सोमवार, 14 मार्च 2016

पहने तो करता है,चुर्र...


 आये दिन न्यूज़ चैनलों में ख़बरें रहतीं हैं कि फलाने, 'आम' आदमी ने ढिमके 'ख़ास' को जूता फेंककर मारा। ये बहुत गलत एवं निंदनीय व्यवहार है, अपनी बात कहकर भी तो समझाई जा सकती हैं। सुनकर बुरा तो हमें भी बहुत लगता है, जी! पर कभी-कभी दिमागी चिंटू न जाने क्यूँ रह-रहकर मस्तिष्क के मन-मंदिर में यह प्रश्न टनाटन बजाता है कि हाय रे, उस बेचारे को जब पुलिस पकड़कर ले जा रही थी तो उसका फेंका हुआ जूता ससम्मान उसके चरण-कमलों तक पहुँचाया गया या कि वो मजबूर बन्दा/बन्दी (स्त्री का बराबर का हक़ होता है, न) पैर घिसटते हुए ही काल-कोठरी तक गया। वैसे मोजा देना तो बनता है, भले ही मुँह पर फेंककर दो क्योंकि हम 'बदला युग' (exchange & revenge era) में रह रहे हैं।  

अचानक हमारे यादों के सागर में हमारे प्रेरणास्रोत प्यारे गुल्लू जी, बोले तो अपने 'गुलज़ार सर' की तस्वीर दिखाई देने लगी। उन्होंने जब "इब्न-ए-बतूता....बगल में जूता" लिखा था,तब उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा, कि लोग उनकी इस बात को इतनी गंभीरता से लेंगे. पर आजकल की खबरों में ऐसी बातें कितनी आम हो गईं हैं,कि हमें भी हैरत है!

हमने तो बचपन से ही "मुँह में राम, बगल में छुरी" वाली कहावत सुनी थी, ये 'जूता' तो आजकल बगल में आने लगा है। वैसे आइडिया ठीक-सा ही है...'मार भी दो और मर्डर भी ना हो' धत्त, छिः छि:,ये भी कोई बात हुई, घटिया सोच! "हे ईश्वर, हमें माफ़ मत करना...क्योंकि हमें पता है कि हम क्या कर रहे हैं!" :( 
पर सच्ची, हमें लगता है,कि आने वाले दिनों में इस विषय पर निबंध आ सकता है। ज़रा सोचिए तो! 'रामू ने राजू को जूता मारा' विषय पर कैसे लिख सकते हैं? घबराओ मत, हमरा जन्म इन्हीं समस्याओं को निबटाने को हुआ है, बताते हैं......

सबसे पहले तो इस खेल के नियम-
*सबसे ज़रूरी नियम तो ये है कि जूता हर पार्टी का होना चाहिए। बेईमानी नहीं कि हमारा टर्न ही न आए! 
*हर बार एक अलग पार्टी का बंदा दूसरे को मारेगा, जिससे मीडिया वालों को अच्छा और निष्पक्ष कवरेज मिले! 
*जूता देशी हो या विदेशी, पहले ही तय कर लो. वरना जनता विदेशी प्रभाव का आरोप लगा सकती है! 
*जूते का टाइप भी निश्चित हो, मतलब; बरसाती हो,लेदर का हो, स्पोर्ट्स हो या केनवास, क्यूँकि सबसे अलग-अलग तरह की चोटें लगती हैं। दर्द बांटना होता है, वो भी बराबर!इसलिए अनियमितता के चक्करों में कौन पड़े भाई! 
*मारे गये जूते 'राष्ट्रीय संपत्ति' का हिस्सा माने जाएँगे! 
*ज़रूरत पड़ने पर एक 'जूता-संग्रहालय' भी बनाया जाएगा, जिससे आम जनता को इसकी पूरी एवं सचित्र जानकारी हो..कि किसने, कब और कहाँ इसका प्रयोग किया था!

