बुधवार, 29 जुलाई 2020

'प्रेम' ऐसा तो नहीं हो सकता!

सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु के बाद से उनके प्रशंसक सदमे में हैं और अब तक इससे उबर नहीं सके हैं. हाल ही में रिलीज़ सुशांत की फ़िल्म 'दिल बेचारा' ने उनके जाने के दर्द को और भी गहरा कर दिया है. लोग यह मानने को तैयार ही नहीं कि आर्थिक रूप से संपन्न यह युवा एवं प्रतिभाशाली कलाकार हताश होकर मृत्यु-वरण कर सकता है. आख़िर जब इतना पढ़ा-लिखा, समझदार और बुद्धिमान युवक भी निराशा में डूब अपनी जीवन- लीला समाप्त कर बैठे तो प्रश्नों का उठना जायज़ भी है और स्वाभाविक भी. यही कारण है कि देश भर में उनकी आत्महत्या के कारणों को लेकर तमाम अटकलें लगाईं जाती रही हैं.

पहली दृष्टि में यह मामला नेपोटिज़्म को गुनहग़ार दिखलाता दिखा. ज़ाहिर है, सुशांत के प्रशंसकों का गुस्सा बुरी तरह फूटा और इसकी गाज़ फिल्म उद्योग से जुड़ी कई बड़ी हस्तियों पर गिरी. सोशल मीडिया के माध्यम से सुशांत के मित्रों, प्रशंसकों ने अप्रत्यक्ष रूप से इन सबका जीना हराम कर दिया. यह मामला अभी भी ठंडा नहीं हुआ है. आये दिन इन नामचीन लोगों के विरोध में स्वर उठते रहते हैं, वीडियो आते हैं. इस सबसे हमारा सुशांत तो अब लौटकर नहीं आ सकेगा, बस ये उम्मीद ही रखी जा सकती है कि आने वाले दिनों में अब किसी प्रतिभावान कलाकार को मानसिक रूप से प्रताड़ित नहीं किया जाएगा. बॉलीवुड को इस मामले से कुछ तो सबक़ लेना ही चाहिए. यूँ नेपोटिज़्म हर क्षेत्र में भीतर तक पाँव पसार चुकी है. हम उसे कहाँ-कहाँ से निकाल सकेंगे, यह आने वाला समय ही तय करेगा. 

अब इस मामले में नया मोड़ आ चुका है और प्रश्नों की सुई सुशांत की प्रेमिका रिया चक्रवर्ती की तरफ़ घूम गई है. चूँकि दोनों साथ भी थे तो पूरे घटनाक्रम की जाँच के लिए उनसे जानकारी लेना आवश्यक भी है. जो बात हैरान कर रही है वो यह है कि उन पर आरोप लगने लगे हैं. समाचारों में बताया जा रहा है कि कैसे उन्होंने सुशांत को अपने 'चंगुल' में ले रखा था! यहाँ 'चंगुल' शब्द से मुझे घोर आपत्ति है. दोनों साथ रह रहे थे तो ज़ाहिर है, प्रेम भी रहा होगा. इससे पहले सुशांत अंकिता लोखंडे के साथ 'लिव इन रिलेशन' में थे और एक लम्बे समय के बाद इन दोनों का ब्रेकअप  हो गया था. यदि सुशांत रिया के साथ रिश्ते से ख़ुश नहीं थे तो वे इस 'चंगुल'  से निकल अलग हो सकते थे. वे कोई अबोध बालक नहीं थे कि कोई उन्हें वश में कर ले और उन्हें इसका इल्म तक न हो! 

कहते हैं, रिया ने सुशांत को आत्महत्या के लिए उकसाया और 15-17 करोड़ रूपये अपने अकाउंट में ट्रांसफर करवाए. क्या कोई किसी के उकसाने भर से आत्महत्या कर सकता है? क्या बिना किसी की जानकारी के उसके अकॉउंट से करोड़ों रूपये ट्रांसफर हो सकते हैं और उसे पता भी नहीं लगता? हो सकता है, दोनों ने साथ में कुछ सपने देखे हों और प्रेमवश सुशांत ने ही ये धनराशि रिया को दी हो! हमारे-आपके लिए ये बहुत बड़ी रक़म है लेकिन फ़िल्मी कलाकारों के लिए उतनी नहीं है. प्रेम में तो इंसान क्या कुछ नहीं कर जाता! यह तो बहुत छोटी सी बात है. प्रश्न यह भी उठता है कि अगर रिया के कारण सुशांत बीमार रहने लगे थे और परिवार वाले ये बात जानते थे तो उन्होंने पहले इसे गंभीरता से क्यों नहीं लिया? अब इन बातों का क्या मतलब? अगर वे जानते थे तो सुशांत भी तो समझे होंगे इसे. वे डॉक्टर बदल सकते थे. 

अगर रिया पर लगे आरोप सही साबित होते हैं तो यह बेहद अफ़सोसजनक और अविश्वसनीय होगा. मेरी दुआ है कि ये सभी आरोप निराधार साबित हों. 'प्रेम' ऐसा हो ही नहीं सकता! सब जानते हैं कि यह भीषण अवसाद में डूबी दुःखद घटना है लेकिन अगर दुर्भाग्यवश ये सारा पैसों का खेल निकलता है तो फिर किस्सा और लंबा खिंचने वाला है. 
ईश्वर प्रिय सुशांत की आत्मा को शांति दे!
-प्रीति 'अज्ञात'
#love #suicide #sushant_singh_rajput

रविवार, 26 जुलाई 2020

#Sushant: किसी को शिद्दत से महसूस करने के लिए उसका तारा बनना ही जरुरी नहीं होता!

मृत्यु एक शाश्वत सत्य है, जो घटित होते ही स्मृतियों की अनवरत आवाजाही के मध्यांतर में दुःख के तमाम बीज रोप देती है. यहाँ सैकड़ों तस्वीरें पनपती और चहकती हैं और किसी चलचित्र की तरह हमें उन्हें मौन, स्थिर बैठकर जीना होता है.

जब तक व्यक्ति हमारे बीच होता है तब तक वह भीड़ का हिस्सा बना रहता है. चले जाने के बाद ही हमें उसकी अहमियत पता चलती है और वह विशिष्ट हो जाता है. सिने प्रेमियों के लिए सुशांत, भीड़ का हिस्सा तो नहीं थे. वे पहले भी ख़ास थे और आगे भी रहेंगे. दरअसल, हम दर्शक अपने हीरो को जिस रूप में परदे पर देखते हैं, वही छवि मन में भी बना लेते हैं. हमने कलाकारों को ऐसे ही स्थापित किया हुआ है. जहाँ नायक की हर अदा से हमें प्यार होता है और ख़लनायक से नफ़रत. हम सदा से सिनेमा को यूँ ही जीते आये हैं.  

हम पेज थ्री को भले ही चटख़ारों के साथ पढ़ें पर कलाकारों की व्यक्तिगत ज़िंदग़ी से हमें कोई बहुत अधिक सरोकार तो नहीं ही होता है. हमारे अपने दुःख और व्यस्तता का बोझ हमें इतना सब सोचने की अनुमति भी नहीं देता. 

 

आज जब 'दिल बेचारा' पर दर्शकों का टूट पड़ता अगाध स्नेह देख रही हूँ तो लगता है कि जैसे यह हम सबका प्रायश्चित है. यह पश्चाताप है उन दिनों का कि समय रहते हम सुशांत को ये क्यों न कह सके कि आपको कितना चाहते हैं हम!

मैनी चला गया! वह न केवल फ़िल्म के अंत में हम सबसे अलविदा कह देता है बल्कि असल ज़िंदग़ी में भी उसका हँसता, मुस्कुराता चेहरा, अब हमारे बीच कभी नहीं आएगा. हाँ, उसकी तस्वीरें और फ़िल्में उसकी स्मृतियों के पन्ने अक़्सर फडफ़ड़ाएंगी और उसे जीवित रखेंगी. 

 

दुनिया बहुत विशाल है और थोड़े कम, थोड़े ज़्यादा रिश्तों की भरमार हम सबके पास है. कुछ लोग परिचित भर हैं, कुछ दिल के क़रीब और कुछ हमारा जीवन ही हैं. कई लोग ऐसे भी हैं जो हमारे कुछ नहीं लगते, पर हम उन्हें बेहद पसंद करते हैं. वो चाहे हमारे आसपास जुड़ा कोई चेहरा हो, हमारा पसंदीदा कलाकार या कोई भी. 

चाहे वह कोरोना काल हो या किसी का अनायास ही चले जाना! यह समय हमें सिखा रहा है कि जिन्हें हम चाहते हैं हाथ बढ़ाकर उन्हें रोक लें. उन्हें कह दें कि "सुनो, तुम बहुत जरुरी हो मेरे लिए!"

 

'दिल बेचारा' का  मैनी चला गया! पर हमने हमारे सुशांत को जाते हुए महसूस किया. उसको अलविदा कहते हुए देखा. उसके आँसुओं ने हमें भी भिगो दिया. ये जानते हुए भी कि अब वो पलटकर मुस्कुराएगा नहींउसे हम बस पुकार भर सकते हैं! उसके लौट आने की प्रतीक्षा व्यर्थ है. उसकी यादों को सहेज सकते हैं!

हम चाहें तो इस घटना से सबक़ लेकर, अब भी उन अपनों तक पहुँच सकते हैं जिन्हें हमने कभी कहा ही नहीं कि "यार! तुम बिन जी नहीं सकते!"

हम जानते हैं कि ‘दिल बेचारा’ कोई असाधारण फ़िल्म नहीं है. सुशांत की आख़िरी फ़िल्म होना, उसे ख़ास बना गया है. मैनी के रूप में सुशांत ने अपने चरित्र में जान फूंक दी है और उन्होंने अपनी भूमिका को शत-प्रतिशत अंजाम भी दिया है. आज सुशांत पर दर्शकों का अपार स्नेह उमड़ा है. हर कोई उसकी प्रशंसा में बिछा हुआ है. काश! सुशांत यह सब देख सकते!

 

सुशांत को श्रद्धांजलि देने का एक ही तरीक़ा है. हो सके तो हम सब बस इतना याद रखें कि किसी को शिद्दत से महसूस करने के लिए उसका तारा बनना ही जरुरी नहीं होता!

-  प्रीति ‘अज्ञात’

#PreetiAgyaat  #SushantSinghRajput #DilBechara #star #suicide

शनिवार, 25 जुलाई 2020

#DilBecharaReview: तुम न हुए मेरे तो क्या, मैं तुम्हारा रहा!


दर्द का रिश्ता, टूटे हुए लोगों को जैसे जोड़ने का काम कर देता है! जब दो दिल प्रेम में हों तो एक-दूसरे की पसंद से भी बेतहाशा प्यार होने लगता है! यहाँ तक कि अज़ीबोग़रीब हरक़तें भी अच्छी लगने लगती हैं. गंभीर बीमारी के साथ भी कैसे खुलकर हँसा जाता है, जिया जाता है और लोगों को गले लगाया जा सकता है! छोटी-छोटी इच्छाओं का पूरा होना कितना सुख देता है! जीवन में एक दोस्त का होना कितना जरुरी है और सच्चा दोस्त कैसा होता है! 'दिल बेचारा' इन्हीं अहसासों के ताने-बाने से रची गई कोमल, मधुर अभिव्यक्ति के रूप में परदे पर साकार होती है. 

'दिल' सुनते ही इश्क़ की घंटियाँ बजने लगती हैं. वह ऑर्गन जो हमारी धड़कनों को रवानी देता है. किसी नज़र के दीदार भर से कभी ठहरता तो कभी रफ्तार पकड़ लेता है, वह एक न एक दिन प्रेम के दरिया में डुबा ही देता है और फिर राजकुमार- राजकुमारी की कहानी बनती है.  

इस फ़िल्म में निरर्थक क्रांतिकारी बातें नहीं हैं और न ही हाई वोल्टेज ड्रामा! बस, हमारी आपकी साधारण सी दुनिया और उसमें जानलेवा कैंसर के साथ मुस्कुराते हुए जीते रहने का प्रयास है. यहाँ नायक-नायिका दोनों, अपनी-अपनी लड़ाई लड़ते हुए भी एक दूसरे के सुख-दुःख में साथ खड़े होते हैं. साथ हँसते-साथ रोते हैं पर दुखियारे बनकर नहीं रहते. पुष्पिंदर के साथ (ऑक्सीजन सिलिंडर) रहते हुए भी क़िज़ी (संजना संघी) सहज है. वो दर्द समझती है और दूसरों का ग़म बाँटने की कोशिश करती है. एक जगह वो कहती है, "इनको गले लगाती हूँ तो लगता है, इनका ग़म बाँट रही हूँ....या अपना!" उसका अपने माता-पिता के साथ का रिश्ता भी बहुत प्यारा है. जब वो ये बोलती है कि "माँ को लगता है जैसे जादू के लिए धूप जरूरी है वैसे ही बंगाली के लिए सोन्देश", तो सबको अपनी-अपनी माँ का लाड़ याद आ जाता है. मैनुअल राजकुमार जूनियर उर्फ़ मैनी (सुशांत) को बेहद खुशमिज़ाज़ और ज़िंदादिल दिखाया गया है जो ख़ुद कैंसर से जूझते हुए, एक कृत्रिम पैर के साथ भी सबके जीवन में इंद्रधनुषी रंग भरने में लगा है. 

फ़िल्म के कुछ संवाद याद रह जाते हैं-

"हीरो बनने के लिए पॉपुलर नहीं बनना पड़ता. वो सच मे हीरो होते हैं". 

"कहते हैं, प्यार नींद की तरह होता है. धीरे-धीरे आता है फिर एकदम से आप उसमें खो जाते हो'. 

