मंगलवार, 29 सितंबर 2020

#के.बी.सी. के बहिष्कार और अमिताभ का विरोध करने वाले ये भी जान लें!

                                                                                                                                           के.बी.सी. के बहिष्कार का कहने वालों की बुद्धि पर अब सचमुच तरस आने लगा है. इन्हें ये तक नहीं मालूम कि उस एक कार्यक्रम के पीछे न जाने कितने लोग जुड़े हैं. इन्हें तो बस अमिताभ बच्चन का विरोध करना है. उनके पैसे कमाने से आपत्ति है लेकिन एक 76 वर्षीय इंसान की मेहनत और लगन नहीं दिखाई देती! जहाँ हट्टे-कट्टे लोग भी दूसरे की जेब में हाथ डाल लाभ लेना होशियारी समझते हैं, किसी के विश्वास का फ़ायदा उठाने में कभी नहीं चूकते, वहाँ यदि कोई दिन-रात एक कर काम में लगा हुआ है और अपने कमाए धन से जी रहा है फिर भी कुछ लोगों के पेट में दर्द है. यह इंसान आवश्यकतानुसार दान भी करता है पर चूँकि उसे ढिंढोरा पीटना पसंद नहीं तो आप उस पर कुछ भी आरोप मढ़ते रहेंगे? क्या आपने कभी किसी की निःस्वार्थ सहायता की है या कि केवल सबको भावनात्मक और आर्थिक रूप से लूटते ही आये हैं? कुछ नहीं समझ आया, तो सामने वाले में कमी निकाल दो क्योंकि वह तो पलटकर कुछ बोलेगा नहीं. बस आप किसी के मौन का फ़ायदा उठा गढ़ते रहिये किस्से. 


जरा अपने भीतर भी झाँक लीजिए 
हद है! जो इंसान चाय तक नहीं पीता, क्या वो ड्रग्स के समर्थन में होगा? अरे, जो ड्रग्स लेता है वह व्यक्ति भी ड्रग्स के पक्ष में एक शब्द नहीं बोल सकता! दुनिया जानती है इसके नुक़सान. जैसे दुनिया अल्कोहल और स्मोकिंग के जानती है. तो अब क्या कीजिएगा उन बीमार लोगों का, जो इसके चलते मौत के कग़ार पर खड़े हैं? बुलवाइए सम्बंधित विभाग से कि ये ज़हर है, न बेचें. अपने आसपास के लोगों को इनका सेवन करने से रोकिए. पर उससे पहले अपनी तमाम बुरी लतें भी छोड़नी होंगी. पता है न? क्या किया आपने?
आप दूसरे से जितनी उम्मीद रखते हैं, पहले उसका एक-प्रतिशत ख़ुद भी करके दिखाइए. प्रश्न पूछना आसान है पर जरा अपने गिरेबां में भी झाँक ही लीजिए. 

जानिए, अमिताभ ने क्या-क्या किया 
दरअसल अमिताभ बच्चन को 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार' मिलने के बाद से ही कुछ लोग उनके विरुद्ध मोर्चा खोलकर बैठे हैं. पहले तो ये बता दूँ कि 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार' फ़िल्मों में आजीवन, अतुलनीय योगदान के लिए दिया जाता है. समाज सेवा के लिए नहीं! 50 वर्षों से उनकी फ़िल्मों के बारे में तो पता है न?
वो फ़लाने-ढिकाने के पक्ष में नहीं बोले, ये तो याद है आपको लेकिन उन्होंने क्या-क्या किया,आज ये जानने की ज़हमत भी उठा ही लीजिये-
* विरोधी किसानों का नाम लेकर उन पर आरोप लगा रहे. क्या आप जानते हैं कि उन्होंने हजारों किसानों का ऋण अपनी जेब से चुकाया है?
* आप मेट्रो के समर्थन को लेकर उन पर आरोप लगा रहे थे, जिसका पूरा लाभ उठाते समय आप स्वयं ही पर्यावरण की सारी बातें भुला बैठेंगे. आपने तो यह भी भुला दिया कि जिस फ्लैट में रह रहे हैं वहाँ भी कभी घना जंगल हुआ करता था. पर्यावरण की सुरक्षा हम सभी का कर्त्तव्य है पर पेड़-पौधे क्या अमिताभ उखड़वा रहे हैं? सरकार के सामने आप क्यों नहीं बैठ जाते धरने पर?
*'अवॉइडेबल ब्लाइंडनेस' (टाल सकने योग्य अंधेपन ) को समाप्त करने में मदद करने के लिए 'सी नाउ' अभियान किसने चलाया?
* 'मिशन पानी' कैंपेन का ब्रांड एंबेसडर कौन है?
* चाइल्ड लेबर के विरोध में कौन खड़ा हुआ?
* Educate girls अभियान के साथ कौन सक्रियता से अपने सेवायें दे रहा है?
* DD किसान चैनल के ब्रांड एम्बेसडर कौन हैं?
* 'दरवाज़ा बंद अभियान' का नाम सुना है आपने?
* 'स्वच्छ भारत अभियान' के ब्रांड एम्बेसडर कौन हैं?
* 'पल्स पोलियो अभियान' के बारे में सोचते हैं तो किसका चेहरा उभरता है?
* हेपेटाइटिस-बी उन्मूलन के ब्रांड एम्बेसडर कौन हैं?
* 'सेव टाइगर कैंपेन' से कौन जुड़ा है?
इन सबका एक ही उत्तर है - अमिताभ बच्चन और यक़ीन मानिये ये तो केवल बानगी भर है.

गंभीर व्यक्तित्व और उसकी गरिमा देखिए 
दिक़्क़त ये है कि जनता को वो लोग अधिक पसंद आते हैं जो काम तो एक करते हैं पर उसे  गिनाते चार बार हैं. कुछ लोग तो काम किए बिना ही उसका श्रेय लूट लेने में माहिर हैं. उन्हें पता है कि दिखावा पसंद दुनिया में स्वयं को प्रमोट कैसे किया जाता है. 
* जो अमिताभ के न बोलने पर प्रश्न उठाते हैं वे ये भूल जाते हैं कि अमिताभ तब भी एक शब्द नहीं बोले जब वर्षों तक लगातार मीडिया उनका चरित्र हनन करती रही. 
* उनकी अपनी कम्पनी डूब गई पर उन्होंने उसके दुःख का कभी रोना नहीं रोया क्योंकि उन्हें अपनी मेहनत पर अटूट विश्वास था. वे जानते थे कि जो गिरता है, वो उठना भी सीख ही लेता है. 
* उनके निजी जीवन, बच्चों, परिवार को लेकर आक्षेप लगते रहे पर उन्होंने मौन रहकर सब बर्दाश्त किया. कभी अपनी इंडस्ट्री के किसी साथी से ये अपेक्षा नहीं की कि वो उनके साथ खड़ा हो. न ही कभी उनके मुख से किसी के प्रति शिक़वा-शिक़ायत का कोई लफ़्ज़ ही बाहर आया है. 
यही उनका गरिमामयी व्यक्तित्व है जिसमें एक गंभीरता है, भाषाई मर्यादा है, सभ्यता है, अनुशासन है और अपने काम के प्रति अपार समर्पण. इसके माध्यम से ही उन्होंने सदैव अपने आलोचकों को उत्तर दिया है. आगे भी देते रहेंगे. तब तक उनके विरोधी थोड़ा और होमवर्क कर लें!
- प्रीति 'अज्ञात' 
इसे यहाँ भी पढ़ा जा सकता है- 

'कौन बनेगा करोड़पति' में कितने रंग शामिल और कितने उड़े हुए!


वापस आना पड़ता है, फिर वापस आना पड़ता है.
जब वक़्त की चोटें हर सपने हर लेती हैं 
जब राह की कीलें पग छलनी कर देती हैं 
ऐसे में भी गगनभेद हुंकार लगाना पड़ता है,
भाग्य को भी अपनी मुट्ठी अध‍िकार से लाना पड़ता है,
वापस आना पड़ता है, फिर वापस आना पड़ता है.

कहाँ बंधी जंजीरों में हम जैसे लोगों की हस्ती, 
ध्वंस हुआ, विध्वंस हुआ, भँवरों में कहाँ फँसी कश्ती,
विपदा में मन के बल का हथियार चलाना पड़ता है,
अपने हिस्से का सूरज भी खुद ख‍ींचके लाना पड़ता है, 
वापस आना पड़ता है, फिर वापस आना पड़ता है.

प‍त्थर की बंद‍िश से भी क्या बहती नद‍ियाँ रुकती हैं?
हालातों की धमकी से क्या अपनी नजरें झुकती हैं?
क़िस्मत से हर पन्ने पर क़िस्मत लिखवाना पड़ता है,
जिसमें मशाल-सा जज़्बा हो वो दीप जलाना पड़ता है,
वापस आना पड़ता है, फिर वापस आना पड़ता है'. 

के.बी.सी. में अमिताभ जब इन शब्दों का पाठ करते हैं तो थकेहारे हुए लोगों के खून में एक रवानी आ जाती है. संघर्षों से जूझने के हौसले बुलंद होने लगते हैं. यह कोरोना काल में यूँ ही बाँटा गया ज्ञान नहीं है बल्कि इसमें उम्र के सात दशक पार खड़े उस महानायक की अपनी जिजीविषा भी है. इसमें कोरोना संक्रमण से जूझते और उस विषाणु को परास्त कर फिर काम पर लौटते कलाकार का व्यक्तिगत अनुभव भी शामिल है. व्यक्ति जो कभी थका नहीं, हारा नहीं और जीवन की प्रत्येक मुश्क़िल के सामने डटकर खड़ा रहा, अड़ा रहा. कहता रहा "तुम कब तक मुझको रोकोगे?" ज़नाब, ये भारतीय फिल्म उद्योग को पचास वर्ष देने वाले शख़्स अमिताभ बच्चन का जादू है, जो यूँ ही सिर चढ़कर नहीं बोलता! 
प्रश्नों की गुगली कोई भी फेंक सकता है. प्रतियोगी का उत्साहवर्धन भी हर होस्ट करता ही है. चलो ज्ञानवर्धन भी ठीक और साथ-साथ खेलने का अपना आनंद भी समझ आता है लेकिन 'कौन बनेगा करोड़पति' की सफ़लता का राज़ केवल और केवल अमिताभ ही हैं. 

