PreetiAgyaat #प्रीतिअज्ञात #जन्मदिनमुबारक़अमदावाद #Happybirthdayahmedabad 

विज्ञान और अध्यात्म, राजनीति का विषय नहीं!

‘विज्ञान के चमत्कार’ एक ऐसा विषय है जिस पर प्रायः सभी ने अपने विद्यालयीन जीवन में निबंध अवश्य लिखा होगा। बिजली के बल्ब के अविष्कार से लेकर अलेक्सा तक की यात्रा अचरज़ से भर देती है। वह समय जहाँ चिट्ठियों की प्रतीक्षा भी जीवन का सुख था और मन के तार से दो व्यक्ति जुड़ जाया करते थे, वहाँ एक दिन फोन की घंटी बजने लगी। फोन घरों में आया तो कई बार हँसी में यह भी कह दिया जाने लगा कि सामने वाले का चेहरा भी दिख जाए तो कितना अच्छा हो! लेकिन फिर स्वयं ही अपने इस ख्याल के सिर पर चपत मार खिलखिला उठते कि “ऐसा भी कभी हो सकता है भला! विज्ञान बहुत कुछ कर सकता है पर ये थोड़े ही न संभव है!” लेकिन तकनीक का कमाल देखिए कि तब जो कल्पनातीत था, आज वहाँ व्हाट्स एप है, वीडियो कॉल के तमाम माध्यम हैं। हम अब कृत्रिम बौद्धिकता (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) और आभासी दुनिया (मेटावर्स) के युग में प्रवेश कर रहे हैं। है न बिल्कुल परीलोक या किसी जादूगर की कहानी जैसा!

कहाँ तो रोशनी के लिए बल्ब के स्विच को ऑन करने के लिए उठना पड़ता था, अब लेटे-लेटे ही अलेक्सा को कह दिया जाता है। घर से बाहर निकलो तो पूरे शहर का नक्शा एक क्लिक पर साथ चलता है। जिस रास्ते को समझने के लिए दसियों जगह रुकना होता था, अब जीपीएस से पल भर में ज्ञात हो जाता है। यह वही विज्ञान है जिसने हमारी सुख-सुविधा हेतु वह सब बनाकर दिया जिसने मनुष्य का जीना अत्यंत सरल कर दिया, लेकिन ध्यातव्य हो कि घातक हथियार और परमाणु बम भी यही बनाता है। अब उससे रक्षा होगी या विध्वंस, यह प्रयोग करने वाले पर निर्भर करता है। तात्पर्य यह कि चमत्कार का प्रयोग कैसे किया जाता है, यह प्रयोगकर्ता की विचारधारा, बुद्धि और मानसिकता पर आधारित है। विज्ञान का काम तो सदा सृजन ही है, इसलिए इसने सब कुछ कल्याणकारी ही किया। यही कारण है कि किसी को बरगलाने का कार्य इससे न हुआ। किसी वैज्ञानिक ने स्वयं को ईश्वर के समकक्ष न रखा बल्कि खुलकर अपनी खोज की विधि बताई और सिद्धांत भी प्रतिपादित कर दिया जिससे आने वाले समय में उससे मार्गदर्शन भी प्राप्त हो सके।

कुल मिलाकर विज्ञान, विकास का पूर्णतः पक्षधर है और ईमानदारी तथा स्पष्टवादिता इसका सर्वश्रेष्ठ गुण है। कहीं कोई प्रयोग गलत भी हुआ तो कुछ वर्षों बाद किसी अन्य वैज्ञानिक द्वारा उसका संशोधित रूप भी हृदय से स्वीकार हुआ। लैमार्कवाद के ‘उपार्जित लक्षणों की वंशागति के सिद्धांत’ में कमी लगी तो सहज भाव से डार्विन के ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’ को माना जाने लगा क्योंकि उसके तर्कों से सहमति बनी।