"किसी का सपना पूरा होना, उस सिली की बात ही कुछ और है!"

फ़िल्म के अंत में मैनी (सुशांत) का गुज़र जाना भीतर तक उतर जाता है. यूँ तो फ़िल्मों के ऐसे दृश्य भावुक कर ही देते हैं पर इस बार जो आँसू गिरे, उनकी नमी लम्बे समय तक बनी रहेगी. यह दुःख फ़िल्म के नायक़ की मृत्यु से उपजा दुःख भर ही नहीं है बल्कि यह हम सबके प्रिय सुशांत के, इस फ़िल्म के साथ ही हमें अलविदा कह देने का भी है. 

एक ओर तो यह दृश्य आपको याद दिलाता है कि हमारा सुशांत चला गया, वहीं दूसरी ओर मन सांत्वना देने का प्रयास भी करता है कि वो गया कहाँ! वो तो अब भी है, हम सबके बीच, अपनी फ़िल्मों के माध्यम से. 

किसी भी प्रेम कहानी से ये उम्मीद जोड़ लेना कि उसमें कुछ नयापन होगा, अति आशावादी होना ही माना जायेगा. लेकिन इसके बावज़ूद भी 'प्रेम फ़ॉर्मूला' प्रायः हिट हो जाता है. 'दिल बेचारा' की थीम कुछ-कुछ 'आनंद' और 'कल हो न हो' से मिलती अवश्य है पर इसकी पटकथा में वो कसावट नहीं है कि उतना गहरा असर छोड़ सके! इधर रहमान के नाम से ही हम सबकी अपेक्षाएँ ज़रूरत से ज़्यादा बढ़ जाती हैं. उनके गीतों की विशेषता ही है कि वे धीमे-धीमे असर करते हुए गहरे पैठ जाते हैं लेकिन इस फ़िल्म को लेकर इतना आशान्वित नहीं हुआ जा सकता! यूँ फ़िल्म की कहानी में गीत अच्छे से रच-बस गए हैं, हम साथ में थोड़ा गुनगुना भी लेते हैं लेकिन बस, बात यहीं पर ही ख़त्म भी हो जाती है. हाँ, 'तुम न हुए मेरे तो क्या, मैं तुम्हारा' गीत को पूरा सुनने की ललक नायिका के साथ ही, दर्शकों के मन में भी बढ़ जाती है. 

संजना संघी को देखकर यह क़तई नहीं लगता कि यह उनकी पहली फ़िल्म है. ख़ूबसूरत तो वे हैं ही, पर आत्मविश्वास से भरपूर उनका अभिनय भी देखने लायक़ है. सुशांत का तो कहना ही क्या! हर बार की तरह इस रोल को भी उन्होंने जी लिया है जैसे. उनके दोस्त जेपी यानी जगदीश पांडे की भूमिका में साहिल वैद भी ख़ूब जँचे हैं. अभिमन्यु वीर सिंह के छोटे से रोल में सैफ़ अली ख़ान प्रभावी रहे हैं. शेष कलाकारों का अभिनय भी ठीकठाक है. निश्चित रूप से यह कोई क्लासिक फ़िल्म नहीं है लेकिन फिर भी ऐसा महसूस हुआ कि थोड़ी लम्बी होती तो बेहतर था. इसे सुशांत के लिए ज़रूर देखा जाना चाहिए. 

सुशांत के प्रशंसकों को अपने इस हीरो के खिलंदड़पन को याद रखना है, उसकी शैतानियों को सोच मुस्कुराना है और सौ दुःख-दर्दों से गुजरते हुए, जीवन कैसे जिया जाता है; यह सीख लेनी है. सुशांत के लिए यही हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी. 

"तुम न हुए मेरे तो क्या, मैं तुम्हारा, मैं तुम्हारा, मैं तुम्हारा रहा 

मेरे चंदा! मैं तुम्हारा सितारा रहा"

ये गीत सुनकर यूँ लगता है जैसे जाते-जाते सुशांत अपने दिल की बात कह रहे हों.  

- प्रीति 'अज्ञात'

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बुधवार, 22 जुलाई 2020

#भारत TikTok जैसे कामयाब ऐप्स क्यों नहीं बना पाता? जानिए...


भारतीय एप डेवलपर्स के सामने मौजूदा समय किसी चैलेंज से कम नहीं है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत को आत्मनिर्भर बनाने का आह्वान करते हैं, तो इसी बीच चीन से तनाव के चलते टिकटॉक जैसे कई एप बैन कर दिए जाते हैं. अब इस तथ्य से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि टिकटॉक एक बेहद लोकप्रियता एप है. तो सवाल यह उठता है कि भारतीय एप डेवलपर्स दुनिया को ऐसे किसी एप की सौगात क्योें नहीं दे पाए हैं. देश के जाने-माने वेब डेवलॅपर एवं एप गुरु इमरान खान (App Guru Imran Khan) बता रहे हैं, एप से जुड़ी वे सारी बातें, जिनसे जुड़े सवाल हर यूज़र के मन में है.

इंस्टाग्राम, टिकटॉक और व्हाट्सएप की सफ़लता का राज़ क्या है?
यूज़र्स को आकर्षित करने के लिए जरुरी है कि नए apps बनाने वाली कम्पनीज़ ग्राहकों की आवश्यकताओं को समझें. उन्हें कुछ ऐसा दें जिसकी वे ज़रूरत महसूस कर रहे हों. आख़िर लोगों का दिमाग़ कैसे पढ़ा जाता है? कैसे आकर्षित होता है यूज़र? जब किसी एप के पॉपुलर होने की बात की जाती है तो इसमें तीन बातें प्रमुख होती हैं.

1.एप डेवलॅपमेंट- एप, यूज़र्स की आवश्यकताओं को तो पूरा कर ही रहा हो, साथ ही यूज़र फ़्रेंडली भी हो. उसका स्मूथ एक्सपीरिएंस हो. जैसे व्हाट्सएप चलता है पर उसके जैसे अन्य मैसेजिंग एप उतना नहीं चलते. एप्स को लगातार अपडेट भी करते रहना चाहिए. इससे खामियां दूर होती हैं. कोई भी बड़ी कम्पनी इसे आसानी से कर लेती है.

2.थीम - यदि किसी एक विषय को केंद्र में रखकर एप बनाया जाए तो वह अधिक सफ़ल होता है. जैसे टिकटॉक वीडियो क्रिएशन और इंस्टाग्राम मुख्यतः फोटो के लिए बनाए गए हैं. पॉपुलर एप प्रायः किसी एक विशेष थीम को लेकर ही सफ़लता की पायदान चढ़ते हैं.

3.प्रॉपर मार्केटिंग और एडवरटाइजिंग
- एप बनाना तो फ़िर भी आसान है लेकिन इसे हरेक तक पहुंचाना बहुत कठिन है. बड़ी कम्पनी यहां जीत जाती हैं. वे एक छोटे से प्रोडक्ट को भी अच्छे से प्रमोट करती हैं. पॉपुलर भारतीय ऐप्स की संख्या बहुत कम है. जैसे शिक्षा के क्षेत्र में देखें तो BYJU's का बहुत नाम है. इसका विज्ञापन आपको हर जगह सोशल मीडिया, टीवी, अख़बार में देखने को मिल जाएगा. आप किसी बच्चे से भी एजुकेशन एप का नाम पूछें तो वह तुरंत शाहरुख़ ख़ान को याद करते हुए BYJU's का नाम ले लेगा. सारा खेल मार्केटिंग का है. इसकी फंडिंग फेसबुक भी करता है.


क्यों मात खा जाते हैं भारतीय एप?
एप बनाना और प्रमोट करना दो अलग बातें हैं. आम आदमी इसे बना सकता है लेकिन प्रमोशन का पैसा कहां से आएगा? अधिकांश भारतीय ऐप्स यहीं मात खा जाते हैं. बड़ी कम्पनी के पास अच्छा खासा बजट होता है. यदि स्टार्टअप या किसी डेवलपर ने उसको बनाया है तो उसे कोई फंडिंग तो मिले. कुल मिलाकर बात यह है कि जितने बड़े स्पांसर्स हों, उतनी ही अच्छी टीम बन जाती है. ख़र्चा बढ़ा दिया जाता है. कंटेंट राइटर भी बिठा दिए जाते हैं. अच्छा विज्ञापन तैयार किया जाता है.
इमरान कहते हैं, 'इंडियन सक्षम नहीं हैं, यह बात मैं नहीं मानता. दुनिया भर की बड़ी-बड़ी कंपनियों में भारतीय ही ये सब बना रहे हैं. दुखद है कि हमारे देश में हमारे ही लोगों की प्रतिभा की उतनी क़द्र नहीं होती. मैं तो फिर भी भाग्यशाली हूं कि प्रधानमंत्री मोदी जी ने वेम्बली स्टेडियम में मेरा जिक्र किया. यूं उसके बाद भी सब कुछ अपने स्तर पर ही करना होता है. जब सरकार को किसी एप की जरुरत होती है तो अधिकारी मुझसे संपर्क करते हैं.
मैं बिना सरकारी सपोर्ट के, अपने रिसोर्सेज से उन्हें बनाकर दे देता हूं. मुझे ये कार्य करना ख़ुशी देता है. अच्छा लगता है. इसे देश सेवा ही समझिये'.

हम भारतीयों को साइबर सुरक्षा (security) के बारे में जानना और समझना भी आवश्यक है.
कॉन्टेक्ट, गैलरी, लोकेशन और अन्य कई व्यक्तिगत जानकारियां एप के माध्यम से ले ली जाती हैं. ये विवरण टिकटॉक या केवल चाइनीज़ एप ही नहीं, बल्कि सभी लेते हैं. चूंकि हमारे देश के 95 % यूज़र्स को साइबर सिक्योरिटी की जानकारी नहीं है. अतः वे सब ओके करते चले जाते हैं और उन्हें अपनी व्यक्तिगत जानकारी तक पहुंचने की अनुमति दे देते हैं. परिणामस्वरूप वे हैकिंग का शिकार हो जाते हैं.

एप्स के मामले में सरकारी हस्तक्षेप कितना होता है?
नियम और दिशा-निर्देश तो सभी कम्पनीज़ फॉलो करती हैं. उसके बाद ही कोई एप बाज़ार में उतारा जाता है. यदि कहीं कोई गड़बड़ी है, तब भी सरकार तभी ही एक्शन ले सकती है जब शिक़ायत होती है. जैसे ज़ूम को लेकर कुछ लोगों ने प्राइवेसी इशू उठाया था, हैकिंग की रिस्क भी कही गई थी. भले ही वो पूरा सच नहीं था. लेकिन ऐसी किसी भी शिक़ायत की पूरी जांच होती है और आवश्यकतानुसार कार्यवाही की जाती है.
टिकटॉक तो पहले भी था लेकिन जब भारत-चीन के बीच तनाव हुआ तो इसका विरोध जोर पकड़ने लगा. सामान्य तौर पर सरकार अगर प्रमोट नहीं करती तो डिमोट भी नहीं करती। जिसका जैसा चल रहा है, चलता है.

प्रतिस्पर्द्धा का खेल
हर क्षेत्र की तरह यहां भी प्रतिस्पर्द्धा एक महत्वपूर्ण मुद्दा हैं. जैसे ज़ूम में इतनी परेशानी थी नहीं, जितना दिखाया गया. बड़ी बड़ी कम्पनीज़ आज भी इसे इस्तेमाल कर रही हैं. हुआ यह कि जैसे ही कोरोना महामारी आई और लोगों के पास परस्पर संपर्क का कोई साधन न रहा तो ज़ूम बहुत तेजी से पॉपुलर हुआ. देखते ही देखते इसके यूज़र्स की संख्या बढ़ती चली गई.
ऐसे में गूगल, माइक्रोसॉफ्ट को तो बुरा लगना ही था क्योंकि अब तक तो वे ही हीरो थे. जब प्रतिस्पर्द्धा की भावना होती है तो अपनी-अपनी लॉबी द्वारा दबाव भी बनाया जाता है. यही हुआ भी. इधर ज़ूम की बुराई शुरू हुई उधर गूगल मीट प्रयोग में आने लगा. आज की तारीख़ में ज़ूम इन सबसे बेहतर है. जो आईटी कम्पनीज़ हैं, वे भी ज़ूम का ही प्रयोग कर रही हैं.
जहां तक 'JIO' की बात है तो फ़िलहाल यह कॉपी के अलावा और कुछ भी नहीं, उस क्वालिटी का भी नहीं. हां, इस बात पर खुश हुआ जा सकता है कि कोई भारतीय एप बाज़ार में उतरा तो सही. लगातार अपडेट से इसमें भी सुधार आएगा, इसकी उम्मीद रखी जा सकती है.