कोरोना महामारी के चलते, शो के फ़ॉर्मेट में इस बार कुछ परिवर्तन हुए हैं. घड़ियाल जी का नाम इस बार पुनः परिवर्तित होकर चलघड़ी हो गया है. साथ ही इस बारहवें सीज़न में अब 'फ़ास्टेस्ट फ़िंगर फ़र्स्ट' में दस के स्थान पर आठ ही लोग रह गए हैं यद्यपि इससे कुछ विशेष अंतर् नहीं पड़ने वाला! 
हाँ, पाँच ऐसी बातें अवश्य हैं जिसे दर्शक और प्रतियोगी दोनों ही मिस करेंगे- 

दर्शकों के साथ की जाने वाली मस्ती कहाँ से आएगी?
वर्ष 2000 से प्रारंभ हुए के.बी.सी. का अब तक जो सबसे प्रबल पक्ष रहा है वो है, अमिताभ का वहाँ बैठी ऑडियंस से कनेक्ट होना, उनके साथ हँसी-ठिठोली करना. दर्शकों को भी इस सबका ख़ूब इंतज़ार रहता है. प्रश्नोत्तर के साथ-साथ बीच में होने वाली मस्ती, हास-परिहास के पलों की कमी, पहले ही एपिसोड में बहुत अखरी. यूँ अमिताभ इसका भी कोई तोड़ निकाल ही लेंगे, यह तय ही समझिये. 

महिला प्रतियोगियों के लिए अब कोई कुर्सी नहीं सरकाएगा! 
सोशल डिस्टेंसिंग के कारण प्रतियोगियों को अमिताभ से दूरी बनानी खलेगी, वरना हर बार तो लोग के.बी.सी. भूल, पहले दौड़कर उनसे गले मिलते थे. कुछ तो छोड़ते ही नहीं थे. फिर अमिताभ उनका हाथ थाम उन्हें सीट तक पहुँचाते थे. उनके प्रशंसकों की दीवानगी से भरा यह दृश्य अब हर बार मिसिंग होगा. महिला प्रतियोगियों के लिए अमिताभ पूरा सम्मान दर्शाते हुए उनकी कुर्सी थाम उन्हें बिठाने में मदद करते थे. इतना ही नहीं भावुक पलों में वे ख़ुद अपनी सीट से उठ उन्हें, कभी नैपकिन तो कभी पानी ऑफ़र करते थे. 

प्रतियोगियों का हौसला बढ़ाने को अब पहले सी तालियाँ न बजेंगी! 
पहले सही ज़वाब के बाद तालियों की गड़गड़ाहट से प्रतियोगियों को बहुत प्रोत्साहन मिलता था. कुछ लोग अपने यार-दोस्तों, परिवार के सदस्यों को लाते थे. एक निश्चित धनराशि जीतने के बाद कभी-कभी अमिताभ उस प्रतियोगी को पलटकर मुस्कुराने का कह देते थे, जिसके बाद वह फिर पूरे उल्लास के साथ आगे बढ़ता था. लाइव ऑडियंस की अनुपस्थिति के कारण ये सब, अब न हो सकेगा. कुल मिलाकर जोश भरने की सारी ज़िम्मेदारी अमिताभ पर ही आ गई है. 

अधिक धनराशि जीतने में मददगार ऑडियंस पोल का साथ भी छूटा!
ऑडियंस पोल, सबसे सटीक लाइफलाइन हुआ करती थी जो कि अब सम्भव नहीं! ऑडियंस अधिकांशतः सही होती थी और इस जीवनदान से कई प्रतिभागियों की डूबती नैया को सहारा मिल जाता था. तीन लाख बीस हज़ार तक की डगर आसान हो जाती थी. इसके हटने से उनकी मुश्किल बढ़ेगी और सप्तकोटि द्वार तक पहुँचने में बार-बार पसीना छलकेगा. 

वीडियो कॉल का लाभ शायद ही मिले! 
फ़ोन अ फ्रेंड के स्थान पर अब वीडियो कॉल का विकल्प जरूर है पर इसका भी वही हश्र होगा जो वॉइस कॉल का होता आया है. जी, यह बहुत कम ही काम आता है और प्रायः मित्र सोचने में ही समय समाप्त कर देता है. अमिताभ से बात होने की ख़ुशी में सहायक भूल ही जाता है कि उसे प्रतिभागी की मदद के लिए कॉल लगाया गया था.  वीडियो कॉल में तो फिर आलम ही अलग होगा.  

ख़ैर! इस बात में कोई संदेह नहीं कि के.बी.सी. में जो भी होगा, देखने लायक़ होगा. फ़िलहाल तो हमें इस बात का धन्यवाद अदा करना चाहिए कि गला फाड़ते एंकरों और सारी दुनिया को भूल एक ही ख़बर को इलास्टिक की तरह खींचती मीडिया से निज़ात पाने का कोई मौक़ा तो मिला. इस शो के बहाने न केवल हमारे सामान्य ज्ञान में ही बढ़ोतरी होगी बल्कि तथाकथित 'चर्चाओं' की असभ्यता, अशिष्टता से दूर हो हमारी भाषा की असल सभ्यता, उसके लालित्य को जानने-समझने का भी यही उचित समय है. भीषण चीख़-पुकार के दौर में यह शो एक आवश्यक मरहम बन सुक़ून देने आया है. 
- प्रीति 'अज्ञात'
आप इसे इंडिया टुडे की ओपिनियन वेबसाइट #iChowk पर भी पढ़ सकते हैं-
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रविवार, 27 सितंबर 2020

खुशहाल जीवन चाहिए तो कभी भी विज्ञापन के झांसे में मत आइये!

"बारात ठीक आठ बजे पहुँच जाएगी लेकिन हम आपसे एक बात तो कहना भूल ही गए!" शम्मी कपूर के इतना कहते ही थरथराते हुए लड़की वालों (अशोक कुमार) के पसीने छूट जाते. तुरंत ही नीले कुर्ते  में मुस्कियाते ज़ुबान पर लड्डू धर शम्मी जी कहते, "घबराइये मत हमें कुछ नहीं चाहिए! हम तो बस इतना चाहते हैं कि आप बारातियों का स्वागत पान पराग से कीजिए". अहा! दिल ही लूट लिया था, लड़की वालों का! उस समय दहेज प्रथा का जोर था (अब भी है पर आजकल  'उपहार' के नाम पर लेनदेन जायज़ ठहरा दिया जाता है) तो इस विज्ञापन ने लड़की को बोझ समझने वाले समाज में जैसे क्रांति ही ला दी थी. सुपरहिट रहा ये विज्ञापन! तभी तो आज तक याद किया जाता है. 

जबकि हुआ यह था कि दहेज़ का मुलम्मा चढ़ाकर, कंपनी ने भारतीयों की भावुक मानसिकता को अच्छे से भुनाया. साथ ही उनके हाथ में प्यार से पान मसाला/ गुटका भी थमा दिया था. 

यही सच है कि हम लोगों पर हमारे माता-पिता, शिक्षकों की बातें उतना असर नहीं करतीं जितना कि एक विज्ञापन कर जाता है. जब सचिन और कपिल हँसते हुए बताते हैं कि "बूस्ट इज़ द सीक्रेट ऑफ़ आवर एनर्जी" तो दूध से नफ़रत करने वाला बच्चा भी एक साँस में पूरा ग्लास गटक जाता है. पेप्सी ने आमिर, शाहरुख़, ऐश्वर्या जैसे सुपरस्टार्स  से "यही है राईट चॉइस बेबी,आहां!" कहलवाकर देश भर के फ्रिज़ में अपना स्थान सुरक्षित कर लिया था. कहने का तात्पर्य यह है कि जब से टीवी आया, तब से साबुन, तेल, नमकीन से लेकर बड़ी-बड़ी कारों तक की ख़रीद के लिए हम विज्ञापनों के मायाजाल में फँसे हुए हैं. ये बनाए ही इस तरह जाते हैं कि लोग उनसे कनेक्ट हो सकें! 
विजुअल का असर ही गहरा होता है. तभी तो फ़िल्मी कलाकारों/ खिलाड़ियों की लोकप्रियता को भुनाते हुए हमारे हाथ में कुछ भी थमा दिया जाता है. कहा न! हम लोग हमेशा से भावनात्मक मूर्ख रहे हैं जो केवल नेताओं की पिंगपोंग बॉल ही नहीं बने हैं बल्कि हर क्षेत्र में हर स्तर पर बनते आए हैं. 

हम सदा से कलाकारों को पूजते रहे, उन्हें अपना आदर्श मानते रहे, उनके साथ खिंची एक तस्वीर से लहालोट होते रहे हैं. तभी तो जब भी किसी से जुड़ा कोई कड़वा सच सामने आता है  तो सबसे पहले हम उसे खारिज़ करने में जुट जाते हैं. इस बार भी बॉलीवुड और टीवी इंडस्ट्री का जो नशीला सच सामने आ रहा, उसने प्रशंसकों के दिल तोड़ दिए हैं. इसीलिए सब उसकी मरम्मत में दिन-रात एक किये दे रहे. चाहे दुनिया पलट जाए पर छवि न बिगड़े! यही नेताओं के लिए भी होता रहा है. चाहे कितने भी अपराध कर लें पर सबकी ज़ुबान पर ताले लटक जाते हैं. उस पर उनके तो रुतबे का खौफ़ भी सताता है.

कभी किसी की गाड़ी ने किसी को कुचला तो हमने पल भर में उसे माफ़ कर दिया. कारण यही कि मरने वाला हमारा क्या लगता था! पर ये तो अपुन का हीरो है! गलत हो ही नहीं सकता! 
हमसे अपना घर तो ठीक से सँभाला नहीं जाता पर हमारी प्रिय जोड़ी के ब्रेकअप से हम ज़ार-ज़ार रोने लगते हैं. 
बाबा को जेल हुई तो पूरा देश घबरा गया कि "हाय! कितना भोला बच्चा! किसी को मारा थोड़े ही न था, बस घर में नैक हथियार ही तो मिले थे!" 
 
