बुधवार, 24 सितंबर 2025

आलू की सब्जी

 

एक बार का बड़ा मजेदार किस्सा है। यह जब घटित हुआ था, तब बहुत दुखदायी था लेकिन अब सोचकर भी हँसी आती है। तो हुआ यूँ कि हर रोज की तरह उस दिन भी हमने लंच तैयार किया। पूरा खाना टेबल पर रख दिया और बच्चों को लेने बस-स्टॉप पहुँच गए। बच्चे जूनियर स्कूल में थे और 1.30 बजे उनकी बस आ जाती थी। बच्चे बस से उतरकर सबसे पहले यही पूछते कि आज लंच में क्या है? सो उस दिन भी पूछा। अपन ने ठसक से बताया कि आज तो तुम दोनों की पसंद के 'दम आलू' बनाए हैं। यहाँ यह बताती चलूँ कि सब्जियों के मामले में दोनों बच्चों की पसंद बिल्कुल अलग है। तो रोज अलग-अलग सब्जी बनती थी लेकिन 'आलू' उनकी एकता का प्रतीक बनकर उभरता और मेरे लिए राहत सामग्री।  

'दम आलू' सुनते ही बच्चे उछल पड़े और स्वाद बनाते हुए ठुमक-ठुमककर हम तीनों घर की ओर बढ़ चले। भिया! पाँच मिनट में ही दोनों बच्चे डायनिंग टेबल पर जमा हो चुके थे। मम्मी जी भी खाने की प्रतीक्षा में थीं। अपन ने दाल परोसना शुरू ही किया था कि दोनों एक सुर में बोल उठे, "मम्मी, बस सब्जी दो। उसी से खाएंगे।" हमने भी मन ही मन सोचा कि "कोई बात नहीं बच्चू! इसी दाल को आटे में गूँधकर शाम को निबटा दूँगी। अभी तुम्हें हमारी recycle कला का अंदाज़ा ही कहाँ हैं!"

मुस्कुराते हुए हमने स्टील के टिफ़िन को खोलने के लिए हाथ बढ़ाया। लेकिन यह क्या! टिफ़िन बाबू तो सरकारी ठेके के बाजू वाले नाले में पड़े बंदे की तरह एकदम टाइट थे। "हेहेहे, अभी खोलती हूँ", कहते हुए हमने थोड़ा जोर लगाया। पर क्या मज़ाल कि ढक्कन खुल जाए। फिर किचन में जाकर चाकू लाए कि तनिक घुसेड़ के ढक्कन उचका लें तो कुछ काम बने! पर हियाँ तो ढक्कन ने मुँह ऐसा भींचा हुआ था कि तनिक साँस भी न जा सके। अब का करें, भैया! बच्चों के सूखे, निराश चेहरे और मम्मी जी की व्यग्रता चरम पर थी। भूख फुफकारें मार रही थी। अपन 'कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती' वाले राष्ट्रीय सुविचार को अपने निजी दिल में सँजोये अपने ही व्यक्तिगत हाथों से अभी भी जुटे हुए थे। चारों ओर से तमाम रायें (रायचंदों की) हमें मदहोश कर रहीं थीं। चिड़चिड़ाहट ने हमारी मुस्कान में बेदर्दी से सेंध लगा दी थी। इतना थक गए कि कुछ पल के लिए टिफ़िन को टेबल पर रख दिया और उसे घूरने लगे। मानो, हमारी थकेली आग्नेय दृष्टि से लज्जिताकर ढक्कन खुदै उछलकर प्राण तज देगा। उसे शर्मिंदा न होना था , सो न हुआ। 
बेटी ने कहा, "मम्मी, इसे लुढ़का लो।" हमें लगा कि बस इतने ही बुरे दिन आ गए हैं कि सपरिवार सब्जी को जमीन से चाटकर खाएंगे।  "अरे, फैल जाएगी न" हमने भन्नाकर कहा। तो बेटे साब बोले, "मम्मी, बड़ी वाली ट्रे में ठोकते हुए लुढ़काते हैं। उसमें फैलेगी तो खा भी सकते हैं न?" अब ये वाला आइडिया थोड़ा ठीक लगा। फिर क्या था, मैंने ट्रे संभाली, बेटा कभी टिफ़िन के ढक्कन को तो कभी टिफ़िन को ठोकता, लुढ़काता आगे बढ़ाता और बेटी हमारा हौसला बुलंद करती। मम्मी जी मन मसोसकर हमारा बेहूदा तमाशा देखती रहीं। आखिर ये सब्जी तो उन्हें भी पसंद थी। 