टिकटॉक बंद करने के लिए भारत-चीन तनाव की जरुरत नहीं थी.
यह सच है कि टिकटॉक स्टार लाखों कमाते थे. इससे यदि किसी की प्रतिभा उभर कर आई तो वो हैं हमारे गांव के कलाकार. लेकिन इसके अतिरिक्त इस एप का कोई भी प्लस पॉइंट नहीं था. इमरान स्पष्ट रूप से कहते हैं कि टिकटॉक बंद करने के लिए भारत-चीन तनाव की जरुरत नहीं थी. इसे तो बहुत पहले ही बंद कर देना चाहिए था. इसने युवाओं का फ़ायदे से अधिक नुकसान ही किया है. दसवीं और बारहवीं के बच्चों का समय बहुत क़ीमती होता है. टिकटॉक ने उसे बर्बाद कर दिया.
अफ़सोसजनक भाव के साथ वे आगे कहते हैं कि भारत की बर्बादी की अगर कभी कोई कहानी लिखी जाएगी तो उसके तीन कारण होंगे - क्रिकेट, सोशल मीडिया और थर्ड क्लास पॉलिटिक्स. गांव, गली में हर जगह पचासों बच्चे क्रिकेट खेलते मिल जाएंगे पर ये कबड्डी नहीं खेल सकते हैं. इनके शरीर ही इतने मज़बूत नहीं. सब ग्लैमर की तरफ़ भागते हैं. इधर सोशल मीडिया ने भी सभी सीमाओं को लांघ दिया है. सेंसरशिप कहीं है ही नहीं. वेबसीरीज़ की हालत तो इससे भी बदतर है. गंदी राजनीति तो हम सब देख ही रहे हैं.
अपने यहां भाई भतीजावाद में प्रतिभा (talent) दब जाती है. उस पर रचनात्मकता (creativity) से ज्यादा जोर अंकों (marks) पर है. अमेरिका में भी ड्रॉपआउट होते हैं लेकिन देखिये जो ग्रेजुएट भी नहीं, वे गूगल में जॉब कर रहे हैं. कारण यही कि वहां डिग्री से अधिक कार्य-कौशल (skill) की महत्ता है.

(अलवर निवासी इमरान ख़ान, वेब डेवलॅपर एवं एप गुरु हैं. उन्होंने 80 शैक्षिक मोबाइल अनुप्रयोग (Mobile Apps) और सौ से अधिक वेबसाइट विकसित की हैं जिनका प्रयोग निःशुल्क है. वे नवंबर 2015 से तब चर्चा में आए, जब वेम्बली स्टेडियम, लंदन में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने अपने भाषण में उनका उल्लेख किया. उन्होंने कहा था कि 'मेरा भारत, अलवर के इमरान खान में बसता है'. हाल ही में उन्होंने मॉरीशस सरकार के अनुरोध पर वहां के बच्चों के लिए एजुकेशनल एप बनाया है, जिसे वहां के प्रधानमंत्री लॉन्च करेंगे.)
-प्रीति 'अज्ञात'

शुक्रवार, 17 जुलाई 2020

#World Emoji Day: जब शब्दों की जेब ख़ाली हो, तब इमोजी का बड़ा सहारा है!

एक ही बात को यदि भिन्न भावों के साथ बोला जाए तो मायने बदल जाते हैं. बोलते समय तो आपकी मुखमुद्रा, उच्चारण एवं भावभंगिमा से सामने वाला समझ जाता है. अर्थ का अनर्थ तब हो सकता है, जब इसे लिखा जाए. अब सोशल मीडिया पर लिखते समय पढ़ने वाले को आपकी टोन का अनुमान कैसे हो? इन परिस्थितियों में भावनाओं की सरल और सहज अभिव्यक्ति के लिए इमोजीस वरदान की तरह अवतरित हुए हैं. इमोजी की महत्ता एक उदाहरण से समझिए-

क्या कह रहे हो?😂 जब आपकी बात से हँसते-हँसते पेट में बल पड़ जाएँ.
क्या कह रहे हो?😆सुनने वाले को मज़ा आया.
क्या कह रहे हो?😈बताइये, कमीनेपन वाला भी दे रखा है.
क्या कह रहे हो?😍दिल में लड्डू फूटिंग. ये तुमने क्या कह दिया, जानां.
क्या कह रहे हो?😎कूल डूड टाइप फ़ीलिंग
क्या कह रहे हो?😐अरे!तुमने ऐसा कैसे कह दिया रे!
क्या कह रहे हो?😓घोर निराशा की बदली 
क्या कह रहे हो?😕चिढ़ोकरे, घुन्नू वाली प्रतिक्रिया  
क्या कह रहे हो?😡आगबबूला 
क्या कह रहे हो?😜मस्ती का ख़ुमार
क्या कह रहे हो?😛हाय अल्ला! जे तुमने का कह डाला.
क्या कह रहे हो?😤ट्यूबलाइट अभी जल नहीं पाई.
क्या कह रहे हो?😨 हैं, सच्ची!
क्या कह रहे हो?😬मतलब हाउ डेयर यू!
क्या कह रहे हो?😘इश्श! 
क्या कह रहे हो?😳नहीं! ये नहीं हो सकता!
क्या कह रहे हो?😭दुःख की गंगा-जमुना में डूबते लोग 
क्या कह रहे हो?😱भगवान के लिए कह दो ये झूठ है!

यानी केवल एक इमोजी बना देने के बाद फिर व्याख्या की आवश्यकता नहीं रह जाती! सोशल मीडिया पर जब से इमोजी आए हैं, लिखने का अंदाज़ ही बदल गया है. वाहवाही के लिए, दुःख, हँसी, परवाह, प्रेम, जन्मदिवस, शुभकामनाएँ हर चीज़ के लिए इमोजी तैयार हैं. ख़ोज  को सरल करने के लिए इनको अलग-अलग श्रेणियों में भी बाँटा गया है. बस, एक क्लिक के माध्यम से आप अपने अहसास जस-की-तस साझा कर सकते हैं.

आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि इमोटिकॉन्स और इमोजी में अंतर होता है. कहते हैं, 1990 के दौर में सबसे पहले जापान में इमोटिकॉन्स (kaomoji) प्रचलन में आए. इसमें नंबर और विराम चिह्नों की मदद से चित्र बनाया जाता है. जैसे : और D को मिलाकर लिखने से हँसने वाला चित्र :D बनता है या फिर : और / को इस्तेमाल कर :/ ये भाव प्रदर्शित किया जाता है. इस दशक के अपनी समाप्ति के चरण में पहुँचने तक इमोजी अस्तित्व में आ चुके थे. इसकी शुरुआत भी जापान से ही हुई थी. इसकी खोज का श्रेय किसे दिया जाए, इस बारे में कई मतभेद हैं.  इमोजी मूलतः Pictograph होते हैं, ये E (picture) + moji (character) से मिलकर बने हैं. अब ये इमोजी केवल भाव-भंगिमाओं तक ही सीमित नहीं रहे बल्कि खानपान से लेकर घर गृहस्थी, कार्यालय, बाज़ार की सभी प्रकार की वस्तुएं इसमें शामिल हो चुकी हैं.
समय के साथ-साथ इमोजी भी अपडेट होते जा रहे हैं. जैसे अभी कोरोना महामारी के समय में  केयर (परवाह) का इमोजी जुड़ गया है अर्थात फेसबुक भी केयर करने लगा है. उन्हें पता है कि इन दिनों सबसे अधिक आवश्यकता सांत्वना देने की ही है.
वैसे ये इमोजी न हों, तो बातों का मज़ा ही क्या! ये शब्दों में चाशनी की तरह घुल जाते हैं. कितनी ही बातें इमोजी के माध्यम से कह दी जाती हैं. कभी-कभी इन इमोजीस के मज़े भी लिए जाते हैं. दो दोस्तों के बीच, इमोजी की टांग खिंचाई की एक बानगी देखिए-
😀
 😁
यार, तुम हँसती हो तो ऊपर नीचे दोनों दांत दिखते हैं. मेरे केवल ऊपर के, ऐसा क्यों?
हाहा 😄अब देखो.
हाँ, अब ठीक है.
मतलब, तुमको दो तरह से हँसने  की कला आती है?
न! चार तरह से आती है.
अच्छा!
😄😁😆🤣ये देखो!
एक और है!
बताओ!
😂
अरे, हाँ! 5 हुए. ये खुशी के आँसू टाइप
😜😜छिछोरी हँसी भी है
 🤣🤣
😅ये भी है, पता नहीं क्या?
ये इंटेलेक्चुअल हँसी. मने हँसने का कारण भी समझ आ रहा
 🤩
जब ये 😜 है, तो ये 🤪 क्यों है?
😁😁😁 खी खी खी 
शायद पहला वाला दिव्यांग है.
नहीं, पहला छिछोरी हँसी है और दूसरा उसके साथ अश्लील है.
🤓ये cool बन हँसने की कोशिश कर रहा है, लेकिन बात में दम नहीं है.
हाँ, एकदम गंवार लग रहा!
😎 कूल ये
🤩 इसका मतलब झलक पाते ही लड्डू फूटना
🥴👎👎निरा गंवार
न, न! चारों खाने चित्त है ये
😁😁
अच्छा! इस पर बात नहीं होगी. आउट ऑफ़ कोर्स है ये. केवल उसी पर चर्चा होगी, जो हँसे.
हाँ, हटाओ इसे!
जानते हो, आज अपन ने अनजाने में क्या कर दिया है ?
हाँ, हास्य इमोजी का आलोचनात्मक विश्लेषण!
ये महान काम अपन ही कर सकते बस
दुनिया मे इत्ती बुद्धि न है
😇
जित्ती अपन दोनों में है 😁
 🧐
अच्छा, बस तुम ही महान हो महाराज!
हीही, परिश्रम से क्या नहीं संभव!
😬 इसमें मेहनत, निष्ठा और अनुशासन भी जोड़ो जी.
कोरोना फाइट में मेरा योगदान: एक महती रिसर्च
😆😆
हास्य के विविध रूप 'इन द टाइम ऑफ़ कोरोना'
नहीं! हँसो मत! 
तो फिर?
कोरोना जैसे गंभीर दौर में बेतुका हँसना अक्षम्य है.
हुँह! हँसी के दौर में तो सब हँसते हैं. इस दौर में हँसना ही तो खास है!
हँसी को लेकर गंभीर 🧐
 😂😂

आप भी हँसते रहिए और इमोजी के माध्यम से अपने अहसास बाँटिये. इससे समय की बचत होती है. भाव पुख्ता तौर पर साझा किये जाते हैं. इस बात को स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं कि जब शब्दों की जेब ख़ाली हो या कहीं कोई झिझक आड़े आ रही हो, तब हाल-ए-दिल की अभिव्यक्ति के लिए भी इनका बड़ा सहारा है! बस, ध्यान रहे कि हमारी भाषा शेष रहे और इन्हें इस्तेमाल करते-करते हम E. Human न बन जाएँ!
- प्रीति 'अज्ञात'
#World Emoji Day #Emoji #preetiagyaat #Blogpost

गुरुवार, 16 जुलाई 2020

वो दामाद है, असुर नहीं!

हाल ही में एक ट्वीट देखने को मिला जिसमें एक महिला ने अपने दामाद के लिए 67 आंध्र व्यंजनों के साथ लंच तैयार किया है. इसमें स्वागत पेय( welcome drink), स्टार्टर, चाट, मेन कोर्स और स्वीट्स शामिल हैं! निश्चित रूप से इसमें एक माँ का, अपनी बेटी और दामाद के लिए विशुद्ध प्रेम और ममता से भरा भाव ही है और कुछ नहीं. भारतीय समाज में सास और दामाद का रिश्ता बहुत मधुर भी होता है (कम से कम सास की ओर से तो होता ही है).
अब इसका एक अन्य पक्ष भी है और कई बार युवक ससुराल जाने के नाम से ही घबराते हैं. जो कारण हैं न, उसके साक्षी आप भी कभी-न-कभी जरूर ही रहे होंगे.  

अब आपको भले ही अतिश्योक्ति लगे पर हमारे समाज में दामाद को ईश्वर तुल्य ही मान लिया गया है. वह घर का सदस्य होते हुए भी सदैव विशिष्ट अतिथि के पद पर मनोनीत रहता है. यही वह प्राणी भी है जिसकी उपस्थिति में घर का सबसे रोशन चिराग़ स्वयं को उपेक्षित, तिरस्कृत और सेवक महसूस करता है. बेटा तो लात भी खाता ही है. ख़ैर! अब साले साहब बने हैं तो ये उनका नैतिक कर्तव्य है कि जीजू की सेवा सुश्रुषा में कोई कमी न रह जाए. 'जिनके आगे जी, जिनके पीछे जी' के सामने खिलखिलाने और वातावरण को सुरमई बनाए रखने में साली की भूमिका भी अहम होती है. ये वही देवी हैं जो बारात के आने पर सबसे अधिक चहकती हैं और 'जूता चुराई' के समय इक्कीस हजार से शुरू कर इक्कीस सौ (कभी-कभी 500 पर भी) पर समझौता कर लेती हैं. दरअसल विवाह पद्धति में ये सब परम्पराएँ बनी ही इसलिए हैं कि दो अज़नबी परिवारों में स्नेह और सौहार्द्र के भाव पनपें और आगे जाकर एक अटूट, प्रगाढ़ रिश्ता बने. 

होता क्या है कि जैसे बहू गृहप्रवेश के साथ ही पूरा घर सँभालने लगती है, इसके ठीक उलट दामाद जी के चरण पड़ते ही पूरा घर उन्हें सँभालने लगता है. परिजन स्वागतातुर हो उनकी राहों में फूल बिछा दिया करते हैं. प्रबल प्रेम पक्ष तो अपनी जगह है ही लेकिन कहीं एक भय भी रहता है कि दामाद नाराज़ न हो जाए. उसकी नाराज़गी का अप्रत्यक्ष मतलब बेटी को दुःख मान लिया जाता है. यद्यपि ऐसा हर घर में होता नहीं है परन्तु आम सोच यही है. तो जब इतनी सारी बातें जुड़ी हुई हैं तब आवभगत तो होनी ही है.
 
