रविवार, 31 जनवरी 2021

दिल्ली शहर में म्हारो, ट्रैक्टरो जो घुम्यो, हां घुम्यो!



सुबह का भूला अगर शाम को घर आ जाए तो उसे ट्रैक्टर कहते हैं. वैसे उससे भूल ही क्या हुई थी? कब किसी ने सोचा था कि उसे यूँ किसी आंदोलन का हिस्सा बना दिया जाएगा. अपना संस्कारी बालक तो सदियों से दो बड़े, दो छोटे बेमेल पहियों के साथ भी जी ही रहा था न. क्या उसने एक बार भी शिकायत की कि पप्पा, हमको भी ट्रक के जैसे पहिये दिला दो न? खेतों पर चहलकदमी करते हुए उसने कई बार नजदीक से गुजरते हाईवे पर फर्राटा गाड़ियों को देखा. लेकिन कभी उन सड़कों पर चलने की ट्रैक्टर ने जिद न की. चुपचाप खेतों में अपना काम करता रहा. 'लाल किले पर गया ट्रैक्टर' कहकर आपने तो हाय तौबा मचा रखी है लेकिन कभी उस भोले प्राणी की आंखों में झांका? अरे, बचपन से ही जो मिट्टी में खेलता रहा. खेतों से यारियां रखने वाला ट्रैक्टर डीज़ल के लिए भी शहर की देहरी पर न गया. लेकिन, जब शहर में ले ही आया गया तो यहां पांव धरते ही उसकी तमन्नाएं जरा सी भी न मचलेंगीं क्या? लेकिन देखिये कि इस समय देश में सबसे ज्यादा बद्दुआयें जिसके हिस्से आ रहीं हैं वो 'ट्रैक्टर' ही है.

आख़िर होता ही क्या है एक मासूम ट्रैक्टर के पास? वाहनों में सबसे दीन-हीन प्रजाति बनाकर वैसे ही उपेक्षित रख छोड़ा है उसे. न AC है, न पॉवर स्टीयरिंग. कड़क सी सीट है, वो भी अकेली. एकदम सौतेला बनाकर रख दिया था उसे. इससे भी जी न भरा तो भीष्म पितामह वाला फ़ील भी दिया गया उसको. सस्पेंशन के नाम पर नीचे भाले लगा दिए कि बेटा झेल. मिट्टी में सना पड़ा रहा, गाय भैंसों के आसपास खड़ा रहा. सर्विसिंग के नाम पर कुएं के पानी से नहला दिया गया.

लेकिन वो तब भी अपनी गरीबी, फटेहाली को भुला मस्त रहा. बोनट के ऊपर लगे साइलेंसर से अपनी फ्रिक्र को धुएं में उड़ाता रहा. अब वक़्त ने उसे दिल्ली की सड़कों पर लाकर खड़ा कर दिया तो दरद होने लगा सबको. और ऐसा दर्द कि बर्दाश्त ही न हो पा रहा जी. कितने दोग़ले लोग हो यार कि सारा क्रेडिट अन्नदाता को और लानत-मलानत ट्रैक्टर की. भई, वाह! आप तो बम्पर ताली के हक़दार हैं जी.

बताइए, इतनी दूर से चलकर आया और आप कहते हैं कि 'सड़क किनारे चुपचाप खड़े रहो.' मतलब वो वही खेत देखता रहे, जिनसे उकताकर थोड़े चेंज के लिए वह घर से निकल भागा? ये कुछ ज्यादा ही एक्सपेक्ट न कर रहे आप उससे? आई मीन, टू मच हो गया है ये तो. अब ये आप पर है कि आप इसे मासूम के पक्ष में दलील समझें या बिना शर्त माफ़ीनामा.

लेकिन बीते दिनों की घटनाओं के बाद ट्रैक्टर की जो बेइज़्ज़ती हुई है उससे वह भारी दुःख में भर गया है. बेचारा, बस एक दिन के लिए तो दिल्ली आया था, चाह रहा था कि पूरी राजधानी देख ले. हमारा फ़र्ज़ बनता था कि उसे पूरे शहर की सैर कराते. लेकिन पुलिसवालों ने बैरिकेड लगा दिए. किसी को भी गुस्सा आ जाएगा. अब देखो न, अति उत्साह में अपने गांव का छोरा नाहक ही बदनाम हो गया.

आपको लगता है कि Tractor ने बदला character लेकिन एक बार भी सोचा कि उसका दिल कितनी बार रोया होगा? देखिए बेचारा कल से 'हम बेवफ़ा हरगिज़ न थे, पर हम वफ़ा कर न सके' गुनगुना रहा है. समय किसी को क्या से क्या बना देता है, साब! सोचने वाली बात ये भी है कि जिन्होंने ट्रैक्टर परेड की इजाजत दी, उनको देखना चाहिए था कि ये नन्हा फ़रिश्ता, शहर में चल पाएगा या नहीं.

सम्बंधित विभाग के अधिकारियों को राजधानी की चकाचौंध में उसके खो जाने का अंदेशा क्यों न हुआ पहले से ? भूल गये क्या बचपन के उस मेले को जिसमें लाल शर्ट और काली निक्कर पहने, खोया हुआ बच्चा पुलिस चौकी के पास पछाड़े खाता मिलता है. बस, डिट्टो ऐसे ही ये भोलू भी पाया गया. रास्ता भटक गया था तो लोगों ने उसे किले के पास पहुंचा दिया.
सबको पता था कि पुलिस उधरिच मिलेगी और इसे घर भिजवाने में दिल से सहायता भी करेगी. गांव में तो अलाव भी था. वहां सड़क किनारे बेचारा कडाके की सर्दी में ठिठुरता रहा. क्या पता, धूप सेंकने ही निकल गया होगा मेरा बच्चा. अब कोरोना काल में विटामिन-डी की महत्ता से तो आप भी इंकार नहीं कर सकते.

