इस बात पर सभी एकमत होंगें कि कोरोना वर्ष 2020 को जितना भी कोसा जाए, कम है! यह काफ़ी हद तक सच भी है. लेकिन यदि गंभीरता से सोचा जाए तो इस वर्ष ने हमें अपने जीवन को समझने और उसके विवेचन-मनन का अवसर दिया है. हमें यह भी सिखाया कि जीने के लिए कितनी कम वस्तुओं की आवश्यकता होती है और बाज़ार दिखावा बेचता है. हमें यह भी पाठ मिला कि स्वच्छता कितनी आवश्यक है और यह न केवल कोरोना बल्कि कई अन्य बीमारियों से भी हमारी रक्षा करती है. इस कठिन समय में हमें प्रकृति के प्र्ति अपनी जिम्मेदारी का अहसास हुआ और उन लोगों के प्रति भी मन कृतज्ञता से भर गया जिन्होंने हर हाल में हमारा साथ दिया. असल में तो इस वर्ष ने हमें, हमारे अपनों की पहचान कराई है और हमें मोहब्बत से जीना सिखाया है.
यहाँ आपको कुछ जन की और कुछ मन की बातें मिलेंगीं। सबकी मुस्कान बनी रहे और हम किसी भी प्रकार की वैमनस्यता से दूर रह, एक स्वस्थ, सकारात्मक समाज के निर्माण में सहायक हों। बस इतना सा ख्वाब है!
गुरुवार, 31 दिसंबर 2020
बुरा होते हुए भी बहुत कुछ सिखा गया, 2020
'कोरोनो-युक्त समाज' के लिए कैसा हो 2021
हम जिस दुनिया में रह रहे हैं वहाँ के लोगों ने अब तक हुई तमाम महामारियों के किस्से भर ही सुने हैं। लेकिन इन किस्सों को सुनना और उन्हें स्वयं जीना, उनका हिस्सा बनना एक अलग ही स्तर का अनुभव है। एक ऐसा दुखद अनुभव, जिसे कोई कभी भी नहीं जीना चाहेगा! सब चाहते हैं कि उनके जीवन की पुस्तक से, दर्द के तमाम पृष्ठ उखाड़ फेंक दिए जाएँ लेकिन कोरोना महामारी और इसकी पीड़ा, अब एक लिखित दस्तावेज़ की तरह हमारी जीवन दैनंदिनी में दर्ज़ हो चुकी है। ये एक ऐसा दुःख है जो न चाहते हुए भी सबके गले पड़ गया है। निश्चित रूप से 2020 में दुनिया भर के कई लोगों के जीवन में कुछ अच्छा भी हुआ ही होगा लेकिन कोविड-19 का प्रकोप हर खुशी पर भारी ही रहा! इसने न केवल सामान्य दिनचर्या को ही प्रभावित किया बल्कि मनुष्य को आर्थिक, सामाजिक और मानसिक रूप से भी छिन्न-भिन्न कर दिया है। नियमों का उल्लंघन और 'जो होगा, देखा जायेगा!' की मानसिकता इसी कुंठा से उपजा व्यवहार है जिसे किसी भी मायने में सही नहीं ठहराया जा सकता। इसके दुष्परिणाम भी मानव जाति को ही भोगने होंगे, हम भोग भी रहे हैं।
लॉकडाउन ने, न केवल उस समय ही तमाम दुकानदारों की कमर तोड़ दी थी बल्कि अब तक भी वे इससे उबर नहीं सके हैं। उत्सवों की रौनक़ कम होने और विवाह एवं अन्य आयोजनों में सीमित संख्या के नियम से बाज़ार बहुत अधिक प्रभावित हुआ है। लेकिन हर बार की तरह इस बार भी मुसीबत की सर्वाधिक मार निर्धन को ही झेलनी पड़ी।सबसे अधिक फ़ाका उस निम्न वर्ग के ही हिस्से आया है, जिन्हें रोज़ सुबह उठकर उस दिन के चूल्हे का इंतज़ाम करना पड़ता था। उनका रोज़गार छूटा और इस बीमारी ने उनके हाथों से रोटियाँ ही छीन लीं। संक्रमण न होते हुए भी वे इसकी चपेट में आ गए।
'मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है' की अवधारणा का सबसे पुष्ट प्रमाण इस वर्ष ही देखने को मिला, जब दूर शहर में रहने वाले लोग अपने प्रियजनों से मिलने की बेचैनी को महीनों जीते रहे। रोजी-रोटी कमाने गए लोग या विद्यार्थी अपने घर न जा सके! बेटियाँ मायके की दहलीज़ को छू लेने भर को तरसती रहीं! बच्चे, ददिहाल-ननिहाल के स्नेह आंगन से वंचित रहे। प्रेमी-प्रेमिका एक-दूसरे से मिलने की तीव्र उत्कंठा को ह्रदय में ही दबाए रहे! इसी सबके बीच मृत्यु का निर्मम तांडव भी चलता रहा। न जाने क्या-क्या बीता होगा उन दिलों पर, जो किसी अपने को खोने के बाद बिछोह के इस कठिन समय में उससे लिपटकर रो भी न सके, बिलखते हुए ये भी न कह सके कि 'तू हमें छोड़ यूँ चला क्यों गया?' इतनी हताशा और निराशा का अनुभव पहले कभी न हुआ कि जब हमारा कोई अपना हमसे बिछुड़े और हम उसे स्पर्श तक भी न कर सकें,मृतात्मा के अंतिम दर्शन तक को भी तरस जाएँ! सच! बड़ा ही दुखद समय रहा उन घरों में, जहाँ उन्हें अपने प्रियजन की निष्प्राण देह तक न देखने को मिली! अंतिम विदाई में जो उसके साथ दो क़दम भी न चल सके! कैसा दुर्भाग्य है ये कि लाशें किसी सामान की तरह पैक की जानें लगीं। उन्हें छू लेना भर भी किसी बीमारी के विस्फ़ोट का कारण लगने लगा।