अब खिलाड़ी बनने के नियम -
*मारने वाले की लंबाई ज़्यादा होनी चाहिए, जिससे निशाना ठीक से दिखाई दे! 
*वो खुद कमज़ोर हो तो चलेगा, पर जिसे जूता पड़ना है, उसका सीना चौड़ा हो, ताकि लक्ष्य प्राप्ति में कोई अड़चन न आये। 
*अपनी बेइज़्ज़ती के लिए तैयार रहें, कई बार result, on spot declare हो जाते हैं। आपको लात-घूँसों का ईनाम मिल सकता है! जो आगामी चोटों के लिए आपके शरीर को सहनशक्ति प्रदान करता है। 

अदालत में पूछे जाने वाले सवाल -
*जूता नया था या पुराना? हां, रे..इससे मारने वाले की आर्थिक स्थिति का अंदाज़ा होता है! 
*जूते की गति क्या थी? 
*वह शरीर के किस भाग से टकराया? 
*क्या वहीं लगा,जहाँ निशाना साधा था(इससे पता चलता है, कि कहीं मुलज़िम के घर में ऐसी कोई पुरानी परंपरा या आनुवंशिक झोल तो नहीं)!

केस की बानगी -

जूता ही क्यों चुना? 
*जी, सर ! ये आसानी से उपलब्ध था! इसे अलग से ले जाना भी नहीं पड़ता! 
*इसकी ग्रिप भी अच्छी होती है और थ्रो भी! 
*लाइसेन्स भी नहीं लगता, सर! 
वजह क्या थी? 
*क्या ये जूता उसे काट रहा था, और वो दुनिया के सामने उसे नीचा दिखाना चाहता था? 
*कहीं इसने किसी और का जूता तो नहीं इस्तेमाल किया? 
कुछ भी हो सकता है मीलॉर्ड...मुझे तो ये एक सोची समझी साज़िश लगती है।
नहीं.... नहीं...नहीं   
*शायद इसे इस एक जूते से ज़्यादा प्यारी वो दो वक़्त की रोटी थी, जो जेल में मुफ़्त में मिल जाएगी!

विशेष -
हां-हां...यही सच है! 
सब तंग आ गये हैं, ग़रीबी से, बेरोज़गारी से, भ्रष्टाचार से, दंगों से, आगजनी से,
लूट-खसोट से, 
बेकार होते वोट से
तंग आ गये हैं अपने स्वार्थ की रोटी सेंकने वाले राजनीतिक दलों से!
हम किसी पार्टी को नहीं, किसी धर्म को नहीं, बस देश की भलाई को चुनते हैं साहेब
साहेब, ए साहेब, सुनो न साहेब -

"कुछ करो, कि सुधार हो, निस्वार्थ जब सरकार हो!  
संसद चले तो शांति से, और दूर भ्रष्टाचार हो! 
पैसे की जब न मार हो, न कोई बेरोज़गार हो! 
फिर दूसरों के सामने, काहे को अपनी हार हो!"

बहुत हुई ये मारामारी! शांति से बैठकर बात कीजिए न! 'मानहानि' का भी ख़तरा नहीं और न ही 'मनी हानि' का! और क्या 'जूते' सस्ते थोड़े ही न आते हैं आजकल! महंगाई के इस दौर में एक जूता खो जाए, तो लंगड़ाकर कब तक चलेंगे साहेब? अब इस उमर में लंगड़ी खेलते हुए भी अच्छे न लगेंगे हम।  
"मेरा जूता नाम है बाटा 
पहनें इसको गोदरेज, टाटा 
काहे फेंके इसको भैया  
क्यों करवाएं अपना घाटा??"
ल्ल्ल्ल्ल्ल्ल्ल लला ल्ल्ल्ल्ल्ल्ल्ल लला ल्ल्ल्ल्ल्ल्ल्ल ल्ल्ल्ल्ल्ल्ल्ल लला :P 
अब डर तो सिर्फ़ इसी बात का है,कि हमें जूते खरीदने का बड़ा शौक है! कहीं कल के अख़बारों में ये ख़बर न आ जाए, कि 'अज्ञात' जी के यहाँ से जूतों का एक बड़ा ज़ख़ीरा बरामद हुआ! उफ़...तब हमारा क्या होगा...??? मम्मीईईईईई, बुहु,बुहु ,सुबकसुबक ;)

 - प्रीति अज्ञात

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