लाल लैटर बॉक्स का जाना हमारी सामूहिक स्मृतियों में दर्ज एक महत्वपूर्ण अध्याय के मिट जाने जैसा है। ऐसा अध्याय जिसे अल्फ़ा नौनिहालों ने कभी पढ़ा ही नहीं! शायद आगे की पीढ़ियाँ अपने बच्चों को बतायें कि 21वीं सदी से पहले सड़क के किनारे मौसम की हर मार सहता एक लाल डिब्बा हुआ करता था जो गाँव-शहर में सबका राज़दार था। वे बच्चे हैरान हो उस किस्से को ऐसे ही सुनेंगे जैसे हमने कबूतरों द्वारा संदेश पहुँचाने की तमाम गाथाओं को सुना था। फिर एक दिन धातु से बने इस डिब्बे को किसी संग्रहालय में भी रख दिया जाएगा और गाइड, पर्यटकों को अंतर्देशीय पत्र और पोस्टकार्ड के अंतर किसी वीडियो द्वारा समझा रहा होगा। यह वो इतिहास है जिसे हम बनता हुआ देख रहे हैं।
जाने कितनी ही यादें हैं जो लैटर बॉक्स और चिट्ठियों से जुडी हैं। अंतर्देशीय की तहों में मूक भावनाएं लिपटी रहती थीं। हम छोटे-छोटे अक्षरों में लिखते कि ज्यादा कह सकें। संक्षिप्त में लिखना हो, तब भी पोस्टकार्ड को डिब्बे में सरकाते समय एक बार और पढ़ लिया जाता। लिफाफों का वजन तौला जाता। प्रेम की तमाम चिट्ठियां सबकी आँखों से बचाकर चुपचाप लेटर बॉक्स में डाल दी जातीं और मन-ही-मन उनके सुरक्षित पहुँचने की प्रार्थना भी की जाती। फिर धड़कते दिल से पत्र के उत्तर का इंतज़ार होता। कितने ही शहरों के पिनकोड ज़बानी याद थे।
लैटर बॉक्स मानवीय भावनाओं का मौन साक्षी रहा है। अतः उसकी विदाई किसी भौतिक वस्तु की विदाई नहीं बल्कि एक अनुभूति और जुड़ाव की विदाई है। यही तो था जो शहर में गए बेटे को उसके गाँव से और ससुराल में बैठी बेटी को उसके मायके से जोड़ता था। छात्रावास में रहने वाले बच्चे माँ की रसोई याद करते और पिता चिट्ठियों में तमाम सलाह लिख इसी लैटर बॉक्स में उड़ेल दिया करते। डाकिया इनके बीच जादूगरी का काम करता और कभी सुख तो कभी दुःख बाँट आता। वह तो नियति का वाहक ही रहा। उसकी साइकिल की मधुर घंटी किसी पवित्र ध्वनि से कमतर न थी। वह परिवार का सदस्य ही माना गया जिसकी राह सभी ताका करते। उसने हमारे जीवन की खुशियों और त्रासदियों को देखा। अच्छा रिजल्ट आने पर मिठाई खाने को कहा और हर आँसू के बोझ को मौन हो सहता रहा। आजकल वह घंटी भी खामोश है। यांत्रिक तेजी से रोज अलग चेहरों के साथ कूरियर डिलीवरी आती है पर वो गर्मजोशी, वो अपनापन और मुस्कान गायब है। ये वाहक, सामान तो अवश्य पहुँचाते हैं पर फिर भी इनकी उपस्थिति उस गहराई से दर्ज़ नहीं हो पाती।
अब पलक झपकते ही संदेश तो पहुँच जाते हैं पर भावनाएं सुप्त रहती हैं। न प्रतीक्षा की गहराई का अहसास है और न भाषा के विस्तार की आवश्यकता। नई पीढ़ी की बातचीत किसी ख़ुफ़िया एजेंसी के संदेश जैसी है जहाँ 'ओके' भी 'के' रह गया है। पहले शब्द लापरवाही से नहीं उछाले जाते थे, एक अंतरंगता हुआ करती थी।
यह तर्क दिया जायेगा कि डिजिटल संचार त्वरित और कुशल है। हाँ, सो तो है पर इसने हमसे आत्मीयता छीन ली है। हम इतने अधिक जुड़े हैं कि भावनात्मक दूरियाँ बढ़ती जा रहीं हैं। निरंतर सम्पर्क के इस युग में अकेलापन सबसे बड़ी समस्या है। अवसाद एक व्यापक बीमारी की तरह फैला हुआ है।
तक़नीक ने हमसे वो धैर्य भाव छीन लिया जो प्रतीक्षा से आता है। पत्र लिखने की कोमलता और उससे जुडी संवेदना, पत्र को पाने की प्रसन्नता अब कहाँ है? पत्र, समय का भार ढोता था। हमें दूरी का सम्मान करना और उत्तर की प्रत्याशा का आनंद लेना सिखाता था। कितना विचित्र है कि मोबाइल पढ़े गए मैसेज को अनसीन करने का विकल्प देता है। संवेदनशीलता में यह गिरावट चिंताजनक है।
इस लाल पत्र पेटी का जाना एक और विरासत के क्षरण का संकेत दे रहा है जहाँ पत्र इतिहास की तरह संजोये जाते
थे। एक लकड़ी के गट्टे में लोहे का मोटा तार लगा होता जिसमें पढ़ लिए जाने के बाद पत्र फंसाए जाते थे। यहाँ यह भी याद रखना आवश्यक है कि कुछ खास पत्र गद्दे के नीचे अलमारी में कहीं छुपा भी लिए जाते थे और निकालकर बार-बार पढ़े जाते। ये जीवंतता ई मेल के फोल्डर से नहीं आती साहिब। तात्कालिकता के उत्साह ने सब कुछ सतही बना दिया है जहाँ चिंतन से कहीं अधिक प्रतिक्रिया पर जोर है और वह भी सबसे पहले देनी है। यह तथ्य तक़नीक का विरोध नहीं क्योंकि समाज तो आगे बढ़ता ही है। लेकिन इस प्रगति में हमें उन मूल्यों को नहीं खोना चाहिए जिन्होंने गहन मानवीय संबंधों की नींव रखी थी। हम समुदाय से व्यक्तिवादी होते जा रहे हैं। हमारे सामाजिक ताने-बाने से सहजता, सौम्यता भी खिसकती जा रही है। आइए कोशिश करें कि संचार क्रांति के इस युग में लैटर बॉक्स या अन्य वस्तुएँ भले ही यादों की संदूकची बनती रहें पर उनसे जुड़े अहसास और आत्मीयता मिटने न पाए।
- प्रीति अज्ञात
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