दरअसल हमने इन कलाकारों से इस हद तक जुड़ाव कर लिया है कि इनकी ग़लतियों को पहले तो हम स्वीकार ही नहीं कर पाते और जो आँखों के सामने साफ़-साफ़ दिख रहा, उस पर पर्दा डालने में ज़रा सी भी देर नहीं करते. इतने वर्षों में कास्टिंग काउच, नेपोटिज्म, हिंसा, अपराध और नशे से सम्बंधित आई सैकड़ों ख़बरों को हम सिरे से नकारते रहे हैं. हमने यह कहकर भी इन कलाकारों को सिर पर चढ़ाया है कि ये तो हर क्षेत्र में होता है. लेकिन अब यही उचित समय  है कि अब इन्हें ज़मीन पर उतार आम आदमी की तरह ट्रीट किया जाए.

इनके कोई सुर्खाब के पर नहीं लगे हुए हैं कि हम इनके लिए बिछावन बन जाएँ. जैसे हम और आप नौकरी कर रहे, ऐसे ही ये अभिनय. मन करे तो फ़िल्में देखिए और उस अभिनय को वहीं छोड़ भी आइए. जितना हो सके, इनके निजी जीवन से प्रेरित न होइए और न ही विज्ञापनों से. इन्हें हर बात का पैसा मिल रहा है जिससे कि हम मूर्ख बनते रहें! कितना और कब तक बनिएगा? ध्यान रहे, असल जीवन में हर कोई नायक नहीं होता, कुछ खलनायक भी होते हैं! 

मैं जानती हूँ कि सब अपने-अपने वालों के समर्थन में लगे हुए हैं. यह भी तय है कि अंजाम कुछ भी हो, कुछ समय बाद इस नशीली घटना को भी भुला दिया जाएगा. कारण यही कि हमारे पास कुतर्कों की कमी नहीं! उससे भी बड़ी बात यह है कि हमने नशे के शिकार घरों का दर्द समझा ही कहाँ है! हम तो कुआं भी तभी खोदते हैं, जब आग लगती है.
- प्रीति 'अज्ञात'
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शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

#SP_Balasubrahmanyam, जिन्होंने अपनी आवाज़ से रोमांस में घोला एक नया रस!

 

इस दुनिया में न जाने कितने लोग हैं जो हमारे जीवन पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव डालते हैं. कितने चेहरे हैं जो हममें ही भीतर कहीं हैं और हमें पता ही नहीं चलता! कितनी मधुर आवाज़ें हैं जो कई महत्वपूर्ण पड़ावों पर उंगली थामे साथ चलती हैं और हम पलटकर उन्हें शुक्रिया कहना भूल जाते हैं. आज एक ऐसा ही उदास दिन फिर आया है. 
अचानक ही ख़बर मिलती है कि एस. पी. बालासुब्रह्मण्यम नहीं रहे! दिल कहता है अरे, ऐसा कैसे हो सकता है! ख़बर को कन्फर्म किया जाता है और स्मृतियों की रेलगाड़ी धीमे-धीमे हर स्टेशन से गुज़रने लगती है.

बॉलीवुड में हर तरह की फ़िल्म बनती है. सबके अपने दर्शक होते हैं. लीक से हटकर बनी हुई फ़िल्मों के साथ-साथ रोमांटिक, लव स्टोरीज़ भी मुझे बेहद पसंद हैं. दुखांत वाली फ़िल्में देखने से बचती रही हूँ. आप थिएटर से उदास, निराश और आँखों में पानी भरे निकलो, यह बात मैं उस छोटी उम्र में स्वीकार ही नहीं कर पाती थी. अभी भी मुझे लगता है कि लोग प्यार से नफ़रत कर कैसे लेते हैं? जबकि नफ़रतों को खाद- पानी बेहिचक देते रहते हैं. 

'एक दूजे के लिए' मैंने देखी भले ही न, लेकिन इसके गीतों ने बहुत असर किया था. रफ़ी, किशोर की दीवानी, किसी बेहद छोटी लड़की के मन में एक नई आवाज़ घुलती जा रही थी. आख़िर ये कौन है जो सबसे अलग है! लगा जैसे कमल हासन ख़ुद ही गा रहे हों. एक अपनापन महसूस हुआ इस आवाज़ में! अभी बात यहीं तक ही थी कि 'मैंने प्यार किया' पर्दे पर आई. किशोर वय में इस फ़िल्म को देख लेना किसी अल्हड़ मन में हज़ार सपनों के बीज रोप देने जैसा था. फ़िल्म का 'दोस्ती में नो सॉरी, नो थैंक्स' जहाँ तमाम अरमानों को पंख देने की तैयारी में जुट चुका था, तो वहीं इसके सारे ही गीत दिल की वादियों में इतने गहरे उतरने लगे थे कि आज पूरे 30 बरस बाद भी ये अब तक वहीं जमे बैठे हैं. जैसे सूरज से उसकी रौशनी जुदा नहीं होती! जैसे चाँद को उसकी चाँदनी से बेपनाह मोहब्बत है! जैसे ओस के पत्ते पर सुबह-सुबह कोई बूँद इठलाती फिरती है! वैसे ही मैं भी इन्हें सुनती और मुस्कुराती घूमती. 
एस. पी जब गाते, 'मेरे रंग में रंगने वाली परी हो या हो परियों की रानी', मुझे लगता कि एक दिन कोई मेरे लिए भी ये गीत गाएगा. मैं उस वक़्त इतराते हुए अपने आप से ही 'यही सच है, शायद मैंने प्यार किया' कह हँस जाती. 'आजा शाम होने आई' में वो 'कम सून, यार! कहते, तो जी करता कि क़ाश कभी जब मेरा महबूब हो तो मुझे इसी अंदाज़ से पुकारे और मैं दौड़कर उसकी बाँहों में सिमट जाऊँ. मैं इस आवाज़ के सारे रंगों से मन का कैनवास इंद्रधनुष कर लेती. मुझ सी सपनों वाली लड़की, इसी सब में तो जी लिया करती है. 

एस. पी. बालासुब्रह्मण्यम ने भले ही हर अंदाज़ के नगमे गाये हों लेकिन मैंने उनसे मोहब्बत सीखी है. फिर चाहे वो सलमान और भाग्यश्री के रूप में ही क्यों न उतरी हो! हाँ, मुझे यह भी लगने लगा था कि वे कमल हासन की ही नहीं, सलमान की आवाज़ भी हैं,
यूँ भी 'प्रेम' का हर सुर, सीधा दिल में ही उतरता है. तभी तो 'हम आपके हैं कौन' का 'पहला-पहला प्यार है' युवाओं के मुलायम हृदय पर ताजा मक्खन की तरह जा लिपटा. उस पर 'दीदी तेरा देवर दीवाना' में थोड़ी शैतानियाँ भी सिखाई उन्होंने.  
'साथिया ये तूने क्या किया?', 'तुमसे मिलने की तमन्ना है', 'साजन' में 'बहुत प्यार करते हैं तुमको सनम', 'जिएं तो जिएं कैसे बिन आपके', 'देखा है पहली बार', रोज़ा का 'ये हसीं वादियाँ', मैंने प्यार किया, हम आपके हैं कौन, एक दूजे के लिए के सारे गीत और दसियों हज़ारों याद आते ही चले जाएंगे. हम बार-बार कहेंगे, "हाँ, ये भी मुझे बहुत पसंद है". पहले जहाँ इस बात को बोलने में एक ख़ुशी थी, अब कहते हुए गहरी उदासी भर जाती है. सितम्बर के सितम भी बीते माह से कम न रहे. 

यह कहना दुखद है कि मृत्यु में ही वो शक्ति है जो भीतर दबी हुई यादों को भी एक झटके में बाहर खींच लाती है. इस बार भी उसने यही किया. हाँ, ये गलत है पर न जाने क्यों ऐसा बार-बार होता है कि किसी के गुज़र जाने के बाद ही हम उसे बहुत याद करते हैं. जीवित व्यक्ति के लिए हम यह मानकर चलते हैं कि उसे कभी कुछ होगा ही नहीं! हमारे अपने हमेशा हमारे साथ रहने वाले हैं. 
हम भूल रहे हैं दोस्तों कि अब हमारे बीच 'कोरोना' नाम का विकराल दैत्य भी है. हमारे कितने अपने हम खोते जा रहे हैं. लाखों को निगलने के बाद भी इसकी भूख मिटती ही नहीं. निवेदन करुँगी कि कृपया मास्क पहनकर स्वयं को बचाइए और उन अपनों को भी, जिनके बिना आप जी नहीं सकते और न वे आपके बिना!
आवाज़ के जादूगर, क्या कहूँ! जो रंग आपने भरे हैं वो रहेंगे सदा. बेहिसाब नगमों के लिए आपका दिली शुक्रिया. आप जहाँ भी हों, हम सबकी बेशुमार मोहब्बत आप तक पहुँचे. हाँ, इतना जरूर कहूँगी कि 'साथिया, ये तूने क्या किया!'
विनम्र श्रद्धांजलि 
- प्रीति 'अज्ञात'
इसे आप इंडिया टुडे की वेबसाइट iChowk पर भी पढ़ सकते हैं -
#SPBalasubrahmanyam #एस_पी_बालासुब्रह्मण्यम #preetiagyaat #iChowk
Photo credit: Google

शनिवार, 19 सितंबर 2020

#चाँद_और_सूरज

 


रात भर पूरी मुस्तैदी से अपनी ड्यूटी निभाता चाँद, जब सुबह उबासियाँ लेते हुए चाय की एक प्याली तलाश करता है तो पहाड़ी के पीछे से अंगड़ाइयों को तोड़ते हुए सूरज बाबू आ धमकते हैं. उसे देख जैसे चाँद की सारी थकान ही मिट जाती है, चेहरा तसल्ली से खिल उठता है! क्यों न हो, आख़िर सूरज की चमक से ही तो चाँद की रोशनी है! 

