गुरुवार, 24 अगस्त 2023

कहीं हम अपनी स्वतंत्रता को हल्के में तो नहीं ले रहे?


आज हम अपनी आधुनिक साज-सामानों से सुसज्जित जिस दुनिया में आनंद लेते हुए अपनी स्वतंत्रता का उत्सव मनाते हैं, वहाँ यह भी आवश्यक है कि कुछ पल ठहर उस कठिन यात्रा पर विचार किया जाए जो हमारे पूर्वजों ने हमारी स्वतंत्रता को सुरक्षित करने के लिए प्रारंभ की थी। जिस स्वतंत्रता का मार्ग अमर शहीदों के बलिदान, साहस, समर्पण और अटूट संकल्प के साथ प्रशस्त हुआ था, वह एक ऐसी भावुक गाथा है जिसे हमें न केवल अपने इतिहास की किताबों में, बल्कि अपने दिलों और कार्यों में भी संजोना चाहिए।

आज़ादी की लड़ाई कोई सामान्य बात नहीं थी. यह वर्षों के उत्पीड़न, दमन और भीषण अत्याचार का संघर्षपूर्ण प्रतिरोध था। जिसके लिए औपनिवेशिक शासन के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले देशवासियों ने अपने जीवन, परिवार और भविष्य को दांव पर लगाकर अकल्पनीय कठिनाइयों का सामना किया। उन्होंने एक ऐसी भूमि का स्वप्न देखने का साहस किया, जहां नागरिक अपने बोलने की, धर्म की स्वतंत्रता और अपनी नियति निर्धारित करने के अधिकार का आनंद ले सकें। इस स्वतंत्रता को पाने और हमारा भविष्य सुरक्षित करने के उद्देश्य की खातिर  युद्ध के मैदानों में, क्रांतियों में, जेलों में, प्रताड़ना और अमानवीय अत्याचारों से अनगिनत महत्वपूर्ण जीवन नष्ट हो गए। यह स्वतंत्रता, अमर शहीदों का एक ऐसा ऋण है जो हम कभी भी चुका नहीं सकते। लेकिन इसका मान कभी कम न हो और इस आजादी को हल्के में न ले लिया जाए; इस उत्तरदायित्व को निभाना प्रत्येक भारतीय का परम कर्तव्य है।

स्वतंत्रता, अपने मूल में, मुक्ति के लिए संघर्ष का दूसरा नाम है। यह मानव इतिहास के ताने-बाने में गहराई से रची-बसी वह अवधारणा है, जो बाहरी नियंत्रण या प्रभुत्व से मुक्त होने की एक मौलिक स्थिति का प्रतीक है। इतिहास में, समुदाय और राष्ट्र अपनी स्वायत्तता सुरक्षित करने के लिए दमनकारी ताकतों के विरुद्ध सदैव ही उठ खड़े हुए हैं। समय-समय पर इस संघर्ष को क्रांतियों, स्वतंत्रता संग्राम और विभिन्न आंदोलनों द्वारा चिह्नित किया जाता रहा है।

यद्यपि स्वतंत्रता, किसी भी राष्ट्र के लिए एक शक्तिशाली उपलब्धि है परंतु यह संघर्षों का समापन बिंदु नहीं बल्कि एक सतत यात्रा है। इसे सुरक्षित रखने की प्रक्रिया भी उतनी सरल नहीं! स्वतंत्रता की इस सुरक्षा में समावेशी समाजों का पोषण, नागरिकों का सम्मान एवं रक्षा, लोकतांत्रिक मूल्यों का सम्मान, सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण एवं वैश्विक शांति को बढ़ावा देने के विविध प्रयास निहित हैं। आने वाली पीढ़ियाँ एक स्वस्थ, स्वच्छ वातावरण में निवास करें इसके लिए पर्यावरणीय स्थिरता का पुष्ट रूप से समर्थन भी यहाँ महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

स्वतंत्रता, व्यक्तियों को अपने अंतर्निहित अधिकारों और स्वतंत्रता का प्रयोग करने के लिए भी सशक्त बनाती है। यह नागरिकों को दमन के डर के बिना अपनी राय व्यक्त करने, अपनी पहचान व्यक्त करने और अपने जीवन को आकार देने का अधिकार देती है। यह अधिकार ही ऐसे लोकतांत्रिक समाज का आधार बनता है, जहां नागरिक सक्रिय रूप से शासन में भाग लेते हैं और सामूहिक रूप से अपने राष्ट्र की दिशा और दशा निर्धारित करते हैं।