हमारे समाज में आवभगत का एक ही सीधा-सीधा अर्थ है कि जमकर खिलाओ (इसे ठुंसाओ की तरह लें). हफ़्तों पहले से ही किसी रेस्टोरेंट के menu की तरह व्यंजन-सूची तैयार कर ली जाती है. फिर दामाद जी का पदार्पण होते ही 9 मिठाइयों से सजे मिष्ठान थाल के साथ उनका और इस सूची का भव्य उद्धाटन होता है. तत्पश्चात आगामी प्रयोगों हेतु प्रयोगशाला खोल दी जाती है.  मिठाई यह कहकर खिलाना शुरू होता है, 'अजी, इतने समय बाद आए हैं कनपुरिया लड्डू से मुँह तो मीठा करना ही पड़ेगा!' ये चॉकलेट बरफ़ी तो मेरी बिट्टो ने ख़ास आपके लिए ही बनाई है. कह रही थी कि 'जब तक जीजाजी नहीं चखेंगे, कोई हाथ भी न लगाना'. और ये सोनहलवा तो बरेली वाली मौसी ने आज सुबह ही भिजवाया है कि 'भई, दामाद जी को हमारा आशीर्वाद जरूर देना'. 

उसके बाद चाय-नाश्ता, फिर फ़लाहार(Fruit Salad) कराया जाता है. दामाद आराम करने का मन बना लेता है, तभी साली जी ठुमकती हुई आकर कहती हैं, 'अरे, जीजू अभी लंच तो किया ही नहीं!' उसके बाद शाम की चाय के साथ समोसे और फिर रात्रिभोज में पड़ोस वाली आंटी जी के यहाँ भी जाना जरुरी होता है वरना वो बुरा मान जाएंगी जी. अब दिल पर हाथ रखकर आप ही बताइए कि जिस फ़ूफ़ा के साथ ऐसा हो रहा है और उस पर सदियों से देश मज़ाक भी उड़ा रहा है, उसे नाराज़ होना चाहिए कि नहीं?

अब सबकी इच्छाओं की पूर्ति करते-करते दामाद जी का जो हाल होता है, वो तो वह ही जानें. लेकिन याद है न! अगली बार ससुराल जाते समय पहले से ही कैसे झूठी कहानी बनाकर तैयार रखते हैं कि मम्मी को कह देना 'डॉक्टर ने घी-तेल खाने को मना किया है'. 
अच्छा, एक मज़ेदार बात और है कि पहले के समय में जब दामाद अपनी ससुराल आता था न! तो अड़ोस-पड़ोस के लोग किसी न किसी बहाने से उसे देखने आते थे या फिर अपनी छत पर खड़े हो उसकी एक झलक पाने को बेताब रहते थे. कुछ-कुछ ऐसा ही सीन बनता था जैसे शहर में तेंदुआ घुस आने पर लोग बावरे से हो जाते हैं. खैर! वो ज़माना ही अलग था. बहुत प्यारा समय था. 😊

सौ बात की एक बात! स्नेहिल भावनाओं का पूरा सम्मान. यह भी सच है कि प्रेम की कोई सीमा नहीं होती पर क्या करें!  लाख अच्छे व्यंजन सामने होते हुए भी ये दुष्ट पेट और ग्रहण करने से रोक देता है. आप तो न जी, बस इतना समझ लो और भगवान के लिए मान भी लो कि दामाद, हमारी-आपकी तरह ही एक मनुष्य है, वह कोई असुर लोक से नहीं पधारा है बल्कि इसी पृथ्वी ग्रह का प्राणी है. प्यार करो, खिलाओ भी पर जबरन खिला-खिलाकर इतना अत्याचार न करो! कहीं ऐसा न हो कि अगली बार ससुराल का नाम सुनते ही बंदा चीत्कार मार अचेतन अवस्था को प्राप्त हो जाए जैसा कि प्रायः बहुएँ हो जाया करती हैं. 😂
😰 उफ़! अचानक बहुत जोर से जी घबरा रहा है! हे प्रभु, किरपा बनाए रखना.
चलो, जै राम जी की 🙏
- प्रीति 'अज्ञात' 
#Son_in_law #Indianculture #दामाद  #संस्कृति 
Photo Credit: Google

सोमवार, 13 जुलाई 2020

विवाह का बैतूल मॉडल


आजकल एक रोचक ख़बर सुर्ख़ियाँ बटोर रही है. इसे पढ़कर लड़के तो मारे आनंद के बावले हुए पड़े हैं लेकिन लड़कियों ने अपनी भृकुटि तान ली है. बात है ही कुछ ऐसी कि ख़ुशी और ग़म के मारे दोनों ही प्रजातियों का कलेजा छलनी हुआ जा रहा है. 

पूरा किस्सा 
बैतूल (मध्यप्रदेश) के एक युवक की शादी उसके घरवालों ने कहीं और तय कर दी थी जबकि युवक, अपनी प्रेमिका से विवाह रचाना चाहता था. जैसा कि आम भारतीय परिवारों में होता ही आया है कि घरवालों ने अपनी इज़्ज़त की दुहाई दी. बेटा ज़िद पर अड़ा रहा. उधर प्रेमिका के घरवाले भी लड़के की कहीं और शादी तय होने पर लगातारआपत्ति दर्ज़ कर रहे थे. मामला बढ़ा तो पंचायत बुलाई गई. एक अविश्वसनीय निर्णय सुनाते हुए पंचायत ने उस लड़के को दोनों से विवाह की अनुमति दे दी. आश्चर्यजनक बात यह भी है कि पंचायत के इस निर्णय से लड़का, लड़की और प्रेमिका सहमत हो गए. तीनों के परिवार भी इसका स्वागत करते दिखे.   
 
प्रशासन का दख़ल 
यूँ तो इस विवाह में पूरा गाँव शामिल हुआ लेकिन प्रशासन ने आदतानुसार इस मामले की जाँच शुरू कर दी है. अब इन्हें कौन समझाए कि नफ़रतों से भरी इस दुनिया में प्रेम को ग़ुनाह समझना, किसी ग़ुनाह से कम नहीं!
हम तो इतना ही कहेंगे कि जब मियाँ बीवी राज़ी तो क्या करेगा क़ाज़ी! वैसे भी यह पूरा प्रकरण उन सभी मामलों से तो बेहतर ही है, जहाँ किसी एक को सरेआम सूली पर लटका दिया जाता है और अगले दिन कोई ग़वाह तक नहीं मिलता!
सरपंचों ने शायद परिवारों को आपसी रंज़िश से बचाने के लिए ये बीच का रास्ता अपनाया हो! ख़ैर! ये तो वही लोग बता सकते हैं. हाँ, बात का बतंगड़ जरूर बनने लग गया है. 
  
लड़कों की प्रतिक्रिया और बैतूल मॉडल की पुरज़ोर सिफ़ारिश 
*एक ओर तो पुरुष वर्ग इस लड़के की क़िस्मत से ईर्ष्या कर रहा है तो वहीं दूसरी ओर उन्हें अपनी अंधियारी ज़िंदगी में आशा की फूटती किरण भी दिखाई देने लगी है. 'अपना टाइम आएगा' के मंत्र के साथ ख़्वाबों की नॉनस्टॉप आवाजाही जारी है. 
*जो वैवाहिक जीवन के भुक्तभोगी हैं उन्होंने साफ़ कह दिया है कि अब इस लड़के की खुशियों पर ग्रहण लगा ही समझो. 
*चरमराती अर्थव्यवस्था पर ध्यानाकर्षित करते हुए कुछ लोग सहानुभूति दर्शाते भी नज़र आए. वे इस युवक की तनख़्वाह दोगुनी करने की सिफ़ारिश कर रहे हैं. 
*कई लोगों ने इस पूरी घटना को लड़के का अभूतपूर्व साहस मानते हुए उसके लिए 'परमवीर चक्र' की मांग की है. 
*किसी ने एक साल बाद अपडेट देने की गुज़ारिश की है तो कोई पंचायत के इस फ़ैसले को अद्भुत बताते हुए यह प्रक्रिया देश भर में अपनाने की कह रहा है. इसे 'बैतूल मॉडल' के नाम से प्रस्तुत किया जा सकता है. 
*इसी सबके बीच एक गंभीर प्रश्न यह भी उठा कि इनके घर में होने वाले भावी झगड़ों में पंचायत हस्तक्षेप करेगी या ये स्वयं ही मामला सुलटा लेंगे?

लड़कियों के दुखड़े और स्त्री विमर्श की आहट 
*भई, लड़कियों ने तो दो टूक कह दिया है कि जब सर्वसम्मति से यह निर्णय उचित मान ही लिया गया है तो हम भी इस सुविधा के उम्मीदवार बनना चाहेंगे. अब न्यायिक संतुलन तो बनता ही है, जी. 
*उन्होंने अपने विचारों को बेझिझक स्पष्ट करते हुए आगे कहा कि समय का बँटवारा भी होगा.अर्थात लड़की छह माह अपने चुने हुए प्रेमी के साथ प्रसन्नतापूर्वक बिताएगी और छह माह परिवार द्वारा थोपे गए पति के साथ भुगत लेगी. 
*दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय' को बार-बार याद दिलाने वालों की भी कोई कमी न रही. इन्होंने व्याख्या करते हुए कहा कि चार दिनों में प्यार का बुख़ार उतर जाएगा और दोनों आपस में सौतन-सौतन खेलेंगीं.'
*कई स्त्रियाँ इस प्रकरण से क्षुब्ध भी हैं. उनका मानना है कि यदि मामला उलट होता तो यह निर्णय किसी भी स्थिति में नहीं आता. हमारे साथ भेदभाव तो सदियों से चला आ रहा है. 
'अखिल भारतीय प्रेमी संघ' ने, प्रेम के ऊपर साक्षात् पहरा (पत्नी की उपस्थिति) बताते हुए इस पूरी घटना की कड़ी निंदा की है. 

मिश्रित वर्ग के जलकुकड़ुओं के विचार भी जान लीजिये 
*इनका विचार है कि एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं. अब इन्होंने जो कहा वो भले ही पुरानी कहावत है. लेकिन हमें इस बात पर घनघोर आपत्ति है कि लड़कियों को 'तलवार' कैसे कह दिया? आई मीन, हाउ डेयर यू!! फूल सी कोमल लड़कियों के लिए यह हिंसक नाम क़तई शोभा नहीं देता!
*एक साहब ने तो तालियाँ पीटते हुए यहाँ तक कह डाला कि यही इसके लिए उचित सजा है. बच्चू को केवल आटे-दाल के भाव ही नहीं पता चलेंगे बल्कि जब बाइक पर किसी एक को क़रीब बिठाएगा और दूसरी को पीछे; असल खेल तो तब शुरू होगा. 

भई, हम तो कहते हैं ये परिवार ख़ूब खुशहाल जीवन जिए. बस, कोरोना काल में ऐसी ख़बरें आती रहनी चाहिए. तनाव दूर होता है और बैठे-ठाले मुस्कुराने की वज़ह मिल जाती है. प्रसुप्तावस्था में पड़ी उम्मीद को क़रार आ जाता है, सो अलग. 
नारायण-नारायण 
- प्रीति 'अज्ञात'
#BetulMarriage #MadhyaPradesh #Marriage #IndianBride #MP_Panchayat #iChowk #preetiagyaat
                                                                



शर्मनाक! अमिताभ के साथ रेखा को जोड़कर छिछोरे comments करने वाले भी बीमार हैं

इस कोरोना महामारी ने न केवल दुनिया भर के लोगों का जीना मुश्क़िल कर दिया है बल्कि कुंठित और घिनौनी मानसिकता से भरे तमाम लोगों को अपनी तथाकथित 'प्रतिभा' दिखाने का कुअवसर भी दे डाला है. व्हाट्स ऐप्प पर लिखने वाले तो महान हैं ही, पर इन बेहूदगी भरी पोस्टों को हँसते हुए फॉरवर्ड कर देने वालों की भी कोई कमी नहीं! देखकर तरस आता है कि इन्होंने निम्नता के रसातल तक पहुँचने की कोई सीमा तय की भी है या नहीं?

एक ओर जहाँ पूरा देश अमिताभ बच्चन के कोरोना संक्रमित होने से स्तब्ध है. देश-दुनिया भर में उनके करोड़ों प्रशंसक उनके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की दुआएं माँग रहे हैं, वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें इस समय भी मसख़री सूझ रही है. मसख़री भी नहीं बल्कि ये ख़ालिस बदतमीज़ी ही है.
ठीक है, रेखा और अमिताभ का कभी एक पास्ट रहा भी होगा तो इसका यह मतलब तो क़तई नहीं कि आप जब जी चाहें, उनका जीना हराम कर दें! हद है! इस संवेदनशील समय में भी इधर-उधर का जोड़-तोड़, सच्ची मोहब्बत के नाम पर इन दोनों कलाकारों के लिए घटिया पोस्ट रची जा रही है. क्या हम भारतीयों की रचनात्मकता (creativity) का स्तर इतना गिर चुका है कि हम बीमारी में भी मज़े लूटना नहीं छोड़ पा रहे! हो क्या गया है, समाज को?

मुझे नहीं याद पड़ता कि किसी भी बड़े नेता या फ़िल्म स्टार के सुरक्षाकर्मी (Security Guard) के कोरोना पॉजिटिव होने की ख़बर इतने जोर-शोर से दिखाई गई हो, जितना कि रेखा के बंगले की बात हुई. चलिए, ख़बर देना भी सही! पर उसके मिलते ही यूँ उछल पड़ना जैसे लॉटरी निकल गई हो; कहाँ तक तर्कसंगत है? आख़िर लोगों की मानसिकता किस हद तक नीचे गिरेगी?

फेसबुक, ट्विटर पर कुछेक को छोड़ दिया जाए तो वहां संवेदना भरे लाखों संदेशों की बाढ़ आई हुई है लेकिन व्हाट्स ऐप्प यूनिवर्सिटी का एक अलग ही शास्त्र है. यहाँ केवल मखौल उड़ाती या सस्ती भाषा से भरी पोस्ट ही फॉरवर्ड की जा रहीं हैं.
एक लिखता है, "इसी को मोहब्बत कहते हैं प्यारेलाल जी कि कोरोना सिकंदर को हो और बंगला ज़ोहराबाई का सील कर दिया जाए!"
दूसरे ने तो आला दर्ज़े का काव्य ही रच दिया, "मोहब्बत की मिसाल देगा सदियों तक ज़माना, कोरोना अमिताभ को और बंगला रेखा का सील हो जाना."
इनके लिए मोहब्बत न हुई मज़ाक हो गई कि जब चाहे कर लो! ये तो बानगी भर है. अग़र सारी पढ़ें तो किसी का भी खून खौल जाए.