वो मासूम अभी अपने दुःख से बाहर निकलने का रास्ता खोज ही रहा था कि गांव से ट्रॉली मेम का कॉल आ गया. उन्होंने अलग ही लेवल का गदर मचा रखा है. इस मासूम के ज़ख्मों पर रुई का ठंडा फाहा रखने की बजाय, नमक नींबू निचोड़ एकदम मसलकर रख दिया है, बेचारे को.
सरसों के खेत में, धूप लेते हुए अपने चीनी मोबाइल से उन्होंने जो कड़वे स्वर निकाले हैं न कि भगवान बचाए ऐसी ट्रॉलियों से. कह रहीं हैं, 'पिताजी ठीक ही कहत रहे. बिना ट्रॉली वाला ट्रैक्टर छुट्टा सांड हो जाता है. वो का कहत हैं 'Men will be men.' तुमऊ शहर में जाके बैसे ही हो गए हो जी". अब उधर वो घूंघट में लजाय रहीं, इधर ये मारे गिल्ट के लज्जित खड़े हैं.

वैसे ये तो हमें भी लग रहा कि ट्रॉली साथ होती तो ट्रैक्टर को समझा बुझाकर घर ले आती और उसकी देश भर में यूं दुर्गति न हो रही होती. अब अकेले प्राणी को बहकने में समय ही कितना लगता है. लेकिन इन भटके हुए राहगीरों को कौन समझाए कि गृहस्थी की गाड़ी कभी अकेले चली है भला? देखो, जाकर नाक कटा आए न.

दुनिया ग़वाह है कि जैसे बिना डोर के पतंग या कि बिना बोगी के इंजन का कोई अस्तित्व नहीं, ठीक वैसे ही बिना ट्रॉली का ट्रैक्टर पूर्णतः औचित्यहीन है. अकेला जाएगा तो कुसंगति में पड़कर आवारागर्दी ही तो करेगा. मैं तो उस इंसान को भी ढूंढ रही हूं जिसने बिना ट्रॉली के ट्रैक्टर लाने की बात कही थी. ये सब कुछ उसी मनुष्य का किया धरा है. हमारे घर के बच्चे को बिगाड़ने का क्रूर इल्ज़ाम उस मानस के सिर पर तत्काल धरा जाए. 

ख़ैर. जो भी हुआ, अच्छा नहीं हुआ. ट्रैक्टर तो हमेशा से ही उदार प्रकृति का रहा है. वर्षों से अपनी उंगलियों से धरती को सहलाता रहा है. बीज रोपने में मदद करता है कि देश का पेट भर सके.
इसके कोमल हृदय में कभी कोई बुरे विचार आए ही नहीं. ये क्यों किसी बैरिकेड को तोड़ेगा या किसी को कुचल ही देगा. एक दुःख है जो अब इसके सीने में टीस की तरह चुभता रहेगा। एक मलाल है जो हम सबको सदा रहेगा. ट्रैक्टर, दोष तेरा नहीं परिस्थितियों का है. तू एवीं बदनाम हो रहा.
- प्रीति अज्ञात 
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रविवार, 24 जनवरी 2021

ड्रैगन फ्रूट को संस्कारी 'कमलम्' बनता देख हमारा 'कमल' सकते में हैं!

 

अभी हम ऑस्ट्रेलिया को धूल चटाने की ख़ुशी में ठीक से गदगदा भी न पाए थे कि तब तक हमारे वीर पुरुषों द्वारा चीन को ऐसी पटखनी दे दी गई है कि उनकी नज़र उतार, मंगल आरती गाने को जी चाहता है.
आपको पता ही होगा कि ड्रैगन' शब्द का प्रयोग एक फल के लिए उपयुक्त नहीं है इसलिए ड्रैगन फ्रूट' का नाम अब 'कमलम' रख दिया गया है. नामांतरण संस्कार की यह पावन रस्म, गुजरात के मुख्यमंत्री जी द्वारा संपन्न हुई. आपने जन साधारण को यह भी सूचित किया कि चूंकि यह कमल की तरह दिखता है, अतः नामांतरण के बहाने इसका धर्मांतरण आवश्यक था. वैसे भी मूलतः अमेरिकन फल का चीनी नाम रखने की कोई तुक ही नहीं थी और जब उन्होंने बदल लिया था तो अपन ने भी गंगाजल छिड़क पवित्र कर दिया.  

अच्छा! मुझे इस समय अपने यू पी वाले नामबदलू चैंपियन जी की बहुत चिंता जैसा फ़ील आ रहा है. अब भइया, आपके बिज़नेस में कोई और घुस आए, तो बुरा तो लगता है. सो, उन्हें भी ये बात बहुत चुभी होगी. और वे ये समझने को छटपटा भी रहे होंगे कि आख़िर उनके मूल कार्यक्षेत्र में किसी और की दखलंदाज़ी करने की हिम्मत हुई तो हुई कैसे! अब चूँकि घर का मामला है इसलिए उनका मौन होना स्वाभाविक है. फिर भी The Nation wants to know कि वे इस पूरी घटना को किस तरह लेते हैं. क़सम से यह जानने को तो हमारे व्यक्तिगत कान भी बेहद फड़फड़ा रहे.

