गुरुवार, 26 जुलाई 2018

रोटी

'मृत्यु' बिकाऊ है और बेहद आसान भी! पैसों की गर्मी ने, संवेदनाओं को सोख लिया है। रुपया ही बोलता है, वही चलता है! जीवन उसी को कमाने की मशीन जो बन चुका है! भावनाओं का मूल्यांकन, संबंधों की सुंदरता, बचपन की मासूमियत, किशोरों की ठिठोली और मन की संतुष्टि अब ज़रूरतों की बाढ़ में डूबकर अपने अस्तित्व की खोज में भटक रही है! यहाँ जमीन के लिए लड़ाईयां होती हैं, इस सच को जानते हुए कि एक दिन इसी जमीन के अंदर गाड़े जाने वाले हैं, बम-विस्फोट की योजनाएं बनती हैं अपने ही देश को उड़ाने के लिए, कायदे-कानून की धज्जियाँ; खोए आदर्शों की तरह हर तरफ बिखरी दिखाई दे रही हैं। हड़ताल, अब अपनी जायज़ मांगों की पुकार न होकर सुनियोजित दंगे का भरम देने लगी है। अपने ही देश की संपत्ति को आग में झोंककर आखिर हम किस मुँह से अधिकारों की मांग करते हैं? 

गरीब बचपन चीखकर रोता है, एक बेबस पिता कहीं बोझा ढोता है, इधर रोटी की प्रतीक्षा में तीन भूखे पेट दरवाजे पर आँखें रख हमेशा-हमेशा के लिए वहीं गहरी नींद सो जाते हैं। जो रोटी न दे सके, वे उन्हीं भूखे पेटों को चीरकर मृत्यु के कारण तलाशने की कोशिशों में जुटे हैं। यह भूख का ही दोष रहा होगा कि वह कुछ नहीं कह पाती। सूखे हलक़ और आँतों से चिपककर सुन्न हो बैठ जाती है। इंसानियत को इन दिनों ज्यादा धक्का नहीं लगता। धक्के खा-खाकर हम सब भी तो अभ्यस्त हो चले हैं। काव्य की आँखों से दो बूँदें गिरती हैं; अदृश्य हो जाती हैं! चहुँ ओर एक मौन पसर जाता है, बीच में झिलमिलाती हुई मोमबत्ती थोड़ी देर जलकर, एक टूटी उम्मीद की तरह अंतत: वहीं हारकर बैठ जाती है! विरोध के स्वर भी उठते हैं और नया विषय मिलते ही उनकी दिशा ऐसे बदल जाती है जैसे किसी बच्चे को अगली कक्षा में प्रोमोट कर दिया गया हो और वो दौड़कर अपनी सारी पुरानी किताबें रद्दी वाले के लिए उठाकर एक कोने में पटक आता है। समय की एकत्रित हुई धूल. इसे पुराना घोषित कर देती है और इसमें रूचि समाप्त हो जाती है। 'मृत्यु अब एक समाचार भर है।'

मौतें रोज होती हैं, कारण बदलते रहते हैं! रोज हजारों लोग किसी-न-किसी अपराध की बलि चढ़कर अपने जीवन से हाथ धो बैठते हैं, परिवार ख़त्म हो जाता है, आँसू सूख जाते हैं, ह्रदय भीतर तक कसैला हो जाता है और एक परिवार समाज को घृणित भाव से देख अपनी सारी आशाएँ, किसी नदी में पार्थिव शरीर-सा प्रवाहित कर आता है! उसके विश्वास को किसने तोड़ा? इस समाज ने ही उसका सर्वस्व छीना है. इसीलिए जिस अनुपात में अपराध होते हैं, उसी अनुपात में उतनी ही नकारात्मकता समाज के प्रति बढ़ती जाती है।

विकास करना है, तो अपराध को रोकना होगा! रोते, उदास, मायूस चेहरों से परिवर्तन की उम्मीद न कीजिये साहेब ! उन्हें हौसला दीजिये, विश्वास दीजिये, उनकी खोई मुस्कान वापिस लौटाने की हलकी-सी कोशिश भी कुछ दिलों को रोशनी से भर देगी। और गर हमारे समाज में 'मौत' यूँ ही  सामान्य घटना बनकर रह गई तो फिर इस  'दर्पण' के टूटकर बिखरने में भी अधिक वक़्त नहीं लगेगा!

कवि ह्रदय और आम आदमी अब क्या करे? क्या लिखे? क्या पढ़े? क्या देखे? वेदना को मसोसते हुए झूठी तसल्लियाँ दे? या कि लाशों के ढेर से मुँह फेरकर, अपनी दो वक़्त की रोटियों की फ़िक्र करे!
- प्रीति 'अज्ञात' 
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Pic Credit: Google

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