उधर शाम को निढाल सूरज नदी में उतरते हुए, हौले से चाँद को देखता है. दोनों मुस्कुराते हैं. उसे विश्राम कक्ष में जाता देख, चाँद आकाश की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले लेता है और सारे सितारे भी दौड़कर उसकी गोदी में आ झूलने लगते हैं. 
सप्तऋषि साक्षी हैं इस बात के कि सूरज दूर होता ही नहीं कभी! वह तो उस समय भी नींद आँखों में भर, चाँद को ख़्वाब में देख अपनी पहली मुलाक़ात याद कर रहा होता है, जब यूँ ही एक दिन घर लौटते हुए वो चाँद से टकरा गया था. वो शैतान मन-ही-मन आज फिर सोचता है कि कल फिर चाँद को इसी बात पर चिढ़ाएगा कि "देखो, पहले मैंने ही तुम्हें सुप्रभात बोला था". 

मैं रोज़ ही शाम को छत पर टहलते हुए नीली विस्तृत चादर पर उनकी ये तमाम अठखेलियाँ देखती हूँ तो उन्हें एक ही रंग में डूबा पाती हूँ. उन दोनों के इस प्रेम को देखती हूँ, उनके सुर्ख़ गालों पर पड़े डिम्पल को देखती हूँ, एक-दूसरे की परवाह देखती हूँ. विदा न कहने की इच्छा होते हुए भी गले लग विदाई करता देखती हूँ और तुम्हें बेहद याद करती हूँ. 
-प्रीति 'अज्ञात'
#सुनो_हीरो #चाँद_और_सूरज #प्रीतिअज्ञात 

गुरुवार, 17 सितंबर 2020

#मोदी_जी #जन्मदिवसस्य शुभाशयाः


राजीव गाँधी जब 'कम्प्यूटर क्रांति' की तैयारी कर रहे थे तब मैं स्कूल में हुआ करती थी. राजनीति की समझ न तो तब थी और न ही अब है पर फिर भी उस समय मेरा बाल मन असहज था. मैं सोचती थी कि अभी तो हमारे देश के लोगों को ककहरा ज्ञान तक नहीं! ऐसे में कम्प्यूटर की बात करने का औचित्य ही क्या है! तब मेरे मन में जो भी रोष था, उसे कविता जैसा कुछ बनाकर लिख दिया था. यह तब 'स्वदेश' नामक समाचार-पत्र में प्रकाशित भी हुआ था. यहाँ मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि राजीव जी मुझे बेहद पसंद थे. अब उनकी ये बात मुझे पसंद नहीं आई, सो लिख दी थी!  तब ये सब सामान्य ही हुआ करता था. असहमति को स्थान था और कोई लड़ने नहीं आता था! न ही कोई सोशल साइट्स थी जो ब्लॉक करने की बार-बार धमकी दिया करतीं! 2010 के आसपास मुझे इस तक़नीक़ (कम्प्यूटर) को समझने की आवश्यकता महसूस हुई और तब मैंने मन-ही-मन राजीव जी को धन्यवाद भी दिया. 


अन्ना और केजरीवाल जी जब राजनीति में आने का मन बना लिए थे तब हम-सा प्रसन्न कोई और क्या ही हुआ होगा! यूँ राजनीति में मेरी दिलचस्पी तब भी नहीं थी, रही ही न कभी! पर उनके विचार जान, न जाने क्यों एक उम्मीद-सी जाग उठी थी कि अब मेरे देश में सब कुछ अच्छा हो जाएगा! ख़ैर! उनकी आपसी कलह ही उन्हें ले डूबी. हुआ वही, जो हर बार होता आया था! वही निराशा, वही भ्रष्टाचार, वही ग़रीबी और वही बेरोज़गारी की दीमक! हाँ, इन दिनों मुख्यमंत्री के रूप में वे ठीक ही काम कर रहे हैं, इतना तो मानती हूँ. 

वर्ष 2000 में, मैं अहमदाबाद आकर बस गई. अब हम तो उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश के दुखियारे लोग! जहाँ उन दिनों लाइट का आना एक इवेंट हुआ करता था! 'पानी आया, नहीं आया?' के प्रश्न के साथ पूरा दिन निकल जाता था. यूँ लगता था कि बस बिजली, पानी मिल जाए तो जीवन set है! यहाँ गुजरात में जो देखा तो आँखें चौंधियां ही गईं थी जैसे! अरे! यहाँ लाइट जाती ही नहीं क्या? ख़ुशी का पारावार न रहता था. चोरी, लूटपाट, अपराध से अख़बार भी सना नहीं रहता था. सड़कें बिना हिचकोले खिलाए यात्रा करा दें, यह भी एक स्वप्न ही सा था तब! पर यहाँ तो हर बात में वाह ही निकलती थी. उसी समय पहली बार मोदी जी का नाम कान में पड़ा और हम उसी क्षण उनके मुरीद हो गए! यूँ अटल जी भी सदैव से मुझे बेहद प्रिय थे. 

कहने का तात्पर्य यह कि किसी दल विशेष की ओर मेरा झुकाव कभी नहीं रहा. मैं ही क्या, बहुतों का नहीं होता! अरे! जो अच्छा, सच्चा काम करे, वही अपना नेता! व्यक्तिगत रूप से हमें किसी से क्या मिलना है? देश का अच्छा होगा तो अपना भी हो ही जाएगा न!
ख़ैर! हम देशवासियों की ये आदत ही है कि हम भरोसा बहुत सरलता से कर लेते हैं. उम्मीदें बाँध लेते हैं और फिर उनके पूरे होने की प्रतीक्षा भी रहती है हमें! मोदी जी जब प्रधानमंत्री बन विकास की बात करते थे तो मेरी आँखों में 'स्वर्णिम गुजरात' की तस्वीरें तैरने लगती थीं. उनका प्रधानमंत्री बनना किसी स्वप्न के साकार होने जैसा लगने लगा था. सच, मुझे बेहद ख़ुशी हुई थी. 

सब कुछ अच्छा ही रहता अगर इसमें भक्तजनों का प्रवेश न हुआ होता! ये न जाने कहाँ से वायरस की तरह फैलने लगे! ये भक्त किसी के बोलते ही कुतर्क पर उतरने लगते, लड़ाइयाँ होने लगीं. जिसने सत्ता के पक्ष में न बोला, वो देशद्रोही कहा जाने लगा! यक़ीनन ये मोदी जी ने नहीं सिखाया था लेकिन इस सब को रोका भी तो नहीं गया! देखते-ही-देखते, देश दो धड़ों में विभाजित हो गया! एक तो वो जो भक्त हैं और दूसरे वो जो विपक्ष में खड़े ललकार रहे हैं. सोशल मीडिया पर 'कट्टर ये', 'कट्टर वो' नाम से समूह बनते चले गए जिसने देश को ऐसी घृणा की आँधी में धर दबोचा कि हम अब तक इसकी तपिश झेल रहे हैं. हँसते हुए हमने भी कई बार इंगित किया पर हमारी आवाज़ अभी इतनी ऊँची हुई नहीं है कि उसका रत्ती भर भी असर हो कहीं! 

आज माननीय प्रधानमंत्री मोदी जी का जन्मदिवस है, उन्हें इसकी ख़ूब बधाई और शुभकामनाएँ!
हम तो उन्हें क्या उपहार देंगे लेकिन return gift में इतना चाहते हैं कि वे इन नफ़रत फैलाती ताक़तों के विरोध में जमकर बोलें, उन्हें ख़ूब लताड़ें और जड़ से ख़त्म करें. वे लोग जो संस्कृति संरक्षण के नाम पर विष-बेल रोप रहे हैं, उन्हें उनके हिस्से का उचित दंड दें. एक तो कोरोना महामारी, उस पर आर्थिक परेशानियों से जूझता देश अब आपसी वैमनस्यता और घृणा को और नहीं झेल सकता! चीन अलग ख़ून पीये ले रहा!
जन्मदिवसस्य शुभाशयाः, शतायु भवः 
- प्रीति 'अज्ञात'
#मोदी_जी #जन्मदिवसस्य शुभाशयाः #newblogpost #preetiagyaat #प्रीतिअज्ञात

शनिवार, 12 सितंबर 2020

कोरोना काल में 'नॉटी' का आगमन

 बहुत दिनों से 'भक्त' और 'देशद्रोही' उदास महसूस कर रहे थे. दो विपरीत सिरों पर तनहा बैठी उनकी ज़िंदगी से आनंद जैसे विलुप्त ही हो गया था. 'सेक्युलर समाज' में भी अजीब क़िस्म की बेचैनी थी. राजनीति अपनी रंगत खोने लगी थी.  कोरोना काल ने सबकी खुशियों को जैसे लील ही लिया था. चहुँ ओर दुःख और निराशा से भरी ख़बरें!जाएं भी तो कहाँ! दुनिया जमीन पर सर पछाड़-पछाड़ प्रार्थना करने लगी, "पिलीज़ ! कहीं से तो सुख की एक किरण ढूंढ कर लाओ न!"

एक दिन अचानक आसमान में बिजली चमकी और एक भीषण शब्द का गर्ज़न हुआ. ओह्ह नो! ओ मोरे भगवन! सबकी संस्कारी आँखें पारले पॉपिन्स की तरह अपनी कोटरों में से बाहर निकल आईं. कान हैरान-परेशान कि "हाय रब्बा! ये हमने क्या सुन लिया? क्या यही दिन देखने को हम अब तक चेहरे की खिड़की से बाहर लटके हुए थे? हम जन्मते ही गिरकर मर क्यों न गए! कम से कम बात बाहर तो न फ़ैलती! पूरा जीवन विफ़ल हो गया." सब जानते थे कि कान की पीड़ा सच्ची थी और बोलने वाले की ज़ुबां कच्ची थी. देश में त्राहिमाम मच गया. 

फिर एक दिन मंद-मंद मुस्काता 'नॉटी' आया. अर्थ समझते ही सबकी जान में जान आ गई हो जैसे. इसके दिमाग़ में कब्ज़ा जमाते ही दुनिया भर की खोई मुस्कान लौट आई है. 

अब 'नॉटी' दोस्त और दुश्मन के मध्य सेतु का कार्य करने लगा है! सभ्य समाज जो पहले भी कम नॉटी नहीं था, अब और भी इतराकर एक-दूसरे के कंधे पर हाथ मार, आँख मिचकाते हुए कहता है, "अरे, तुम तो बड़े नॉटी निकले!" अब जो असल में नॉटी ही है वो बड़े कन्फ़्यूज़न में है कि "भइया, क्लियर कर दो. जे तुम बिफोर कोरोना वाला बोल रए कि आफ्टर?"