हम जानते हैं कि अमिताभ ही नहीं बल्कि अभिषेक, ऐश्वर्या और उनकी बेटी आराध्या भी कोरोना से संक्रमित हैं. इस कठिन समय में भी जब बॉलीवुड के सबसे प्रतिष्ठित परिवार को लेकर लोग अपना छिछोरापन नहीं छोड़ पा रहे हैं तो आम जनता के दुःख में इनकी घड़ियाली संवेदनाओं का अनुमान आप स्वयं लगा लीजिए!
इन्हें बच्चन परिवार के साथ और इस महामारी में खिलंदड़पन सूझ रहा है तो ये अपने आस-पड़ोस के लोगों के संक्रमित हो जाने पर न जाने उन्हें किन नज़रों से देखते होंगे? कैसा बर्ताव करते होंगे?

कुछ को तो इस बात से भी पेट में मरोड़ उठ रही कि इतने लोगों को कोरोना हुआ तो बच्चन परिवार के मामले को ही क्यों तूल दी जा रही?
मने कमाल है! हिन्दी सिनेमा का महानायक जिसने अपने जीवन के पचास वर्ष इस इंडस्ट्री को दिए, आप सबका मनोरंजन किया, अपनी संघर्ष और सफ़लता की कहानी से न जाने कितने युवाओं को प्रेरणा दी, उनमें जोश भरा! तमाम सामाजिक कार्यों से जुड़ा हुआ है. आज उसकी न्यूज़ से आपको दिक़्क़त होने लगी?
क्या बच्चन परिवार की न्यूज़ दिखाने से शेष संक्रमितों के प्रति संवेदनशीलता कम हो जाती है? यदि किसी सितारे के चाहने वालों को उसकी फ़िक्र है तो इसमें आपको ग़लत क्या लग रहा? क्या आप उसकी चिंता नहीं करते जो आपका प्रिय है? हाँ, अमिताभ बच्चन ख़ास हैं, सदैव रहेंगे.

कोरोना काल में लगने लगा था कि अब इंसान की सोच थोड़ी बेहतर होगी, मन शायद निर्मल होने लगेगा, हृदय कुछ और संवेदनशील होगा, इंसानों और भावनाओं की क़द्र होने लगेगी पर यहाँ तो हर तरफ़ समाज का दोहरा, भद्दा और वीभत्स चेहरा ही नज़र आ रहा है!
- प्रीति 'अज्ञात'

रविवार, 12 जुलाई 2020

मेरे लिए तो A फॉर अमिताभ ही है

उन दिनों जब एक नए नवेले नायक को 'एंग्री यंग मैन' कहा जा रहा था लगभग तभी ही मेरा इस दुनिया में पदार्पण हुआ. इसलिए कह सकती हूँ कि जब से होश सँभाला है स्वयं को अमिताभ के युग में ही पाया. मैं और मुझसे कई उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं जो अमिताभ के नायक से महानायक बनने की पूरी यात्रा में साथ-साथ चले हैं. उनके गीतों को गुनगुनाया है. उनके संवादों संग अठखेलियाँ कर अपनी मोहब्बत में हजारों रंग भरे हैं. 
उन दिनों शहर के चौराहों और कई प्रमुख स्थानों पर फिल्मों के पोस्टर लगा करते थे. रिक्शे पर लाउडस्पीकर लगाकर भी नई फ़िल्मों के लगने ('रिलीज़' शब्द तब अंचलों तक पहुँचा ही नहीं था) की सूचना दी जाती थी. स्कूल जाते समय इन पोस्टरों को देखने रुक जाती और नाम पढ़ती कि किस टॉकीज़ में कौन सी फ़िल्म लगी है. अमिताभ के पोस्टर पर आँखें जैसे ठहरी ही रहतीं.

चम्बल का इलाक़ा था और छोटा शहर. प्रायः नई फ़िल्में यहाँ उसी दिन देखने को नहीं मिलती थीं. कुल तीन सिनेमा हॉल थे, बाद में एक और बन गया था. दो ही तरह की फ़िल्में यहाँ ख़ूब चलतीं. या तो डकैतों पर बनी हों या अमिताभ की हों. कुल मिलाकर मेरे शहर भिंड का एक्शन से भरपूर सम्बन्ध था तो ऐसे में सबको मुँहतोड़ जवाब देने वाला 'विजय' हमेशा ही भाता रहा. अन्य किसी भी तरह की फ़िल्म कब आती और कब उतर जाती, पता भी नहीं चलता था. ये अपने भिया अमिताभ का ही जादू ऐसा था कि हमेशा सबके सिर चढ़कर बोलता. उनकी फ़िल्में हफ़्तों चलतीं, कभी-कभी महीनों भी. टिकट-खिड़की पर धक्का-मुक्की, मारामारी यहाँ तक कि ब्लैक में भी टिकटें बिका करतीं. अब चूँकि ये अमिताभ बच्चन हैं तो लोग खड़े होकर भी इनकी फ़िल्में देखने को तैयार रहते क्योंकि जहाँ ये खड़े होते हैं, लाइन तो वहीं से शुरू होती है. आपको बता दूँ, उन दिनों शो हॉउस फुल होने के बाद अतिरिक्त कुर्सियाँ और बेंच लगा दी जाती थी. जब ये बेंचें भी भर जाया करती थीं, तब लोग खड़े होकर भी अपने नायक की एक झलक पाने को तत्पर रहते थे. इधर अपने अमिताभ की एंट्री हुई, उधर तालियों और सीटियों से हॉल गूँजने लगता और ख़लनायक (Villain) की पिटाई के दौरान तो जो सिक्के उछाले जाते कि पूछिए मत! ये जज़्बा जो अमित जी के लिए उमड़ता रहा न, वो मैंने कभी किसी के लिए नहीं देखा. अजी, तब तो लोग पागल हो जाते थे. अभी मल्टीप्लैक्स में फ़िल्में देखने का वो मज़ा नहीं है और इस तरह का पागलपन भी जरा कम ही देखने को मिलता है. पागलपन नहीं, दीवानगी ही समझिये इसको. पर भैया, अब जो है सो है. उनके जैसा हेयर स्टाइल, बैलबॉटम, चलने का अंदाज़ सब कुछ कॉपी किया जाता. उनके संवाद बच्चे-बच्चे को याद रहते और नृत्य की अनोखी शैली से तो हम सब परिचित हैं ही.  

अपना ये हीरो ग़र अख़बार भी पढ़े न तो अपन तो आवाज़ सुन ही होश खो बैठें. ये हीरो जब बोलता है तो आवाज़ सीधे दिल की घाटी में उतर जाया करती है, जब हँसता-हँसाता तो मैं भी उसके साथ और बाद में भी घंटों हँसती, वो उदास होता या उसका दिल टूटता तो मुझे बेहद गुस्सा आता. यूँ लगता कि नहीं यार! मेरे लंबू को कुछ नहीं होना चाहिए. उसके ग़म में मैं भी जार-जार रोती. ये वही हीरो है जिसने मुझे अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ने और डटे रहने की प्रेरणा दी. जो हर मुसीबत से निकल पाने की सीख देता रहा, जिसने हर ज़ुल्म का प्रतिरोध किया. क्या करें, तब फिल्मों का असर इतना गहरा ही होता था, असल ज़िंदग़ी से जुदा नहीं लगा करती थीं. मनोरंजन का एकमात्र साधन यही था जिसने तमाम युवाओं के मन में सपनों के हजार बीज बो दिए थे. मेरे हृदय में भी 'हीरो' की छवि में एक साँवला, लंबा और गहरी आँखों वाला युवक उभरने लगा था.  मैं उनकी तस्वीरें भी जमा करती थी और उनसे जुड़ी ख़बर पाने के लिए ही अख़बार पलटा करती. आलम ये था कि कोई उनके विरुद्ध एक शब्द भी कह दे तो अपन उससे सीधा भिड़ जाते. अमिताभ के लिए कुछ भी गलत सुनना न तो तब ग़वारा था और न अब है. आगे भी नहीं होगा.

अमिताभ की फ़िल्में ही नहीं बल्कि उनके व्यक्तित्व और जीवन से भी बहुत पाठ लिए जा सकते हैं. उन्होंने ही सिखाया कि संघर्षों से कैसे जीता जा सकता है, मुश्क़िल समय में मन नहीं हारना है और ये वक़्त भी गुज़र जाएगा. उनकी भाषा, बोलने का सलीक़ा और विनम्रता देख लोग सभ्यता का पाठ समझते हैं. उनका मौन भी मुखर होता है. वे हर पीढ़ी के आदर्श रहे. अपने बाबूजी के ये प्रेरणास्पद शब्द वो अक़्सर कहते हैं -
 "तू न थकेगा कभी,
तू न रुकेगा कभी,
तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ'
ये शब्द जब अमिताभ की आवाज़ पा जाते हैं तो तन-मन में एक अद्भुत ऊर्जा का संचार कर देते हैं.

हिन्दी सिनेमा का महानायक और दादा साहब फ़ालके पुरस्कार प्राप्त यह अभिनेता अपने आप में एक संस्थान है. एक युग है. अमिताभ, अभिनय की वो पाठशाला हैं जो अपने जीवन के पचास से भी अधिक वर्ष सिनेमा को समर्पित कर इसे समृद्ध करते रहे हैं और टीवी पर भी अपना जलवा ख़ूब बिखेरा है. अब भी बिखेर रहे हैं और हम सब को केबीसी के नए सीज़न का बेताबी से इंतज़ार भी है. अमिताभ सा दूजा न कोई हुआ है, न होगा. पक्का यक़ीन है कि मुसीबतों को मात देने वाला हमारा 'विजय' इस बार भी शीघ्र ही घर लौटेगा.

याद है अमित जी, बाबूजी ने एक अनुवादित कविता में क्या कहा था? पढ़िए तो जरा -
अभी कहाँ आराम बदा
यह मूक निमंत्रण छलना हैं,
अरे अभी तो मीलों तुमको,
मीलों तुमको चलना है.
स्वस्थ होकर घर आइए. हम सबको केबीसी और आपकी आने वाली फ़िल्मों की प्रतीक्षा है. लेकिन उससे भी पहले आपके और अभिषेक के स्वस्थ होने की ख़ुशी में जलसा भी तो करना है न!
देश भर का अपार स्नेह और सारी प्रार्थनाएं आपके नाम.
Get Well Soon, Sir 🌺
https://www.ichowk.in/cinema/amitabh-bachchan-and-abhishek-bachchan-got-infected-with-covid-19-stressed-fans-praying-for-big-b-recovery-get-well-soon-big-b/story/1/17955.html
- प्रीति 'अज्ञात'  
#Amitabh_bachchan #BigB #Angry_Young_Man #AbhishekBachchan #Covid19 #coronavirus #iChowk
Photo Credit: Google

मंगलवार, 7 जुलाई 2020

प्रेम को जीना इसे कहते हैं!

कुछ मित्रों के आग्रह पर अश्विन जी और मल्लिका जी के चैट उपन्यास 'यू एन्ड मी...द अल्टिमेट ड्रीम ऑफ़ लव' पर मेरे द्वारा लिखी गई भूमिका यहाँ साझा कर रही हूँ। यह जून 2019 में लिखी गई थी। संदर्भ: https://preetiagyaat.blogspot.com/2020/07/blog-post_7.html
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प्रेम की कोई एक स्थायी परिभाषा कभी बनी ही नहीं। यह संभवतः चंद मख़मली शब्दों में लिपटी गुदगुदाती, नर्म कोमल अनुभूति है। आँखों के समंदर में डूबती कश्ती की गुनगुनाती पतवार है। एकाकी उदास रातों में अनगिनत तारे गिनती, स्मृतियों के ऊँचे पहाड़ों के पीछे डूबती साँझ  है। प्रसन्नता के छलकते मोती हैं या फूलों में बसी सुगंध है। अनायास उभर चेहरे को लालिमा की चादर ओढ़ाती मधुर मुस्कान है।
हम सबके जीवन में कोई न कोई ऐसा इंसान अवश्य ही होता है जिससे अपार स्नेह हो जाता है, दिल उसे हमेशा प्रसन्न देखना चाहता है और हर दुआ में उसका नाम ख़ुद-ब-ख़ुद शामिल होता जाता है। यद्यपि यह बिल्कुल भी आवश्यक नहीं कि उस इंसान की भावनाएँ भी आपके प्रति ठीक ऐसी ही हों। ऐसा होना अपेक्षित भी नहीं होता है, फिर भी कुछ बातें गहरे बैठ जाती हैं। दुःख देती हैं लेकिन धड़कनें तब भी हर हाल में उसी लय पर थिरकती हैं। उसकी तस्वीर को घंटों निहार कभी ख़ुशी तो कभी निराशा के गहरे कुएँ की तलहटी तक उतर जाती हैं। यह सारी जादूगरी प्रेम की ही देन है।
क्या पल भर की मुलाक़ात, चंद बातें और एक प्यारी-सी हँसी भी प्रेम की परिभाषा हो सकती है? होती ही होगी...वरना कोई इतने बरस, किसी के नाम यूँ ही नहीं कर देता! आप इसे इश्क़/मोहब्बत/प्यार /प्रेम या कोई भी नाम क्यों न दे दें, इसका अहसास वही सर्दियों की कोहरे भरी सुबह की तरह गुलाबी ही रहेगा। इसकी महक जीवन के तमाम झंझावातों, तनावों और दुखों के बीच भी जीने की वज़ह दे जाएगी।
प्रत्येक प्रेम कहानी का प्रारंभ प्रायः एक सा ही होता है। भीड़ के बीच दो क़िरदार मिलते हैं, कभी कहानी बनती है तो कभी बनते-बनते रह जाती है। सारा खेल कह देने और न कहने के मध्य तय होता है। जीवन की दौड़ और समय के बहाव में कोई एक क़िरदार इतना आगे निकल जाता है कि पलटकर आता ही नहीं और एक मौन कहानी ठिठककर, सकुचाई-सी वहीं खड़ी रह जाती है। उसके बाद की गाथा समाज तय करता है, 'दुखांत', 'सुखांत' या 'एकांत'!

