सोमवार, 7 अगस्त 2023

कुकर में उबलती लड़कियाँ (स्त्री की विनाश यात्रा)


हम उस समाज का हिस्सा हैं जहाँ सती प्रथा का एक लंबा इतिहास रहा है। सर्वविदित है कि यह कोई धार्मिक प्रथा नहीं बल्कि एक कुरीति थी जिसमें पति की मृत्यु के बाद पत्नी को भी उसी चिता पर बैठा दिया जाता था। कहते हैं कि प्रेम/ परंपरा के चलते वह आत्मदाह को बैठ जाती थीं। प्रश्न उठता है कि कोई माँ अपने बच्चों को अनाथ करना स्वयं कैसे चुन सकती थी? परिवार ने कैसे इसका समर्थन किया होगा?

सती प्रथा के ‘पक्ष’ में सर्वमान्य कारण यह माना गया कि किसी अन्य पुरुष की कुदृष्टि से रक्षा हेतु यही एकमात्र उपाय था। यह राजा-महाराजाओं के काल में आक्रमणकारियों से स्वयं को बचाने हेतु 'जौहर' से प्रेरित उपक्रम ही था। इसी दबे-छुपे रूप में यह मान्यता भी रही कि पति की मृत्यु के बाद उस स्त्री से जमीन जायदाद हथियाने के लिए भी इसका सहारा लिया जाता था। कह सकते हैं कि सैकड़ों वर्ष पहले भी अकेली स्त्री का कोई पालनहार न था और उसे नोच खाने वाले गिद्ध बहुतेरे थे। ऐसे में उसके सती हो जाने पर किसी को क्या ही दुख रहता होगा, यह अनुमान लगा पाना कठिन नहीं।

तात्पर्य यह कि स्त्री सदा से एक वस्तु तुल्य ही रही जिसे समाज की उपस्थिति के मध्य, बेझिझक आग में झोंका जा सकता था। यद्यपि सैकड़ों वर्ष पूर्व इस कुरीति पर प्रतिबंध लग चुका है परंतु फिर एक नई कुरीति नियम सूची के साथ आई, जिसमें स्त्री को जीवित रखे जाने पर सहमति बनी। अब इस विधवा स्त्री के लिए जीवन की कुछ शर्तें तय हो गईं कि वह बिना किसी शृंगार के, श्वेत वस्त्र धारण किये घर के किसी कोने में चुपचाप रह लेगी। शुभ कार्यों से उसे दूर रखा जाने लगा। सुबह-सुबह किसी के सामने पड़ गई तो तरेरी आँखों का प्रकोप भी उसकी दिनचर्या का अहम हिस्सा बन गया। 'जीते जी मार डालना' वाली लोकोक्ति संभवतः यहीं से उपजी होगी! यह ‘अद्भुत’ व्यवस्था, भरे समाज के बीचों बीच किसी स्त्री के सती होने से उपजी शर्मिंदगी से बचने का उपाय तो था ही, साथ ही उस स्त्री की जीवन रक्षा का महान काम भी लगे हाथों संपन्न हो रहा था। अतः सारे नियम पूरे हर्षोल्लास के साथ स्वीकार कर लिए गए। दुखद है कि सैकड़ों वर्ष बीत जाने के बाद भी यह परम्परा अब तक हमारे समाज में विद्यमान है। परिवर्तन आया है लेकिन वह भी बाहरी तौर पर ही है। क्योंकि यही लोग, समाज के बीच अपनी शान बघारने से नहीं चूकते कि "हम तो उसे रंगीन कपड़े पहनने देते हैं!", "वह जमीन पर नहीं बल्कि अपने कमरे में ही सोती है।", "हमने उसे कभी अलग नहीं समझा!" ये सभी वक्तव्य ही यह सिद्ध कर देते हैं कि आपकी सोच कितनी सतही, उथली और मात्र प्रदर्शन हेतु है।