वैसे तो राउता, ओह्ह सॉरी! मेरा मतलब रायता कुछ ज्यादा ही फ़ैल चुका है फिर भी शुक्रिया डिक्शनरी के एक और अर्थ का सत्यानाश करने के लिए. ऑक्सफ़ोर्ड वालों को बुरा लगे तो लगता रहे! हमारी बला से!
अब कोरोना काल में यही सब बातें तो थोड़ी बहुत रौनक़ ले आती हैं वरना इस स्थिर जीवन में रक्खा ही क्या है! सारी गति का पंचर तो Covid-19 जी निकाल ही चुके हैं. सबसे ज्यादा 'नॉटी' तो यही निकले!
- प्रीति 'अज्ञात'

गुरुवार, 10 सितंबर 2020

#UnmaskingtheMASK4 #TheMASK_Story4 #कोरोना_काल में वो कौन हैं जो 'मास्क' पहनकर भी जान खतरे में डाल रहे हैं!

 जान बचाने के लिए केवल 'मास्क' को पहन लेना ही काफ़ी नहीं!

हम जानते हैं कि कोरोना वायरस से आसानी से छुटकारा मिलने वाला नहीं है. रोज़ ही कहीं-न-कहीं से दुखद समाचार मिलता है. आज इसमें पीड़ित मरीज़ों की सबसे अधिक संख्या का एक और निराशाजनक अध्याय जुड़ गया है. जी, हमारे देश में पिछले 24 घंटों में 95,000 से भी अधिक नए संक्रमण सामने आए हैं जबकि 1100 से अधिक संक्रमित मरीज़ों की मृत्यु हो चुकी है. ये आँकड़े अपने-आप में एक अफ़सोसजनक रिकॉर्ड है.

आख़िर Covid-19 से लड़ने में क़सर कहाँ रह गई?

इस वायरस को हराने की कोई दवाई नहीं है. वैक्सीन के लिए दिसंबर तक का लंबा इंतज़ार करना पड़ेगा. उसके बाद भी एक सौ पैतीस करोड़ आबादी वाले देश के प्रत्येक नागरिक को यह कब और कैसे उपलब्ध होगी, उस प्रश्न का उत्तर मिलना अभी बाक़ी है. जब तक यह बन नहीं जाती, तब तक सारी अटकलें व्यर्थ हैं.  
ऐसे में 'मास्क' ही एकमात्र हथियार है जो हमें सुरक्षित रखने में 'मदद' करेगा. ध्यान रहे, 'मदद' करेगा! बचाने का कोई दावा इसलिए नहीं पेश किया जा सकता क्योंकि यह इस बात पर निर्भर करेगा कि आप उसे पहनने के सारे नियम अपना भी रहे हैं या नहीं!

सबसे पहले तो यह जान लें -
*मास्क पहन लिया तो इसका यह अर्थ नहीं कि अब आप बेधड़क भीड़भाड़ भरे इलाक़े में टहल सकते हैं!
*सोशल डिस्टेंसिंग का पालन अब भी उतना ही जरुरी है.
*बाहर भी तब ही जाएं, जब आवश्यक हो.
*सैनिटाइज़र या साबुन का प्रयोग पहले की तरह ही करते रहना है. 

जानिए, मास्क लगाने से सम्बंधित नियम
*सर्वप्रथम साबुन से हाथ धोएँ या  सैनिटाइज़र का प्रयोग करें.
*देखिए, मास्क गंदा तो नहीं या फिर कहीं से फट तो नहीं रहा!
*सुरक्षित है तो अब पहनें और जाँच लीजिए कि यह आपकी नाक, मुँह और ठुड्डी को अच्छे से कवर कर रहा है या नहीं! इसे गैप देकर हवा के लिए ढीला नहीं छोड़ना है.
*सुनिश्चित कीजिए कि मैटल वाली साइड ही नाक पर ऊपर की ओर है.
*यह भी देखिए कि रंगीन साइड बाहर की ओर है.
*बस, इसके बाद बार-बार नहीं छूना है.

सीखिए, मास्क को हटाना कैसे है?
*इसे कान के पीछे से लेकर हटाना है. सामने से न छुएँ.  
*हटाने के तुरंत बाद चेहरा, आँख, नाक को स्पर्श नहीं करना है.
*साबुन से हाथ धोएँ.
*इसे बच्चों के सम्पर्क में न आने दें और यदि डिस्पोजेबल मास्क है तो   तुरंत ही कूड़ेदान में डालें.
*रीयूज़ेबल है तो इसे तुरंत ही धो दें तथा सुरक्षित जगह सुखाएं.
*यदि मित्र के घर बैठे हैं और आपने मास्क हटाया है तो इसे दूसरों की पहुँच से दूर रखें. एक से मास्क होने पर अदला-बदली का डर है.
*यदि खाने-पीने के लिए आप इसे हटा रहे हैं तो पूरी तरह हटाइए. इसे गर्दन, ठुड्डी पर लटकाकर या सिर पर चढ़ाकर मत रखिए क्योंकि आपके शरीर के खुले भाग संक्रमित हो सकते हैं. पुनः मास्क लगाने पर कोई भी जीवाणु या विषाणु आपके भीतर प्रवेश कर सकता है.

भूलिएगा मत, मास्क भी तभी बचाएगा जब आप इन सभी नियमों का पूरी तरह से पालन करेंगे. ‘जान है तो जहान है’ हम सबने सुना है लेकिन अब ‘मास्क’ है तो ही जान बचेगी और उसके बाद जहान का दीदार संभव हो सकेगा!
- प्रीति 'अज्ञात' 
इसे यहाँ भी पढ़ा जा सकता है-
#TheMASK_Story4 #Mask #Covid19 #coronavirus #UnmaskingtheMASK4  #मास्कगाथा4  #preetiagyaat #प्रीतिअज्ञात  #iChowk
Photo Credit: Google  


बुधवार, 9 सितंबर 2020

#कंगना अपने घर ही गई हैं.

आज मुम्बई एयरपोर्ट के बाहर सोशल डिस्टेंसिंग का पूरी भव्यता से उल्लंघन हुआ. वाह! क्या विहंगम दॄश्य था! एक तरफ करणी सेना और दूसरी तरफ़ शिवसेना ने अपने-अपने मोर्चे संभाल लिए थे. करणी सेना ने कंगना के स्वागत में 'जय हो' का गान गाकर और शिवसेना ने उनके विरोध में फुफकार भर अपने-अपने कर्तव्यों का पूरी तन्मयता से पालन किया. इस घटनाक्रम में  दोनों सेनाओं का आत्मविश्वास और समर्पण भाव देखने लायक था. 

दुर्भाग्य से यदि आप पानीपत के प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय युद्ध देखने से वंचित रह गये हैं तो अपनी लक़ीरों को कोसना छोड़, तुरंत ही इडियट बॉक्स को ऑन कीजिए. तत्पश्चात पूरे युद्ध का सचित्र, ससंवाद पुनर्प्रसारण देख स्वयं को कृतार्थ महसूस कर लीजिए. संजय बनी मीडिया आपको पल-पल की अविस्मरणीय सूचना देने में तन-मन (न जी, धन उनका नहीं है) से लगी हुई है.

इस शौर्यपूर्ण मैच के घटित होते समय बी.एम.सी. हाथ में हथौड़ा लिए 'रिटायर्ड हर्ट' फील कर रही है तो पवेलियन में बैठी बी.जे.पी. मजे ले आइसक्रीम खा रही. उसे पता है कि अपन खेलें या न खेलें, टीम का हिस्सा हों कि न हों पर जीतेगा तो.......!

फ्लाइट के अंदर बैठे यात्री जो अभी तक स्वयं को धन्य महसूस कर रहे थे, उन्हें पता नहीं कि बाहर आते ही उनकी इस धन्यता पर कड़ा प्रहार होगा और टैक्सी के लिए उन्हें अभूतपूर्व धक्कामुक्की से जूझना पड़ सकता है.  ख़ैर! आम जनता से अपने को क्या मतलब! उम्मीद है शाम तक टैक्सी कर आज रात तक तो वे अपने घर पहुंच ही जाएंगे. अब इतनी मुश्क़िल घड़ी में देश के लिए इतना तो कोई भी हँसते- हँसते सहन कर ही लेगा! 

और इस तरह देश के फोकस की सुई रिया से घूमकर कंगना पर सेट हो चुकी है. उनकी सुरक्षा व्यवस्था देखकर बड़े- बड़े लोगों के कलेजे पर साँप लोट रहा है.अब ज़िक्र कर ही दिया है तो एक बात और क्लियर कर दें कि अपने दुश्मनों से लड़ने को कंगना अकेली ही काफी हैं. वो जब चाहें इन तथाकथित सेनाओं को धूल चटा सकती हैं. उनके नाम से शहर के नेता भी काँपते हैं और अभिनेता भी! इस शेरनी को न तो किसी के सपोर्ट की जरूरत पहले थी, न अब है. हाँ, अब कोई ख़ुद ही गले पड़ जाए या अपना बन साथ खड़ा हो जाए तो अच्छा तो लगता ही है न जी!

अब मिलियन डॉलर प्रश्न ये बचा कि वो कहां जाएंगी? नक्को चिंता! अपनी मीडिया है न! उन्हें लेने आई थी तो क्या अब उनके डेस्टिनेशन तक, लाइव छोड़कर भी न आएगी? क्या बात करते हैं आप! वैसे इस पूरे प्रकरण में मीडिया का काम प्रशंसनीय है. हमें गर्व है कि रिया हो या कंगना, उनके लिए सब बराबर हैं. आज भी उन्होंने उसी निष्पक्षता और ईमानदारी का परिचय दिया, जिसके लिए हम उन्हें रोज सलाम करते आए हैं.

अच्छा, एक बात तो बताना भूल ही गए कि एयरपोर्ट के बाहर विरोध और समर्थन के नारे ऐसे टकरा रहे थे जैसे कि रामानंद सागर के रामायण में तीर टकराकर रस्ते में ही ढेर हो जाते थे. सुनने में दिक्क़त हो रही थी. उस पर पोस्टर भी ठीक से नहीं बनाए गए थे. न जाने क्या लिखा होगा, सोचकर ही बड़ी चिंता हो रही. शायद जल्दबाज़ी में ऐसा हो गया होगा! चलो, अगली बार ध्यान रखना. 