इन दिनों सोशल मीडिया और इस पर फलते-फूलते आभासी प्रेम की सैकड़ों कहानियाँ पढ़ने को मिलती हैं। पानी के बुलबुले-सा जीवन जीती ये तथाकथित प्रेम कहानियाँ लाइक, कमेंट, इनबॉक्स से होती हुई देह तक पहुँचती हैं और कुछ ही माह पश्चात् आरोप-प्रत्यारोप, स्क्रीन शॉट और ब्लॉक की गलियों में जाकर बेसुध दम तोड़ देती है। यह कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगी कि अंतरजाल की दुनिया ने रिश्तों को जोड़ने के स्थान पर तोड़ने का कार्य अधिक किया है। लेकिन यह भी चिरकालिक सत्य है कि सच्चे प्रेम को कोई डिगा नहीं सकता! इन्हीं ख़्यालों से गुजरते हुए मैं एक ऐसे ही उपन्यास 'यू एन्ड मी...द अल्टिमेट ड्रीम ऑफ़ लव' से रूबरू होती हूँ तो यही सोशल मीडिया ईश्वर के दिए किसी वरदान सरीख़ा प्रतीत होता है।
पैंतालीस वर्षों के दीर्घ अंतराल के बाद सोशल मीडिया की इसी आभासी दुनिया में इस उपन्यास के लेखक युग्म मल्लिका और अश्विन का मिलना, किसी खोए हुए स्वप्न को खुली आँखों में भर लेने जैसा है। वो अनकही प्रेम-कहानी, जो अपने समय में जी ही न जा सकी; जब पुरानी स्मृतियों के पृष्ठ पलटती है तो सृष्टि के सब से सुन्दर और सुगंधित पुष्प आपकी झोली में आ गिरते हैं। इनकी महक़ और भावुकता में डूबा हृदय दुआओं से भर उठता है और प्रेम के सर्वोत्कृष्ट रूप से आपका मधुर साक्षात्कार होता है।

यह प्रेम कहानी भी बनते बनते, एक अंतहीन प्रतीक्षा की चौखट पर उम्र भर बाट जोहती अधूरी ही रह जाती है। लेकिन जीवन तब भी उसी निर्बाध गति से चलायमान रहता है। जब कहीं रिक्त स्थान छूट जाता है या छोड़ दिया जाता है तो उम्मीद की सबसे सुनहरी किरण ठीक वहीं से प्रस्फुटित होती है तभी तो एक दिन अचानक वो बचा, छूटा हुआ हिस्सा ही सौभाग्य का चेहरा बन नायिका के मन के द्वार को कुछ इस तरह से खटखटाता है कि उस की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहता! यही प्रेम की वह उत्कृष्टतम अवस्था है, जहाँ प्रिय से अपने हृदय की बात कह पाना और उसकी स्वीकारोक्ति ही सर्वाधिक मायने रखती है। यहाँ न मिलन की कोई अपेक्षा है और न ही समाज का भय। आँसू से भीगे मन और खोई हुई चेतना है! वो प्रेम जो दर्द बनकर वर्षों से नायिका के सीने में घुमड़ रहा था, उसकी अभिव्यक्ति अपने प्रिय के समक्ष कर देना ही सारी पीड़ा को पल भर में हर लेता है। उसके बाद जो नर्म अहसास शेष रहता है, वही प्रेम का चरम सुख है।

कहते हैं, जो पा ही लिया तो प्रेम क्या और उसकी चर्चा क्या? प्राप्य के बाद कुछ भी सम्भाव्य शेष नहीं रहता। प्रेम की महत्ता पाने से कहीं अधिक उसे खोकर जीने में है। अश्विन और मल्लिका की प्रेम गाथा को पढ़ते हुए इन्हीं गहन सुखद अनुभूतियों से पाठक का साक्षात्कार होता है। यह उपन्यास प्रेम पर टिके हर विश्वास को और गहरा करता है साथ ही इस बात की पुष्टि करने से भी नहीं चूकता कि सच्चा प्रेम कभी नहीं हारता, बल्कि शाश्वतता की ओर बढ़ता चला जाता है!
यह उपन्यास समाज के उस कुरूप चेहरे को भी बेपर्दा करता है जहाँ खोखली परम्परा और मान्यता के नाम पर बनाए खाँचे में फिट होने पर ही किसी रिश्ते को सर्वमान्य किया जाता है। साधारण रंगरूप की नायिका, नायक से अथाह प्रेम करने के बाद भी उससे अपने दिल की बात यह सोचकर नहीं कह पाती कि भला इतना सुदर्शन युवक उसकी प्रेमपाती क्यों पढ़ेगा? फिर समाज ने तो धर्म के चश्मे से ही दिलों को परखा है धड्कनों को गिनना तो वह आज तक नहीं सीख पाया! आज से पैंतालीस वर्ष पहले इस किशोरी नायिका का यह भय स्वाभाविक ही था कि हिन्दू लड़की और ईसाई युवक का सम्बन्ध यह रूढ़िवादी समाज कभी स्वीकार नहीं करेगा। वो एक तरफ़ा प्रेम करती रही, इधर नायक भी अत्यधिक संकोची एवं अंतर्मुखी होने के कारण न तो उस किशोरी के हृदय की तरंगों को सुन पाया और न ही उससे दोस्ती का हाथ बढ़ा पाया।

परिवार के प्रति अपने कर्त्तव्यों का पूर्ण एवं बेहतरीन तरीके से निर्वहन करते हुए भी कथा नायिका चार दशकों से भी ज्यादा समय तक न केवल उसकी स्मृतियों को जीवंत बनाए रखती है अपितु उससे जुड़ी तमाम तस्वीरें भी अपने पास सुरक्षित रख पाती है। फिर एक दिन अपने कॉलेज काल के प्रिय साथी को सोशल मीडिया पर ढूँढ निकालती है। अपने संक्षिप्त परिचय के साथ जब उसकी दुनिया में प्रवेश करती है, हजारों मील दूर बसा नायक खुले दिल से अपनी गलतियों को स्वीकार करते हुए संवाद के जरिये विस्थापन की पीड़ा, अपने समस्त दुःख एवं अस्वस्थता भुला, खुलकर बातें करता है। अपने खोए हुए शौक़ को जीवंत करते हुए संगीत, शेरो-शायरी के बीच अपनी आपबीती कहता है। लोग सही कहते हैं कि यदि आपके साथ एक भी इंसान ऐसा है, जिससे आप अपने सारे दुःख-सुख साझा कर सकते हैं तो आपका जीवन सार्थक है। दिल से जुड़े हुए लोग परस्पर दर्द जैसे सोख लेते हैं।

प्रेम के बीज से अंकुरित इस उपन्यास को प्रेम कहानी भर कह देना इसके साथ अन्याय होगा क्योंकि यह कई सामाजिक विसंगतियों की ओर ध्यान आकर्षित करता है। यह धर्म के नाम पर उठाई गईं दीवारों को तोड़ देने की बात करता है। नई पीढ़ी के युवाओं को महिलाओं के प्रति सम्मान की भावना बनाए रखने का अनुरोध करता है। हमारी शिक्षा-व्यवस्था पर भी कई गहन संवाद करता है। विदेशों में रहने वाले भारतीयों को लेकर हमारे समाज में जो भ्रांतियाँ स्थापित की गईं हैं, यह उपन्यास उन पर भी करारा प्रहार करता है। पैसे कमाने के लालच में कई बार विदेश जाने वाले लोगों को किस-किस तरह की परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है और उनका जीवन किस दुश्चक्र में फँस जाता है कि उनसे न आते बनता है, न वहाँ रहते; यह अमीरी के उस भ्रामक मापदंड की भी स्पष्ट और सटीक विवेचना करता है। अपने वतन से बिछड़ने का दर्द भी जाहिर करता है।
अपने-अपने जीवनसाथी से रिश्तों की मजबूती निभाते हुए, अपने परिवार के प्रति सम्पूर्ण समर्पित होते हुए भी मल्लिका जी और अश्विन जी ने अपने-अपने जीवन की सच्ची दास्तान लिखने का जो साहस दर्शाया है, आप उसकी प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकते। कथा नायक अश्विन और उसकी पत्नी के रिश्ते को भी बहुत सुन्दर तरीके से बताया गया है कि करीब चार साल तक विवश हो अलग रहने और तमाम कठिनाइयों का सामना करने के बाद अंततः वह अपनी पत्नी और बेटी के पास अमेरिका पहुँच ही जाता है। ठीक उसी तरह कथा नायिका मल्लिका भी एक सहपाठी के साथ दोस्ती और प्रेम की भूलभुलैया में उलझकर चरम मानसिक संघर्ष से गुजरती है तभी एक अत्यधिक सुलझा हुआ, संवेदनशील एवं समझदार इंसान उसे जीवनसाथी के रूप में मिल जाता है, जिससे वह अपने दिल की सारी बातें बेझिझक साझा कर सकती है।

मुझे पूरा विश्वास है कि चैट पर आधारित यह उपन्यास प्रेम के शाश्वत रूप को और भी गहराई से स्थापित करेगा तथा पाठकों तक यह सन्देश भी पहुँचायेगा कि जब किसी से प्रेम हो तो उस पक्ष को अपनी बात निस्संकोच कह ही देना चाहिए। अधिक से अधिक क्या होगा? ‘न’ हो सकता है और क्या? पर प्रणय निवेदन न कर पाने का उम्र भर दुःख मनाने से कहीं श्रेष्ठ है उसे कह देने की प्रसन्नता पाना।
थोथी इज़्ज़त के नाम पर घृणा और हिंसा में डूबते समाज में ढाई आख़र के प्रेम की यह गाथा शीतल बयार की तरह है। इन गाथाओं का जीवित रहना और बार-बार कहे जाना नितांत आवश्यक है कि मानवीय संवेदनाओं का मान बना रहे और प्रेम को उसकी शाश्वतता के कारण चिरकाल तक बिसराया न जा सके।

स्थल और काल से परे, प्रेम को परिभाषित करती इस उपन्यास की कहानी, वर्तमान पीढ़ी के लिए भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कि आज से पैंतालीस वर्ष पूर्व थी। युवाओं को यह भी सीखने को मिलेगा कि देह से इतर प्रेम कितना ख़ूबसूरत और परिपक्वता लिए होता है। समाज के बनाए हुए निरर्थक नियमों के चलते अथाह पीड़ा से गुजरकर, नियमों के दायरे को तोड़कर; प्राप्य की इच्छा से कोसों दूर आत्मिक श्रेष्ठता की अनुभूति कर पाना वास्तव में प्रेम का चरम बिंदु है।
मैं नहीं चाहती कि इस श्लाघनीय उपन्यास में आपके आनन्द में रत्ती भर भी कमी आये और दोहराव लगे, इसीलिए मैं संवादों को यहाँ लिखने से बच रही हूँ। अंत में पाठकों से इतना ही कहूँगी, अपनी-अपनी कहानी का अंतिम पृष्ठ हमारे भरने के लिए ही होता है, आप भी उसे इंद्रधनुषी रंगों से सराबोर कर दीजिए!
-प्रीति 'अज्ञात'

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#सपनों के राजकुमार की बात, केवल सपना ही नहीं होती!


पता नहीं! लड़के अपनी 'सपनों की राजकुमारी' की कल्पना करते हैं या नहीं लेकिन एक अल्हड़-सी उम्र की लड़कियाँ तो अपने सपनों के राजकुमार के बारे में बहुत सोचती हैं. उसकी कल्पना भी ज़रूर ही करती हैं. धड़कनें जब जवां होने लगती हैं तो ह्रदय में चाहत के तमाम पुष्प अनायास ही महकने लगते हैं. अचानक ही एक दिन कोई चेहरा आ टकराता है और दिल सारे ग़म भूल खुलकर मुस्कुराने लगता है. यूँ महसूस होता है कि जैसे जीवन की सारी तलाश ही ख़त्म हो गई. जैसे कोई डूबती नैया, लहरों पर थिरक कौतुक भर साहिल का माथा चूमने लगी हो. जैसे ईश्वर के हाथों गढ़ी सबसे सुंदर कृति से हमारा साक्षात्कार हो रहा हो! 'प्रेम' यही तो होता है. ऐसा ही तो होता है.