ख़ैर! हमको राजनीति से क्या लेना-देना! मुद्दे की बात ये है कि अब जब कमलम नाम तय कर ही लिया गया है तो हम भी मान लेते हैं. लेकिन भिया जरा उन माता-पिता से भी तो पूछ लेते जिन्होंने ओरिजिनल नाम रखा था. हमें हमारे अपने कमल की भी चिंता सता रही. बचपन से सुनते आ रहे कि 'कभी न भूल, कमल का फूल'. और आप लोगों ने अपने घर के बच्चे की ही सुध न ली? तनिक सोचिए, उसको कितना बुरा लगा होगा जब अचानक आप उसके सौतेले भाई को ले आये और कहा कि ' ये तुम्हारे भैया हैं. इनको प्रणाम करो'.  क्या बताएं साहब!  हम तो शर्मिंदगी के मारे उसी पल कुंए में छलांग लगाने वाले थे क्योंकि हमें तो यह फल हमेशा ऑक्टोपस जैसा ही दिखता आया था. अब ये भला उसका भाई कैसे हो सकता है! हो सकता है, कल को ऑक्टोपस महाराज भी स्वयं को उपेक्षित महसूस कर नामांतरण की पुकार कर बैठें और अष्टबाहु नाम से ही उनका खोया आत्मसम्मान पाने की मांग करें.

पर भक्क! ड्रैगन फ्रूट भी कोई नाम था भला? एकदम हिंसक लगता था. कहाँ वो आग उगलता, खूँखार ड्रैगन वाला नाम कि सुनकर मन दहल जाए.  अब देखो, अपना ये प्यारा, दुलारा, देशभक्त कमलम! सोचकर ही तबियत भगवा होने लगती है और दिल ठुनक ठुनक कर 'रंग दे तू मोहे गेरुआ' गुनगुनाता है.

अच्छा! अब तक भले ही आपने इस फल को न चखा हो और चखा भी हो तो शायद कंफ्यूज रहे हों कि ये कीवी और नाशपाती की खिचड़ी जैसा बेतुका स्वाद क्यों देता है! लेकिन अब देखिएगा, इसके जलवे. 'कमलम' बनते ही ऐसा हुस्न निखरकर आया है इसका कि देश के कोने-कोने में इसकी मांग है. हालात इस हद तक बेक़ाबू हैं कि सारे सब्ज़ी-फल रूठे पड़े हैं. इन सभी ने कह दिया है कि "पौधे पर लटके हुए ही प्राण तज देंगे लेकिन मंडी नहीं जाएंगे कभी. हमारी भी कोई इज़्ज़त-फ़िज़्ज़त है कि नहीं? या बस ज़लील होने को ही पैदा हुए हैं?" उनके दुःख की एक ख़ास वज़ह ये भी है कि तमाम भयानक देशी नाम होते हुए भी एक विदेशी को प्राथमिकता दी गई.

इधर पाइनएप्पल इस बात पर औंधे पड़े हैं कि मैं वर्षों से काँटों का मुकुट पहने घूम रहा हूँ, साब जी को उसकी चुभन और तड़पन काहे न महसूस हुई? स्ट्रॉबेरी की ये पीड़ा कि उसमें स्ट्रॉ तो है ही नहीं और वहीं चाऊमीन, ताऊमीन होना चाहते हैं. अरबी यह कह-कहकर बेसुध हुई जा रहीं कि वे सच्ची भारतीय हैं और आप उनकी देशभक्ति को संशय भरी निगाहों से न तौलें. उन्होंने तो अपने भीषण विलाप का वीडियो तक ट्वीटिया दिया है कि "उन्हें उत्तरप्रदेश में रहने से डर लगता है. कहीं कोई उन्हें मुग़लों का साथी समझ उसकी चरबी न उधेड़ दे."
अब इस भोली अरबी को कौन समझाता कि इस समय तो आदरणीय ख़ुद ही भयंकर वाले परेशान चल रहे. तेरे पे क्या ध्यान देंगे, पगलैट!

वैसे वर्तमान समय की मांग के अनुसार, बद्तमीज़ चीन के साथ ये कड़ी कार्यवाही जरुरी थी. मैं इसका कट्टर समर्थन करती हूँ कि उसको मुँहतोड़ ज़वाब देना बनता ही था. साथ ही यह भी आवश्यक था कि हमारी अपनी संस्कृति, सभ्यता, संस्कार भी अक्षुण्ण बने रहें. अतः हमने उसके ख़िलाफ़ तगड़ी अनुशासनात्मक कार्यवाही करते हुए, उसके पालतू ड्रैगन पर अपने संस्कारी, देशभक्त कमलम का जोरदार बाण छोड़कर उचित क़दम उठाया है.

फ़िलहाल हमने समस्त सब्ज़ी मंडी निवासियों को यह समझा बुझाकर शांत कर दिया है कि सबका नंबर आएगा और एक-एक कर सभी संस्कारी बनेगे. हम तो विनम्र अनुरोध करते हैं जी कि एक कमेटी बिठाओ जो सारे सब्ज़ी-फलों का संरचनात्मक अध्ययन कर उसकी रिपोर्ट जल्द से जल्द सरकार को सौंप दे. वो क्या है न कि बदला लेने को हमारी बाजुएं बुरी तरह फड़फड़ा रहीं हैं.

