शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

काश !

काश ! सपनों का भी जन्म-मृत्यु प्रमाणपत्र होता, फिर न कुचले जाते ये इस तरह, हर बार, हर जन्म में ! एक जीवन में पलकों तले पलते हुए अनगिनत स्वप्न जोड़ लेते हैं, खुद ही उछलकर, उम्मीदों का ताना-बाना ! ये अक़्सर एकतरफ़ा ही हुआ करते हैं, फिर भी घसीट लाते हैं दूसरे पक्ष को जबरन अपने साथ कि पूरे न होने पर दोषारोपण के लिए कोई तो हो ! गुज़रते हैं जीवन के तमाम झंझावातों के बीच से और दो पल साँस लेने को ज्यों-ही ठहरते हैं कहीं, समय आकर बेरहमी से उनका गला घोंट दिया करता है; नोच लेता है बोटी-बोटी उनकी कि कराहने की ताक़त भी बाक़ी न रहे उनमें और वो ध्वस्त हो जाएँ हमेशा-हमेशा के लिए !
" काश ! सपनों का भी जन्म-मृत्यु प्रमाणपत्र होता"
काश, हर सपना अपनी मौत मरता ! सुनिश्चित अवधि पूरी होने पर, कुछ पल और जी लेने के बाद ही !
* एक आधी-अधूरी कहानी के कुछ अंश ( Unedited )

प्रीति 'अज्ञात'

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