अतिशय चमत्कारी होते हुए भी विज्ञान, भ्रम और माया से स्वयं को कोसों दूर रखता है। दुर्भाग्य यह कि जब भी संकीर्णता, कुंठा और स्वयं को महाशक्तिमान समझने वाले व्यक्तियों के हाथ यह लगा, इसने विध्वंस ही किया। अध्यात्म भी ठीक ऐसा ही सृजनकारी है, यह आपको सत्कर्म एवं शांति की ओर प्रेरित करता है। गहराई से इसमें उतरो तो चमत्कार और गलत हाथों में गया तो कोरा ढोंग और शोर ही बनकर रह जाएगा।

ध्यान से देखें तो विज्ञान और अध्यात्म की दुनिया एक ही हैं। दोनों ही मानव कल्याण के पक्षधर हैं। ये परस्पर विरोधी नहीं अपितु सच्चे साथी हैं। एक आपको बाहरी दुनिया से जोड़ता है और दूसरा भीतरी अंतरात्मा तक ले जाता है। दोनों ही तार्किक ज्ञान की ऊर्जा से संचालित होते हैं। इनका लक्ष्य भी एक ही है, मानव का भौतिक और आत्मिक सुख। दोनों ज्ञान के रास्ते से बढ़ते हैं और परम की ओर ले जाते हैं। परंतु जब भी ये निम्न मानसिकता और संकीर्णता में घिर स्वार्थी हुए, मानो विनाश की रूपरेखा तय हुई। फिर उस मार्ग पर सुख के सारे द्वार बंद हो जाते हैं और उससे उत्पन्न हुआ अंतर्द्वंद्व एवं कोलाहल सब कुछ नष्ट कर देता है।

यही कारण है कि जब हम विज्ञान और अध्यात्म को एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा कर उनकी सच्चाई परखने लगते हैं, तब परेशानी उत्पन्न होती है। जबकि उद्देश्य की दृष्टि से ये दोनों ही आपको सकारात्मक जीवन की ओर ले जाते हैं। यद्यपि उत्तम परिणाम और विकास के लिए आवश्यक है कि इनका प्रयोग करने वालों के हृदय में कोई खोट न हो अर्थात उनकी नीयत साफ़ और राजनीति से परे हो। इसे उनकी भाषा और व्यवहार से स्पष्टतः समझा जा सकता है।

सार यह कि विज्ञान हो या अध्यात्म, इसी दुनिया में पनपे और हमारी सुख शांति इनके संतुलन में ही निहित है। जो इस संतुलन में अड़चन लाए या अनर्गल तथ्य फैला वातावरण को अशांत करने का प्रयास करे, उसे संदेहास्पद और मानवता का दुश्मन समझिए।

एक बात और कि कोई बाबा को माने या विज्ञान को, यह मलीन राजनीति का विषय क़तई नहीं है। बल्कि दोनों ही स्थितियों में यह व्यक्ति विशेष की पसंद, श्रद्धा, विश्वास और अटूट आस्था का नितांत व्यक्तिगत मसला है। इसे राष्ट्रीय मुद्दा बनाकर दिन-रात उछाला जाएगा तो राजनीतिक हित भले ही सध जाए लेकिन इसकी आड़ में कई ढोंगियों को प्रश्रय मिल जाएगा और देश के विकास की गाड़ी एक स्टेशन पीछे चली जाएगी। यूँ भी देश में कई अन्य महत्वपूर्ण मुद्दे हैं जो ध्यानाकर्षण की बाट जोह रहे।

चलते-चलते: फरवरी माह में हम ‘राष्ट्रीय विज्ञान दिवस’ मनाते हैं। इस वर्ष का विषय है- वैश्विक खुशहाली के लिए विज्ञान। उद्देश्य है वैश्विक संदर्भ में जागरूकता पैदा कर, वैश्विक एकीकरण का अवसर प्रदान करना। जब उद्देश्य इतना विशाल है तो युद्ध के साये में जीती इस दुनिया को भी ‘मेरा तेरा महान’ की गलियों से बाहर निकल प्रेम और सभ्यता से साथ चलना सीख लेना चाहिए।

 प्रीति अज्ञात

'हस्ताक्षर' फरवरी 2023 में प्रकाशित संपादकीय -

https://hastaksher.com/science-and-spirituality-are-not-a-matter-of-politics-editorial-by-preeti-agyaat/

#संपादकीय #Preetiagyaat #प्रीतिअज्ञात #हस्ताक्षर_वेब_पत्रिका


कंझावला की घटना अंतिम नहीं है

इतनी देर रात घर से बाहर क्या करने गई थी?

