कई वर्ष पूर्व एक फिल्म आई थी, 'अमर, अकबर, एंथोनी'. ग़ज़ब की हिट रही थी, साब! क्या गाने, क्या अभिनय, क्या मस्त कॉमेडी और उस पर दोस्ती का सदाबहार विषय. सो, इसे जनता का भरपूर प्यार-दुलार मिला. जहाँ भी तीन दोस्त इकठ्ठा होते, तो इसी नाम की मिसाल देकर उन्हें 'अमर,अकबर, एंथोनी' बुलाया जाता. परस्पर भाईचारे और सौहार्द्र का भव्य समां बनता था जी. फिर जैसा कि होता आया है, कहानी में एक ख़तरनाक ट्विस्ट आया. सामान्यतः तो एक ही ट्विस्ट आता है न और वही झटका देने को काफ़ी होता है पर इस बार इस एक ट्विस्ट के साथ दो गब्दू ट्विस्टर और लटक लिए. ये तीनों भी क्यूटनेस में किसी से कम थोड़े ही न थे और उस पर ग़ज़ब ये, कि ये लल्लनटॉप बात इन्हें ख़ुद ही पता भी थी. फिर क्या था! जहाँ भी जाते, मीठी वाणी से सबको चपडगंजू बना अपनी डुगडुगी बजा आते. अब तक तो पूरा मामला सेट, फिटम फाट हो चुका था. ज़िंदगी मजे में कट रही थी. सैर-सपाटा, मौज़ के दिन थे. बीच-बीच में अपने स्वास्थ्य को तवज़्ज़ो देते हुए ढिंढोरा पीट व्रत किये जाते. लेकिन न जाने इस होनहार तिकड़ी को किसकी नज़र लगी कि घमंड से चूर इनके दिमाग़ पर त्रेतायुग के पत्थर गिरने लगे और वो इस हद तक गिरे कि कभी ये पत्थर पर तो कभी पत्थर इनके साथ लोट लगाने लगते. वैसे ये दृश्य लगता तो मनभावन था पर इनके इरादे स्पष्ट नहीं हो रहे थे कि अबकी इनकी अक़ल की दाढ़ क़हर बनकर किधर गिरेगी! अच्छा, एक बात के लिए इनकी ज़बरदस्त तारीफ़ बनती है कि ये थे, बड़े ही कट्टर चरित्रवान और इतिहास के अलावा किसी से भी छेड़छाड़ करना इन्हें सख़्त नापसंद था.
ख़ैर! ये रात को गलबहियाँ कर सड़कों पर घूमते और भावनाओं में डूब अपनी-अपनी पसंद की सड़क को अपने पसंद का नाम दे देते. दयावान इतने कि यदि आज आदरणीय विनोद खन्ना जी जीवित होते तो उनकी आँखें भर आतीं. इनकी दयालुता के कई किस्से मशहूर हुए. होता यूँ था कि जब कभी मस्ती में ये तिकड़ी आसमान की तरफ़ सिर उठाती और कोई भोली, मासूम ऐतिहासिक इमारत बीच में उम्मीद भरी निगाहों से इन्हें देखती तो इनका भावुक दिल भर आता और ज़ज़्बातों में बहकर ये उस अनाथ को गोद ले लेते या फिर किसी और की गोद में धर आते. इसी प्रकार इन्होंने कई शहरों, रेलवे स्टेशनों और स्मारकों पर अपनी अगाध स्नेह वर्षा की फुहारें छोड़ीं जिसके लिए आने वाली पीढ़ियाँ इन्हें याद रखने वाली ही हैं. हम धन्य है कि हमने सतयुग से भी उत्तम 'इसयुग' में जन्म लिया जहाँ ऐसे सज्जन, संस्कारी और उत्कृष्ट सोचधारी युगपुरुषों का सानिध्य मिला. हे, धरती माँ! आज मैं तुम्हारे आगे नतमस्तक हूँ, ह्रदय भावविह्वल हुआ जा रहा है, अलौकिक प्रसन्नता से भरी मेरी आँखें डबडबा रहीं हैं पर फिर भी कलेजे पर मच्छर रखकर जाते-जाते अपने 'अमर,अकबर, एंथोनी' की स्मृति में इन युगपुरुषों को सादर अभिनन्दन के साथ पुष्पगुच्छ अवश्य भेंट करुँगी.
उफ़,अकबर जा रहा है और निर्देशक के आधार पर यह भी तय है कि अमर तो एन्ड तक रहेगा ही! हाय राम! कहीं मेरा एंथोनी गोंसाल्विस न चला जाए, वो तो वैसे भी दुनिया में अकेला ही है. बस यही एक डर है, जो रह-रहकर मुझे खाए जा रहा है. एंथोनी, तुम अपना ख़्याल रखना.
#जो_था_अकबर
- प्रीति 'अज्ञात'
#अकबर#सहिष्णु_भारत#धर्मनिरपेक्षता
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें