रविवार, 24 जनवरी 2021

ड्रैगन फ्रूट को संस्कारी 'कमलम्' बनता देख हमारा 'कमल' सकते में हैं!

 

अभी हम ऑस्ट्रेलिया को धूल चटाने की ख़ुशी में ठीक से गदगदा भी न पाए थे कि तब तक हमारे वीर पुरुषों द्वारा चीन को ऐसी पटखनी दे दी गई है कि उनकी नज़र उतार, मंगल आरती गाने को जी चाहता है.
आपको पता ही होगा कि ड्रैगन' शब्द का प्रयोग एक फल के लिए उपयुक्त नहीं है इसलिए ड्रैगन फ्रूट' का नाम अब 'कमलम' रख दिया गया है. नामांतरण संस्कार की यह पावन रस्म, गुजरात के मुख्यमंत्री जी द्वारा संपन्न हुई. आपने जन साधारण को यह भी सूचित किया कि चूंकि यह कमल की तरह दिखता है, अतः नामांतरण के बहाने इसका धर्मांतरण आवश्यक था. वैसे भी मूलतः अमेरिकन फल का चीनी नाम रखने की कोई तुक ही नहीं थी और जब उन्होंने बदल लिया था तो अपन ने भी गंगाजल छिड़क पवित्र कर दिया.  

अच्छा! मुझे इस समय अपने यू पी वाले नामबदलू चैंपियन जी की बहुत चिंता जैसा फ़ील आ रहा है. अब भइया, आपके बिज़नेस में कोई और घुस आए, तो बुरा तो लगता है. सो, उन्हें भी ये बात बहुत चुभी होगी. और वे ये समझने को छटपटा भी रहे होंगे कि आख़िर उनके मूल कार्यक्षेत्र में किसी और की दखलंदाज़ी करने की हिम्मत हुई तो हुई कैसे! अब चूँकि घर का मामला है इसलिए उनका मौन होना स्वाभाविक है. फिर भी The Nation wants to know कि वे इस पूरी घटना को किस तरह लेते हैं. क़सम से यह जानने को तो हमारे व्यक्तिगत कान भी बेहद फड़फड़ा रहे.

ख़ैर! हमको राजनीति से क्या लेना-देना! मुद्दे की बात ये है कि अब जब कमलम नाम तय कर ही लिया गया है तो हम भी मान लेते हैं. लेकिन भिया जरा उन माता-पिता से भी तो पूछ लेते जिन्होंने ओरिजिनल नाम रखा था. हमें हमारे अपने कमल की भी चिंता सता रही. बचपन से सुनते आ रहे कि 'कभी न भूल, कमल का फूल'. और आप लोगों ने अपने घर के बच्चे की ही सुध न ली? तनिक सोचिए, उसको कितना बुरा लगा होगा जब अचानक आप उसके सौतेले भाई को ले आये और कहा कि ' ये तुम्हारे भैया हैं. इनको प्रणाम करो'.  क्या बताएं साहब!  हम तो शर्मिंदगी के मारे उसी पल कुंए में छलांग लगाने वाले थे क्योंकि हमें तो यह फल हमेशा ऑक्टोपस जैसा ही दिखता आया था. अब ये भला उसका भाई कैसे हो सकता है! हो सकता है, कल को ऑक्टोपस महाराज भी स्वयं को उपेक्षित महसूस कर नामांतरण की पुकार कर बैठें और अष्टबाहु नाम से ही उनका खोया आत्मसम्मान पाने की मांग करें.

पर भक्क! ड्रैगन फ्रूट भी कोई नाम था भला? एकदम हिंसक लगता था. कहाँ वो आग उगलता, खूँखार ड्रैगन वाला नाम कि सुनकर मन दहल जाए.  अब देखो, अपना ये प्यारा, दुलारा, देशभक्त कमलम! सोचकर ही तबियत भगवा होने लगती है और दिल ठुनक ठुनक कर 'रंग दे तू मोहे गेरुआ' गुनगुनाता है.