बीमारी हो या मृत्यु, ह्रदय की तमाम संवेदनाओं को जागृत कर ही देती है लेकिन कोविड ने मनुष्य के इस भाव को भी लील लिया। एक-दूसरे के प्रति संदेह और दुर्व्यवहार की सैकड़ों घटनाओं से सोशल मीडिया भरा पड़ा है। कल तक जो अपना था, आज उसके लिए ह्रदय कैसा निष्ठुर सा हो गया! कुछ मरीज़ जो शायद अपनी रोग प्रतिरोधक शक्ति के चलते इस बीमारी को मात दे भी सकते थे, वो अपनों की दुर्भावना के शिकार हुए। इसके साथ ही मानसिकता का सबसे कुत्सित भाव भी देखने को मिला।जहाँ लाशों के गहने चोरी, उनसे बलात्कार और उनके अंगों को निकाल बेचने की तमाम भयावह घटनाओं ने मनुष्यता को और भी बदरंग, शर्मसार कर दिया। एक ओर जहाँ इस बीमारी ने जैसे जीवन के सारे अच्छे-बुरे रंगों से एक साथ साक्षात्कार करा दिया है तो वहीं कुछ नाम किसी नायक की तरह उभरे और उनकी हृदयस्पर्शी कहानियाँ हमारा मन भिगोती रहीं। इंसानियत पर हमारा विश्वास बनाए रखने में उन सभी का योगदान भुलाए नहीं भूलता, जो इस दुरूह समय में पूरी कर्त्तव्यपरायणता के साथ डटे रहे। इसमें जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े लाखों-करोड़ों नाम सम्मिलित हैं जिन्हें यह बीमारी भी विचलित न कर सकी और वे पूरी निष्ठा और समर्पण से अपना काम करते रहे। यही वे लोग हैं जो इस दुनिया को जीने योग्य बनाते हैं, मानव को उसकी मानवता से जोड़े रखने का सशक्त उदाहरण बन प्रस्तुत होते हैं।
वैक्सीन की प्रतीक्षा का अंत बस होने को है लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह कोई संजीवनी-बूटी नहीं है। समस्त देशवासियों को उपलब्ध होने में ही एक वर्ष से अधिक का समय लग जाएगा। हमारे तंत्र में इसकी डोज़ पहुँचते ही ये हमें 'कोरोना-प्रूफ़' नहीं कर देती! पहले इक्कीस दिन तो रोगप्रतिकारक (एंटीबॉडीज़) बनने की प्रक्रिया को प्रेरित करने में लगते हैं और उसके बाद के तीन सप्ताह में इसका निर्माण प्रारम्भ होता है। यानी वैक्सीन लगने के बाद भी दो माह तक आप उतने ही असुरक्षित हैं जितने कि बिना इसके थे। कुल मिलाकर हमें यह मान लेना चाहिए कि मास्क, सोशल डिस्टेंसिंग और सैनिटाइज़ेशन अब हमारे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है और अब ये जीवन इसके साथ ही सुरक्षित रूप से आगे बढ़ सकता है। इस तथ्य को भी स्वीकारना ही होगा कि कभी-न-कभी तो हमें बाहर निकलना ही है, अब घर में और बैठना संभव नहीं।
वज़न घटाना, योगाभ्यास करना, सुबह शीघ्र उठना जैसे तमाम संकल्पों को लेने के लिए नए साल के आने का इंतजार मत कीजिए। आज से ही शुरुआत कीजिए, ताकि 2021 आपको तरोताजा रूप में मिले। यह संकल्प सर्वाधिक आवश्यक है कि हम पूरी सुरक्षा अपनाते हुए एक जिम्मेदार नागरिक होने का परिचय भी दें। कोरोना-मुक्ति का उपाय तो अभी निकट में दिखता नहीं, तो क्यों न 'कोरोनो-युक्त समाज' के लिए अपने आपको तैयार करें। मानसिक और शारीरिक रूप से अपने आपको तैयार करके ही इस महामारी को साधारण बीमारी में बदला जा सकता है।
- प्रीति अज्ञात
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'हस्ताक्षर' दिसंबर अंक में प्रकाशित संपादकीय -
https://hastaksher.com/rachna.php?id=2658
शुक्रवार, 25 दिसंबर 2020
Merry Christmas!
कहने को क्रिसमस भले ही ईसाई धर्म से जुड़ा त्योहार है लेकिन दुनिया भर के बच्चे इससे कनेक्ट करते हैं. उन्हें पता है कि आज के दिन सैंटा क्लॉज आकर न केवल उन्हें चॉकलेट देते हैं बल्कि उनकी बहुत सारी wishes भी पूरी करते हैं. आप किसी बच्चे से पूछो कि “तुम्हें क्या चाहिए” तो सबसे पहले वो चॉकलेट ही बोलेगा. बच्चों की अपनी जितनी छोटी सी दुनिया है, उसमें पलती wishes भी उतनी ही मासूम हैं. वो सामने वाले की उम्र, पद, हैसियत के आधार पर अपनी इच्छाओं का गुणन नहीं बैठाते बल्कि अपने दिल की ही बात कहते हैं. ईश्वर करे, उनकी ये निश्छलता बनी रहे और सैंटा क्लॉज पर भरोसा भी.
"दुनिया अब भी ख़ूबसूरत है", ये भरोसा हमें हमारे पेरेंट्स ने दिया और हमने हमारे बच्चों को. अब समय बदला है और बच्चों को पता चल चुका है कि सुबह तकिए के पास रखी चॉकलेट और उपहार मम्मी पापा ही रखते हैं. अचानक आया वो 'मैरी क्रिसमस' वाला केक उनके सबसे प्यारे दोस्त ने ही चुपके से भिजवाया है और दरवाजे पर चमचमाती नई साइकिल ददिहाल- ननिहाल से ही आई है.
"जिंगल बेल, जिंगल बेल, जिंगल आल द वे....." सुनते ही मन चहकने लगता है और यूँ महसूस होता है जैसे दरवाजे पर दस्तक़ होने ही वाली है और उस लाल सफ़ेद पोटली को लिए, उन्हीं रंगों से सजे वस्त्र धारण किये, टोपी पहने कोई देवदूत बस अब हो हो कर हँसने ही वाला है.
आपकी जानकारी के लिए एक बात बता दूँ. मैंने कहीं पढ़ा था कि जिंगल बेल, क्रिसमस गीत न होकर, थैंक्सगिविंग गीत है जिसे डेढ़ सौ से भी अधिक वर्ष पहले जार्जिया के म्यूजिक डायरेक्टर जेम्स पियरपॉन्ट ने संगीत ग्रुप के लिए लिखा था. उन्होंने इसे 'वन हॉर्स ओपन स्ले' शीर्षक से लिखा था. पर थैंक्सगिविंग गीत है, तो भी क्या! गर कोई अपनी ख़्वाहिशों के आसमान में चाँद-तारे टांकने को इसे गुनगुना लिया करता है! ये गीत, उम्मीद देता है और इसे हर दिन गाया जाना चाहिए.
