शनिवार, 11 जून 2022

कौन कहता है कि छलनी को फिर से चमचा नहीं बनाया जा सकता!

कौन कहता है कि आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता 

एक पत्थर तो तबीअ'त से उछालो यारो 

अब दुष्यंत साहब तो यह कहकर फिरी (भारमुक्त) हो लिए लेकिन एक ऐसी अनहोनी घटित हुई कि उसने सारा मंज़र ही बदल दिया. तात्पर्य यह कि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक, इस शे'र का पूरा का पूरा शोरबा ही बन चुका है. जिसे भर गर्मी में लोग रूहआफ़ज़ा वाली लस्सी समझ गटागट गटके चले जा रहे हैं. या खुदा! आने वाले काल और सोची समझी चाल से अनजान इन मासूम अहमकों को अब कौन समझाए कि पत्थर वाली बात का एगजेक्ट मतलब तो मेहनत करके अपने सपने को साकार करने से है. लेकिन काहे! इतना समझने की ज़हमत कौन करे! कायको करे! हमको तो लिटरली लेना है तो लेके रहेंगे!

 नतीजतन होना क्या था! वही हुआ, जो मंज़ूर ए खुदा होता है! अब मीठी नींद में मशगूल मियाँ अब्दुल के कानों में तो बस हर जुमेरात ये बेशक़ीमती शब्द बाँसुरी की तरह बजने लगे थे. वे सोते-जागते इसी मंत्र का रसपान करते कि 'एक पत्थर तो तबीअ'त से उछालो यारो'. उसके बाद भी उनके बेचैन दिल को क़रार नहीं आया तो आनन-फ़ानन में उन्होंने अपने बाशिंदों को बुलाकर ये ज्ञान फटाफट बाँट दिया. अब यहाँ थोड़ा पीछे जाकर समझना होगा कि वर्ष 1980 में बड़ी शान के साथ आनंद बक्षी जी ने यह सूचना सार्वजनिक कर ही दी थी कि ‘आते-जाते हुए ये सबपे नज़र रखता है/ नाम अब्दुल है इसका, सबकी खबर रखता है’. तो बाशिंदों को भी अपने आका पर सख्त वाला यक़ीन हो चला. आका ने समझाया, माने डायरेक्ट अल्लाह का संदेसवा! 

इतिहास गवाह है कि लफ़्ज़ तो कोरोना की माफ़िक़ सदा से वायरल होते ही आए हैं. सो, जनाब! ये जिस अदा से फूँके गए और जितना फूँके गए, उसी अनुपात में अमीबा की तरह बौराते चले गए (ये बात दीगर है कि बाद में अदरक की तरह कुटना भी इनका प्रारब्ध रहा. फिलहाल तो तेल देखो, तेल की धार देखो!). 

 अब खुदा की बंदगी में उम्र कहाँ देखी जाती है! इसलिए क्या छोटा और क्या बड़ा! सबने आसमान में सूराख करने का दिव्य लक्ष्य, अपने मासूम जह्न में रख लिया. निष्ठा के चक्कर में वो ये मेन पॉइंट ही भूल गए कि भिया! एकहि छेदवा करना था, नीले आसमां को चाय की छलनी बना देने की कोनू बात नहीं कही गई थी! अब ओवर कॉन्फिडेंस में शे'र का शीरा बने या कि दुष्यंत जी की आत्मा तड़पकर करवटें बदले, इन सच्चे बंदों को उससे क्या ही लेना-देना था! 

भोर होते ही सबने एक-एक पॉलिथीन उठाई और  चल पड़े. जुमेरात की रात तक, शहर के सफ़ाई अभियान में जमकर तल्लीन रहे. सफ़ाई भी इस क़दर कि किसी गली, मोहल्ले में कोई सड़ा अखरोट भी दिखता तो उसे पत्थर की केटेगरी में शरीक़ कर लिया जाता. बाकी मौलिक कंकड़, पत्थर को तो जो यथोचित सम्मान मिलना था; मिला ही! अंततः जुम्मे की वो सुहानी सुबह भी आई, जब बड़े ही कठिन परिश्रम से एकत्रित इस असबाब को जहाँ-तहाँ प्रक्षेपित किया गया. कुल मिलाकर 'तेरा तुझको अर्पण' तो सृष्टि का नियम है. सो, जो आदिकालीन हथियार जहाँ से आए थे, वहाँ उसी मिट्टी में पहुँचा दिए गए. नतीज़ा जल्द ही सामने आने वाला है क्योंकि इन्हें फेंका तो अल्लाह के बंदों ने, पर समेटने का काम स्थानीय धरतीपुत्रों अर्थात पुलिसकर्मियों ने भुन्ना-भुन्नाकर किया. समर्पित मीडिया ने इस खबर को टूटी-फ्रूटी आइसक्रीम पर एक्स्ट्रा चेरी लगाकर खूब जमकर बेचा भी. तिस पर बोनस में ऊपी वाली पुलिस तो ठुमका लगवाकर हीरो जैसा मस्त नाच भी करवाएगी.  

क्या कहें! हमरा कलेजवा और  दिल तो भौत जोर से ‘हूँ हूँ’ कर घबरा रहा क्योंकि दुष्यंत साब के शेर के साथ दीवानगी की हद तक, भयंकर वाला उन्मादी खिलवाड़ हो गया है. या सेकुलरों की मानें तो ‘मैं खिलाड़ी, तू अनाड़ी’ की तर्ज़ पर करवाया गया है. खैर! जो भी सच हो पर ये बात तो सोलह आने सच्ची है कि अब हर सनीचर, कहीं कोई देश का सच्चा रक्सक, मीठी मुस्कान लपेटे आत्मविश्वास से कहता मिलेगा कि ‘देश की सुरक्सा से खिलवाड़ बरदाश्त नहीं किया जा सकता!’ तभी काली घटा छाएगी, बिजली कड़केगी और बादल फटने की आवाज कानों में ड्रिल मशीन जैसा गहरा सूराख कर देगी. एन उसी वक़्त, आसमान में बोल्ड और अन्डरलाइन होकर दो नई चमचमाती पंक्तियाँ उभरेंगीं -

कौन कहता है कि छलनी को फिर से चमचा नहीं बनाया जा सकता

थोड़े बुलडोज़र तो तबीयत से चलाओ यारों 

तौबा, मेरी तौबा!

ऊप्स! जय श्रीराम! 🙏

- प्रीति अज्ञात