वैसे हमें पूरा यक़ीन है कि हर एक पोस्टर और नारे का विस्तृत विवरण, कंगना देंगी ही. अरे हाँ! सबसे जरुरी बात! एक बार 'पाकिस्तान चली जाओ' भी सुनाई दिया था. तब कहीं जाकर हमारे बेचैन दिल में कुछ चैन के भाव उमड़े. लगा, सब कुछ नॉर्मल ही तो चल रहा. हम खामखाँ हलकान हुए जा रहे!

* अभी-अभी ज्ञात हुआ कि कंगना अपने घर ही गई हैं.

- प्रीति 'अज्ञात' #Kangana Ranaut #कंगना_रनाउत 



मंगलवार, 8 सितंबर 2020

ब्रेकिंग न्यूज़, कहीं आपको भी तोड़ तो नहीं रही?

 

सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु की गुत्थी ने पूरे देश को उलझाकर रख दिया है. इस राष्ट्रीय विमर्श में आत्महत्या, नेपोटिज़्म, ड्रग्स से जुड़ी रोज़ एक कहानी सामने आती है. प्रेम कहानी से शुरू हुई चर्चा, अब नफ़रत के सैकड़ों किस्सों से भरी हुई है. 

समझ नहीं आता कि ये कंगना और रिया की लड़ाई है या बीजेपी और शिवसेना की! नेपोटिज़्म का खेल है या ड्रग माफ़िया का! ये दो राज्यों बिहार और महाराष्ट्र के अहंकार की लड़ाई भी बन चुकी है! 

जो भी हो रहा उसमें दोनों के परिवार बुरी तरह पिस रहे हैं. हाँ, मीडिया के एक 'महानतम' अलौकिक रूप से साक्षात्कार अवश्य हो रहा है. 

रोज़ ही सच और झूठ का पर्दाफ़ाश करने का दावा करती एक ब्रेकिंग न्यूज़ आपकी भावनाओं के साथ खेलती है. कल की कही कहानी आज झुठला दी जाती है. अब मीडिया ही पुलिस है, वही सबूत इकठ्ठा कर  रही, वही वकील और न्यायाधीश भी बन चुकी है. टीवी एंकर ख़ुद को ख़ुदा मान बैठे हैं. आप इनकी टोन और बॉडी लैंग्वेज देखिए, एक अलग ही क़िस्म का 'अहं ब्रह्मास्मि' उद्घोष करता हुआ दर्प इनके चेहरों से टपकने लगा है.

मीडिया का काम है ख़बरें देना, जनता की आवाज़ बनना. अच्छी-बुरी कैसी भी ख़बर हो, बिना किसी राजनीतिक झुकाव के उसे जस का तस रख देना उनका नैतिक कर्तव्य है. प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, उनकी पहली प्राथमिकता है कि सच सब तक पहुँचे. 
लेकिन हो ये रहा कि मीडिया ख़बर तो दे रही पर साथ ही उनमें 'सबसे पहले' का मैडल पाने की होड़ लगी है. 
जो किसी के पास नहीं, वो सारे सबूत मीडिया के पास होते हैं.  जब चाहें किसी की भी इज़्ज़त का जनाज़ा रोज़ कोई-न-कोई चैनल निकाल ही देता है. उस हिसाब से ही कुछ चैनल, दो गुटों को बुलाकर (कृपया भिड़ाकर पढ़ें) जनता का भारी मनोरंजन करते हैं. राह चलते किसी के भी मुँह में माइक ठूँस देने का हक़ इन्होने स्वयं ही ले रखा है, फिर चाहे बदतमीज़ी की हद तक भी क्यों न उतरना पड़े!
जो हो रहा और जिस तरीक़े से अनूठी भाव-भंगिमाओं के साथ हो रहा, उसे देख लगता है कि अपनी साख़ को बट्टा लगाने के लिए इन्हें अब किसी दुश्मन की ज़रूरत नहीं, ये स्वयं ही अपने पतन के लिए काफ़ी हैं!

केवल मैं ही नहीं, ऐसे कई लोगों को भी जानती हूँ जिन्होंने इन दिनों टीवी चैनलों से दूरी बना ली है. अख़बार पढ़ना छोड़ दिया है. व्हाट्स एप समूह के नोटिफ़िकेशन बंद कर दिए हैं. यह आम जनता की निरर्थक तनाव और बहस से दूर रहकर शांति पाने की क़वायद है. यहाँ ये भी स्वीकार करना होगा कि चीख-पुकार का आनंद लेने और उसे ही सच मानने वालों की भी कमी नहीं! इस तथ्य का ख़ुलासा चैनलों की बढ़ती हुई टीआरपी कर ही रही है. 

क्या हमने यह मान लिया है कि हम मीडिया के निर्लज्जता से भरे खेल को रोक नहीं सकते? 
क्या हम अपने ही मूल्यों से हार रहे हैं? 
क्या हमने परिस्थितियों के आगे सिर झुकाना स्वीकार कर लिया है?
क्या हम चुप रहने वाली क़ायर क़ौम का हिस्सा बनते जा रहे हैं? 
क्या हम इस बात को समझ चुके हैं कि हमारे हाथ में कुछ नहीं रहा और चेहरे को दूसरी तरफ घुमा लेना ही एकमात्र उपाय है?
हम तभी बोलेंगे जब हम पर आ बनेगी?

यदि ऐसा है तो जल्द ही ये देश मीडिया के इशारों पर नाचेगा. मीडिया ही सच और झूठ तय करेगी. जो कहानी को जितनी अच्छी तरह भूनकर परोसेगा वो जीतेगा. भले ही असल कहानी कुछ भी हो पर स्मृतियों में इनके दिखाए चेहरे और किस्से ही वर्षों तैरते रहेंगे. 
हम हर बार तालियाँ बजाएंगे और सहसा याद आएगा कि समस्याएँ तो अब भी जस-की-तस हैं और हम इनके हाथों के खिलौने बन चुके हैं. हम सब बिके भले ही नहीं हो लेकिन भीड़ का हिस्सा बन अपना ज़मीर तो खो ही बैठे हैं. 
ब्रेकिंग न्यूज़, कहीं आपको भी तोड़ तो नहीं रही? 
क्या आँख मूँद लेने भर से ही शांति मिल जाती है! जरा भी बेचैनी नहीं होती?
- प्रीति 'अज्ञात'
#मीडिया #न्यूज़चैनल #ब्रेकिंग न्यूज़ #सुशांतसिंहराजपूत



रविवार, 6 सितंबर 2020

याद कीजिए वो स्कूली युग, जब 'मुर्गा योनि' में गए बिना 'स्टूडेंट योनि' अधूरी थी


 वैसे तो हमें भगवान जी ने बहुत तसल्ली से बनाया है पर हमारे तंत्रिका तंत्र की एक-दो ढिबरियाँ गुजरते समय के साथ थोड़ी ढीली पड़ती जा रही हैं. इन्हीं खुलती हुई ढिबरियों के सदक़े आज 'शिक्षक-दिवस' के पावन पर्व पर समस्त शिक्षकों को धन्यवाद देते हुए हमें और भी बहुत कुछ याद आता ही चला जा रहा है. इस बेचैनी को क़रार तब तक नहीं आएगा, जब तक हम आपको बता नहीं देंगे!

अच्छा, उससे पहले ये सूचित कर दें कि भले ही अपन इसे 5 सितम्बर को डिजिटल धूमधाम के साथ मनाते हैं लेकिन हमको तो जैसे ही राह चलते कोई मुर्गा दिख जाता है न! तभी 'शिक्षक दिवस' की शीतल बयार हमरा हिया धड़काने लग जाती है. क्या आज के मुलायम बच्चों को पता है कि एक जमाने में, अपने विद्यालय के दिनों में मनुष्य को मुर्गा बनने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ करता था! मतलब एक ही जनम में दो-दो योनियों का फल! अहा! ग़ज़बै दिन थे वो. उस समय तो बड़ा दरद देते थे पर अब उन्हें याद कर बत्तीसी मचलने लगती है. आपकी भी मचली न? तबहि तो आप मुंडी हिला मुस्किया रहे!

तो बात मुर्गे की है पर इसे अपनी स्वाद कलिकाओं से न जोड़ लीजिएगा क्योंकि हम विशुद्ध शाकाहारी हैं. अब ये 'मुर्गा' बनाने की प्रथा कब और किन सामाजिक परिस्थितियों के चलते प्रारम्भ हुई, इतिहास में इस पर अब तक कोई पिरकास डाला ही नहीं गया. अतः हमहि लालटेन लेकर टिराई कर रये. 
गहन शोध के प्रथम चरण (phase 1) में प्रवेश करते ही सर्वप्रथम आपको इस अंतरजाल (Internet) युग को विस्मृत करना होगा. तत्पश्चात आँखों के शटर गिरा दीजिए. अब अपने आप से कनेक्ट होते हुए हौले से तनिक बचपन वाली कक्षा में प्रवेश कीजिए. 
का दिखा महाराज? 
ब्लैकबोर्ड, कुर्सी, मेज, टाटपट्टी, चॉक और ऊधम मचाते बच्चे? 
हाँ, एकदमै ठीकै जा रहे हैं आप. 

अब पुनः फोकस कर गंभीर मुद्रा में, कक्षा में प्रवेश करते शिक्षक महोदय की मनभावन छवि को हृदय में उतारिए. उई माँ! सर का तो मूडै ख़राब लग रिया (बिना चक्रवर्ती). 
देक्खा? शरीर के सारे कोहराम को सडन शॉक लग के छा गई न अपार शांति? अब डस्टर, चिकोटी, छड़ी के अलावा पिटाई से मीलों दूर एक ऐसी अनमोल सज़ा की वादियों में खो जाइए, जहाँ दरद शरीर नहीं डायरेक्ट दिल में होता था. आँसू,आँख से न टपककर, उहाँ ही कहीं तीर से धंस जाया करते थे. खासतौर से तब जबकि आप तो राजा बेटा की तरह ब्रेक में भी पढ़ रहे थे लेकिन अब पूरी क्लास को सजा मिली है तो भोगिए न पिलीज़. 'गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है' वाली कहावत तो चलो ठीक, पर नोट करते चलो कि हियाँ कक्षा काल से ही इतिहास में घुन के चक्कर में गेहूं पिसने की प्रथा प्रारम्भ हो गई थी.