अच्छा! एक ताजा आईडिया हमारे इत्तु से दिमाग़ से महक़ रहा है कि आप न शेर का नाम बदलकर शायर कर दो! जिससे हम जंगल में जाकर उसकी ग़ज़लों का लुत्फ उठा सकें. खीखीखी, तबहि तो होगा न जंगल में मंगल! अच्छा, सॉरी! अब ज्यादा हो रहा है.
भिया, अंत में एक जायज़ चिंता भी है कि कहीं बदलाखोर चीन अपने नथुने फुला हमारे लोटस को ड्रैगन न कहने लगे! भौत दिक़्क़त हो जाएगी! बड़ी भद्द पिटेगी भई. काहे कि ये आईडिया तो हिन्दुस्तानी खोपड़ी से ही पहले निकला है.
- प्रीति 'अज्ञात'
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शुक्रवार, 22 जनवरी 2021

थोड़ी प्रसन्नता एवं बहुत-सी खोई हुई संवेदनाओं के साथ, नववर्ष में प्रवेश करता भारत

 

नववर्ष का आगमन किसी सुबह की तरह होता है जो हर रोज़ नई लगती है. कहने को इसमें कुछ भी नया नहीं होता, दिन के वही पहर हैं और समय की सुई भी प्रतिदिन एक ही दिशा में घूमती है. लेकिन फिर भी आँख खुलते ही एक नए उत्साह का संचार होता है, रात के सपने हृदय में कुलबुलाते हैं और उन्हें पूरा करने की चाह से दिन प्रारम्भ होता है. नववर्ष से भी नई उमंगों के साथ, नई चाहतें, नई उम्मीदें जुड़ ही जाती हैं. यद्यपि 2020 में कोरोना की तांडव लीला से त्रस्त जनमानस के लिए प्रसन्नता की बस एक ही बात हो सकती थी कि कोरोना से मुक्ति मिले! 2021 की देहरी पर पग रखते ही यह शुभ समाचार मिला कि न केवल कोविड-19 से स्वयं को सुरक्षित रखने के लिए टीके का निर्माण हो चुका है बल्कि हमारे भारत में 16 जनवरी से टीकाकरण अभियान भी प्रारम्भ हो गया है. विश्व भर में किसी वैक्सीन को लेकर इतनी बेचैनी, ऐसी प्रतीक्षा और उत्सुकता पहले कभी नहीं देखी गई. हमारी पीढ़ी ने पहली बार ही किसी महामारी का प्रकोप झेला है. अतः स्वाभाविक ही था कि इसकी वैक्सीन का जनता के लिए उपलब्ध होना देश भर में उत्सव की तरह मनाया जाए और यही हुआ भी. लेकिन अति उत्साह में भर यह नहीं भूल जाना है कि ख़तरा अभी टला नहीं! प्रत्येक नागरिक तक इसे पहुँचने में और इतनी बड़ी संख्या में टीके के निर्माण में अभी लम्बा समय लगेगा. जिनका टीकाकरण हो चुका है, वे भी इसे लगाते ही कोविड-19 प्रूफ़ नहीं हो गए हैं. यूँ भी दो डोज़ लगनी है. अतः पहला टीका लगते ही हमें मास्क को उछालकर फेंक नहीं देना है. टीका विशेषज्ञ (वैक्सीन एक्सपर्ट) का कहना है कि "हमारे शरीर में एंटीबॉडीज बनने की प्रक्रिया में न्यूनतम तीन सप्ताह लगते हैं यानी यदि आप आज वैक्सीन लेते हैं तब भी आप पर अगले तीन सप्ताह तक संक्रमण का भय मँडराता रहेगा! यह संकट इससे अधिक समय के लिए भी हो सकता है". इसलिए ये बात गाँठ बाँध ही लीजिए कि मास्क, सैनिटाइज़ेशन, सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंसिंग) के तमाम नियमों का पालन अब भी उतना ही आवश्यक है जितना पहले था. जब तक देश के प्रत्येक नागरिक को टीका (दोनों डोज़) नहीं लग जाता, तब तक अपनी और अपनों की पूरी सुरक्षा का दायित्व केवल और केवल हमारा है. इधर कोरोना वैक्सीन के बनते-बनते 'बर्ड फ्लू' देश में पाँव पसार चुका है. पक्षियों की जान साँसत में है लेकिन इससे सबका इतना ही लेना-देना है कि हम अपनी जान कैसे बचा सकें! इन मासूम पक्षियों के ज़िन्दा दफनाए जाने का समाचार, बस एक समाचार मात्र ही बनकर रह गया है क्योंकि भावुकता, संवेदनशीलता और पीड़ा के सारे भाव तो मनुष्य ने स्वयं तक ही सीमित रख छोड़े हैं. कुछ लोग रोते दिखे, तो पल भर को भ्रम हुआ कि संवेदनाएं अभी मरी नहीं! लेकिन फिर देखने पर पता चला कि वे तो व्यापार में घाटे के लिए विलाप कर रहे थे. इन पक्षियों को मौत के घाट तो वे स्वयं ही उतारा करते थे, जिससे उन्हें अच्छे दामों में बेचकर सबकी स्वादेन्द्रियाँ तृप्त करने का पुण्य कमा सकें और साथ-साथ वित्तकोष भी बढ़ता रहे. अब जब ये मुर्गे-मुर्गियाँ बीमारी से मरे तो इनके दुःख की सीमा ही न रही. कर्तव्यनिष्ठ प्रशासन ने अपनी चुस्तता दिखाते हुए स्वस्थ पक्षियों को भी मारने का आदेश दे दिया. कौन इन मासूमों के परीक्षण के चक्कर में पड़े! ये कहाँ जाकर अपना रोना रोएंगे! नन्ही सी जान, कुछ देर तड़पकर दम तोड़ देगी. इनकी मृत्यु के लिए कौन आंदोलन करने वाला है! चिड़ियाघरों को कुछ दिनों के लिए बंद करने का आदेश दे दिया गया है और कुछ स्थानों पर वहाँ के पक्षियों को मारने का भी! यानी पहले तो आप मनोरंजन के नाम पर किसी से उसकी स्वतंत्रता छीन लेते हैं और फिर अपनी सुविधानुसार उसका जीवन समाप्त करते हुए भी आपका हृदय एक पल को नहीं पसीजता! बात इतने पर ही नहीं ठहरती, कुछ समय बाद किसी प्रजाति के विलुप्त होने का भीषण विलाप भी किया जाता है. फिर 'इस चिड़िया को बचाओ', 'उस चिड़िया को बचाओ' जैसे स्लोगन से देश की दीवारें पाट दी जाती हैं. ये कैसा विकृत, निर्लज्ज और मलीन रूप है मनुष्य और उसकी तथाकथित मनुष्यता का, कि जिसका जीवन छीन रहा, उसी को बचाने का खोखला आह्वान भी कर बैठता है! कहने को तो देश भर में मकर संक्रांति का त्योहार भी धूमधाम से मनाया गया लेकिन दुख तब हुआ जब अन्नदाताओं से जुड़ा यह पर्व कुछ किसान स्वयं नहीं मना सके. राजधानी दिल्ली की ओर जाने वाली सड़कों पर इस भीषण सर्दी में जमा किसानों को देखना त्योहार का उत्साह फीका कर गया. तीन कृषि कानूनों को लेकर आंदोलनकारी किसानों और सरकार के बीच का गतिरोध हल होता तो नहीं दिखता. रूठे रहने की कसम खाए बैठे दोनों पक्ष न जाने क्या बात करते हैं, पता नहीं चलता. आंदोलनकारी अड़े हैं कि कानून वापस लो, और सरकार की जिद है कि इसके अलावा कुछ भी ले लो. अब तो सुप्रीम कोर्ट का दखल भी सवालों के घेरे में आ गया है. पक्ष/विपक्ष की राजनीति जो वैक्सीन में चली, वह यहाँ भी निरंतर जारी है. साथ ही किसानों को बरगलाने की बात भी प्रचारित की जा रही है. हाँ, ये तो माना जा सकता है कि देश की जनता को मूर्ख बनाना, लुभाना और एक तिलिस्म में घेर लेना राजनीतिज्ञों का शगल रहा है. लेकिन किसान आंदोलन के मामले में बात उतनी सरल नहीं है. कई किसान संगठन, कानून के पक्ष में समर्थन देकर खुद को आंदोलन से अलग कर चुके हैं. पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश के प्रभावशाली किसान नेताओं और संगठनों से इतर ये आंदोलन जाता नहीं दिखता. लेकिन, जहां तक सरकार की बात है, तो उसका फ़र्ज़ होना चाहिए कि किसी भी स्तर के आंदोलन को जल्द से जल्द बातचीत से हल कर खत्म करवाए. लेकिन, किसान आंदोलन के मामले में वर्तमान सरकार का रवैया बेहद ढीला और उदासीन नजर आया. मानो परवाह ही नहीं है. इस आंदोलन के सही-गलत और तर्क-कुतर्क की समीक्षा भी होती ही रहेगी पर उससे इतर एक सच यह है कि कृषकों का दुःख, देश का दुःख है. हम सबका जीवन इनका ही ऋणी है और सदैव रहेगा. समस्या का हल अवश्य ही निकाला जा सकता है, काश! दोनों पक्षों को निदा फ़ाज़ली साहब का यह शे'र याद रहे- मुमकिन है सफ़र हो आसाँ, अब साथ भी चल कर देखें कुछ तुम भी बदल कर देखो, कुछ हम भी बदल कर देखें टीकाकरण अभियान की प्रसन्नता, बेहाल किसानों की चिंता और मारे गए पक्षियों के प्रति संवेदना व्यक्त करते हुए इस वर्ष और आने वाले तमाम वर्षों से आशा रखते हैं कि हम अपने कर्तव्यों का पूरी निष्ठा से पालन करें, देशहित प्रधान रखें और जीव-जंतुओं के प्रति संवेदनशीलता के भाव जागृत कर, उनकी रक्षा हेतु अपने स्वर बुलंद करें. गणतंत्र दिवस की अशेष शुभकामनाएँ! जय हिन्द - प्रीति अज्ञात

