रविवार, 29 अक्तूबर 2017

उत्तर की तलाश सभी को है पर प्रश्न करने का जोख़िम कोई नहीं उठाना चाहता!

सारे राजनीतिक दल देशवासियों को एक साथ भ्रष्टाचार से लड़ने, देश को गरीबी से मुक्त करने, रोजगार उपलब्ध कराने के खोखले वायदे तो ख़ूब करते हैं पर क्या हमने इन्हें ख़ुद, किसी भी मुद्दे पर एक साथ खड़े देखा है? क्या इन्होंने देश की किसी भी समस्या का समाधान मिलजुलकर निकालने की कोशिश की है? नहीं, न क्योंकि इनका तो पूरा समय एक दूसरे पर कीचड़ उछालने, आरोप-प्रत्यारोप और बेतुकी बातों में जाया होता है। ये हमारे देश के दुश्मनों के नहीं बल्कि एक-दूसरे के ख़िलाफ़ सबूत ढूँढने में ज्यादा रूचि लेते हैं। इन्हें देश की नहीं अपनी कुर्सी की चिंता है और इनका पूरा समय उसे टिकाने की कोशिशों में और स्वयं को दूसरी पार्टी से बेहतर बताने में ही बीत जाता है। पार्टियाँ आती रहीं, स्वयं को श्रेष्ठ बताती रहीं और अपने कार्यकाल में विरोधी पार्टी की कमियाँ गिनाती रहीं। उनके बंद केस खुलवाकर जनता के सामने रखती रहीं। क्या इससे देश का विकास हुआ ? सत्तारूढ़ पार्टी के जाने के बाद आने वाली हर पार्टी ने भी यही प्रोटोकाल दोहराया। इतिहास को हर बार उल्टा-पलटा गया। जनता हर बार confuse हुई, हर बार ही उसने अपने निर्णय के लिए ख़ुद को धिक्कारा। और फिर अगली बार दिमाग़ से वोट डालने की सोची, पर हर बार वही ढाक के तीन पात। हम बेवकूफ़ से कहीं ज्यादा मजबूर हैं। राजनीति में सारे नेता ही बुरे हों, ऐसा भी नहीं!
दुर्भाग्य यह है कि इस 'व्यवसाय' में मात्र अच्छी सोच रखने से ही कुछ नहीं होता, सर्वसम्मति की आवश्यकता होती है जो कि मिलती ही नहीं क्योंकि दूसरे दलों को देश से ज्यादा अपनी नाक की फ़िक्र हैइसलिए समस्याएँ अब तक इसलिए नहीं जीवित हैं कि इनमें सुलझाने का माद्दा नहीं , समस्याएँ इसलिए जीवित हैं क्योंकि इनमें सुलझाने की चाहत ही नहीं!

कभी बीजेपी है, कभी कांग्रेस है , कभी आप है , कभी समाजवादी पार्टी। लेकिन इन सबके बीच मेरा देश कहाँ है? इनके मुद्दों में देश कहीं है ही नहीं।
जो देशवासियों से एकता का आह्वान करते हैं वे  संसद में खुद जूतमपैज़ार करते हैं। 

मीडिया हाउस में भी स्वयं को नंबर 1 देखने की होड़ है। कितना अच्छा होता यदि सारे चैनल मिलकर देश को प्रथम रख इसकी उन्नति के लिए कार्य करते। पर कुछ सत्ता के चाटुकार बने बैठे हैं और कुछ ने विपक्ष का मोर्चा संभाल लिया है। कुछेक को छोड़ दिया जाए तो लगभग सभी दूध पीने वाले पत्थर, चोटी काटने वाला भूत, मक्कार स्वामी ओम  और लोगों को बेवकूफ़ बनाती राधे माँ में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं। राम-रहीम, हनीप्रीत टाइप तथाकथित लव स्टोरी या किसी मंत्री की सेक्स सी डी मिलते ही इनकी बांछें खिल उठती हैं। क्या इन समाचारों की देश को वाक़ई जरुरत है? 
अंधविश्वास की ख़बरों को दिखाकर उन्हें बुरा बोलने वाले ये सभी चैनल सुबह से आपकी राशि और भविष्य की दुकान खोल लेते हैं। दोपहर में कोई प्रायोजित शक्तिवर्धक या लम्बाई बढ़ाने का टॉनिक बेचता एक घंटे का विज्ञापन चलता है तो कहीं निर्मल बाबा जैसे 'सुधारक' और 'कल्याणकारी बाबा' लोगों की समस्याओं का इलाज समोसे-चटनी के साथ करते नज़र आते हैं। क्या इन चैनलों ने आम आदमी की समस्या और सुधार पर विस्तार से बात की है कभी?? यदि की है तो कितने मिनट? हत्या हो या कोई भी अपराध, उसकी लम्बी चर्चा भी ये तभी करते हैं जब वो हाई प्रोफाइल केस हो। आरुषि हत्याकांड में भी हेमराज का नाम लेने वाला कोई न था।