बच्चों के साथ, ‘क्रिसमस ट्री’ को सजाना मुझे आज भी अच्छा लगता है. यूँ भी मेरा मानना है कि वक़्त कितना भी बदल जाए, हम कितने ही समझदार क्यों न हो जाएं, घर कितने ही साजो- सामान से क्यों न भर लें! पर एक सैंटा क्लॉज की दरकार तब भी है, वो सरप्राइज़ सबको चाहिए. किसी भी उम्र में ये अब भी उतना ही अच्छा लगता है और इसके लिए जरूरी है कि हम भी किसी न किसी के सैंटा क्लॉज बनें.
Merry Christmas!
- प्रीति ‘अज्ञात’
#Merry Christmas! #newblog
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शनिवार, 19 दिसंबर 2020
कोरोना को हराने वालों के लिए जानलेवा बनती #Mucormycosis बीमारी को भी जान लीजिए
कोविड ने पहले से ही पूरी दुनिया को कम दुखी नहीं कर रखा है कि अब इससे जुड़ी एक नई जानकारी ने परेशानी खड़ी कर दी है. ख़बर आई है कि यदि आप कोविड से ठीक हो चुके हैं तो भी निश्चिंत होकर न बैठें! अपना ध्यान रखें क्योंकि कोविड मरीज के लिए नया खतरा बन म्यूकोरमाइकोसिस (Mucormycosis) नामक बीमारी ने दस्तक दे दी है.
हाल ही में कम रोग प्रतिरोधक क्षमता (Weak Immunity) वाले तथा कुछ कोरोना मरीज़ों में इसका संक्रमण (Infection) देखने को मिला है. इस घातक बीमारी के चलते अहमदाबाद में 2 की मौत हो गई तथा 2 अन्य की आंखों की रोशनी चली गई है.
मुंबई के कोविड अस्पतालों में भी ऐसे मामले देखने को मिले हैं. दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल के डॉक्टरों द्वारा भी इस ख़बर की पुष्टि की गई है. टीवी चैनलों के माध्यम से उन्होंने बताया कि पिछले दो सप्ताह में ऐसे दर्ज़न भर मरीज़ सामने आये हैं, जिनमें से पचास प्रतिशत अपनी आंखों की रोशनी खो बैठे हैं.
क्या होता है श्लेष्मा विकार (म्यूकोरमाइकोसिस)?
म्यूकोरमाइकोसिस (Mucormycosis), कवकीय संक्रमण (Fungal infection) का एक प्रकार है. इसे जाइगोमाइकोसिस या ब्लैक फंगस भी कहा जाता है. यह रेयर बीमारी है. इसमें लोगों की आंखों की पुतलियां बाहर आ जाती हैं. अधिकाँश मामलों में मरीजों की आंख की रोशनी भी चली जाती है.
यह इसलिए भी विशेष रूप से खतरनाक है क्योंकि यह पूरे शरीर में जल्दी फैलता है. समय पर उपचार न होने से इसका संक्रमण फेफड़ों या मस्तिष्क तक पहुँच सकता है. इसके कारण पक्षाघात (Paralysis), न्यूमोनिया और यहाँ तक कि मृत्यु भी हो सकती है.
चिकित्सकों के अनुसार इस बीमारी से ग्रस्त मरीज़ों में जीवन-मृत्यु का आंकड़ा 50-50 है. इसमें और कोविड में मुख्य अंतर यह है कि ये कोविड की तरह संक्रामक (Contagious) नहीं है अर्थात् ये एक से दूसरे को नहीं हो सकता.
कैसे फैलती है ये बीमारी?
Mucormyete मोल्ड्स के संपर्क में आने से म्यूकोरमाइकोसिस (Mucormycosis) होता है. ये सूक्ष्मजीव पत्ते, खाद के ढेर ( piles of compost), मिट्टी, सड़ रही लकड़ी (Rotting wood) आदि पर पाए जाते हैं. इन स्थानों पर उपस्थित मोल्ड बीजाणु (mold spores) साँस के माध्यम से शरीर में पहुँच सकते हैं. जिसके कारण केंद्रीय तंत्रिका तंत्र (central nervous system),आंखें, चेहरे, फेफड़ों, साइनस में संक्रमण विकसित हो सकता है.
ये कवक (Fungi) कटी या जली हुई त्वचा के माध्यम से प्रवेश करके भी संक्रमित कर सकता है. ऐसे मामलों में, घाव या जला हिस्सा संक्रमण का क्षेत्र बन जाता है.
किनके लिए हो सकती है, जानलेवा?
इस प्रकार के Molds या कवक (Fungi) सामान्य तौर पर उगते ही रहते हैं पर इसका ये अर्थ नहीं कि हर कोई इस बीमारी से संक्रमित हो जाएगा. इस संक्रमण की आशंका उनमें सबसे अधिक है जिनकी प्रतिरक्षा प्रणाली (Immune System) किसी बीमारी के चलते या अन्य किसी स्वास्थ्य समस्या के कारण अपेक्षाकृत कमजोर हो. इन लोगों को भी विशेष ध्यान रखने की जरूरत है-
कैंसर/ एचआईवी/ मधुमेह रोगी
जिनका हाल ही में अंग प्रत्यारोपण (organ transplant) या अन्य कोई शल्य चिकित्सा (surgery) की गई हो
त्वचा जल गई हो (Burns)
किसी चोट के कारण घाव या cut हो
लेकिन आमजन को भी सारी सावधानियां अपनाते हुए इससे बचकर रहना है.
नई नहीं है ये बीमारी !
सर गंगाराम अस्पताल के वरिष्ठ ENT सर्जन डॉ मनीष मुंजाल के अनुसार यह बीमारी नई नहीं है. इसे पहले भी कमजोर इम्युनिटी सिस्टम वाले लोगों, वृद्धों तथा डायबिटीज के मरीज़ों में देखा गया है. यदि आप इस श्रेणी में नहीं आते और वे मरीज़ जिन्हें कोविड ट्रीटमेंट में स्टेरॉयड की जरुरत नहीं पड़ी, उन्हें अधिक घबराने की आवश्यकता नहीं है. बस अपना ध्यान रखें.