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गुरुवार, 14 जनवरी 2021

Bird Flu की आड़ में पक्षियों की सामूहिक हत्‍या 'जलियांवाला बाग़ कांड' से कम नहीं!



'Bird Flu के चलते Kanpur Zoo के सभी पक्षियों को मारने का आदेश दे दिया गया है. जबसे यह ख़बर सुनी है, एक बेचैनी सी है. सहसा तो विश्वास ही नहीं होता कि इन मासूमों के प्रति कोई ऐसा बर्ताव करने की कल्पना भी कैसे कर सकता है. खैर! प्रशासनिक अधिकारियों ने यह निर्णय जो भी सोचकर लिया हो पर पता नहीं क्यों, ऐसा लगता है कि किसी भी समस्या से निपटने का जो अंतिम समाधान होता है उसे ही प्रथम पायदान पर रख दिया गया है. चिडि़‍याघर में रहने वाले पक्षी तो हम इंसानों की ही जवाबदारी थे, और यद‍ि उन्‍हें ही मारना पड़ रहा है तो इसका इल्‍जाम तो हम पर ही आना चाहिए. इस निर्णय को जानने के बाद मेरी आंखों में इतिहास की सबसे नृशंस तस्वीर तैरने लगी है जहां 'जलियां वाला बाग़' में जनरल डायर ने निर्दोष भारतीयों को गोलियों से भून, उनकी जघन्य हत्या कर दी थी. वहां की रक्तरंजित दीवारों में अब तक बसी यह घटना इतनी भयावह और दर्द भरी थी कि इसके घाव आज भी हम सबके दिल में गहरी टीस बनकर बैठे हैं. इसी पीड़ा में डूबकर मैं यह समझने की नाकाम कोशिश कर रही हूं कि मनुष्यों को मारा तो 'जलियां वाला कांड' हुआ और पक्षियों की बात आई तो महज़ एक समाचार भर बनकर कैसे रह गया है? निरीह प्राणी, जो न तो इस नृशंस फैसले के विरोध में धरने पर बैठ सकता है और न ही आपके महाआदेश के विरुद्ध में कोई याचिका ही किसी अदालत में जारी कर सकता है. क्या होगा ज्यादा से ज्यादा? कुछ देर फड़फड़ायेगा और वहीं दम तोड़ देगा!

