जब कभी पहाड़ों को देखती हूँ तो अपनी इच्छाशक्ति को और भी दृढ़ होते हुए पाती हूँ। इनसे गुजरती हिमनदी भीतर ग़ज़ब का आत्मविश्वास भर देती है। बहते पानी की आवाज़ किसी नवजात शिशु की किलकारी बन खूब हिलोरें मारती हैं। इन रास्तों से गुजरते हुए जब हॅंसते झूमते फूलों और चहकते पक्षियों को देखती हूँ तो जीवन के खुशनुमा होने का अहसास जीवंत हो उठता है।
लेकिन दस दिनों के बाद जब असल दुनिया में वापिस लौटती हूँ तो लगता है कि ये जाने कहाँ आ गई हूँ। वो कौन सी दुनिया थी जहाँ के पेड़, पौधे, नदी, पहाड़ सब खुश थे और जहाँ जाकर मैं फिर कहीं और नहीं जाना चाहती! और ये कौन सी दुनिया है जहाँ की तस्वीर में हर बार और भी बदसूरत और बदनुमा दाग लगे मिलते हैं! लेकिन जीवन का सबसे बड़ा हिस्सा इसी में काटना है।
यक़ीन मानिये तमाम कठिनाइयों के बावजूद भी जीवन जंगलों में है, नदी में है, पहाड़ों में है। उसके अलावा जो भी है सब बेहद विकृत, स्वार्थी कुटिल मानसिकता और बेहूदगी से भरा पड़ा है। हम सब इस बेहूदगी के जिम्मेदार हैं और कुछ हद तक सहभागी भी।
हमने प्रेम को नफ़रतों में बदलना सीख लिया है लेकिन नफ़रत को प्रेम में बदलने की कोशिश कभी नहीं की। जिन्होंने की, वे भावुक मूर्ख माने गए और गहरे अवसाद में डूबते चले गए।
धीरे-धीरे ये सबके साथ होगा!
अन्याय, अधर्म और असत्य के विरुद्ध चीखते रहने के बाद एक वो भी दौर आएगा जब हम हारकर चुप्पी साध लेंगे या अपनी आवाज़ खो बैठेंगे।
मुझे लगता है हम इसी गूँगे-बहरे समाज की स्थापना की ओर अग्रसर हो रहे हैं। ऐसा नहीं कि हमें फ़र्क नहीं पड़ता.....बहुत पड़ता है। लेकिन इसने हमारा सुख चैन छीन लिया है।
अगर चैन से जीना है तो अपना नंबर लगने तक पत्थर हो जाइए।
- प्रीति 'अज्ञात'
लेकिन दस दिनों के बाद जब असल दुनिया में वापिस लौटती हूँ तो लगता है कि ये जाने कहाँ आ गई हूँ। वो कौन सी दुनिया थी जहाँ के पेड़, पौधे, नदी, पहाड़ सब खुश थे और जहाँ जाकर मैं फिर कहीं और नहीं जाना चाहती! और ये कौन सी दुनिया है जहाँ की तस्वीर में हर बार और भी बदसूरत और बदनुमा दाग लगे मिलते हैं! लेकिन जीवन का सबसे बड़ा हिस्सा इसी में काटना है।
यक़ीन मानिये तमाम कठिनाइयों के बावजूद भी जीवन जंगलों में है, नदी में है, पहाड़ों में है। उसके अलावा जो भी है सब बेहद विकृत, स्वार्थी कुटिल मानसिकता और बेहूदगी से भरा पड़ा है। हम सब इस बेहूदगी के जिम्मेदार हैं और कुछ हद तक सहभागी भी।
हमने प्रेम को नफ़रतों में बदलना सीख लिया है लेकिन नफ़रत को प्रेम में बदलने की कोशिश कभी नहीं की। जिन्होंने की, वे भावुक मूर्ख माने गए और गहरे अवसाद में डूबते चले गए।
धीरे-धीरे ये सबके साथ होगा!
अन्याय, अधर्म और असत्य के विरुद्ध चीखते रहने के बाद एक वो भी दौर आएगा जब हम हारकर चुप्पी साध लेंगे या अपनी आवाज़ खो बैठेंगे।
मुझे लगता है हम इसी गूँगे-बहरे समाज की स्थापना की ओर अग्रसर हो रहे हैं। ऐसा नहीं कि हमें फ़र्क नहीं पड़ता.....बहुत पड़ता है। लेकिन इसने हमारा सुख चैन छीन लिया है।
अगर चैन से जीना है तो अपना नंबर लगने तक पत्थर हो जाइए।
- प्रीति 'अज्ञात'
पत्थर होना आसान तो नहीं होगा ...
जवाब देंहटाएंचीखें जब आएँगी कान बंद करना आसान न होगा ...
मन के स्थिति को बयान करते भाव ...
धन्यवाद :)
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