मंगलवार, 8 सितंबर 2020

ब्रेकिंग न्यूज़, कहीं आपको भी तोड़ तो नहीं रही?

 

सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु की गुत्थी ने पूरे देश को उलझाकर रख दिया है. इस राष्ट्रीय विमर्श में आत्महत्या, नेपोटिज़्म, ड्रग्स से जुड़ी रोज़ एक कहानी सामने आती है. प्रेम कहानी से शुरू हुई चर्चा, अब नफ़रत के सैकड़ों किस्सों से भरी हुई है. 

समझ नहीं आता कि ये कंगना और रिया की लड़ाई है या बीजेपी और शिवसेना की! नेपोटिज़्म का खेल है या ड्रग माफ़िया का! ये दो राज्यों बिहार और महाराष्ट्र के अहंकार की लड़ाई भी बन चुकी है! 

जो भी हो रहा उसमें दोनों के परिवार बुरी तरह पिस रहे हैं. हाँ, मीडिया के एक 'महानतम' अलौकिक रूप से साक्षात्कार अवश्य हो रहा है. 

रोज़ ही सच और झूठ का पर्दाफ़ाश करने का दावा करती एक ब्रेकिंग न्यूज़ आपकी भावनाओं के साथ खेलती है. कल की कही कहानी आज झुठला दी जाती है. अब मीडिया ही पुलिस है, वही सबूत इकठ्ठा कर  रही, वही वकील और न्यायाधीश भी बन चुकी है. टीवी एंकर ख़ुद को ख़ुदा मान बैठे हैं. आप इनकी टोन और बॉडी लैंग्वेज देखिए, एक अलग ही क़िस्म का 'अहं ब्रह्मास्मि' उद्घोष करता हुआ दर्प इनके चेहरों से टपकने लगा है.

मीडिया का काम है ख़बरें देना, जनता की आवाज़ बनना. अच्छी-बुरी कैसी भी ख़बर हो, बिना किसी राजनीतिक झुकाव के उसे जस का तस रख देना उनका नैतिक कर्तव्य है. प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, उनकी पहली प्राथमिकता है कि सच सब तक पहुँचे. 
लेकिन हो ये रहा कि मीडिया ख़बर तो दे रही पर साथ ही उनमें 'सबसे पहले' का मैडल पाने की होड़ लगी है. 
जो किसी के पास नहीं, वो सारे सबूत मीडिया के पास होते हैं.  जब चाहें किसी की भी इज़्ज़त का जनाज़ा रोज़ कोई-न-कोई चैनल निकाल ही देता है. उस हिसाब से ही कुछ चैनल, दो गुटों को बुलाकर (कृपया भिड़ाकर पढ़ें) जनता का भारी मनोरंजन करते हैं. राह चलते किसी के भी मुँह में माइक ठूँस देने का हक़ इन्होने स्वयं ही ले रखा है, फिर चाहे बदतमीज़ी की हद तक भी क्यों न उतरना पड़े!
जो हो रहा और जिस तरीक़े से अनूठी भाव-भंगिमाओं के साथ हो रहा, उसे देख लगता है कि अपनी साख़ को बट्टा लगाने के लिए इन्हें अब किसी दुश्मन की ज़रूरत नहीं, ये स्वयं ही अपने पतन के लिए काफ़ी हैं!

केवल मैं ही नहीं, ऐसे कई लोगों को भी जानती हूँ जिन्होंने इन दिनों टीवी चैनलों से दूरी बना ली है. अख़बार पढ़ना छोड़ दिया है. व्हाट्स एप समूह के नोटिफ़िकेशन बंद कर दिए हैं. यह आम जनता की निरर्थक तनाव और बहस से दूर रहकर शांति पाने की क़वायद है. यहाँ ये भी स्वीकार करना होगा कि चीख-पुकार का आनंद लेने और उसे ही सच मानने वालों की भी कमी नहीं! इस तथ्य का ख़ुलासा चैनलों की बढ़ती हुई टीआरपी कर ही रही है. 

क्या हमने यह मान लिया है कि हम मीडिया के निर्लज्जता से भरे खेल को रोक नहीं सकते? 
क्या हम अपने ही मूल्यों से हार रहे हैं? 
क्या हमने परिस्थितियों के आगे सिर झुकाना स्वीकार कर लिया है?
क्या हम चुप रहने वाली क़ायर क़ौम का हिस्सा बनते जा रहे हैं? 
क्या हम इस बात को समझ चुके हैं कि हमारे हाथ में कुछ नहीं रहा और चेहरे को दूसरी तरफ घुमा लेना ही एकमात्र उपाय है?
हम तभी बोलेंगे जब हम पर आ बनेगी?

यदि ऐसा है तो जल्द ही ये देश मीडिया के इशारों पर नाचेगा. मीडिया ही सच और झूठ तय करेगी. जो कहानी को जितनी अच्छी तरह भूनकर परोसेगा वो जीतेगा. भले ही असल कहानी कुछ भी हो पर स्मृतियों में इनके दिखाए चेहरे और किस्से ही वर्षों तैरते रहेंगे. 
हम हर बार तालियाँ बजाएंगे और सहसा याद आएगा कि समस्याएँ तो अब भी जस-की-तस हैं और हम इनके हाथों के खिलौने बन चुके हैं. हम सब बिके भले ही नहीं हो लेकिन भीड़ का हिस्सा बन अपना ज़मीर तो खो ही बैठे हैं. 
ब्रेकिंग न्यूज़, कहीं आपको भी तोड़ तो नहीं रही? 
क्या आँख मूँद लेने भर से ही शांति मिल जाती है! जरा भी बेचैनी नहीं होती?
- प्रीति 'अज्ञात'
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