ये मनुष्य की बराबरी भले ही न कर सकते हों पर क्या इन निरीह, बेज़ुबान पक्षियों के प्रति इतना संवेदनहीन होकर कुछ ज़्यादती नहीं हो रही? हम मनुष्य भी तो इस समय कोरोना महामारी से जूझ रहे हैं लेकिन अपने लिए हमने कब और कहां ऐसा फ़ैसला कर पाया है. हमने ख़ुद की जान बचाने के लिए एड़ी चोटी एक कर दी. दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने एक वर्ष जुटकर इसकी वैक्सीन बना ली है.

तमाम उपाय अपनाकर हमने किया है न इंतज़ार, इसके बनने तक का और अभी इसके लगने की प्रतीक्षा भी कर ही रहे हैं. अपने लिए कितने धैर्यवान और संवेदनशील हो जाते हैं न हम. अब ये 'बर्ड फ्लू' कोई कोरोना की तरह अचानक पैदा हुई महामारी तो है नहीं, जिससे बचाव और रोकथाम के उपाय संभव न हों. दो दशक से देखने में आ रही है और बार-बार आ रही है तो क्या इससे बचने का बस यही एक उपाय रह गया है कि जैसे ही ये बीमारी दस्तक़ दे, पक्षियों की एक खेप मार दी जाए.

मैं समझ नहीं पा रही हूं कि कुछेक पक्षियों में संक्रमण की आशंका के चलते, सभी पक्षियों को मार देना कहां तक उचित है? जबकि ये तय है कि उनमें से कई स्वस्थ होंगे ही. हम मनुष्य हैं, सबसे समझदार और बुद्धिमान प्राणी. इसीलिए हमको स्वतः ही यह अधिकार भी मिल गया है कि इस प्रकृति से जुड़ी हर सजीव-निर्जीव वस्तुओं के लिए निर्णय ले सकें. पर यह सोचकर भी मेरी रूह कांप  जती है कि ग़र हमसे ऊपर भी कोई शक्तिशाली प्रजाति होती तो? क्योंकि फिर वह प्रजाति भी हम कोरोना पीड़ित और स्वस्थ मनुष्यों को इसी क्रूर दृष्टि से देखती और एक साथ मानव जाति का ख़ात्मा कर देती.

शुक्र मनाइए कि हम सब बच गए. पर दुर्भाग्य से ये पक्षी, उतने भाग्यशाली नहीं हैं. अगली बार जब आप किसी चिड़ियाघर में जाएं तो वहां के पशु-पक्षियों को जी भरकर देख लीजिए और उन्हें सौ गुना स्नेह भी दीजिए. क्या पता, अगली बार किसी बीमारी के चलते इनमें से कोई बलि का बकरा बन जाए और फिर आप उससे दोबारा कभी न मिल सकें.अपने पालतू जानवरों को भी सीने से लगाकर, ख़ूब दुलार दीजिए उन्हें.

आज इन पक्षियों की बीमारी है, कल को कुत्ते, बिल्लियों में भी कोई बीमारी हो सकती है. सोचकर ही कलेजा कांप उठेगा, अगर किसी बीमारी के कारण, कोई हमारे पेट्स को ख़त्म कर देने की बात झूठे ही कह दे तो? क्योंकि ये पालतू जानवर नहीं, हमारे घर के सदस्य हैं. जीवन का बेहद प्यारा और महत्वपूर्ण हिस्सा हैं.

फ़िलहाल तो यही कहूंगी कि हो सके तो उन पक्षियों को जी भरकर देख लीजिये, जिन्हें आप रोज प्यार से दाना खिलाते हैं. इनकी उस मधुर आवाज को रिकॉर्ड कर लीजिये जो आपकी सुबह में संगीत घोलती है, इन मासूमों की तस्वीर भी संजोकर रखिये जो आपकी दिनचर्या का सबसे खूबसूरत हिस्सा बन चुके हैं. क्या पता. कल को, वे हों न हों!
- प्रीति 'अज्ञात'
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बुधवार, 13 जनवरी 2021

गुजरात: संक्रांत‍ि पर छतों की निगरानी का फैसला कटी पतंग जैसा!


