शुक्रवार, 12 जनवरी 2018

पुस्तक का मनोविज्ञान - 2

विश्व पुस्तक मेला- क़िताबें, बातें, मुलाक़ातें और जलवा-ए-सेल्फ़ी

हिन्दी फ़िल्मों के इतिहास को खंगालेंगे तो राजेंद्र कुमार जी के दशक की फ़िल्मों में एक बात कॉमन थी कि नायक-नायिका के बीच की इश्क़ियाहट क़िताबों के गिरने और फिर साथ-साथ उठाए जाने से प्रारंभ होती थी. आंखों-आंखों में हुआ ये प्यार इतना सशक्त हो जाता था कि बगिया के फूलों की डाली को झुकाकर और नदी की बहती धारा से अठखेलियाँ करते हुए जमाने भर से लड़ने की ताक़त एकत्रित कर लेता था और फिर क्लाइमेक्स में उसे अपने क़दमों में झुकाकर ही मानता था.

राजधानी के प्रगति मैदान में चल रहे विश्व पुस्तक मेले की रौनक भी बारम्बार उसी युग में ले जा रही है. संयोगवश यहां भी नायक-नायिका की उम्र लगभग वही है. मतलब किशोरावस्था-सी कार्यशैली तो है पर उम्र... उफ्फ्फ, बहुत लेट हो गया न! पर ऐसा नहीं कि यह सोशल मीडिया से उपजी दोस्ती और फिर उस दोस्ती के प्रेम में बदल जाने के बाद मिलने की तमाम संभावित जगहों में सबसे सुरक्षित शरणस्थली है और यहां केवल प्रेमी युगल ही आते हैं.

न, न यदि आप ऐसा समझ रहे हैं तो अपनी सोच को दुरुस्त कीजिए (नहीं करेंगे, तो भी कोई ज़िद नहीं). हां, पर माहौल इतना ही ख़ूबसूरत और ज़ालिम लगता है. क़िताबें, सुंदर-प्रसन्नचित्त चेहरे, हरी-भरी घास, छायादार वृक्ष, फूल, कविताएं-कहानी.... "मेरे मेहबूब तुझे मेरी मोहब्बत की क़सम" की याद दिलाने लगते हैं. बदलते समय और पगले विकास के साथ अब इसमें चाय और दनादन सेल्फियां (बहुवचन यही होगा न) भी शामिल हो चुकी हैं.

पुस्तक मेला है तो स्पष्ट ही है कि वहां पुस्तकें होंगी. चर्चायें होंगी. लेखक-प्रकाशक होंगें. विमोचन, काव्य-पाठ के सैकड़ों दौर होंगे.

लेकिन इसके अतिरिक्त भी कई ऐसी बातें हैं जो संभवत: जनमानस को ज्ञात न होंगीं. कृपया धैर्य रखें, हम इस पवित्र धरा पर यही बताने को अवतरित हुए हैं. तो मेहरबानों और बेक़दरदानों-

* यही वो पावन स्थान है जहां से साथ-साथ मुस्कुराते हुए लेखक-प्रकाशक की दुर्लभ तस्वीर प्राप्त की जा सकती है.

* यहां आने वालों में लेखकों की संख्या का अनुपात पाठकों की संख्या का बीस गुना होना दर्ज़ किया गया है. तात्पर्य यह है कि मूलत: लेखकों को ही एक-दूसरे की पुस्तक खरीदनी होती है. कुछ-कुछ फेसबुक के लाइक, कमेंट, शेयर का मंचीय प्रस्तुतिकरण ही समझिए. अगर उसने आपको अपनी पुस्तक गिफ्ट दी थी तो स्वप्न में भी न सोचें कि वो आपकी खरीदने वाला है, इसलिए चुपचाप भेंटाय दीजिए. जो आपसे कहे कि "यहां से ले जाने में दिक़्क़त होगी, अमेज़न से मंगा लेंगे." समझ लीजिए कि उसने बड़े ही सलीक़े से आपकी आकस्मिक बेइज़्ज़ती कर दी है.

* विशुद्ध पाठक पूरी गंभीरता से अलग-अलग स्टॉल पर जाकर अपने पसंद की पुस्तकें तलाश करता था. परन्तु अब वह स्टॉल पर बैठे हुए भाई या भगिनी द्वारा जबरन अपनी पुस्तक की रसीद काट देने से आतंकित हो (दुर्भाग्य से इस विचित्र रसीदी दृश्य के हम स्वयं साक्षी रहे हैं) दो फुट की दूरी बनाकर रखता है. वैसे इन पाठकों की संख्या नगण्य के बराबर एवं विलुप्त होने के कग़ार पर है.