होटल में कमरा क्यों बुक कराया था?
लड़की चरित्रहीन थी।
उसने शराब पी रखी थी।

ये वे वाक्य हैं जो खुलकर एक लड़की की दर्दनाक मृत्यु के बाद उछाले जा रहे हैं। इनके पीछे  का अर्थ समझ रहे हैं न! यदि वह चरित्रहीन थी, उसने शराब पी रखी थी और देर रात होटल में ठहरी तो काहे का बवाल! नाम कोई भी हो, ऐसी लड़कियाँ तो मारी ही जाती हैं! यही सोच है जो न्याय व्यवस्था की लचरता को बढ़ाती है। वे लड़कियों को सलाह देने से नहीं चूकते क्योंकि लड़के तो कुछ भी करने को स्वतंत्र हैं पर लड़कियाँ अपनी रक्षा की जिम्मेदारी स्वयं लें।

लेकिन यदि मृतक पुरुष होता तो क्या ये प्रश्न पूछे जाते?

नहीं न! लड़कों से कौन ऐसे प्रश्न करता है! यह सब करना तो उनका अधिकार है। लडकों का कार्यक्रम तो किसी चैनल या पोर्टल ने नहीं बताया। वे तो एन्जॉय करेंगे ही न! उनको चरित्र प्रमाण पत्र देने का कष्ट कोई क्यों उठाए? उन्हें तो खुली छूट है कि सारी रात सड़कों पर घूमें। लड़कियों को कुचलें और अनजान बन कई किलोमीटर तक गाड़ी से घिसटाते हुए मार डालें। उनकी रक्षा करने वाले नेताजी बगल में बैठे ही हैं। उनके घर की लड़की तो थी नहीं कि संवेदनाओं का एक क़तरा भी बाहर आए!

तो क्या अब लड़कियों की इस तरह की मृत्यु को न्यायसंगत मान लिया जाए?

क्या उसकी मित्र दोषी है

इस विषय पर न्यायाधीश बनकर बोलना अभी सही नहीं है क्योंकि उस पर क्या बीती , ये हमें नहीं पता। लेकिन प्रथम दृष्ट्या वह इस बात की दोषी प्रतीत होती है कि उसने इस घटना की सूचना नहीं दी। यदि आपातकालीन नंबर पर ही फोन लगा दिया होता तो अंजलि को बचाया जा सकता था। दुर्घटना के समय किसी का भी घबराना, डरना स्वाभाविक है लेकिन यदि सामने आपका साथी गाड़ी के पहिए में फंसा दिखाई दे और आप उसे, उसी हाल में छोड़ घर चले आएं तो यह दुखद एवं अमानवीय कृत्य है। यद्यपि जिस तरह का संवेदनहीन समाज इन दिनों फलफूल रहा है, वहाँ यह व्यवहार उतना आश्चर्यजनक भी नहीं लगता।

अचरज़ की बात

आश्चर्यजनक कुछ है तो यह वक्तव्य कि गाड़ी में सवार लोगों को पता ही नहीं चला कि उसमें एक जीता-जागता इंसान फंस गया है। एक लड़की ने कई किलोमीटर तक घिसट-घिसट लहूलुहान हो दम तोड़ दिया, उसके कपड़े फट गए, फेफड़े बाहर आ गए  और अंदर बैठे राजकुमारों को पता तक न चला! इसे सपोर्ट करने को एक सिद्धांत सामने आया कि वे नशे में थे। अच्छा! फिर गाड़ी कैसे सुरक्षित चलती रही?

