सोमवार, 27 मई 2019

माता नी पछेड़ी

"कई दशकों से हमारा परिवार 'कलमकारी' की इस विशेष कला 'माता नी पछेड़ी' को समर्पित है। हमें कई पुरस्कार मिले हैं, लगभग सभी हस्तकला मेलों में सहभागिता रही है। NID और कई विशिष्ट संस्थानों में इसकी जानकारी देने जाते हैं और वहाँ के विद्यार्थियों को इसका प्रशिक्षण भी देते हैं। लेकिन इस सबके बाद वो अपनी जगह चले जाते हैं और हम अपने 10 X 10 के घर में वापिस आ जाते हैं। बच्चे कई बार पूछते हैं कि "इस कला ने आपको क्या दिया?" हमारे पास सटीक उत्तर तो नहीं होता पर फिर भी हमें गर्व है कि तमाम परेशानियों के चलते जब इस बस्ती के पैंतीस परिवारों ने यह व्यवसाय छोड़कर कोई न कोई नौकरी पकड़ ली है; तब भी हमारे परिवार ने इसे नहीं छोड़ा। कलमकारी तो कुछ और लोग भी करते हैं पर इसमें 'माता नी पछेड़ी' बनाने वाला इस देश का एकमात्र परिवार हमारा ही है। हम जब तक जीवित हैं तब तक यह कला भी जीवित रहेगी।"  
विलुप्तता के कग़ार पर खड़ी एक कला से अपनी जीविका चलाने वाले चितारा परिवार के दूसरे बेटे किरण भाई, अपनी पत्नी सुमन जी के साथ बैठे हुए बड़े ही गर्व से यह बात कहते हैं।

अहमदाबाद रिवरफ्रंट बनने से यह परिवार इसलिए प्रसन्न है क्योंकि इससे उनका अपना शहर और भी सुन्दर दिखने लगा है लेकिन कहीं-न-कहीं ये क़सक भी है कि इसे बनाते समय उन धोबियों और कलमकारी तथा ब्लॉक प्रिंटिंग से जुड़े लोगों के लिए भी कुछ व्यवस्था क्यों नहीं हो सकी, जिनका पूरा धंधा इस नदी के बहाव की लय पर तय था। वे आगे बताते हैं कि कुछ वर्ष पहले इन सबके लिए चर्चा हुई थी और फिर वादे भी किये गए। सब कुछ पक्का था पर आखिरी मिनटों में यह कह दिया गया कि तुम सबमें ही भीतर फूट है, इसलिए कुछ नहीं मिलेगा!

किरण भाई आगे बताते हैं, "कई बार हमें बड़े आर्डर मिलते हैं लेकिन कहाँ फैलाकर काम करें? न धोने के लिए जगह है और न सुखाने को। इसी कमरे के ऊपर वो वर्कशॉप है हमारी और पानी तो आपने देखा ही है।"
ये मेहनतक़श लोग हैं। वहाँ की सुंदरता को धब्बा न लगे इसलिए उन्होंने और आगे जाना मंज़ूर कर लिया। इसके अलावा और विकल्प भी क्या था! लेकिन आगे भी जो पानी है वहाँ एक साथ कई कपड़े नहीं धुल सकते। सुखाने की भी पर्याप्त जगह नहीं है। मैंने स्वयं इनके साथ बीते दस दिनों में कलमकारी की प्रक्रिया को प्रारम्भ से अंत तक देखा, समझा है। उस बदहाल घाट तक भी गई जहाँ इन्हें रंगने के बाद नदी की बहती धारा में धोया जाता है।

ये वे लोग हैं जिन्हें अपने देश की माटी, कला और संस्कृति से बेहद प्यार है। तभी तो इस छोटे से घर के एक कमरे में जहाँ उनका किचन, बैडरूम, ड्रॉइंग रूम, स्टोर सब कुछ समाया है; वहीं एक लोहे की रैक पर रखी अटैचियों को खोलते हुए वे मुस्कुराते हुए मुझे वह क़िताब दिखाते हैं जो किसी जापानी ने इस कला पर कभी लिखी थी और इसकी एक कॉपी उन्हें भेजी थी क्योंकि इनकी बनाई आर्ट की तस्वीर भी है उसमें।  NID की एक विद्यार्थी का प्रोजेक्ट भी है जिसमें उसने बड़े ही सुन्दर तरीके से इस परिवार की कलमकारी द्वारा बनाई विविध तस्वीरों को जीवंत कर दिया है। ये प्रोजेक्ट उनके 'शिल्प गुरु' पापा के योगदान के बारे में है। पन्नों को पलटते हुए सुमन बेन अनायास ही कह उठती हैं कि "मुझे पेंटिंग का बहुत शौक़ था और देखिये मेरा विवाह इतने अच्छे घर में हुआ कि अब मैं इसे अपना पूरा समय दे सकती हूँ। मैं स्वयं को बहुत भाग्यशाली मानती हूँ।" दिल से कही गई उनकी यह सच्ची बात मुझे न केवल ख़ुशी दे गई बल्कि सुख की परिभाषा की जीती-जागती तस्वीर बन कई दिनों तक जगमगाती रही।

इस परिवार के साथ अनौपचारिक वातावरण में कैमरे के अलावा जो बात हुई उसमें इस कला को बनाये रखने पर गंभीर विमर्श भी हुआ। सार यह निकला कि यदि कला के विद्यार्थियों के लिए चित्रकला, मूर्तिकला की तरह ही 'कलमकारी', 'माता की पछेड़ी' और ऐसी कई अन्य हस्तकलाओं को भी विषय के रूप में रख दिया जाए तो न केवल इससे जुड़ी पुस्तकें लिखी-पढ़ी जायेंगीं बल्कि इन परिवारों के सदस्यों को शिक्षकों के रूप में रोज़गार भी मिलेगा। वो पीढ़ी जो असुरक्षित भविष्य के कारण इस कला से दूर होने का मन बना रही है वो वापिस लौट आएगी और हमारी संस्कृति की इस अद्भुत पहचान की साख़ भी सदियों तक बनी रहेगी। वरना इनकी आगे की पीढ़ियों ने यदि इस कला को अपनाने से इंकार कर दिया तो यह स्वतः समाप्त हो जायेगी। 

मैं जानती हूँ कि मेरी पहुँच बस मेरी लेखनी तक ही है और मैं इस देश की अदनी सी नागरिक हूँ जिसे अपनी माटी से बेइंतहाँ प्यार है। उसी नागरिक की हैसियत से मैं यह चाहती हूँ कि हस्तशिल्प से जुड़े सभी परिवारों को वो सारी सुविधाएँ मिलें जो किसी नायक को मिलती हैं। मुझे नहीं मालूम कि मेरी आवाज़ आप तक पहुँचेगी या नहीं पर फिर भी न जाने किस उम्मीद से उनके कंधे पर तसल्ली का हाथ थपथपा आई हूँ। बदले में उनकी जो मुस्कान मिली, काश! वो हमेशा सलामत रहे!
बस थोड़ी सी ज़मीं और एक बोरवैल की जरुरत पूरी हो जाए तो हमारे देश की यह अद्भुत कला थोड़ी सुकून भर साँस और ले सकेगी। 
- प्रीति 'अज्ञात'
*मुझे नहीं मालूम कि इसके लिए कहाँ संपर्क करना होगा इसलिए उन्हें tag करने की गुस्ताख़ी कर रही हूँ जिनके हाथों ने इस देश की बाग़डोर सँभाल रखी है। 



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