* मेले में आए हुए स्त्री-पुरुष लेखक स्वयं को सुपरस्टार से कम नहीं मानते. अपने पसंदीदा स्टॉल के कोने में खड़े होकर उनकी निगाहें उसी मुर्गे-मुर्गी (भक्त के प्रयोग से पॉलिटिकल लगेगा) के लिए बेक़रार नज़र आती है जो उन्हें देखते ही दौड़ा चला आए और कहे, "अरे, सर /मैडम आप! आज तो आना सफल हो गया." लेकिन इनकी बुभुक्षा इतने पर भी शांत नहीं होती और ये बड़े ही कोमल भाव से उसे याद दिलाते हैं कि सुनो, जब ये फोटो शेयर करो तो मुझे टैग कर देना. ये इनकी विनम्रता नहीं बल्कि वो ललक है कि लोगों को पता चले, "हम किसी से कम नहीं!"

* अगले ही मिनट में ये ऊपर वाले लेखक किसी असल बड़े लेखक को देखते ही अपना झोला उठा उसके पीछे दौड़ पड़ते हैं. खींसे निपोरते हुए परिचय देते हैं और फिर अपनी पुस्तक उसे जबरन थमाकर वही निवेदन करते हैं जिसकी अपेक्षा पिछले बिंदु में ये स्वयं के लिए कर रहे थे. इस तरह छोटा, उससे बड़ा, बड़े से भी बड़ा और फिर सेलिब्रिटी तक ये खेला इसी क्रम में उलट-पुलट हो अनवरत जारी रहता है. वैसे अच्छा रोचक कार्यक्रम लगता है.

* सबसे अधिक आनंदित और गर्व के साथ अगर कोई यहां दिखाई देता है तो वो है प्रकाशक. प्रकाशक के क़द के हिसाब से लेखकों की भीड़ होती है. नए-नए 'तत्काल' टाइप लेखक इन बड़े प्रकाशकों के बैनर के आगे अपनी फोटुआ खिंचवाकर सपनों की नींव की पहली ईंट सरका आते हैं. उधर अंदर बैठे ये वरिष्ठ प्रकाशक आशीर्वाद की मुद्रा में निर्मल बाबा के समोसे विथ चटनी की याद दिलाते हैं. (सर/मैडम जी गुस्सा मत हो जइयो, हमउ उहां से छपेंगे एक दिन).

* यहां पत्रिकाओं के प्रचार के लिए भी सब आते हैं और जहां 4-5 ठीकठाक लोग दिखाई दिए, वहीं 'फटाफट पत्रिका वितरण समारोह' का आयोजन कर डालते हैं. फ्री में देने के कारण यह बहुधा सफ़ल ही होता है. लोग पेटदर्द की तक़लीफ तब जाहिर करते हैं जब बात सदस्यता तक पहुंचने लगे. अरे, भई... मंदिर का प्रसाद है क्या? मुफ़्त में ही चाहिए सब कुछ?

* देश के बाहर के हिन्दी रचनाकार भी आपको यहीं सुलभता से प्राप्त हो जाएंगे. यूं भी अपने यहां 'foreign return' को सम्मान से देखने की सुखद परंपरा सदियों से है ही. ये आप दोनों के लिए सुनहरा अवसर है, पूरा लाभ उठाएं.

MORAL: जरुरी नहीं कि सब मरने के बाद ही फ़ेमस होते हैं. यह मेला आपको जीते-जी इश्शटार बनाकर ही दम लेगा.

अत: दोस्तों से मिलने जाएं, स्नेह से जाएं, स्वार्थ से जाएं, सक्रियता दिखाने के लिए जाएं या कुनकुनी सर्दी की गुनगुनी चाय पीने जाएं.... खाली हाथ जाएं और ख़ूब किताबें लाएं... बीनकर नहीं, छीनकर नहीं, मांगकर तो बिल्कुलै नहीं, खरीदकर लाएं! फिर उस किताब के साथ सेल्फ़ी लें और क़हर ढायें.... SWAG से करेंगे सबका स्वागत!
- प्रीति 'अज्ञात' 
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