नेत्र-विशेषज्ञ, डॉ जिगना कैसर का कहना है, ‘'कोविड से पहले, हज़ार मरीजों में पांच या सात ऐसे मामले देखने को मिलते थे, लेकिन कोविड के बाद हज़ार में से बीस मरीज़ों में म्यूकोरमाइकोसिस देखा गया है.
वहीं अहमदाबाद के रेटीना एंड ऑक्यूलर ट्रॉमा सर्जन, डॉ पार्थ राणा का भी कहना है कि पहले ये बीमारी पन्द्रह से बीस दिनों में फैलती थी लेकिन अब चार-पांच दिनों में ही मरीज़ की स्थिति गंभीर हो रही है यहाँ तक कि मृत्यु भी.
कैसे पहचानें इस बीमारी को?
मुख्यतः ये बीमारी श्वसन तंत्र (respiratory System) या त्वचा (Skin) के संक्रमण के रूप में विकसित होती है. इसमें खांसी, बुखार, सिरदर्द, नाक बंद, साइनस का दर्द देखने को मिलता है.
त्वचा (Skin) को संक्रमित करने के साथ ही ये शरीर के किसी भी हिस्से में फ़ैल सकती है. अतः त्वचा के कालेपन, फफोले, सूजन, कोमल हो जाना, अल्सर होने पर जांच करानी चाहिए.
यदि आपको छींक वाला जुकाम नहीं है. आपकी नाक में पपड़ियाँ निकल रहीं या क्रस्टिंग हो रही है. साथ ही उस साइड के गाल में सूजन है या फिर सुन्न महसूस हो रहा तो तुरंत ही चिकित्सक के पास जाकर जाँच कराएं. आँखों का लाल हो जाना, आँखों की रौशनी कम होना, आँखों या गालों में सूजन भी इसके लक्षण हो सकते हैं.
वैसे तो ये बीमारी शरीर के किसी भी भाग में हो सकती है पर सबसे ज़्यादा दुष्प्रभाव नाक एवं आंखों के आगे पीछे डालती है. नाक में यह फंगस बहुत तीव्र गति से वृद्धि करता है और तीन से पाँच दिन के अन्दर ही संक्रमण फैलने लगता है. सबसे पहले आंख के पीछे, फिर आसपास और फिर ब्रेन में फ़ैल जाता है. इसका मस्तिष्क तक पहुंचना ही जानलेवा बन जाता है. पर भूलें नहीं कि समय रहते इसका इलाज़ भी संभव है. अतः प्रारम्भिक अवस्था में ही जांच करा लें.
बचाव के लिए ये आसान तरीके अपनाएँ
पूरे शरीर को ढकते हुए कपड़े पहनने चाहिए.
ये जमीन में होता है अतः उसमें काम करते समय हमेशा लम्बे शूज पहनकर रहें और त्वचा को मिट्टी के सीधे सम्पर्क में न आने दें.
हवा में भी उपस्थित होता है तो मास्क पहनना न भूलें.
सफाई का पूरा ध्यान रखें. अच्छी तरह साबुन से हाथ-पैर धोएं.
किसी भी प्रकार के संदिग्ध संक्रमण के लिए डॉक्टर को दिखाना चाहिए. लैब में टिश्यू सैंपल देखकर म्यूकोरमाइकोसिस का पता लगाया जाता है. इसके उपचार के पहले चरण में Intravenous (IV) एंटिफंगल दवाएं दी जाती हैं और सर्जरी के द्वारा सभी संक्रमित ऊतकों (Infected tissues) को हटा दिया जाता है. अनुकूल प्रतिक्रिया मिलने पर ओरल मेडिकेशन दिए जाते हैं.
- प्रीति 'अज्ञात'
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शुक्रवार, 18 दिसंबर 2020
पड़ोसी के घर कोरोना आने के लक्षण, और बचाव!
इस समय कोरोना संक्रमण (Corona Infection) से पीड़ित परिवार और उनके स्वस्थ पड़ोसी दोनो ही धर्मसंकट का खतरा झेल रहे हैं. एक को अपनी पीड़ा साझा करने में तरह तरह की आशंकाएं हैं, तो पड़ोसी इसी कयासों के साथ दुबले हुए जा रहे हैं कि कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं? मतलब एक तो इंसान पहले से ही कम शैतान और झूठा न था, उस पर आ गया कोरोना. बोले तो 'करेला, नीम चढ़ा!' जी, हां! कहां तो हम सोच रहे थे कि कोविड-19 से त्रस्त इस दुनिया में अब मनुष्य पहले से कहीं अधिक समझदार और संवेदनशील हो जाएगा. पर न जी न! 'डोंट अंडर एस्टीमेट द नालायकपंती लेवल ऑफ़ दिस प्रजाति!' आरोग्य सेतु' भी किसी सरकारी पुल की तरह भरभराकर गिर गया. शुरू में तो सब उसे अपनी सुरक्षा हेतु ही इस्तेमाल कर रहे थे पर जैसे ही ख़ुद में लक्षण दिखने लगे तो इन्हीं महान लोगों द्वारा एप को ऐब की तरह देख, तत्काल प्रभाव से बर्ख़ास्त कर दिया गया.
तात्पर्य यह है कि हमें दूसरों से तो अपनी सुरक्षा की चिंता थी पर हमको संक्रमण होते ही इसे छुपाने पे पिल पड़े. मानो, कोरोना न हुआ ग़बन हो गया जी! अब तो जेल में फंसना पड़ेगा टाइप. इम्युनिटी सिस्टम फ़ेल क्या हुआ, लोग बच्चों की तरह अपनी मार्कशीट ही छुपाने लगे कि 'हाय, हाय दुनिया वाले क्या कहेंगे! कित्ती बेइज़्ज़ती की बात है!' मुए कोरोना ने इंसानों पर स्वार्थ का ऐसा मुलम्मा चढ़ा दिया है कि अब मनुष्य को मनुष्यता तक पहुंचने में कुछेक सदियां और लग ही जाने वाली हैं.अरे, भई! बीमारी ही तो है! क्या आपको इसके छुपाए जाने का खतरा सचमुच नहीं पता? चलिए, अगर कुछ लोग अपनी होशियारी दिखाने पर आ ही गए हैं तो देशहित में हमारा भी फर्ज बनता है कि इसका पर्दाफ़ाश करें!
ये हैं बीमारी छुपाए जाने के पांच प्रमुख लक्षण -
1- सहायकों को छुट्टी दे दी जाए अथवा दुमंज़िला मकान हो तो एक ही मंज़िल तक उसका आना-जाना सीमित कर दिया जाए.
2- फ़ोन पर बात करते समय उनकी भाषा में अतिरिक्त विनम्रता आ जाए या हर बात पर कहें कि 'भई! अब जीवन का क्या ठिकाना!'
3- अचानक ही उनका टहलना बंद हो जाए.
4- रोज जिनके यहां zomato की एक्टिवा खड़ी रहती थी, अब नदारद दिखने लगे.
5- नित राजनीति में डूबे प्राणी यकायक,सोशल मीडिया को अपनी जीवन-दर्शन से भरी पोस्ट से छलनी करने लगें!
और क्या कहें! बड़ी अजीब दुनिया है रे बाबा! बस, यही दिन देखने को रह गए थे! इस कोरोना ने तो सच्चाई का ऐसा जनाज़ा उठवाया है न कि न रोते बन रहा और न... हंसते तो हम वैसे ही कभी नहीं हैं.वैसे तो व्यक्तिगत बात है पर इस दुनिया में अब क्या अपना और क्या पराया! चलिए बताये देते हैं. पहले तो हमारी हेल्पर ने ही हमसे इस बीमारी को छुपाया, जैसे-तैसे हम ये बात बताने को ज़िन्दा बच गए.
इस दुःख से अभी पूर्ण रूप से उबर भी न पाए थे (बचने के नहीं, हेल्पर के झूठ के) कि पड़ोसी ने भी डिट्टो यही सितम ढा दिया. अब इस बात की भी बोल्ड और अंडरलाइन की गई बात ये है कि वो हेल्पर जिसे अपनी बीमारी छुपाते हुए जरा भी लाज नहीं आई थी, उसी ने ये ख़बर दी. उस पर ये भी बोली कि 'बेन, उन्होंने कितना गलत किया! बताना तो चैये था न?' उसकी इस मासूमियत पर उसके नहीं बल्कि अपने ही बाल नोचने और सिर धुनने का मन कर रहा था. दिल तो ये भी किया कि अभी ईश्वर के चरणों में पछाड़ें खाकर गिरुं कि 'आखिर, आप चाहते क्या हो?'
वो तो मेरे अच्छे करम के सदके, तभी एक देवदूत प्रकट हुआ. उसे तो मेरे मन की हर बात पहले से ही पता होनी थी. सो सीधे ही बोला, 'पड़ोसी का बेटा कैसा है?' मैं मुंह फुलाते हुए बोली, 'जब उन्होंने बताया ही नही कोविड का, तो हालचाल कैसे लूं? अब घर में है तो सही ही होगा!' वो बोला, 'पूछकर कन्फर्म कर ले न!' मैंने कहा कि 'न मरीज की भावनाओं से खिलवाड़ समझ लोग आहत हो सकते हैं.' वो गुस्से में भर बैठा, 'अबे भोली, उनकी भावना की ऐसी की तैसी! उनके घर की हेल्पर तुम्हारे घर आ रही थी, तो उन्होंने किस बात का ख्याल रखा?' फिर मेरे गाल पर प्यार भरी थपकी देते हुए बोला 'अरी भोली! उनसे ऐसे पूछ ले कि आपका बेटा कैसा है जिसको कोविड नहीं हुआ?' या फिर ये कहकर पूछ ले, 'आपका बेटा नहीं दिख रहा, कैसा है वो?' 'तू बस ऐसे 3-4 सवाल लिख कर ले जा, उनको पर्ची देकर कहना कि इनमें से किसी का भी जवाब दे दो! मतलब, उनको बुरा भी न लगे और अपने पेट में शांति भी पड़ जाए!
उसके आइडियाज को सुन मेरा ठीक वही हाल हुआ जो इस समय आपका हो रहा होगा. फिर भी हमने उससे कहा कि 'धक्के मार के निकाल देंगे मेरे को.' तो ज़नाब बोले, 'अबे, तो तू उधर मत जा न! अपनी बाउंड्री से उधर पर्ची फेंक दे और पड़ोसी को बोल कि उठा कर पढ़ लो, पीछे जवाब लिख देना.' या फिर ऐसा कर कि तू सीधे एक पब्लिक पोस्ट ही लिख दे कि 'मुझे पड़ोसी पर शक है. उनके घर में कुछ गड़बड़ है. वरना वो यूं मुंह लटकाए झूले पर बैठे नहीं रहते हैं. आज वो नज़रें चुरा रहे हैं.'
तो भई! हमने उसकी ये लास्ट वाली राय मान ली है. यदि आपको भी पता करना है कि 'पड़ोस में किसी को कोरोना हुआ है क्या' तो ये नुस्ख़े अपनाएं और सफ़लता मिलने पर हमारी फ़ीस अकाउंट में ट्रांसफर कर दें. फ़ीस न दें तो भी चलेगा बस मास्क पहनने, दो गज की दूरी और साबुन से हाथ धोने का पक्का वादा करते जाइए.
नारायण! नारायण!
शनिवार, 28 नवंबर 2020
Covid vaccine से 'अमृत' जैसी उम्मीद उगाए लोग ये 5 गलतफहमी दूर कर लें!
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कोरोना वैक्सीन बना रही भारत की तीनों लैब पर खुद गए. अहमदाबाद की ज़ाइडस बायोटेक से शुरू हुआ उनका दौरा कार्यक्रम भारत बायोटेक (हैदराबाद) और फिर सीरम इंस्टिट्यूट (पुणे) पर जाकर संपन्न हुआ. कोरोना वैक्सीन का टीका बनाने की प्रगति, उसके भंडारण के अलावा एक बड़ी चिंता इस बात की है कि यह टीका जल्दी से जल्दी भारत की 135 करोड़ से अधिक आबादी तक कैसे पहुंचाया जाए. हम जानते हैं कि यह बड़ा ही चुनौतीपूर्ण काम होगा. लेकिन, बुनियादी सवाल तो अब भी जहां का तहां ही है. क्या ये वैक्सीन हमें कोरोना के खतरे से बाहर निकाल लाएगी? अब जबकि कोरोना विकराल रूप धर चुका है तो सबकी नज़रें संकटमोचन वैक्सीन पर जा टिकी हैं. अब तो घरेलू हेल्पर भी पूछने लगी है कि वैक्सीन कब आ रही है? कुछ लोग तो इस भ्रम में ही जी रहे कि ये ऐसी जड़ी-बूटी है कि इधर हमने सेवन किया और उधर हम अमर हुए!
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बुधवार, 4 नवंबर 2020
भई! जरा महिलाओं का दर्द भी समझिए!
"बिंदिया चमकेगी, चूड़ी खनकेगी /तेरी नींद उड़े ते उड़ जाए/ कजरा बहकेगा, गजरा महकेगा" ये वाली बात आनंद बक्षी जी ने लिखकर, बताई. लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल जी ने उस पर शानदार ढुलकिया बजाकर और फिर लता जी ने सुमधुर गाकर भी बताई. उसके बाद मुमताज़ जी ने इस पर ग़ज़ब का नृत्य प्रदर्शन भी किया. और ये बात आज की नहीं, हमारे पैदा होने से भी पहले की है पर जिसे नहीं समझना उसे तो भगवान भी न समझा सके है, जी! अब देखिये इसी चक्कर में एक महाशय थाने की परिक्रमा कर आए. आप लोग भी सावधान रहिये, पत्नी जी को शृंगार करने के मौलिक अधिकार से वंचित करेंगे तो उसकी सजा जरुर मिलेगी. बराबर मिलेगी और वो भी इसी जनम में.
ख़बर आई है कि अपने प्यारे उत्तर प्रदेश में एक महिला ने थाने में अपने पति की शिकायत दर्ज करा दी. अब आप सोच रहे होंगे कि इसमें नया क्या है? जी, नया ही नहीं बहुत ही क्रांतिकारी हो गया है. कारण यह कि उसके पति परमेश्वर, उसे उसकी साड़ी से मैचिंग की लिपस्टिक, बिंदी एवं अन्य वस्तुएं नहीं लेने दे रहे थे. है न हद! अब कुछ लोगों का तो इस बात पर ठहाके लगाने का जी कर रहा होगा. पर भिया, हमारा नहीं कर रहा है. रत्ती भर नहीं कर रहा है. बल्कि हमें तो ये लग रहा कि तत्काल जाकर उस महिला की बलैयाँ लें, उसकी नज़र उतारें और मैडम तुसाद में उसकी मूर्ति लगवाकर पूजें उसे! महिला के इस कदम से ये भी पाठ मिलता है कि नारी सशक्तिकरण के नाम पर ज्ञान बाँटने से अच्छा है कि सीधे उसका प्रदर्शन ही कर दिया जाए. वैसे भी थ्योरी तो भाषण और किताबों में धरी रह जानी है. बात का वज़न तो तभी है जब कुछ प्रैक्टिकल हो. बोलो, है कि नहीं!
अब बताइये जो अपना घर-बार छोड़, बिना ना-नुकुर करे, पूरे भरोसे के साथ अपना जीवन आपके साथ गुज़ारने चली आई, अगर आप उसकी इत्तू सी मांग भी पूरी न करें तो लानत है जी आप पर! घनघोर एवं कड़ी निंदा के पात्र (कु वाले) हैं आप! मुझे तो उन पुलिसवालों पर भी भीषण गुस्सा आ रहा जिन्होंने इस महिला को समझा बुझाकर घर भेज दिया. आख़िर, क्या गलत कहा हमारी बहिन ने? क्यों न सजे सँवरे वो? अरे, दुष्टों! जरा ये तो बताओ कि उसका ये साज-शृंगार किसके लिए है? आई न शरम? उसके माथे की बिंदिया पे तुम्हारा नाम लिखा है, उसके होठों पे जो गुलाबी मुस्कान है वो तुम्हारे ही नाम से खिली है, वो रुनझुन पायल का जो संगीत है न उसमें तुम्हारी याद साथ चलती है और वो लाल-हरी हाथ भर-भर चूड़ियाँ जब खनकती हैं तो वो तुम्हारे ही प्रेम में लजा दोहरी हो रही होती है.और ज़नाब! आप तो सुबह के निकले संध्या काल में देव दर्शन देते हैं आपके पीछे वो घर-बार ही नहीं सँभालती बल्कि सामाजिक उत्तरदायित्व भी निभाती है. वो ही है जो आपको इस दुनिया से जोड़े रखती है. चाहे पडोसी के बेटे की शादी हो या कि चाची की बिटिया की गोद भराई; वही बताती है कि कहाँ, क्या देना है. आपका जन्मदिन हो या बच्चों का, वो पूरे साल प्लान करती है. अरे, कोई गिनाने की बात थोड़े न है, आप भी जानते हो कि कई बार तो आपको अपने ही बच्चों की क्लास के सेक्शन भी न पता होते! तो भाईसाब! वो तो सब करे लेकिन जो उसका मौलिक अधिकार है, वो आप उसे न दें! अच्छा! बहुत सही जा रहे हो! अजी, भगवान के लिए तनिक आप भी लजा लिया करो! आज करवा-चौथ पर कितने अरमानों से उसने हाथों में मेहंदी रचाई होगी, सोलह शृंगार कर दुल्हन-सी सजी होगी, दिन भर भूखी-प्यासी रहेगी कि उसके पिया की उम्र लम्बी हो और दोनों का साथ जन्म-जन्मांतर का रहे. और एक आप हैं! न जी, मैचिंग के सामान की तो कोई जरुरत ही ना है!
पुरुषों का तो क्या है! काला, नीला और भूरा..इन तीन रंगों की पेंट में ही ज़िंदगी निकाल लेते हैं. इसी के लाइट शेड की शर्ट या टी-शर्ट ले ली. चलो, ब्लू जींस और जोड़ दो! उनका तो पता भी न लगता कि ये नई है कि बीस साल पुरानी. एक ही तरह के दिखेंगे. सावन हरे न भादों सूखे! अरे, हम स्त्रियों के जीवन में कई समस्याएं हैं. हमें कपड़े डिसाइड करने में ही इतनी माथा-पच्ची करनी होती है. एक तो रिपीट नहीं कर सकते! उस पर ट्रेंडी भी दिखना है, फ़िगर भी चकाचक लगे. अब बड़ी मुश्किल से ये जो ड्रेस फाइनल करी है उसके साथ अटैचमेंट भी तो लगते हैं न! अगर गलती से भी लास्ट मोमेंट उसने दूसरी ड्रेस पहनने की सोच ली तो आप तो न, बस चकरघिन्नी बन मार्केट ही दौड़ते फिरोगे. सराहो अपने भाग्य को कि ऐसी सलीक़ेदार पत्नी मिली है. और ये तो भोली महिला थी जो बस चूड़ी, बिंदी और लिपस्टिक तक ही कहकर रह गई. नेक समझदार होती तो इसमें पर्स, सैंडिल, ताजा ज्वेलरी और जाने क्या-क्या जोड़ देती. फिर तो केस ही पलट जाता, उल्टा आप ही उस पर मानसिक उत्पीड़न का केस दर्ज़ करा रहे होते! तो सौ बात की एक बात ये है जी कि स्त्री है तो सजेगी-सँवरेगी ही, आपकी तरह नहीं कि मुँह उठाया और चल दिए.
- प्रीति 'अज्ञात'
बुधवार, 21 अक्तूबर 2020
DDLJ movie 25 साल बाद भी सर्वश्रेष्ठ पारिवारिक रोमांटिक फिल्म क्यों है?
प्रेम, इश्क़, मोहब्बत, प्यार आप जो जी चाहे, वो नाम दें इसे. किसी भी तरीक़े से पुकारें लेकिन यह दुनिया की एकमात्र ऐसी शय है जिससे हर कोई कनेक्ट होता है. हरेक दिल में इश्क़ का रंग सदा ही जवां रहता है. बस उसको ढूंढ लाने के लिए एक और अदद दिल की जरुरत होती है. यही कारण है कि हिन्दी फ़िल्मों में प्रेम का फ़ॉर्मूला हमेशा सुपरहिट रहा है. 1995 में 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे (DDLJ)' ने सिनेदर्शकों को प्रेम का ऐसा अनूठा उपहार दे दिया कि आज पूरे पच्चीस वर्षों के बाद भी इसका सुरूर सब पर हावी है. जो प्रेम में है वह अपने जीवन के सुर्ख रंगों से उसका मिलान करना चाहता है और जो प्रेम में नहीं है वो इसमें डूबना चाहता है. नए ख्व़ाब सजाना चाहता है. फ़िल्म जब कहती है कि 'मोहब्बत का नाम आज भी मोहब्बत है, ये न कभी बदली है और न कभी बदलेगी.' तो प्रेम रस में डूबे लोग इस बात पर पूरा भरोसा रखते हैं कि प्रेम से अधिक सच्चा कुछ भी नहीं! प्रेम नहीं तो कुछ भी नही! दर्शकों का यह यक़ीन ही फ़िल्म की बेशुमार सफ़लता के नए पैमाने गढ़ता है और इसके गीत आज भी हर जुबां पर गुनगुनाए जाते हैं. ये मोहब्बत की जीत है जो सदा अमर रहती है.
लड़की इक ख्व़ाब देखती है. उस ख़्वाब को जीने लगती है. उसका अल्हड़ मन ख़्वाबों में आए इस लड़के का इंतज़ार करता है. ये इंतज़ार केवल सिमरन का ही नहीं, हर उस लड़की का लगता है जिसने यौवन की दहलीज़ पर हौले से अभी पहला ही क़दम रखा है. सिमरन जब गाती है 'मेरे ख़्वाबों में जो आए...' तो न जाने कितने जवां दिलों की सांसें तेज हो अपने-अपने महबूब की तस्वीर सजाने लगती हैं.
ये मोहब्बत ही है जो सिमरन के ख़्यालों की ताबीर बन राज को उसके जीवन में ले आती है. तो उधर फ़िल्म देखने वाले अपनी धडकनों को थाम, मन ही मन उम्मीद के दीप जलाने लगते हैं. नीली आसमानी चादर पर लड़के चांद में अपनी महबूबा का चेहरा तलाशते हैं तो लडकियाँ रेशमी धागे से अपने सारे अरमान उस पर सितारों की तरह टांक आती हैं. कभी हरी-भरी वादियों में ये सारे सपने मुंह पर हाथ धर खिलखिलाते हैं तो कभी अचानक से गिटार पर कोई प्रेम धुन बज उठती है.
राज के रूप में एक ऐसे सच्चे प्रेमी का चेहरा उभरता है जो दोनों बांहें फैलाए अपनी सिमरन को सीने से लगाता है. उसकी बातों पर खूब हंसता है, उसे छेड़ता रहता है पर दिल की शहज़ादी बनाकर रखता है. प्रेम में डूबा ये खिलंदड़ लड़का किसी भी बात से परेशान नहीं होता. उल्टा हंसकर कह देता है कि 'बड़े-बड़े शहरों में ऐसी छोटी-छोटी बातें होती रहती हैं.' राज को ख़ुद पर भरोसा है और सिमरन को राज पर. दोनों का प्रेम पर अटूट विश्वास एक बार भी डगमगाया नहीं.
तो फिर हर प्रेमी-प्रेमिका, आख़िर राज-सिमरन सा क्यों न बनना चाहेंगे! दरअसल DDLJ ने केवल सफलता के दसियों कीर्तिमान ही नहीं गढ़े बल्कि प्रेम के नए प्रतिमान भी स्थापित किए. दोनों हर प्रेमी जोड़े की तरह इश्क़ में दीवाने हैं. सिमरन आम भारतीय लड़कियों की तरह थोड़ा डरती भी है पर राज पल भर को भी नहीं घबराता. वो भागना नहीं चाहता बल्कि अपनी दिलरुबा के मासूम चेहरे को हाथों में थाम, पूरी क़ायनात की मुहब्बत उसकी झोली में भर देता है. वह भागने के लिए हामी नहीं भरता. बल्कि डिम्पल भरे गालों से मुस्कुराते हुए कहता है, 'मैं सिमरन को छीनना नहीं, पाना चाहता हूं. मैं उसे आंख चुराकर नहीं, आंख मिलाकर ले जाना चाहता हूं. मैं आया हूं तो अपनी दुल्हनिया तो लेकर ही जाऊंगा पर जाऊंगा तभी जब बाउजी ख़ुद इसका हाथ मेरे हाथ में देंगे.' अब इस बात पर न जाने कितने लड़के-लड़कियों ने अपनी प्रेम कहानी में नए पन्ने जोड़ लिए होंगे. कितनों को ही प्रेम की जीत पर भरोसा हो गया होगा. यक़ीन मानिए DDLJ की ब्लॉकबस्टर सफ़लता में इस एक दृश्य का भी बहुत बड़ा योगदान रहा है. इसने युवाओं के मन में प्रेम के लिए ये बात भी तय कर दी कि भिया! प्रेम का मकसद सिर्फ अपनी महबूबा को पाना ही नहीं, बल्कि उसके अपनों को अपना बनाना भी है. और ये काम छुपकर नहीं, डंके की चोट पर किया जाता है. उसी के बाद तो कह पाएंगे कि दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे.