गुजरात में मकर संक्रांति के दौरान छतों पर 4 से अधिक लोगों के एकत्र होने पर राज्य सरकार ने रोक लगा दी है. ड्रोन से छतों की निगरानी भी की जाएगी'. जब से यह ख़बर पढ़ने में आई है, मैं यह तय नहीं कर पा रही हूं कि इस निर्णय को लेने वाले की पीठ थपथपाऊं या अपना सिर धुनूं. हर मर्ज़ की एक दवा तो हम सदियों से सुनते आ रहे हैं. अब हर परेशानी का एक कारण भी इन दिनों ज़बरदस्त फ़ैशन में है. नाम है वही, हर दिल में नफ़रत की बत्ती सुलगाने वाला ज़ालिम कोरोना. जिसे लेकर इस त्योहार पर भी भरपूर रोना होगा. 'छत पर 4 से ज्यादा लोग एकत्र नहीं हो सकते!' अजीब मज़ाक है ये! जहां एक घर में 10 लोग पहले से ही रह रहे हैं. उस दिन उनके छत पर जाने से कौन सी कयामत आ जाएगी?

अब गुजरात जैसे राज्य में, जहां संयुक्त परिवार की परम्परा अभी भी बख़ूबी चलन में है, वहां इस तरह के बेतुके निर्णय का पालन कितना और कैसे होगा? पर ये तो एक तरह से यही बात हुई न कि 'यार! तुम लोग इकट्ठे क्यों रहते हो? संयुक्त परिवार की क्या जरूरत? एकल में रहो न!' या कि ऐसा है कि बस, छत पे इकट्ठे जाने से कोरोना फैलता है? बाक़ी नीचे आने के बाद साथ ही खाना खाओ, पलंग पर साथ लदकर टीवी भी देखो. अजी, आपको जो करना है, सो करो. पर भिया! तनिक हमको, हमारी तथाकथित जिम्मेदारी तो निभा लेने दो!

जरा सोचिए, जहां एक घर में 6 लोग हैं वहां वे कौन दो महात्मा होंगे जो अपने मनोरंजन की बलि देने को सहर्ष तैयार हो जाएंगे! दादी मां, बच्चों को सामने खड़ा कर समझा रहीं होंगीं कि 'बेटा, ड्रोन अंकल आ जाएंगे. फ़ोटू छप जाएगी कल के पेपर में. बड़ी बदनामी होगी कि हाय राम! देखो तो नासपीटे इकट्ठे पतंग उड़ा रहे थे!'
दादाजी कहेंगे, 'आपको एक दिन 'सब्र का फल मीठा होता है' वाली कहानी सुनाई थी न? तो मैं न, कल टाइमर सेट कर दूंगा. उसके बजते ही भैया का टर्न आएगा.'

इधर हम जैसे गोलुओं से भरे परिवार में यह चिंता व्याप्त है कि अपन तो 3 खड़े होंगे छत पर, लेकिन ड्रोन से क्षेत्रफल ज्यादा घिरा दिखेगा और ये 6 समझ लेंगे. बड़ी जगहंसाई होगी. तो अपन तो खुद को किचन में आइसोलेट कर मंगोड़े तलकर खाएंगे और टीवी पर उड़ती पतंगों को देख, कान से सुर्र सुर्र धुआं छोड़ेंगे. देश के लिए क़ुर्बान होने का थोड़ा सा फ़ील भी ले लेंगे. गणतंत्र दिवस वाली देशभक्ति अभी से दिखाने का यही उचित समय लग रहा है.

'पतंग महोत्सव' नहीं मनाया जा रहा, इस निर्णय का स्वागत किया जा सकता है क्योंकि वहां दूर-दूर से लोग आते हैं. पक्षियों के कारण भी प्रतिबंध समझ में आता है बल्कि हम तो ख़ुद ही कांच लगे मांज़े के विरोध में एक-एक किलोमीटर लम्बी पोस्ट लिखते आये हैं.
छत पर असावधानी के कारण हुए हादसों के भी हम और आप ग़वाह हैं. पर अब जरा गंभीरता से सोचकर ये बताइए कि कोरोना का, आपकी छत पर पतंग उड़ाने से क्या सम्बन्ध? बल्कि मुझे तो लगता है कि यही एक उत्सव है जिसे कोरोना काल में बिना किसी डर के मनाया जा सकता है. बस कांच वाला मांज़ा न हो.

लोग तो अपने रिश्तेदार या परिचित के साथ ही होते हैं. कोई मेला तो लगता नहीं कि खतरा हो उससे! छत पर गाना बजाना चलता है. पतंगें, आसमान का माथा चूमती इठलाती फिरती हैं और साथ में उंधियु, पूरी, जलेबी, चिक्की और तिल के बने तमाम व्यंजनों का स्वाद महकता है. यही तो होता है इस त्योहार में, जो हमें एक साथ, एक घर में बांधे रखता है. बल्कि इसी के कारण तो संक्रांति के दिन लोग घरों की छत पर होते हैं, कहीं बाहर नहीं जाते.

अब आप आसमान से लटक, ड्रोन से छतों की निगरानी करेंगे तो भई, ये तो उन प्रेमियों की निजता का हनन भी हो गया, जो बड़ी आस लगाए इस दिन के लिए अपनी पतंगें तैयार कर रहे थे. उनकी प्रेम नैया तो परवान चढ़े बिना ही, बीच भंवर में डूब जाएगी.

लोग वैसे ही कहीं आने-जाने को लेकर दुखी चल रहे. सबके चेहरे की रौनक़ उड़ चुकी है. जीवन में तनाव अब सौ गुना अधिक बढ़ चुका है. लॉकडाउन से व्यापारियों के पेट पर कोरोना की तगड़ी मार पहले ही पड़ चुकी है. अब जबकि सारा बाज़ार खुला है तो इनके लिए भी ये बेमतलब के विरोध जैसा ही है. क्या ये पहले से त्रस्त जनता के जले पर नमक छिड़कने जैसा नहीं?
- प्रीति 'अज्ञात'
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मंगलवार, 5 जनवरी 2021

#संन्यास विवाह से ट्विटर के कौवों को सीख लेनी चाहिए!

