बुधवार, 30 दिसंबर 2015

सौदामिनी की याद में.....!


वो अपने पिता की सबसे दुलारी थी. माँ की आँखों का तारा थी. उसका भाई, उसके लिए सारी दुनिया से लड़ सकता था. सब दोस्त उसके हँसमुख स्वभाव के कारण उसे बहुत पसंद करते थे. वो सबकी मदद भी करती थी. यारों की यार थी, जिसका दुश्मन कोई नहीं! उसके प्रेमी ने पिछले तीन साल में चौथी बार उसे फिर प्रपोज़ किया और मुलाक़ात की जगह भी तय हो गई. बस एक कमी थी उसकी.....वो इस दुनिया को न समझ सकी, कई बार धोखा खाने के बावजूद भी वो सब पर आसानी से विश्वास कर लेती थी. पर इस बार के धोखे ने उसकी दुनिया बदल दी. उसके साथ....... 

अब पिता ने घर से निकलना छोड़ दिया था. मेहमानों के आने पर माँ उसे बाहर आने को मना कर देतीं. भाई उसे देख मुंह फेर चला जाता. प्रेमी ने उसे 'अछूत' समझ सदा के लिए नाता तोड़ लिया. 
वो उस दर्दनाक हादसे से उबर सकती थी अगर बाद में उसका इस तरह मानसिक बलात्कार न हुआ होता. जिन अपनों के लिए वो हमेशा डटकर खड़ी रही, आज वही उसे अकेला छोड़ गए. हर सवाल उसके दोषी होने की पुष्टि करता, उसके कपड़ों, तस्वीरों की चर्चा होती और चरित्र पर हजार लांछन लगते. बलात्कारी का चेहरा मीडिया ने भी नहीं दिखाया पर इसके हर रिश्ते की बघिया उधेड़कर रख दी. 

नए साल की दस्तक का स्वागत वो किस उम्मीद से करती? यही सोच उसने आज सुबह ही स्वयं को समाप्त कर दिया. अब वो अचानक महान बन गई है और उसकी याद में दिए जल रहे हैं....
ग़र विवाहिता होती तो शायद रोज तिल-तिलकर मरती....दुनिया उसे जीने नहीं देती और जिम्मेदारियां मरने! पति तलाक़ की तैयारियों में लग गया होता, ससुराल वालों की नाक कट जाती.

क्या दोष परिवार का है? सोच का है? 
ऐसा क्यों है कि पीड़िता को ही जीने की जद्दोज़हद करनी पड़ती है और गुनहगार आसान ज़िन्दगी जीता है?
क्यों स्त्री को अपने अधिकारों के लिए पुरुष का मुंह ताकना पड़ता है?
दोषी पुरुष क्यों आसानी से समाज में स्वीकारा जाता है?

क्या है इज़्ज़त की परिभाषा? जो कपड़े उतारने वाले इंसान से ज्यादा, पीड़िता से छीन ली जाती है. क्या ये कोई सामान है कि कोई लूटकर चला गया? ग़र है तो दोषी लूटने वाला हुआ या कि लुटने वाला?
धिक्कार है, इस तथाकथित सभ्य समाज पर जो पीड़िता के दर्द को समझने की  बजाय, उसके ज़ख्मों को और भी नोच देता है. 
लानत है उन अपनों पर भी, जो उसके साथ खड़े होने के बदले सदा के लिए उससे नाता तोड़ लेते हैं.

आत्महत्या करने से बेहतर है, अपने अपराधियों को उनकी सज़ा देना.
ध्यान रहे, "फूलन देवी, पैदा नहीं होती....समाज बनाता है!"
- प्रीति 'अज्ञात'

* अपवाद होते हैं पर सामान्य तौर पर समाज का यही दृष्टिकोण रहता है.

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