इसके अतिरिक्त ताड़ासन (लड़कियों को ताड़ने वाला नहीं यू डिसगस्टिंग पीपल), बेंचासन और उठक-बैठकासन भी प्रचलन में थे. ये जो जिम में बड़ा कूल डूड बन आप स्क्वैट करते हैं न! दरअसल वो उठक-बैठकासन का ही अपग्रेडेड वर्ज़न है. लेकिन शिक्षकों के लिए जो सुख और अपार आनंद मुर्गा बनाने में था, उसका कोई तोड़ उस युग में तो प्राप्त न हो सका था जी. 
दुर्भाग्य से मासूम बच्चों के लिए इज़्ज़त का सबसे बड़ा फ़ज़ीता (फ़ालूदा जैसा ही) यही सज़ा थी. हम पढ़ने में अच्छे तो थे ही उसपे व्यवहार भी एकदम अनुशासित रानी बिटिया टाइप. लेकिन इतिहास ग़वाह है कि सामूहिक सजा में आम लोग सदा ही पिसते आये हैं तो हम भी बलि का बक़रा बन जाया करते! क़सम से उस समय टसुओं की गंगा-जमुना भर भीतर-ही-भीतर यूँ हुलकारे मारते, जैसे अपनी ही पर्सनल आँखों से अपना जनाज़ा निकलता देख रहे हों. बड़ा पीड़ादायक मंज़र होता. हाँ, बिजली तब और भी जोर से गिरती, जब लड़के उसके बाद भी मस्त हँसते-खेलते दिखते. हैं? जे क्या? हमें लगता, कहीं हम अकेले को ही तो सज़ा नहीं मिल गई थी! वो क्या था न कि अपन ये काम भी बड़े डेडिकेशन के साथ करते थे. अपना पूरा फ़ोकस संतुलन बनाने में रहता था. आसपास की दुनिया से एकदम कट जाते थे और पूरे समर्पण भाव से मुर्गा posture बनाते. 

अब सोचते हैं तो एक बात समझ नहीं आती कि हमें मुर्गा बनना इतना बुरा क्यों लगता था? ऐसा भी क्या इशु था बे! योग क्लास में मार्जरी आसन, उष्ट्रासन, भुजंगासन जेई सब तो कर रए. मतलब साँप की तरह मुँह उठाकर करें तो योगा और कुक्कुटासन की बात आई तो सज़ा? कितने दोगले हो भई? 

जिन्हें नहीं समझा उनके लिए बता दें कि मुर्गा बनने की विधि बहुत सिम्पल है. बस घुटने मोड़कर बैठो, फिर घुटने के जॉइंट बोले तो बॉल  एंड सॉकेट के नीचे से दोनों भुजाओं को कानपुर तक सरकाकर पहुंचा दो. हाँ, तब इस प्रक्रिया में सिर का नीचे झुके रहना अति आवश्यक था तबहि तो तुमको लज़्ज़ित टाइप लगेगा न!
चलते-चलते एक पॉइंट और लिख लीजिए कि कोई-कोई टीचर, मुर्गे (मानव) की पीठ पर डस्टर रख इस परीक्षा को अउर कठिन बना देते थे. अच्छा, यहाँ न्यूटन के गति का तीसरा नियम भी एप्लाई होता था. माने इधर डस्टर गिरा, उधर लात आई. 
खैर! कम लिखा, ज्यादा तो आप लोग समझ ही लोगे न!

आजकल के जमाने में तो बच्चों को गुरूजी डांट भी न सकते और एक वो समय था जब बेधड़क रुई की तरह धुन दिया करते थे. डंडे से ऐसी सुताई होती थी कि बच्चा सपने में भी सर/मैडम जी की तस्वीर देख चीत्कार मार बेहोश हो जाता था. बाद में उस भोले बालक को ये भी समझाया जाता कि "बेटा, ये तुम्हारी भलाई के लिए है." बेटे को ये बात भले ही ठीक से न समझ आती पर अगले ही दिन वो अपने छोटे भाई/ बहिन की भलाई करने हेतु डिट्टो यही नुस्खा आजमाता. पर हाय!उसके बाद पिताजी की चप्पल और माता जी के मुक्के जब उस पर ताबड़तोड़ बरसते तो वह भौंचक ही रह जाता कि अपन से गलती किधर हो गई?
 
तो वर्षों बाद आप यह जान ही चुके होंगे कि कुटाई के महासागर में टीचर की किरपा कहाँ  छुपी हुई थी. अब बचपन तो लौटा नहीं सकते पर फिट रहने के लिए  योगासन करना न भूलें और अपने सभी शिक्षकों को धन्यवाद भी कहें.
वैसे कोरोना वायरस ने लॉकडाउन के दौरान 'मुर्गा प्रथा' वापिस ला दी है. उल्लंघन करने वालों को पुलिस ने सरेराह खूब मुर्गा बनाया और वीडियो भी अपलोड कर दिए. बाक़ी वैलेंटाइन डे के दिन कुछ स्वघोषित संस्कारी संस्थाएं भी इस परंपरा को जीवित बनाए रखने का काम बड़े जतन से करती ही हैं. 
मुर्गा सलामत रहे और हमारे शिक्षकों का वो स्नेह-भाव भी!
हमारे टीचर्स ज़िंदाबाद! 
-प्रीति 'अज्ञात' 
कल iChowk में प्रकाशित 
#HappyTeachersDay  #TeachersDay #TeachersDay2020 #StudentPunishment

शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

इमरान ख़ान के नैतिक मूल्य और टिंडर का अनैतिक आचरण

 Casanova छवि वाले इमरान ख़ान द्वारा टिंडर डेटिंग एप को बंद किया जाना लोगों को हैरानी में डाल रहा है. वैसे यह निर्णय आश्चर्यचकित होने से कहीं अधिक हास्य का भाव उत्पन्न कर रहा है. यूँ लग रहा, जैसे अब संस्कारी टिंडर की लॉन्चिंग का समय आ गया है.

इमरान के प्रशंसक जब उनको देखते हैं तो उन्हें उनके अफेयर और   ग्लैमर से भरी दुनिया याद आती है. सत्ता पाकर वे ऐसे बदल जाएंगे, ये देखकर ही उनके प्रशंसकों में घोर निराशा है. उन्हें लग रहा जैसे उनकी भावनाओं के साथ धोखा हुआ. इमरान में ये नैतिकता पहले क्यों नहीं जागी थी? 
कोई सोच भी नहीं सकता था कि वे पहली फ़ुर्सत में टिंडर को ही विदा कर देंगे. रोमांस का बादशाह, रोमांस पर ही प्रतिबन्ध लगा दे तो अजीब तो लगेगा न!

भई, वो एक अलग समय था जब इमरान देश-दुनिया की हसीनाओं के दिलों पर राज़ करते थे. उनके नाम पर ख़ून से बेशुमार ख़त भी लिखे गए होंगे. अब कुछेक ब्याह-व्याह करने के बाद इंसान को इतना ज्ञान तो ख़ुद ही आ जाता है कि इन सबमें कुछ न रखा! उस पर उम्र का तक़ाज़ा बची-खुची उम्मीदों पर भी पानी फेर देता है. आपको क्या लग रहा, उन्हें ख़ुद दिक्कत न होगी? पर देखिए उनकी महानता कि देश की ख़ातिर उन्होंने कितना कठोर निर्णय ले दिखाया. वैसे यह घोषणा करने के पूर्व, वे दर्पण में ख़ुद को देख ख़ूब हँसे होंगे. अब उनका दिल कुछ तूफ़ानी करने का किया तो कम-से-कम उन्हें नैतिक शिक्षा में पढ़े पाठ तो दोहराने दीजिए. 

ग्लैमर की दुनिया से वर्षों पहले बाहर निकले इमरान जब राजनीति से जुड़े, उन्हें तब ही पता चल गया था कि अब इश्क़मिजाज़ी त्यागनी होगी! सोचिये, बिना कोई डेटिंग एप यूज़ किए कोई बंदा इतनी डिमांड में था! ग़र उस समय ये एप होते तो मैनेज करना ही मुश्किल हो जाता! तभी तो कहते हैं 'जो होता है अच्छे के लिए होता है' और 'जो नहीं होता वो और भी ज्यादा अच्छे के लिए होता है.' वैसे अब उनकी वो market value भी न रही. ये तो उन्हें भी पता है. 

मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए भी थोड़ा-बहुत ऐसा करना ही पड़ता है. अब ये अलग बात है कि अति उत्साह में बिना विचारे कर गए, तो अब अपने ही देश में आलोचना के शिकार हो रहे हैं.
ख़ैर! राजनीति के अपने क़ायदे-क़ानून होते हैं. यहाँ उन लोगों को ख़ुश भी तो करना पड़ता है जिनके हाथों ने आपकी कुर्सी को थाम रखा है. हमें तो इमरान मजबूर ज्यादा लग रहे. चेहरा तो देखो, कैसा मुरझा गया है! कोई गल ना! छवि अच्छी बननी चाहिए जी. 

अब इमरान के लिए नैतिक मूल्य किस हद तक मायने रखते हैं ये तो , हम सबको पता ही है. बताइए, टिंडर के अनैतिक आचरण से उनका संस्कारी मन आहत होगा कि नहीं होगा! हो सकता है पहले उन्हें पता ही न हो कि टिंडर क्या है. हमारी तरह उन्हें भी ये कार्बन डेटिंग एप लगा हो. अब सच्चाई पता लगते ही उन्हें आघात तो लगना ही था. इसलिए उन्होंने तुरंत ही देशवासियों को कुसंगति से बचाने के लिए पाँच एप बंद करा दिए. अब लोगों के पास एक ही उपाय है कि वे अपने नेताओं के आचरण से प्रेरित हों और उनके गुणों को आत्मसात करें. ख़ुदा की रहमत है कि उनकी धार्मिक जीवन- यात्रा खुली क़िताब की तरह है. 