वो सरसों के खेत का पीलापन आज भी दिल हराभरा कर देता है
इस फिल्म के बाद से जैसे सरसों के खेत में किसी ने मोहब्बत के बीज ही धर दिए थे. सरसों की लहराती फसल, अब किसी पवित्र प्रेम का प्रतीक ही बन गई थी. हर युवा अपनी एक तस्वीर तो वहां खिंचवाने ही लगा था. मोहब्बत का सुरूर अपने चरम पर था कि किसी दिन तो लड़की के सपनों का राज वहां उसकी प्रतीक्षा करता मिलेगा ही मिलेगा. गिटार की धुन से बावला मन, भागता हुआ उस प्रेम बीज के अंकुरित होने की बाट जोहने लगा था.
उधर लड़कों के दिल में इस बात का पक्का यक़ीन बैठ चुका था कि वो दिन जरुर आएगा जब वे कहेंगे कि 'अगर ये तुझे प्यार करती है तो ये पलट के देखेगी. पलट, पलट!' और जब लाल चुनरिया लहराती हुई उनकी 'जान' अचानक पलटकर देखेगी तो वे दीवानगी की हर हद पार कर जाएंगे. अब मान भी लीजिए कि हम सभी ने इस बात को जीवन के किसी-न-किसी दौर में आज़माया जरुर होगा. रह गए हों तो अब आजमाइए. बड़ा ही पुर-कशिश तरीका है ये.
DDLJ ने न केवल बिना किसी क्रांति के प्रेम की जीत का उद्घोष किया बल्कि पिता को भी इस विश्वास से जीत लिया कि अंततः उन्हें कहना ही पड़ा 'जा सिमरन जा! इस लड़के से ज्यादा प्यार तुझे कोई और नहीं कर सकता! जा बेटा, जी ले अपनी ज़िंदगी!' अब प्रेमियों ने मान लिया कि सबके दिल जीतकर ही प्रेम मुकम्मल होता है.
ये फ़िल्म मोहब्बत पर लिखी इक नज़्म की तरह है. हर दिल में राज या सिमरन होते हैं. हर कोई एक ऐसा साथी चाहता है जो उसका जीवन प्यार से भर दे. सपने देखने का हक़ सबका है और जब तक हम जीवित हैं, इश्क़ की तरह सपने भी जवां रहते हैं. आज अगर कोई मुझ-सी किसी सिमरन से वही सवाल पूछे, जो फिल्म में पूछा गया कि 'तुम अपनी ज़िंदगी मोेहब्बत के भरोसे एक ऐसे लड़के के साथ गुज़ार दोगी, जिसको तुम जानती नहीं हो, मिली नहीं हो, जो तुम्हारे लिए बिल्कुल अज़नबी है!' तो मेरा जवाब हां ही होगा. मुझे आज भी मोहब्बत पर यकीं है, ख़्वाबों के सच होने पर यकीं है, इंतज़ार के पूरे होने पर यकीं है और ये यकीं मुझे DDLJ ने ही दिया है.
शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2020
बापू को याद करते हुए
अहमदाबाद शहर की भीड़भाड़ भरी ज़िंदग़ी से बाहर निकल कहीं सुक़ून के कुछ पल बिताने हों तो मुझे 'साबरमती आश्रम' से बेहतर कुछ नहीं लगता! मुझे स्वयं भी याद नहीं कि कितनी बार यहाँ आई हूँ लेकिन कुछ ख़ास तो है जो मुझे खींच ही लाता है. 2 अक्टूबर हो या उसके आसपास, या चाहे कोई भी दिन, वर्ष में कम-से-कम एक बार किसी चुंबकीय प्रभाव के आकर्षण की तरह मेरे क़दम इस ओर चल पड़ते हैं. दूर न होता तो मैं प्रत्येक सप्ताहांत यहीं बसेरा कर बैठती. अच्छा! ये भी बताती चलूँ कि कुछ प्रेमी युगल भी अक़्सर यहाँ देखने को मिल जाते हैं. मुझे उनसे कभी शिक़ायत नहीं रहती. बेमतलब की हिंसा और तनाव के बीच में भी यदि प्रेम अपना स्थान सुरक्षित कर लेता है तो यह अच्छा ही कहा जाएगा. जो प्रेम करते हैं वो कुछ करें या न करें परन्तु किसी का नुक़सान तो नहीं ही करते हैं. इनकी अपनी एक छोटी, प्यारी सी दुनिया होती है.
मंगलवार, 29 सितंबर 2020
#के.बी.सी. के बहिष्कार और अमिताभ का विरोध करने वाले ये भी जान लें!
के.बी.सी. के बहिष्कार का कहने वालों की बुद्धि पर अब सचमुच तरस आने लगा है. इन्हें ये तक नहीं मालूम कि उस एक कार्यक्रम के पीछे न जाने कितने लोग जुड़े हैं. इन्हें तो बस अमिताभ बच्चन का विरोध करना है. उनके पैसे कमाने से आपत्ति है लेकिन एक 76 वर्षीय इंसान की मेहनत और लगन नहीं दिखाई देती! जहाँ हट्टे-कट्टे लोग भी दूसरे की जेब में हाथ डाल लाभ लेना होशियारी समझते हैं, किसी के विश्वास का फ़ायदा उठाने में कभी नहीं चूकते, वहाँ यदि कोई दिन-रात एक कर काम में लगा हुआ है और अपने कमाए धन से जी रहा है फिर भी कुछ लोगों के पेट में दर्द है. यह इंसान आवश्यकतानुसार दान भी करता है पर चूँकि उसे ढिंढोरा पीटना पसंद नहीं तो आप उस पर कुछ भी आरोप मढ़ते रहेंगे? क्या आपने कभी किसी की निःस्वार्थ सहायता की है या कि केवल सबको भावनात्मक और आर्थिक रूप से लूटते ही आये हैं? कुछ नहीं समझ आया, तो सामने वाले में कमी निकाल दो क्योंकि वह तो पलटकर कुछ बोलेगा नहीं. बस आप किसी के मौन का फ़ायदा उठा गढ़ते रहिये किस्से.
* चाइल्ड लेबर के विरोध में कौन खड़ा हुआ?
* 'स्वच्छ भारत अभियान' के ब्रांड एम्बेसडर कौन हैं?
* 'पल्स पोलियो अभियान' के बारे में सोचते हैं तो किसका चेहरा उभरता है?