मंगलवार, 12 जून 2018

किस्से- कहानियाँ

प्रत्येक यात्रा में कितने चेहरे साथ चलते हैं और न जाने कितने नए चेहरे जुड़ते जाते हैं। हर चेहरा एक कहानी ओढ़े चलता है।  इन कहानियों को सुने जाना जितना आवश्यक है, उतना ही आवश्यक इन्हें लिख पाना भी है। लेकिन हर बार होता यही है कि जितना सुना, समझा; उसका छँटाक भर भी लिखा नहीं जाता। समय और भी अधिक होने की मांग करता है, अनगिनत किस्से बस मस्तिष्क के प्रतीक्षा कक्ष में बैठे-बैठे ही अपने बाहर आने की बाट जोहते हैं और इस कक्ष की भीड़ लगातार बढ़ती जाती है। हर पल एक किस्सा साथ चलता है, हर घटना लिखे जाने की ज़िद पकड़ वहीं धरने पर बैठ जाती है। ऐसे में ख़ीज के अतिरिक्त और कोई भी भाव उत्पन्न नहीं होता। कभी -कभी 'जब समय मिलेगा, तब लिखूँगी' की उम्मीद के साथ की-वर्ड्स लिख लिए जाते हैं पर वो समय कभी नहीं आता और ग़र आता भी है तो पलटकर नहीं देख पाता; वो कुछ अलग ही विषय ओढ़ाकर चला जाता है। ड्राफ्ट्स की संख्या चार अंकों के आँकड़े को पार कर हताश कर देती है। हर बार इसी परिस्थिति से जूझती हूँ पर बाहर कभी नहीं निकल पाती और ऐसे में न जाने क्यों यही प्रश्न बार-बार कौंध जाता है कि क्या समंदर की उफ़नती लहरें किनारे पर वही रज-कण छोड़ जाती हैं या बार-बार नए ले आती हैं? तो उन पुरानों का क्या, क्या वे किनारे पर ठहर जम जाते हैं या कि भीतर गहराई में उतर अपनी पक्की जगह बना लेते हैं?
आख़िर हर क्रिया की प्रतिक्रिया क्यों है और हर बात को महसूस क्यों कर लिया जाता है। कुछ समय के लिए, नए पलों, नई यादों, नई घटनाओं पर रोक लगे या किसी बात का कोई अहसास ही न हो तो एक बार बीते दिनों में दौड़ लगा भाग जाना चाहती हूँ। 
- प्रीति 'अज्ञात'

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