यही प्रेम मल्लिका को भी हुआ, जब उसने अश्विन को पहली बार देखा. इतना सुदर्शन युवक कि किसी की भी आँखें, उसके चेहरे से हटें ही न कभी! मल्लिका का मन भी जैसे ठहर गया था वहीं. वह और अश्विन एक ही कॉलेज में थे. मल्लिका स्वयं को दर्पण में देखती और अपने भीतर की उसी हीन भावना से लड़ती; जिसने उसके हृदय में बचपन से ये बात बिठा रखी थी कि साँवली लड़कियाँ सुन्दर नहीं होतीं.
वह अश्विन की एक झलक पाने को बेक़रार रहती लेकिन सामने आते ही नज़रें झुका लेती. अश्विन को थिएटर और संगीत का शौक़ था. मल्लिका उसका हर प्ले देखती. कॉलेज की पत्रिका में से उसकी तस्वीर सँभाल लेती परन्तु प्रेम का इज़हार करने को आतुर मन न जाने क्यों उसे रोक देता. वो इस बात से भी डरती थी कि दोनों के धर्म अलग हैं और परिवार कट्टर; न जाने क्या हो जाए. अनुकूल कहने को कुछ था ही नहीं. हाँ, वो इस अनकहे प्यार को कविता में ढालने लगी थी. ये अबोला प्यार भला कैसे मुख़र होता! वही हुआ, अश्विन, मल्लिका के हृदय से अनजान ही रहा.

समय बीतता गया और इस हद तक बीता कि दोनों को एक-दूसरे की कोई ख़बर तक न थी. अपनी-अपनी ज़िन्दग़ी में रमे दो लोग घर-परिवार, नौकरी के दायित्वों को भरपूर शक्ति और संज़ीदग़ी से निभाते रहे. मल्लिका एजी ऑफिस के एक बड़े पद से रिटायर हो चुकी थी. लिखने का शौक़ अब तक जीवित था उसका. साथ ही एक आस भी कहीं पल रही थी कि क़ाश! एक बार अश्विन को कह सके कि वो उसे कितना पसंद करती थी.
कहते हैं न, 'जहाँ चाह, वहाँ राह!' तो सोशल मीडिया का यह युग इस अधूरी कहानी के लिए जैसे वरदान साबित हुआ. पूरे पैंतालीस वर्षों बाद मल्लिका ने अश्विन को ढूँढ निकाला. जीवन के सात दशक जी चुका, बीते समय का वह सुदर्शन युवक अब कैलिफोर्निया, अमेरिका का निवासी था. 

प्रेम का सबसे ख़ूबसूरत और सच्चा रूप यही होता है जब उससे जुड़ी कोई अपेक्षाएँ न हों. बस जिगरी दोस्त सा कोई साथी हो जो इस प्रेम को स्वीकार भर कर ले, उतने में ही जीवन सार्थक लगने लगता है. एक उम्र के बाद न तो देह की अभिलाषा होती है और न कोई अन्य चाहत. उस समय केवल दो दिलों की मीठी सरगम बेधड़क, शब्दों की लय पर जीवन गान करती है. यही प्रेम की पराकाष्ठा है जहाँ मन एक दूसरे के भीतर इस तरह समा जाएँ कि दूरियों से कोई गिला-शिक़वा रहे ही न कभी.

घर-परिवार के प्रति दोनों ने ही अपनी सारी ज़िम्मेदारियाँ बख़ूबी निभाईं और अपनों को प्रेम भी जी-भरकर किया. लेकिन ये जो क़सक थी न वर्षों से, उसको कह देना अब जरुरी ही था. मल्लिका के पास अब खोने को कुछ नहीं था. इस उम्र में परिपक्वता भी अपने चरम पर होती ही है. सो एक दिन उसने हिम्मत जुटाकर अश्विन को उस षोडशी के मन की बात कह दी. अश्विन जो कि इस गुज़रे सच से अनभिज्ञ था, हैरत में पड़ गया. उसने न केवल मल्लिका की भावनाओं का आदर किया बल्कि उन पलों के लिए ख़ेद भी व्यक्त किया जबकि वह तो दोषी था भी नहीं!

अब इन बिछड़े दोस्तों में रोज़ ऑनलाइन chat  होने लगीं. शुरुआत दोनों के बीते दिनों से हुई और फिर धीरे-धीरे इसमें जीवन के हर क्षेत्र से जुड़ी चर्चा शामिल होने लगी. इस स्नेह-बंधन ने इनके जीवन में ख़ुशी के हजारों दीप जला दिए थे जैसे. अश्विन कैंसर से लड़ रहा था लेकिन मल्लिका के आगमन ने उसे ढेरों साँसें दे दी थीं. वो अब अपने पुराने शौक़ को भी जीने लगा था. उसकी इच्छा थी कि क्यों न उनकी कहानी और बातचीत को पुस्तक का जामा पहना दिया जाए! मल्लिका को भी यह बात जँची और फिर उनकी कहानी में मेरा आगमन हुआ.
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प्रेम पर मेरे लिखे कई आलेख पढ़े थे उन्होंने. उन्हें इस बात का पूरा यक़ीन था कि उनके प्रेम को अगर कोई सही तरह से अभिव्यक्त कर सकता है तो वो मैं हूँ. क्या कहती मैं! प्रेम के हर भाव पर लिखा है, बेसाख़्ता लिखा है लेकिन हरेक की तरह एक खाली कोना मेरे मन में भी रहा करता था, शायद यह उसी का आग्रह था कि मैंने उनकी पुस्तक की भूमिका लिखने के लिए स्वीकृति दे दी. अगले ही दिन उन्होंने इसकी पाण्डुलिपि मुझ तक पहुँचा दी. इस कहानी के पात्र और घटनाएँ काल्पनिक नहीं थीं. कहीं-न-कहीं दिल से दिल का रिश्ता जुड़ ही जाया करता है. इस फ़ाइल को मैंने न जाने कितनी बार पढ़ा और हर बार मन भीगता ही रहा. अनगिनत रातों तक यह कहानी मुझे उदास करती रही. रोज़ ही मेरा मन, मेरा हाथ थाम मुझे न जाने किन गहरी घाटियों में चुपचाप तनहा छोड़ लौट आता. 

मैं इस कहानी के एक पात्र को तो जानती थी और दूसरे को जानने की इच्छा बलवती होने लगी थी. मेरी क़िस्मत ही कहिये कि एक दिन अश्विन जी का मित्रता निवेदन आया जिसे मैंने पलक झपकते ही स्वीकार कर लिया. मैं उनकी बेटी की तरह ही थी. वो कभी-कभार मैसेज करते और प्रशंसा भी. मैं संकोच से भर जाती. मेरा कई बार उनकी तबीयत जानने का मन करता परन्तु इस 'कैंसर' शब्द ने न केवल मेरे अपनों को मुझसे छीना बल्कि मुझे भी इस हद तक तोड़ा है कि मैं उनसे इस विषय पर बात करने से ही डरती थी. बस, आदतन एक स्माइल भेज देती फिर मल्लिका जी से उनका हालचाल पूछ लेती. 
मेरी पोस्ट पर कई बार जब अंग्रेज़ी में कमेंट करते तो तुरंत ही इसके लिए ख़ेद भी प्रकट करते. उनकी हिन्दीअच्छी थी. फेसबुक में कभी टाइपिंग की दिक्क़त हो ही जाती है. मैं मानती हूँ कि अभिव्यक्ति कभी भाषा की मोहताज़ नहीं होती, उसके लिए तो बस एक मोती-सा मन चाहिए होता है, जो अश्विन जी के पास था. उन्हें क्या पता था कि मेरे लिए तो उनकी उपस्थिति ही एक आशीर्वाद की तरह थी. वरना मेरा-उनका क्या रिश्ता था! उन्हें जितना भी जाना, मल्लिका जी के माध्यम से ही. उनकी भोली बातों पर जितना हँसी हूँ, उन्हें आवाज़ मल्लिका जी ने ही दी थी. उनकी परेशानियों में जो अश्रुधार बही है, उसका स्त्रोत भी उनकी सबसे प्यारी दोस्त मल्लिका ही थी. 

चैट उपन्यास 'यू एन्ड मी...द अल्टिमेट ड्रीम ऑफ़ लव' छपकर आ चुका था. उससे सम्बंधित कार्यक्रम हुए. पुस्तक को बहुत सराहना भी मिली. मेरी भूमिका अब ख़त्म हो जानी चाहिए थी. पर पता नहीं क्यों! कुछ न होते हुए भी मैं अब भी उनकी कहानी का हिस्सा बन रही थी. आप इसे 'बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना' समझ सकते हैं. मैं चाहती थी कि कैसे भी करके एक बार उन दोनों की मुलाक़ात हो जाए. मैंने अश्विन जी को भारत आने का न्योता भी दिया. अहमदाबाद के हैं तो यहीं आते. 
सपनों की दुनिया में अक़्सर भटकती हूँ. मन-ही-मन उन दोनों के लिए एक सरप्राइज़ पार्टी का प्लान भी कर  बैठी थी. हालाँकि तब अश्विन जी का स्वास्थ्य, यात्रा की अनुमति नहीं दे रहा था पर कभी तो आएँगे; इस बात को लेकर एक आश्वस्ति सी थी. मार्च में Covid-19 की दस्तक़ के साथ ही दुनिया भर के मंसूबों पर पानी फिर गया.
 
अचानक ही ख़बर मिली कि अश्विन जी हम सब को छोड़ उस दुनिया की यात्रा को निकल चुके हैं, जहाँ से कोई भी आज तक कभी लौटकर नहीं आया. किसी और के लिए न सही पर आपको अपने परिवार, बच्चों और वर्षों बाद मिली इस प्यारी दोस्त मल्लिका के लिए थोड़ा सा तो ठहरना था,अश्विन जी.  मुझे दुःख है कि मैं आपसे न मिल सकी पर आपकी मल्लिका की आँखों में एक राजकुमार देखा है. वो जो प्रेम है न, वो यथावत है. दुनिया बदल जाए पर प्रेम कहाँ बदलता है! वो तो रहेगा सदा. 
आप चाहे इसे कोई भी नाम दें लेकिन मेरे लिए तो ये ख़ालिस प्रेम था. एक ऐसा प्रेम, जहाँ केवल और केवल एक-दूसरे की परवाह थी. जो किसी मुलाक़ात का मोहताज़ नहीं था. जहाँ शेरो-शायरी का भी कोई काम नहीं था. बस दो दिल थे और उनमें रची-बसी पवित्र भावनाएँ! यदि एक अश्विन या एक मल्लिका हम सबके जीवन में हों, तो उससे ख़ूबसूरत और कुछ नहीं हो सकता!
सब कुछ नष्ट हो जाने के बाद भी जो शेष रहता है, वो प्रेम ही है. जीवन का अंतिम सत्य भी 'प्रेम' के अलावा कुछ नहीं!
अश्विन जी, आप जहाँ भी रहें, प्रसन्न रहें. मैं जानती हूँ आप इस नेह-बंधन को सदा महसूस करते रहेंगे. ख़ूब सारा स्नेह आपको. 

इन दोनों के परिवार भी जुड़ चुके हैं. मैसेज द्वारा बातें होती हैं. अश्विन जी की बेटी ने मल्लिका जी से वादा किया है कि "पापा तो नहीं आ सके पर मैं आपसे मिलने इंडिया जरूर आऊँगी." तुम्हारे पापा की इस अधूरी मुलाक़ात का सपना पूरा करने के लिए, दिल से तुम्हारा स्वागत और धन्यवाद हिरवा. 
-प्रीति 'अज्ञात'
फ़ोटो: अश्विन जी के ISRO, अहमदाबाद के कार्यकाल के दिनों की 
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सोमवार, 6 जुलाई 2020

#COVID19 vaccine क्या 15 अगस्त तक आ पाएगी?

15 अगस्त तक कोरोना वैक्सीन (Corona Vaccine) आ जाने को लेकर ICMR का एक पत्र वायरल हो रहा है. यह पत्र असली है. लेकिन जो बातें कही गई हैं, उनके लिए बस इतना समझ लीजिए कि ‘दिल के ख़ुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है!’

यहां यह जान लेना भी महत्वपूर्ण है कि यह आंतरिक पत्र था, जो लीक हो गया है. दरअसल, भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) ने अपने चुने हुए संस्थानों को यह आदेश दिया है कि ‘कोरोना वैक्सीन का क्लिनिकल ट्रायल 7 जुलाई से पहले शुरू हो और 15 अगस्त से पहले ख़त्म हो जाए, जिससे 15 अगस्त को इसे लॉन्च किया जा सके. यदि आपने ऐसा नहीं किया तो इसे अवज्ञा मानकर गंभीरता से लिया जाएगा!’ अपने इस पत्र के कारण ICMR के डायरेक्टर का पूरी दुनिया में मजाक बनाया जा रहा है. कोई और ये बात कहता तो हंसकर टाली जा सकती थी, लेकिन पूरी प्रक्रिया को जानने-समझने वाला व्यक्ति किन परिस्थितियों में ऐसा बोल सकता है, यह आश्चर्य और शोध का विषय है.

ख़ैर! एक सच और जान लीजिए कि ये देशभर की कंपनियों के लिए धमकी नहीं थी, बल्कि उनके अपने चुने 12 सेंटर्स को लिखा गया पत्र है. जो इस विषय को नहीं समझते, वे बस इतना ही जान लें कि वैज्ञानिकों पर किसी भी प्रक्रिया को झटपट पूरा करने का दवाब डालना पूरी मानव जाति के साथ अन्याय है. विज्ञान को थोड़ा समझिए, यह लफ़्फ़ाज़ी से नहीं चलता, बल्कि प्रयोगों, परिणामों और विश्लेषणात्मक अध्ययन की कई प्रक्रियाओं के बाद ही अंतिम नतीज़े तय करता है.

कोरोना वैक्सीन बनाने की प्रक्रिया न केवल जटिल है, बल्कि एक निश्चित अनुशासन और धैर्य की मांग भी करती है. हां, अभी तक के सकारात्मक परिणामों को देखते हुए दिसंबर 2020 तक इसके आ जाने की पूरी उम्मीद है. मानकर चलिए कि यह सबसे तेज गति से बनने वाली वैक्सीन ही होगी. सामान्यतः कंपनीज़ को विभिन्न स्तरों पर मंज़ूरी लेने में ही महीनों लग जाते हैं और एक वैक्सीन को तैयार होने में 3 से 4 साल तक का या उससे भी ज्यादा समय लगता है. सुखद पक्ष यह है कि इस बार सरकार काग़ज़ी कार्यवाही में समय जाया नहीं कर रही और वैज्ञानिक दिन-रात एक कर इस वैक्सीन के निर्माण में व्यस्त हैं.