इस नौटंकी के बाद भी पराजय पेट के द्वार पर खड़ी दिख रही थी। अचानक हमको, हमारे नाना जी वाला मंत्र याद आया - टिफ़िन को पानी में रखने का। "बस, तुम लोग 5 मिनट रुको। देखना, कैसे फटाक से खुलेगा।" अपुन का खोया आत्मविश्वास अचानक कंधे पर गर्दन धर फिर मुस्कियाया। एक परात में पानी भरा और उसमें माननीय टिफ़िन जी के स्नान का प्रबंध किया गया। दस मिनट बाद भी फिर वही 'मौत का कुआं' सामने। जैसे सब्जी वाला टिफ़िन धरती माँ के गर्भ में ही समा चुका हो। 

अब तो बच्चों के भी बेसुध होने का पल आ चुका था। मम्मी जी भी दो-तीन बार कह चुकी थीं, "अरे! जो है, वही दे दो।" बताइए, लोग समझौता करने को भी तैयार थे। हारकर, खिसियाई नजरों से अपना यही मौलिक मुँह लिए हम उठे। आखिरी कोशिश करते हुए सब्जी वाले टिफ़िन को फ्रीज़र में रखा और सबको बिना सब्ज़ी वाला खाना परोस दिया। लोकतंत्र में विकल्प तो होते ही हैं। तो लो, ये दही है, अचार है, सलाद है। 
बच्चों की प्लेट में वही तिरस्कृत दाल थी। स्वाद बनाने को हमरे नौनिहालों ने रतलामी सेव और ले लिए थे क्योंकि दही दोनों ही नहीं खाते थे। हमें अब भी यह उम्मीद थी कि खाना खत्म होने से पहले टिफ़िन खुल ही जाएगा और हमारे हाथ का जादू, पल भर में माहौल खुशनुमा कर देगा। पर काहे होगा खुशनुमा! वही बुझे चेहरों से सबने खाना खाया। दूसरी सब्जी के बनने का धैर्य भी दम तोड़ चुका था। 
तो उस दिन पेट की संसद दही, अचार और रतलामी सेव से ही चली। और दम आलू जी हम सबका माइक बंद कर शान से बोले कि "आज की कार्यवाही स्थगित की जाती है। कल फिर प्रयास कीजिए।"
दही इस बात से खुश कि आज उन्हें मम्मी जी की थाली में चरित्र भूमिका की बजाए मुख्य भूमिका निभाने का मौका मिला। मिक्स अचार भी जैसे खिल्ली उड़ाते हुए कह रहा हो कि "जब असली सरकार फेल हो जाए तो गठबंधन सरकार ही काम आती है। खी खी खी।"

इधर हम अब तक इस बात पर खुद को माफ़ नहीं कर पा रहे थे कि बदतमीज टिफ़िन का ढक्कन हमने लगाया ही क्यों? जबकि ऐसा ही एक अनुभव पुलाव के साथ हम झेल चुके थे। लेकिन तब स्थिति तनावपूर्ण किन्तु नियंत्रण में थी। इस बार तो मामला बहुत खराब हुआ। 
यह सीख भी मिली कि 'दम आलू, कभी-कभी दम ही निकाल देता है।' और यह भी कि  भिया! 'कोशिश करने वालों की खूब हार होती है और बेइज्जती भी जमकर होती है इसलिए तुम ज्यादा कोशिश न करते हुए फटाफट दूसरी सब्जी बना लेना।' तब zomato /swiggy नहीं थे साब जी। कहा न, घटना हड़प्पाकालीन है। 
डिनर टाइम पर जब उसी टिफ़िन की ओर लजाते हुए, हाथ बढ़ाया तो वे ऐसे खुले कि मानो, हम बंद ही कब हुए थे, जी!
- प्रीति अज्ञात 

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