हाल ही में एक ख़बर वायरल हो रही है जिसमें संन्यास जीवन को अपनाने के बाद दो लोगों ने विवाह का निश्चय किया और अब वे गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर चुके हैं. कारण था मोहब्बत! विवाह की इससे अधिक ख़ूबसूरत वज़ह कुछ और होनी भी नहीं चाहिए! प्रेमियों का हक़ है ये कि वे उम्र भर साथ रहें! प्रेम में डूबे लोग, किसी का दिल नहीं दुखाते, किसी को लूटते नहीं, परेशान नहीं करते. वे प्रेम से रहना चाहते हैं और इसी भाव की अपेक्षा दूसरों से भी रखते हैं.

अच्छी बात ये है कि इस शादी से वहाँ उपस्थित लोग भी प्रसन्न होते नज़र आ रहे हैं और किसी ने भी अब तक कोई ऊलजलूल बात नहीं की है बल्कि कई संन्यासी इस शादी के गवाह बने हैं. उस वीडियो को देखने-सुनने के बाद लगता है कि समाज के एक विशेष टेढ़े वर्ग को इन गाँव वालों से सीख लेनी चाहिए! ये वर्ग जो सोशल मीडिया पर अपने आपको कूल और अल्ट्रा मॉडर्न समझते नहीं थकता लेकिन अमृता सिंह से लेकर प्रियंका चोपड़ा और मलाइका अरोड़ा तक को अपने पति की माँ बोलने से नहीं चूकता! उन पर छींटाकशी और भद्दे मजाक करता है! उस पढ़े लिखे, नफ़रत पोसते वर्ग को बटेश्वर के इन लोगों से यह ज्ञान प्राप्त कर ही लेना चाहिए कि 'खग ही जाने खग की भाषा'. प्रेम का अर्थ केवल प्रेम ही होता है और यह उसके अलावा और किसी भी भाषा में यक़ीन नहीं करता. प्यार में उम्र तो कोई मायने ही नहीं रखती!

'न उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बंधन
जब प्यार करे कोई, तो देखे केवल मन
नयी रीत चलाकर तुम, ये रीत अमर कर दो'
इंदीवर के लिखे इस गीत को जगजीत सिंह ने हमेशा-हमेशा के लिए अमर कर दिया है लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि लगभग 40 साल बाद भी यह रीत अब तक इस समाज में सहजता से नहीं स्वीकारी गई है. बल्कि समाज तो शब्दशः  इसका उल्टा करके चलता है. वो उम्र देखता है, जन्म, जाति, पैसा सब में भरपूर दखल देता है पर मन देखना और उसे समझना इसने सीखा ही नहीं! दुनिया भर को प्रेम का पाठ पढ़ाने वाले हमारे देश में सबसे ज्यादा गाज प्रेमियों पर ही गिरती आई है. सबसे अधिक प्रश्न प्रेमियों से ही पूछे गए हैं, सबसे अधिक तिरछी निगाहों का सामना उन्हें ही करना पड़ा है. सबसे अधिक हतोत्साहित (ज़लील ही पढ़िए इसे) उन्हें ही किया गया है, सबसे अधिक नफ़रत और बद्दुआ उन्हीं के पवित्र हृदय को पीड़ा देती आई है. धर्म और इज्ज़त के नाम पर हिंसा का ख़ूनी खेल, सबसे अधिक प्रेमी युगल के साथ ही खेला जाता है. 

हम जिस 'भद्र' समाज का हिस्सा हैं उसी में आज भी स्त्री की उम्र अधिक होने पर, पुरुष को फँसाने जैसे घिनौने इल्ज़ाम भी उसी के मत्थे मढ़ दिए जाते हैं. अक्सर ही प्रेम को किसी एक पक्ष की साज़िश कहकर, उसके ख़िलाफ़ नई क़िस्म की साज़िश रच दी जाती है. इस तरह के लोगों का लक्ष्य एक ही है, प्रेम को नष्ट करके, घृणा के बीज बोना और फिर ये उम्मीद भी करना कि इसका मैडल भी उनको नवाजा जाए कि कैसे वे  इस समाज के कट्टर रक्षक बन इस दुनिया में अवतरित हुए हैं.

बटेश्वर धाम के इस जोड़े का विवाह, निम्न मानसिकता से भरे लोगों की सोच के सामने एक सहज उत्तर बनकर प्रस्तुत होता है. ये हारे-घबराए हुए लोगों को उम्मीद का उजाला भी देता है. साथ ही समाज को ये उदाहरण भी देता है कि जीवन के किसी भी दौर में जब अकेलापन महसूस हो, बेहिचक उस अपने का हाथ थाम लो जिसे हमारे लिए ही बनाया गया है.
ईश्वर करे कि उसके दरबार में फलते-फूलते इस प्रेम को, विशेष आशीर्वाद प्राप्त हो. इस युगल का वैवाहिक जीवन इसी प्रेम की छाया में पल्लवित होता रहे और हमें प्रेम की इतनी कहानियाँ पढ़ने को मिलें कि हमारा मन अचरज़ से न भरे! 
अब समय आ चुका है कि प्रेम इस समाज का अभिन्न भाव बनकर रहे, उसमें भीतर तक समा जाए. प्यार, इश्क़, मोहब्बत की कहानियाँ इतनी आम हो जानी चाहिए कि इन्हें ख़ास समझ, इस पर चर्चा बंद ही हो जाए.  
- प्रीति 'अज्ञात' 
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