स्त्रियों के साथ मारपीट और हिंसा का विरोध भले ही हर काल में हुआ हो, पर दिनोंदिन इसका रूप वीभत्स ही होता जा रहा है। लोगों की सोच में सुधार के स्थान पर और विकृत रूप नजर आने लगा है। सती प्रथा पर रोक लगी तो विकल्प स्वरूप उन्हें जलाने को स्टोव आ गया। कारण यह कि उसके पिता ने इच्छानुसार दहेज नहीं दिया था। बाद में ये सिलिंडर फटने या बालकनी से 'अचानक' गिरकर मरने लगीं। कुल मिलाकर हर हाल में उनका मरना तय रहा। इन्हें जब जी चाहे, छोड़ा जाना भी सरल था।  इनकी लाशें कभी गहरे कुंए में मिलीं तो कभी किसी पेड़ से निर्वस्त्र लटकती पाई गईं। कभी किसी को नीचा दिखाने या बदला लेने के नाम पर इनकी इज्जत लूट ली गई और फिर अपने परिवार की इज्जत को सुरक्षित बनाए रखने के लिए स्त्रियाँ या तो चुप रहीं या आत्महत्या को विवश कर दी गईं। कभी कुछ जीवित स्त्रियों ने अपना दुख समाज के सामने रखना भी चाहा तो उल्टा उनका ही चरित्र हनन हुआ और उन पर अनर्गल आरोप मढ़ दिए गए। साथ ही उपहास उड़ाते हुए यह भी कहा गया कि “तब क्यों नहीं बोली?” ऐसे कई किस्से हम सबके सामने से रोज गुजरते हैं और हम उन पर मौन साध अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। जबकि समाज और इज़्ज़त के इस फॉर्मूले ने स्त्रियों के भीतर दर्द की एक गहरी घाटी बना दी है, जिसमें उन्हें अकेले रोज ही डूबना और पार आना होता है। ‘देवी’ कहकर उनके आँसू, उनके दुख, उनकी भावनाएं, उनके कष्ट दबा दिए गए।

किसी आवारा लड़के का प्रेम निवेदन नहीं स्वीकार किया तो तेजाब से झुलसा दी गईं, कोई रईसज़ादा हुआ तो खुलेआम बीच बाज़ार में गोली मार चला गया। कभी उनके साथ सामूहिक बलात्कार कर उन्हें नाले में फेंक दिया गया तो किसी ने अपनी क्रोधाग्नि में उन्हें तंदूर में भून दिया। उसके बाद उनके बत्तीस टुकड़े मिलने का 'रसप्रद' किस्सा मीडिया में खूब सुर्खियाँ बटोरता रहा, जिससे प्रेरित होकर स्त्री देह के इतने टुकड़े किए जाने लगे जैसे कोई रिकॉर्ड बनाने की होड लगी हो। वह फ्रिज़ जो खाने-पीने के सामान रखने के काम आता है अब उसमें स्त्री अंगों को रखा जाने लगा। हाल की घटना में स्त्री को कुकर में उबाल, मिक्सी में पीस लिया गया लेकिन यह घटना भी मीडिया ने आसानी से पचा ली और नेताओं को तो चुप्पी साधनी ही थी, सो साध ली। उनके लिए तो जहाँ हिन्दू-मुस्लिम कोण निकले, वही घटना छाती पीटने लायक़ और वोट बटोरने में सहायक होती है। इनकी कुत्सित मानसिकता के अनुसार, स्त्रियाँ तो बनी ही मरने को हैं। निर्जीव वस्तु की तरह उनका उपयोग कीजिए और फेंक दीजिए।

पत्नी की मृत्यु होते ही फटाफट दूसरी शादी करने के किस्से तो बहुत सुने होंगे पर क्या कभी सुना कि कोई पति चिता पर बैठ गया!

विधुर का सामने आना अशुभ हुआ कभी? कोई नियम बने उसके लिए?

स्टोव फटने से बहूएं ही क्यों मरती रहीं?

कभी प्रेम में हारी लड़की ने प्रेमी पर तेजाब फेंका है क्या?

घर की नाक, पुरुष क्यों नहीं बन सके? उनकी पवित्रता का परीक्षण किसी युग में किया गया है?

कुकर, तंदूर, फ्रिज़, मिक्सी खाना पकाने के उपकरण हैं, स्त्रियों को उबालने, पीसने के नहीं,  लेकिन जब इतनी क्रूरतम घटनाओं पर भी समाज सहज है तो अब स्त्रियों को ही स्वयं अपनी सुरक्षा और आत्मसम्मान का ख्याल रखना होगा। इस विनाश यात्रा में उन्हें बचाने कोई, कभी नहीं आएगा! हाँ, मँझधार में छोड़कर जाने वाले हर मोड़ पर मिलते रहेंगे। रोने के लिए कंधा तलाशने से बेहतर है कि अपनी जिम्मेदारी लें, समय रहते हर अपराध के विरुद्ध खड़े होने का साहस रखें और इस यात्रा में गर स्वयं को नितांत अकेला पाएं, तब भी अकेले जीने का हौसला कभी टूटने न दें।

-प्रीति ‘अज्ञात’

'प्रखर गूँज साहित्यनामा' /मासिक स्तंभ: 'प्रीत के बोल' / अंक: जुलाई 2023  

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