हाँ इतना तो जरूर मानना पड़ेगा कि मीडिया संवेदनशीलता का परिचय भले ही न दे पाता हो पर हम तक ख़बरें पहुंचाने के लिए धन्यवाद का पात्र तो बनता ही है स्वच्छ भारत अभियान, बेटी बचाओ कैम्पेन को हम सब तक पहुँचाने में और पर्यावरण को बचाने सम्बन्धी संदेशों के माध्यम से इन्होने देश के विकास में थोड़ा योगदान तो दिया है। ख़ुशी की बात है कि कुछ हैं जो सही स्टोरी दिखाते हैं, सच को सामने रखने का हौसला रखते हैं पर दुःख ये है कि ज्यादा सच बोलना देशद्रोह में गिना जाने लगा है। 
हम सहिष्णु भारत के सहिष्णु नागरिक हैं लेकिन जब अपनी पर आती है तो बर्दाश्त नहीं होता। कभी बैन लगा दिया जाता है तो कभी फ़तवे का ख़तरा लहराता है।

दुनिया के सामने हम एक हैं लेकिन चुनाव के समय कोई ठाकुर है, राजपूत है, शिया-सुन्नी है, यादव है, पंडित है, ईसाई है, पारसी है, सिख है, जैन है, पिछड़ा वर्ग है, अल्पसंख्यक है। 
एडमिशन के समय भी हम यूँ ही अलगअलग धर्मों में बँट जाते हैं।
दंगों में तो अलग-अलग होना नियम ही बन गया है। हम अपने ही देश की जमीं पर खड़े हो, उसी का सत्यानाश मिलजुलकर करते हैं।  तोड़फोड़ करते हैं, आग लगाते हैं। 
हम एक भारत श्रेष्ठ भारत की संकल्पना पर मिल-बाँटकर खाने की बात करते हैं लेकिन एक राज्य जब दूसरे का पानी रोक ले तो हम अपनी-अपनी पाली में जाकर उसका समर्थन करने लगते हैं।
सर्व धर्म समभाव हमारा स्वभाव है और हमें सबके गुणों का आंकलन उनके कर्मों के आधार पर करने की सीख दी गई है लेकिन आजकल हम गुजराती, बिहारी, मराठी, पंजाबी, सिख, उत्तर-दक्षिण भारतीय बन एक-दूसरे की भाषा, बोली और त्यौहारों की धज्जियाँ उड़ाने लगे हैं। सेवन सिस्टर्स को तो हम भारतीय मानते ही नहीं! मुंबई से फ़रमान जारी होता है कि बिहारी और यू पी वाले चले जाएँ तो दूसरे प्रदेश अन्य प्रदेश को कोसने लग जाते हैं। पर इन सबके बीच में मेरा हिन्दुस्तान कहीं खो जाता है।

आख़िर हम कब अपने-अपने धर्म के खोलों से बाहर आएँगे ? कब हम हर राज्य और उसके निवासी को अपना मानेंगे? कब हम राष्ट्रीय संपत्ति को अपना समझ उसकी रक्षा में सहायक बनेंगे? कब हम अपने देश को स्वार्थ से ऊपर रखकर सोचेंगे? कोई कट्टर हिन्दू है तो कोई कट्टर मुसलमान। 
मेरा सवाल है....हम कट्टर भारतीय क्यों नहीं हो सकते? हमारा धर्म भारत क्यों नहीं हो सकता? देश के विकास के लिए सारे दल, सारे मीडिया हाउस एकजुट क्यों नहीं हो सकते? सिर्फ़ किताबी निबंधों में ही नहीं.....हम सच में एक क्यों नहीं हो सकते?
- प्रीति 'अज्ञात'
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