अच्छा! अब तक भले ही आपने इस फल को न चखा हो और चखा भी हो तो शायद कंफ्यूज रहे हों कि ये कीवी और नाशपाती की खिचड़ी जैसा बेतुका स्वाद क्यों देता है! लेकिन अब देखिएगा, इसके जलवे. 'कमलम' बनते ही ऐसा हुस्न निखरकर आया है इसका कि देश के कोने-कोने में इसकी मांग है. हालात इस हद तक बेक़ाबू हैं कि सारे सब्ज़ी-फल रूठे पड़े हैं. इन सभी ने कह दिया है कि "पौधे पर लटके हुए ही प्राण तज देंगे लेकिन मंडी नहीं जाएंगे कभी. हमारी भी कोई इज़्ज़त-फ़िज़्ज़त है कि नहीं? या बस ज़लील होने को ही पैदा हुए हैं?" उनके दुःख की एक ख़ास वज़ह ये भी है कि तमाम भयानक देशी नाम होते हुए भी एक विदेशी को प्राथमिकता दी गई.

इधर पाइनएप्पल इस बात पर औंधे पड़े हैं कि मैं वर्षों से काँटों का मुकुट पहने घूम रहा हूँ, साब जी को उसकी चुभन और तड़पन काहे न महसूस हुई? स्ट्रॉबेरी की ये पीड़ा कि उसमें स्ट्रॉ तो है ही नहीं और वहीं चाऊमीन, ताऊमीन होना चाहते हैं. अरबी यह कह-कहकर बेसुध हुई जा रहीं कि वे सच्ची भारतीय हैं और आप उनकी देशभक्ति को संशय भरी निगाहों से न तौलें. उन्होंने तो अपने भीषण विलाप का वीडियो तक ट्वीटिया दिया है कि "उन्हें उत्तरप्रदेश में रहने से डर लगता है. कहीं कोई उन्हें मुग़लों का साथी समझ उसकी चरबी न उधेड़ दे."
अब इस भोली अरबी को कौन समझाता कि इस समय तो आदरणीय ख़ुद ही भयंकर वाले परेशान चल रहे. तेरे पे क्या ध्यान देंगे, पगलैट!

वैसे वर्तमान समय की मांग के अनुसार, बद्तमीज़ चीन के साथ ये कड़ी कार्यवाही जरुरी थी. मैं इसका कट्टर समर्थन करती हूँ कि उसको मुँहतोड़ ज़वाब देना बनता ही था. साथ ही यह भी आवश्यक था कि हमारी अपनी संस्कृति, सभ्यता, संस्कार भी अक्षुण्ण बने रहें. अतः हमने उसके ख़िलाफ़ तगड़ी अनुशासनात्मक कार्यवाही करते हुए, उसके पालतू ड्रैगन पर अपने संस्कारी, देशभक्त कमलम का जोरदार बाण छोड़कर उचित क़दम उठाया है.

फ़िलहाल हमने समस्त सब्ज़ी मंडी निवासियों को यह समझा बुझाकर शांत कर दिया है कि सबका नंबर आएगा और एक-एक कर सभी संस्कारी बनेगे. हम तो विनम्र अनुरोध करते हैं जी कि एक कमेटी बिठाओ जो सारे सब्ज़ी-फलों का संरचनात्मक अध्ययन कर उसकी रिपोर्ट जल्द से जल्द सरकार को सौंप दे. वो क्या है न कि बदला लेने को हमारी बाजुएं बुरी तरह फड़फड़ा रहीं हैं.

अच्छा! एक ताजा आईडिया हमारे इत्तु से दिमाग़ से महक़ रहा है कि आप न शेर का नाम बदलकर शायर कर दो! जिससे हम जंगल में जाकर उसकी ग़ज़लों का लुत्फ उठा सकें. खीखीखी, तबहि तो होगा न जंगल में मंगल! अच्छा, सॉरी! अब ज्यादा हो रहा है.
भिया, अंत में एक जायज़ चिंता भी है कि कहीं बदलाखोर चीन अपने नथुने फुला हमारे लोटस को ड्रैगन न कहने लगे! भौत दिक़्क़त हो जाएगी! बड़ी भद्द पिटेगी भई. काहे कि ये आईडिया तो हिन्दुस्तानी खोपड़ी से ही पहले निकला है.
- प्रीति 'अज्ञात'
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