शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2020

बापू को याद करते हुए

अहमदाबाद शहर की भीड़भाड़ भरी ज़िंदग़ी से बाहर निकल कहीं सुक़ून के कुछ पल बिताने हों तो मुझे 'साबरमती आश्रम' से बेहतर कुछ नहीं लगता! मुझे स्वयं भी याद नहीं कि कितनी बार यहाँ आई हूँ लेकिन कुछ ख़ास तो है जो मुझे खींच ही लाता है. 2 अक्टूबर हो या उसके आसपास, या चाहे कोई भी दिन, वर्ष में कम-से-कम एक बार किसी चुंबकीय प्रभाव के आकर्षण की तरह मेरे क़दम इस ओर चल पड़ते हैं. दूर न होता तो मैं प्रत्येक सप्ताहांत यहीं बसेरा कर बैठती. अच्छा! ये भी बताती चलूँ कि कुछ प्रेमी युगल भी अक़्सर यहाँ देखने को मिल जाते हैं. मुझे उनसे कभी शिक़ायत नहीं रहती. बेमतलब की हिंसा और तनाव के बीच में भी यदि प्रेम अपना स्थान सुरक्षित कर लेता है तो यह अच्छा ही कहा जाएगा. जो प्रेम करते हैं वो कुछ करें या न करें परन्तु किसी का नुक़सान तो नहीं ही करते हैं. इनकी अपनी एक छोटी, प्यारी सी दुनिया होती है.

ख़ैर! बीच शहर में होते हुए भी, महानगरीय अट्टालिकाओं से परे, वाहनों की चिल्लपों से दूर 'गाँधी आश्रम' का वातावरण अत्यधिक सुखदायी और शांतिपूर्ण लगता है. यहाँ चरखे के साथ-साथ गाँधी जी के जीवन से जुड़ी वस्तुएँ हैं, शानदार पुस्तकालय भी. 'गाँधी कुटीर' है, 'हृदय कुञ्ज' है, और भी बहुत कुछ! पीछे बहती हुई साबरमती इसे और सुरम्य बनाने में सफ़ल होती है. जब से रिवरफ्रंट बना है यह स्थान सुव्यवस्थित और सुन्दर भी हो गया है. अद्भुत प्रभाव है इस जगह का! हाँ, बाहर निकलते ही असली दुनिया से तो दो-चार होना ही पड़ता है.
इस बार नहीं जा सकी हूँ पर मैं बीते दिनों को याद कर रही हूँ. हर बार ही 'गाँधी जयंती' पर यहाँ किसी-न-किसी ख़ास शख़्सियत से मुलाक़ात होती है. मैं उनका नाम, पता, फ़ोन नंबर सब रख लेती हूँ कि उनके बारे में सबको बताऊँगी पर अंत में स्वयं की व्यस्तता और अन्य प्राथमिकताओं के चलते हार जाती हूँ. वो नाम और नंबर कहीं गड्डमड्ड हो चुके होते हैं और बस चेहरे याद रह जाते हैं. एक बार ऐसे इंसान से मिली थी जो अपनी साइकिल के माध्यम से देशभर को एकता का सन्देश दे रहे थे. पिछले वर्ष अपनी गाड़ी से 'हम सब एक हैं' का प्रचार करने वाले प्रेरणादायी व्यक्तित्व से मिलना हुआ था. दरअसल ऐसे करोड़ों लोग हमारे बीच हैं जो आज भी गाँधी को ज़िंदा रखे हुए हैं. दुखद है कि हिंसा की तमाम चीखों के बीच में इनकी ध्वनि कहीं दब सी जाती है. इन आवाज़ों से सनसनी पैदा नहीं होती और न ही किसी की टी.आर.पी. बढ़ती है तो बहुधा अनसुनी भी कर दी जाती हैं.
हर बार ही कुछ गाँधीवादी उम्रदराज़ लोगों से भी मिलना होता है. इनमें से कई ऐसे हैं जिन्होंने बापू पर बहुत शोधकार्य किया है. वे आँखों में चमक लिए उनकी बात करते हैं तो मन को बहुत अच्छा लगता है. कुछ चेहरों पर निराशा की झलक उदास भी कर जाती है जब वे बुझे ह्रदय के साथ ये कहते हैं कि "आज के दौर में शांति और अहिंसा की बात करना मूर्खता से अधिक कुछ नहीं!" मैं उनकी बातों को सुन बेहद शर्मिंदा महसूस करती हूँ कि जिस दौर की ये बात कर रहे हैं, हमने उसे क्या बना दिया!
सोचती हूँ कि जब हम अपराध के विरोध में खुलकर न बोले तो अपराधी ही तो हुए न!
अन्याय को देख हमने अपनी ज़ुबान सिल ली, तो फिर हम न्यायप्रिय कैसे हुए?
झूठ को जीतते देख ताली बजाने वाले, किस मुँह से 'सत्यमेव जयते' कह सकेंगे?
मैं मुस्कुराते हुए उन लोगों से बस इतना ही कहती हूँ कि "अरे! आप चिंता न कीजिए, सब अच्छा होगा. बुरे दौर का भी अंत तय ही होता है. गाँधी जी की विचारधारा हताश भले ही दिख रही है पर जीवित है अभी! हम मरने थोड़े न देंगे उसे अंकल जी". न जाने मैं उन्हें कह रही होती हूँ या स्वयं को ही आश्वस्त करने का प्रयास करती हूँ लेकिन हर बार बापू की मूर्ति को प्रणाम करते हुए जब उनका शांत चेहरा और मृदु मुस्कान दिखती है तो उम्मीद फिर जवां होने लगती है. विचारों में दृढ़ता आती है पुनः मैं एक और कोशिश में जुट जाती हूँ.
- प्रीति 'अज्ञात'
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