कह सकते हैं कि स्वतंत्रता के मूल्यों को मात्र इतिहास से ही नहीं मापा जाता है और न ही अतीत की उपलब्धियों का उत्सव मनाने से, बल्कि इस बात से भी मापा जाता है कि कैसे समाज और व्यक्ति स्वतंत्रता को रेखांकित करने वाले मूल्यों को बनाए रखने में अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन करते हैं।

वर्तमान समय में हम तेजी से आगे तो बढ़ रहे हैं पर  यह देखना निराशाजनक है कि बलिदानों के प्रति हमारा सम्मान कितना कम हो गया है। जिन सिद्धांतों पर हमारे देश का निर्माण हुआ था, वे अधिकार, शालीनता और विभाजनकारी व्यवहार की संस्कृति के बीच लुप्त होते जा रहे हैं। हमारे पूर्वजों ने जिन मूल्यों के लिए संघर्ष किया, उनके प्रति अनादर की घटनाएं अब बहुत प्रचलित हैं, जो कि उनके बलिदानों की विरासत को धूमिल कर रही हैं।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जिसके लिए बहुत बहादुरी से संघर्ष किया गया था, अब कभी-कभी घृणास्पद भाषण और गलत सूचना के लिए ढाल के रूप में उसका दुरुपयोग किया जाता है। जिस अधिकार का उद्देश्य लोकतांत्रिक चर्चा को बढ़ावा देना था, उसे रचनात्मक बातचीत और सामूहिक विकास के लिए एक उपकरण के रूप में उपयोग करने के स्थान पर व्यक्तिगत एजेंडे के लिए भुनाया जा रहा है।

हमारे पूर्वज समस्त मतभेदों को पार कर, एक समान उद्देश्य के लिए एकजुट हो खड़े थे। लेकिन वर्तमान में हम प्रायः विभाजनकारी आख्यानों को एकजुटता की भावना पर हावी होते हुए देखते हैं। नागरिकों के बीच बढ़ता वैमनस्य, द्वेषभाव उस एकता से कोसों दूर है जिसने स्वतंत्रता के संघर्ष को वर्षों पहले परिभाषित किया था।

हम एक न्यायसंगत समाज के स्वप्न तो देखते हैं पर इस सच को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी आर्थिक और सामाजिक असमानताएँ बनी हुई हैं। अतीत के संघर्ष समानता और सम्मान की खोज से प्रेरित थे, फिर भी हमारा समकालीन समाज उन मुद्दों से जूझ रहा है जिन्हें इतिहास के पाठों के माध्यम से अब तक हल हो जाना चाहिए था।

अब समय आ गया है कि हम आत्ममंथन करें। हम उन आदर्शों को आगे बढ़ाने में अपनी भूमिका निभाएं, जिनके लिए देश के अनगिनत वीरों ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए। उस असीम पीड़ा, बलिदान और साहस का स्मरण करें जिसने हमें आजादी दिलाई। हम अपनी सोच, विचारधारा और मानसिकता को दलगत राजनीति से परे रख, केवल अपने देश की सोचें। हमारे तिरंगे के तीनों रंगों को बराबर मान दें और इनमें विभाजन करने वालों को सरेआम चिह्नित करें। जैसे हम अपने विशेषाधिकारों का आनंद लेते हैं, वैसे ही उस स्वतंत्रता का भी संरक्षण करें जिसमें परस्पर सम्मान,  सहानुभूति और समझ की संस्कृति साथ बहती है।

हमें एक पल को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि स्वतंत्रता को रेखांकित करने वाले महापुरुषों, उनके मूल्यों और सिद्धांतों का अनादर करना  उन लोगों के संघर्षों और बलिदानों के साथ विश्वासघात है जिनके कारण हम आज खुली हवा में साँस ले पा रहे हैं। हमारी यह स्वतंत्रता हमें सोने की थाली में सजाकर नहीं दी गई थी; यह देश के प्रति समर्पण में डूबे अनगिनत सेनानियों, क्रांतिकारियों, वीर-पुरुषों के साहस, संघर्ष, अश्रु, रक्त और बलिदान से अर्जित की गई विरासत है। उनके संघर्ष को नमन करते हुए और उनके द्वारा संजोए गए आदर्शों को अपनाकर, हम इस तथ्य को तो सुनिश्चित कर ही सकते हैं कि उनकी इस पावन धरा पर हम किसी भी भेदभाव, अराजकता और नागरिकों के बीच खाई खोदते व्यवहार को सहन नहीं करेंगे और  स्वतंत्रता को पाने के लिए उन्होंने जो पीड़ा सही, वह अंततः निरर्थक नहीं जाएगी।

जय हिन्द!

'हस्ताक्षर' अगस्त अंक, संपादकीय -

https://hastaksher.com/are-we-taking-our-freedom-for-granted-editorial-by-preeti-agyaat/

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