गाड़ी नहीं रुकती क्योंकि किसी को कुछ सुनाई ही नहीं दिया। क़माल है! दिन के समय भरी सड़क पर चलते वाहन में एक पत्ता भी फंस जाए तो न केवल ड्राइवर बल्कि अंदर बैठे सभी सवारों को उसकी खड़खड़ाहट सुनाई देती है। लेकिन यहाँ देर रात, सुनसान सड़क पर भी उन्हें कुछ सुनाई नहीं दिया होगा? जबकि सन्नाटे में तो पानी की गिरती बूंद भी शोर लगती है। स्पष्ट है, अब उनके नेताजी फंसे हैं तो कान में रुई डालकर ही बैठना होगा।

अपने आकाओं को बचाने के लिए कई कुतर्क भी गढ़े जाएंगे। लेकिन पुलिस, सड़क सुरक्षा और सीसीटीवी कैमरा पर उठे प्रश्नों को तब भी दबा ही दिया जाएगा।

समाज के रटे रटाए पाठ और अपराधियों के बढ़ते हौसले

कंझावला की घटना कोई अकेली घटना नहीं है। लड़कियों के साथ विभिन्न तरह के अपराध की दसियों भयावह घटनाएं प्रतिदिन हर शहर में होती हैं। तेजाब डालने की घटना के बाद, ‘तेजाब मत बेचो’ की मांग उठती है। इस पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है लेकिन यह बोतल उतनी ही सरलता से उपलब्ध हो जाती है जैसे ड्राई स्टेट में अल्कोहल। क्या इससे अपराध रुक जाएंगे? फिर तो मारपीट, हत्याओं को रोकने के लिए चाकू मत बेचो, डंडे, बैट मत बेचो।

लड़ना मानसिकता से है। नागरिकों को शिक्षित, सभ्य मनुष्य बनाना है। यह भी हो कि अपराध करते समय उनके भीतर सजा का इतना भय व्याप्त रहे कि वे गलत कार्य का दुस्साहस ही न करें। पर सारा कष्ट यही करने में तो है।

लड़कियों को सिखाया जाएगा कि ऐसे दोस्तों से बचकर रहो। देर रात मत निकलो। देह को पूरी तरह ढके हुए वस्त्र पहनकर चलो। लेकिन ऐसी मानसिकता में सुधार करने की आवश्यकता किसी को महसूस नहीं होगी जो लड़कों के हौसले बुलंद करती है। न ही अपराधियों को इस तरह से दंडित किया जाएगा कि लगे कोई न्याय हुआ है। हाँ, हर घटना के बाद ज्ञान पूरा दिया जाता है, निंदा भरपूर होती है, कड़े फ़ैसले लेने का आह्वान होता है लेकिन परिणाम के नाम पर जीरो बटा सन्नाटा ही सामने आता है।

चैनलों का महाभारत

चैनलों का किस्सा और भी अनूठा है। न्यूज चैनल अब विशुद्ध मनोरंजन परोसने वाले बन चुके हैं। इनका काम सूचना देना नहीं बल्कि सुविधानुसार एक तय सोच दर्शकों को थमाना है। किस घटना को दबाना और किसे बढ़ा-चढ़ाकर बताना है, ये इनके मालिक तय करते हैं। इसका समाज पर क्या और कितना प्रतिकूल असर पड़ेगा इससे किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। यहाँ चर्चा में, चुन-चुनकर वही लोग बैठाए जाते हैं जिनसे आग  भड़कती रहे, भले ही हल कोई न निकले। विषय कोई भी हो, कैची टाइटल और बैकग्राउंड म्यूजिक के साथ हुई ‘निष्पक्ष’ चर्चा में सभी दलों के प्रवक्ताओं को बुलाकर बिठा लिया जाता है। फिर मासूम एंकर कहती हैं कि यह संवेदनशील विषय है कृपया राजनीति न करें! अरे! राजनीति करने को ही तो ऐसे नेताओं को आमंत्रित किया गया है, जिनका विषय से कोई लेना-देना ही नहीं! ये केवल यही बोल सकते हैं कि जहाँ हमारी सरकार है वहाँ तो अपराध के आँकड़े कम हैं। उन्हें इस बात से कोई अंतर ही नहीं पड़ता कि किसी बेटी की जान गई, एक माँ ने अपने जिगर के टुकड़े को खो दिया, एक घर को चलाने वाला मार डाला गया।