क्या है Animal Testing और क्यों की जाती है?
सुरक्षा महत्वपूर्ण मुद्दा है. सकारात्मक परिणाम मिले बिना मनुष्यों को ख़तरे में नहीं डाला जा सकता. इसीलिए कोई भी दवा या वैक्सीन की पहले एनिमल टेस्टिंग (Animal Testing) की जाती है. वैज्ञानिकों द्वारा यह परीक्षण (Testing) लैब में मुख्यतः कुतरने वाले जन्तु (rodents), जैसे- White Mice, Guinea pig, Rats, Rabbits पर किया जाता है. कभी-कभी अतिरिक्त सुनिश्चितता (Surity) हेतु Monkeys भी लिए जाते हैं. वैक्सीन इंजेक्शन के द्वारा दी जाती है. जीवों को न्यूनतम (Minimum) डोज़ देकर सबसे पहले उनकी एंटीबॉडीज़ उत्पन्न करने की क्षमता (Effectiveness test) जांची जाती है. इसमें इंजेक्शन देने के बाद कम-से-कम 15 दिन रुकना होता है, क्योंकि एंटीबॉडीज़ डेवलप होने में इतना समय लेती है. उसके बाद safety test द्वारा इसके सुरक्षित (Safe) होने का अध्ययन किया जाता है. यदि उनमें कोई भी असामान्यता नहीं देखी जाती और उनका व्यवहार, खान-पान सब ठीक रहता है तो इसका मतलब कि वैक्सीन सेफ़ है.

सेफ्टी स्टडीज़ में जन्तु के सभी अंगों (organs) का विस्तृत अध्ययन किया जाता है कि कहीं किसी भी ऑर्गन पर इस वैक्सीन का कोई दुष्प्रभाव (Adverse Effect) तो नहीं पड़ा है! यदि किसी भी ऑर्गन में कुछ दुष्प्रभाव देखने को मिला तो उसी समय वैक्सीन पर प्रश्नचिह्न लग जाता है. यदि परिणाम अनुकूल हैं तो इन आंकड़ों के आधार पर रिपोर्ट तैयार होती है. संतोषजनक परिणाम आने के बाद ही सरकार क्लिनिकल ट्रायल की अनुमति देती है.

ह्यूमन (Clinical) ट्रायल्स क्यों महत्वपूर्ण हैं?
मनुष्य आकार में तुलनात्मक रूप से बड़े होते हैं. जंतुओं (Animals) के जो रिज़ल्ट आते हैं, जरूरी नहीं कि वही शत-प्रतिशत परिणाम मनुष्यों में भी मिलें. इसलिए सुरक्षा प्रमाणित होने के बाद इन पर विस्तृत अध्ययन की अपनी महत्ता होती है. दोनों प्रजातियाँ (Species) अलग हैं तो रिस्पांस भी भिन्न हो सकता है. दोनों का तंत्र (System) अलग प्रकार से व्यवहार करता है. एनिमल्स में उनके तंत्रों का अध्ययन किया जा सकता है पर अन्य तक़लीफ़ें पता नहीं चलतीं. जबकि मनुष्य बता सकता है कि यहां दर्द है, सिरदर्द हो रहा, उल्टी- चक्कर आ रहे. प्रायः मनुष्यों को भी वही सिमिलर डोज़ दी जाती है, लेकिन इसका कोई निश्चित नियम नहीं है. कभी-कभी इसमें फ़र्क़ भी हो सकता है.

ह्यूमन ट्रायल कैसे होता है?
ह्यूमन ट्रायल Phase 1 में मुख्य रूप से वैक्सीन का सुरक्षित होना देखा जाता है. इसमें 6 से 12 लोगों के ग्रुप्स बनते हैं. इन्हें वैक्सीन की डोज़ दी जाती है. कुछ सब्जेक्ट में Placebo (इसमें कोई ड्रग नहीं होती है) भी दिया जाता है. इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता, लेकिन एक अच्छे वैक्सीन की सेफ्टी Placebo जैसी होनी चाहिए. अलग-अलग कंपनी में डोज़ देने का तरीक़ा अलग हो सकता है. प्रायः पूर्ण रूप से स्वस्थ मनुष्यों को इंजेक्शन द्वारा प्रामाणिक माप की डोज़ दी जाती है. फिर उन्हें 24 घंटे वहीं ऑब्ज़र्वेशन सेंटर में रखा जाता है. जहां उनके रहने-खाने का पूरा ध्यान रखा जाता है. डोज़ देने के पहले इनका ब्लड सैंपल लेकर रिपोर्ट तैयार की जाती है और डोज़ देने के 24 घंटे बाद भी ब्लड सैंपल लेकर यह सुनिश्चित किया जाता है कि कहीं कोई एडवर्स इफ़ेक्ट तो नहीं है और उनका तापमान (Temperature), ECG और सारे पैरामीटर्स सामान्य (Normal) हैं. बहुत ही सावधानीपूर्वक निगरानी (Carefully Monitoring) होती है और आंकड़े तैयार किए जाते हैं.

एक से ज्यादा बार भी क्लीनिकल ट्रायल संभव!
वैक्सीन का प्रभाव देखने के लिए सेकेंड डोज़ की जरूरत भी पड़ सकती है, इसलिए वॉलंटियर को 1 महीने बाद बुलाकर दूसरी डोज़ दी जाती है. चूंकि Safety establish हो चुकी है, इसलिए इस बार वॉलंटियर का रुकना जरूरी नहीं है. इस बार भी पहले की तरह ही ब्लड टेस्ट किया जाता है. जरूरत पड़ने पर तीसरी बार भी यही प्रक्रिया अपनाई जा सकती है. यहां मैं यह स्पष्ट कर दूं कि वैक्सीन परीक्षण (Test) अलग से ख़ून (Blood) लेकर नहीं होता! क्योंकि एंटीबॉडीज़ शरीर में तैयार होती है. वैक्सीन दिए गए मनुष्य का ब्लड लेकर यह स्टडी की जाती है कि एंटीबॉडीज़ डेवलप हुए या नहीं. चूंकि एनिमल टेस्टिंग के पुख्ता प्रमाणों के बाद ही क्लिनिकल ट्रायल्स होते हैं, इसलिए नतीजे सकारात्मक आने की पूरी उम्मीद होती है. दुर्भाग्यवश ऐसा न हुआ तो भी वॉलंटियर सुरक्षित रहता है. हां, प्रयोग असफ़ल माना जाता है.

कुछ ट्रायल एक डोज़ में भी पूरे हो सकते हैं लेकिन कोरोना के लिए कुछ कंपनीज़ एक से अधिक डोज़ के प्रयोग भी कर रही हैं. यदि पहले माह में ही एंटीबॉडीज़ बन जाती हैं तो ये अवधि कुछ कम दिनों की भी हो सकती है. अब प्रयोग सफल मान लिया जाता है. लेकिन नियमों के आधार पर ट्रायल निर्धारित समय अर्थात तीन महीने (अनुमानतः) तो फिर भी चलेगा ही.

हम जानते हैं कि 12 इंसानों के अध्ययन के आधार पर करोड़ों लोगों को वैक्सीन नहीं दिया जा सकता. इसलिए सुरक्षा स्थापित हो जाने के बाद Phase 2 में 100 से 1,000 लोगों पर ट्रायल होता है. Data Safety Monitoring Board और Ethics Committee को Phase 1 का डेटा दिखाया जाता है. उनकी अनुमति के बाद ही यह प्रक्रिया आगे बढ़ती है. बताना चाहूंगी कि 1000 लोगों पर टेस्टिंग कंपनी में न होकर हॉस्पिटल में होती है. कंपनी वैक्सीन सप्लाई कर देती है. जहां डॉक्टर्स अपने-अपने हॉस्पिटल में ट्रायल करते हैं और कंपनी परिणाम के डेटा एकत्रित कर लेती है.

वैक्सीन परीक्षण के लिए कैसे चुने जाते हैं वॉलंटियर?
वैक्सीन परीक्षण के लिए पूर्ण रूप से स्वस्थ लोग लिए जाते हैं. इनका हेल्थ चेकअप होता है. मेडिकल हिस्ट्री देखी जाती है. परखा जाता है कि ये लोग किसी भी तरह की बीमारी से तो ग्रस्त नहीं हैं. मसलन किडनी, लिवर, डायबिटीज़, हार्ट संबंधी समस्याओं की जांच की जाती है. कोरोना संक्रमित या पूर्व कोरोना पीड़ित व्यक्ति वॉलंटियर नहीं हो सकता! कुछ शहरों में वॉलंटियर्स का एक शेयर्ड database होता है. इसमें एक वॉलंटियर एक समय दो जगहों पर नहीं जा सकता है. एक बार ट्रायल के रजिस्टर में उसका नाम आ गया तो वह निर्धारित समय के लिए ब्लॉक हो जाता है. डेटाबेस में हजारों लोग रजिस्टर्ड होते हैं. कंपनी आवश्यकतानुसार वॉलंटियर्स को बुलाकर उन्हें अच्छे से समझाती है कि ट्रायल किस चीज़ का है और क्यों कर रहे हैं? इसका क्या परिणाम हो सकता है? क्या नहीं हो सकता है? संतुष्ट होने पर उसकी लिखित अनुमति ली जाती है. पूरी प्रक्रिया की वीडियो रिकॉर्डिंग भी होती है. इनका हेल्थ चेकअप होता है और उन्हें ट्रायल के लिए चयनित कर लिया जाता है.

वॉलंटियर्स का विशेष ध्यान रखा जाता है
EC (Ethics Committee) सरकार के नियमानुसार (पेमेंट संबंधी) वॉलंटियर का मानदेय निर्धारित करती है. कंपनी इसे ही फॉलो करती है. EC की इन पर पूरी नज़र होती है. वॉलंटियर का जो work loss होता है, उसकी भरपाई भी कंपनी ही करती है इनका Insurance भी covered होता है. कंपनी अपनी आवश्यकतानुसार प्रोपोज़ल भेजती है, लेकिन प्रोटोकॉल सरकार ही तय या approve करती है. उसके बाद किसी भी स्थिति में उसमें एक भी बदलाव नहीं किया जा सकता. ह्यूमन सेफ्टी और वेलफेयर को सुनिश्चित करने के लिए जो Ethics Committee होती है, वो बाहर की होती है. ये यह भी देखती है कि वॉलंटियर का कुछ और फायदा न ले लिया जाए!

वॉलंटियर के लिए सामान्यतः 18 से 55 आयु वर्ग तक के लोग चयनित होते हैं. वैक्सीन बनाने वाली कंपनी का कोई भी व्यक्ति एवं उसके परिवार का सदस्य उस कंपनी के लिए वॉलंटियर नहीं बन सकता. महिलाएं भी वॉलंटियर हो सकती हैं पर पुरुषों को प्राथमिकता दी जाती है. इसका कारण गर्भधारण पर वैक्सीन के दुष्प्रभावों का न जानना है. Post-Menopausal और hysterectomy वाली महिलाएं ली जा सकती हैं. जहां ऐसी कोई कमेटी, ग्रुप या डेटा बेस नहीं होता, वहां कैंप लगाए जाते हैं. वॉलंटियर्स को विभिन्न तरीकों से ढूंढ़ा जाता है.

कुछ अन्य प्रश्नों के उत्तर: 
क्या मनुष्यों में live virus डालकर परीक्षण होगा?
नहीं! क्योंकि EC ऐसे किसी भी प्रयोग की अनुमति नहीं देती, जिसमें जान को ख़तरा हो. क्योंकि इस वायरस को कंट्रोल करने की कोई दवाई अभी नहीं बनी है. उन बीमारियों में जहां ट्रीटमेंट के विकल्प मौजूद हैं, वहां ऐसा अध्ययन किया जाता है. जैसे- मलेरिया. इसमें भी मलेरिया पैरासाइट की न्यूनतम डोज़ दी जाती है, क्योंकि यदि टेस्टिंग ड्रग काम नहीं करे तो इसका Backup solution है.

वैक्सीन, वायरस से लड़ने में कैसे मदद करती है?
वैक्सीन बनाने की प्रक्रिया में वायरस को deactivate कर दिया जाता है. यानी यह डेड वायरस होता है, इसलिए बीमार नहीं कर सकता. ह्यूमन बॉडी उसे वायरस या बाहरी शत्रु (Foreign element) मानकर उसके खिलाफ एंटीबॉडीज़ डेवलप करती है, जो मनुष्य को live वायरस से लड़ने में सक्षम बनाती है. 

Virus Mutation से कैसे लड़ा जा सकता है?
वायरस में mutation संभव है. उसके कारण नया Strain बन जाता है. Covid 19 के कुछ mutation संभव हैं और यदि mutation significant नहीं है तो वैक्सीन उसके खिलाफ भी काम करेगा. 
हमारे पास ऐसे उदाहरण भी हैं, जिसमें वैक्सीन बनना संभव नहीं, क्योंकि pathogens निरंतर mutate होते हैं. जैसे HIV में. 
ध्यान रहे कि एरर फ्री वैक्सीन बनाने का कोई बना-बनाया नुस्खा नहीं होता! जितना भी विज्ञान विकसित हुआ है, हमारे साइंटिस्ट उन मापदंडों पर पूरी सक्षमता और लगन के साथ कार्य करते हैं.
-प्रीति 'अज्ञात'