उनकी इस मासूमियत और चिंता को देख "आय हाय मैं सदके जावां" कहने का दिल कर रहा. अरे, अंकल जी! जरा विवरण दीजिए कि "घृणा और नफ़रत का खेल कहाँ के संस्कार हैं?"
वो गोला बारूद के बोरे भी फिंकवा देते जो सबके दिलों में भरे जा रहे!
यह भी तनिक बताइए "वहाँ छुपे आतंकवादी किसके नैतिक मूल्यों का संरक्षण कर रहे हैं जी?"   
लगे हाथों आपको एक सलाह दिए देते हैं, "भिया, 'टिंडर' बस डायरेक्ट बता रहा लेकिन टाइटल पर मत जाओ! इश्क़ तो सात तालों में भी पनप सकता है. बाक़ी सोशल साइट्स मर गई हैं क्या?"
- प्रीति 'अज्ञात'
#Humour

गुरुवार, 3 सितंबर 2020

#Dove_story: मर्सिडीज़ पर आशियाना

दो पंछी दो तिनके कहो ले के चले हैं कहाँ

ये बनाएंगे इक आशियाँ 

अब भई! पक्षियों को तो कोई प्लॉट खरीदना नहीं पड़ता. उन्हें तो जो स्थान सुरक्षित लगे और पसंद आ जाए, वहीं अपना आशियाना बना लेते हैं. लेकिन हाल ही के एक वीडियो को देखने पर पता चला कि एक पक्षी ऐसा भी है जिसने अपने चूज़ों के जन्म के लिए बहुत ख़ास जगह चुनी. हाँ, पर ये बात उसे मालूम नहीं होगी. ये पक्षी बहुत ही सीधा-साधा मासूम फ़ाख्ता (Dove) है और जहाँ इसने अपने घोंसले के निर्माण का निर्णय लिया; वह दुबई के क्राउन प्रिंस शेख हमदान की मर्सिडीज़ कार की विंडशील्ड थी. अब फ़ाख़्ते को अमीरी-ग़रीबी से क्या लेना-देना, उसे तो जगह जम गई सो तिनके-तिनके जमा कर अपना घर बनाता रहा. 

कोई और होता तो शायद सफ़ाई मैंटेन करने की दुहाई देकर इसे एक ही झटके में हटा भी सकता था लेकिन ये प्रिंस तो सबसे अलग निकले. उन्होंने उस कार का उपयोग तब तक करने को मना कर दिया, जब तक कि चिड़िया के बच्चे बड़े नहीं हो जाते. कार के आसपास भी सबको जाने की मनाही थी.
दूर से ही उन्होंने उस चिड़िया की कुछ तस्वीरें खींचीं और वीडियो भी बनाया. इस वीडियो के इंस्टाग्राम पर शेयर होते ही यह वायरल हो गया. वीडियो बेहद ख़ूबसूरत है जिसने भी इसे देखा, वह प्रिंस की प्रशंसा किये बिना नहीं रह सका! ज़ाहिर है कि प्रशंसा उनकी नेकदिली की हुई और जमकर हुई. 

कई लोगों ने उनके व्यक्तिगत जीवन को इसके उलट भी बताया. बहरहाल, हमें तो ये किस्सा और वीडियो बहुत पसंद आया तो सोचा आपको भी बता दूँ. ये पोस्ट उससे अधिक है भी नहीं!
- प्रीति 'अज्ञात'
Video Link-
Photo Credit- Google
#Dovestory #Viraldove #birdnest #DubaiPrince #love

बुधवार, 2 सितंबर 2020

ऑनलाइन मीटिंग को सफ़ल बनाने के आठ घरेलू नुस्ख़े

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है लेकिन लॉकडाउन के बाद से यह सामाजिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो चुकी थी. तब जरुरत भर के लिए ही बाहर निकलना हो पा रहा था. अब लॉकडाउन लगभग हट ही गया है एवं लोग बाहर निकलने लगे हैं पर दिनचर्या अब भी कोरोना महामारी के पहले जैसी नहीं हो पाई है.

स्कूल, कॉलेज सब बंद हैं. बच्चों की पढ़ाई भी अब ऑनलाइन क्लासेस के माध्यम से हो रही है. यहाँ उनके माता-पिता को यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि पढ़ते समय बच्चा ऑडियो-वीडियो बंद न रखे. बार-बार किसी बहाने से उठकर जाए नहीं. उसके खाने-पीने का टाइम टेबल पहले से ही तय कर दें और यह सुनिश्चित कर लें कि वह बिना खाए पढ़ने न बैठे. 
इन दिनों जहाँ संभव है, वहाँ ऑनलाइन काम करने पर अधिक जोर दिया जा रहा है. यहाँ तक कि योगा क्लास, ऑफिस मीटिंग, साहित्यिक चर्चा, गोष्ठी इत्यादि के लिए भी ज़ूम, गूगल मीट इत्यादि ऐप का सहारा लिया जा रहा है. इससे घर बैठे काफ़ी काम आसानी से हो रहा है. लेकिन घर बैठने का यह मतलब बिल्कुल भी नहीं है कि ऑनलाइन कार्यक्रम के समय भी आप तौलिया या मैक्सी में नज़र आएं! आपको हँसी आ गई होगी, पर यह वाक्य सच्ची घटना पर आधारित है. 
भले ही आप घर में बैठे हैं लेकिन औपचारिक कार्यक्रमों में वीडियो पर उपस्थित होने के भी आठ सलीक़े होते हैं जिन्हें भलीभांति समझ लेना आवश्यक है -

शिष्टता - बीते दिनों एक ऑनलाइन सेमिनार में सहभागिता हुई. वहां एक महाशय पीछे टेका लगाए बनियान पहने साक्षात् हलवाई  का रूप धारण कर विराज़मान थे. देखकर दिमाग़ घूम गया. भई, दोस्तों के साथ की बात और है, तब आप वीडियो कॉल में कैसे भी रहें कोई फ़र्क नहीं पड़ता! लेकिन यदि कोई क्लास या औपचारिक कार्यक्रम है तो अनावश्यक देह प्रदर्शन से बचें.
 
समय की महत्ता - सबसे पहले तो यह सुनिश्चित कर लें कि जिस ऐप मीटिंग को आप अटेंड करने जा रहे हैं वह ऐप आपके मोबाइल में इनस्टॉल है या नहीं. चर्चा शुरू होने के बहुत पहले ही यह काम कर लिया जाना चाहिए जिससे कि आप समय पर उपस्थित हो सकें. वैसे भी समय का सम्मान तो करना ही चाहिए. यक़ीन मानिये उस समय आपका सिर्फ इस कारण देरी से उपस्थित होना बहुत ख़ीज़ पैदा करता है.

अनुशासन - होस्ट की कही बातों को ध्यान से सुनें एवं समझें भी. उसके बनाये नियमों का पालन करें. यदि उसने सबको म्यूट रखा हुआ है तो अपनी बारी आने पर ही बोलें. जहाँ समय सीमा होती है वहाँ तो इस बात का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए. यूँ भी एक साथ बोलने पर चर्चा किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकती. साथ ही आप असभ्य भी दिखते हैं.

व्यवस्थित रहें - विषय से सम्बंधित सभी वस्तुएं अपने पास रखें.  पेन, पेपर, बुक्स इत्यादि. मोबाइल म्यूट पर रखें. पानी भी एक हाथ की दूरी पर रख लें. कुल मिलाकर उस दौरान अतिशय मूवमेंट नहीं करना है. जी, गतिक की बजाय स्थिर अवस्था में रहना है.

सभ्यता न भूलें - ज्यादा तैयार न भी हों पर चेहरा धुला हो, साफ़-सुथरे कपड़े पहनें हों और बाल व्यवस्थित रहें. उबासी लेता हुआ इंसान औरों में भी आलस भर देता है. बैठने की पोज़िशन भी तय कर लें.
यदि बहुत लम्बी क्लास न हो तो खाना पहले ही निबटा लें. बीच-बीच में कुछ चुगते रहना अभद्र लगता है. यूँ दो घंटे बिना खाए भी जीवित रहा ही जा सकता है. कोशिश करके देखिएगा, हो जाएगा.

सूचना-प्रसारण - घर के सभी सदस्यों को अपने ऑनलाइन जाने की सूचना पूर्व में ही दे दें. जिससे कि आप जहाँ बैठने वाले हैं, यदि वहाँ उनका कोई सामान पड़ा हो तो वे उसे पहले ही उठा सकें. उस समय उनका झांकना, इशारों से बात करना उचित नहीं लगता. मन मसोसकर रह जाना पड़ता है. ये लोग कार्यक्रम के बीच में अतिथि कलाकार सा भ्रम देते हैं.

ये चाँद सा रोशन चेहरा - ध्यान रहे कि आप जहाँ बैठें, वहाँ रौशनी पर्याप्त हो. अँधेरे में तीर नहीं मारना है हमें. एक सार्थक चर्चा हेतु आपकी मुस्कान और चाँद सा चेहरा दोनों का दिखना जरुरी है. बैकग्राउंड पर भी ध्यान दें और कैमरे का एंगल भी समझ लें. 

न्यूनतम व्यवधान - बैठने के लिए ऐसे स्थान का चुनाव करें जहाँ न्यूनतम व्यवधान हो. पीछे झाड़ू-पोंछा मारते लोग या जमीन पर पछाड़े खाकर गिरता हुआ बच्चा हास्यास्पद दिखता है. ग़र ऐसी स्थिति उत्पन्न हो ही जाए तो उस समय तुरंत वीडियो ऑफ़ कर दें. यही वॉइस के साथ भी करना है. अन्यथा आपके बैकग्राउंड म्यूजिक का अंतर्राष्ट्रीय प्रसारण होने का भय बना रहेगा.
अब आप एक सफ़ल ऑनलाइन मीटिंग के लिए तैयार हैं.
- प्रीति 'अज्ञात'
राजधानी से प्रकाशित मासिक पत्रिका 'प्रखर गूँज साहित्यनामा' (सितम्बर अंक) में मेरे स्तम्भ 'प्रीत के बोल' में प्रकाशित -



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