मृतक के बदले, धनराशि और नौकरी का लालच देकर मुँह बंद किए जाने की प्रथा यूँ भी समाज में ‘सराहनीय’ मानी जाती रही है। उस भीषण, अकल्पनीय, असह्य पीड़ा से किसी को क्या करना और उसके बारे में क्या ही सोचना जो एक लड़की ने अपने शरीर को टुकड़ा-टुकड़ा समाप्त होते देख सही होगी! सड़क पर बिखरा खून भी धुल जाएगा और तत्काल हिन्दू-मुस्लिम का कार्ड खेलती एक नई कहानी मार्केट में लॉन्च कर दी जाएगी जिससे जनता शीघ्र ही यह घटना भूल जाए। आँख बंद कर सोचिए कि बीते माह की घटनाओं में कितनों को न्याय की उम्मीद शेष है! नाम भी याद न होंगे।

मासूम जनता क्या करे!

जनता भूल ही जाएगी! कोई एक किस्सा हो तो याद रखे न! जब दिन -रात लूट, हत्या, बलात्कार एवं अन्य अपराधों के सैकड़ों मामले सामने आते रहें तो कौन, कितना याद रखेगा भई! जब अपनी बारी आएगी, तब बोलेंगे, चीखेंगे और दीवारों पर सिर मार इस व्यवस्था को कोसेंगे जिससे न्याय की उम्मीद करना इस सदी का सबसे बड़ा मजाक होगा!

कहने को ‘न्याय व्यवस्था’ है लेकिन इसमें चहेतों अर्थात अपनी टोली को न्याय देने की ही व्यवस्था है। आम जनता पिसी है, पिसती रहेगी। मरी है, मरती रहेगी। अच्छे दिनों की यही परिभाषा है कि सच न बोलिए, जो हो रहा है उसे रामराज्य समझ हाथ जोड़ लीजिए। चुप रहिए और नववर्ष की शुरुआत में मनहूस बातें बोल किसी का दिमाग और वर्ष खराब न कीजिए। उन्हें पार्टी करनी है, करने दें। डिस्टर्ब न कीजिए। जब नशा उतरेगा तो होश भी आएगा, लेकिन प्रश्न यह है कि नशा उतरेगा कैसे? जब उसे चढ़ाने वाली भी ये जनता ही है।

चलते-चलते: अभी तो हम अभिव्यक्ति के रंगों में डूबे हुए हैं। किसी ने केसरिया थाम गर्व किया है तो किसी ने हरा! लेकिन विश्वास रखिए इनके मध्य का श्वेत वर्ण गणतंत्र दिवस के दिन अपनी सम्पूर्ण आभा लिए अवश्य दिखाई देगा। जी भरकर देख नमन कीजिएगा उसे। क्योंकि नेताओं को तो बस अपने रंग ही दिखाई देते हैं। लेकिन हमें तो केवल हमारे तिरंगे को ही अपना मानना है। यही देश को जोड़ता है। यह मृत्यु और अपराध की गंभीरता को रंगों से नहीं तौलता। हमें इसके तीनों रंगों को दिल में बसा, उन सबको करारा जवाब देना है जो जोड़ने की बजाय तोड़ने को अपनी विजय मान अकड़ते घूमते हैं।

जय भारत!

- प्रीति अज्ञात

'हस्ताक्षर' जनवरी 2023 में प्रकाशित संपादकीय -

https://hastaksher.com/1kanjhaavala-kee-ghatana-antim-nahin-hai5182-2editorial-by-preeti-agyaat/

#संपादकीय #Preetiagyaat #प्रीतिअज्ञात #हस्ताक्षर_वेब_पत्रिका