सोमवार, 12 अगस्त 2019

योगा कैसे होगा जी!

बात उन दिनों की है जब हम भी आम जनता की तरह आसानी से बेवकूफ़ बनने के असाध्य रोग से पीड़ित थे (वैसे बनते अब भी हैं, बस थोड़ा टाइम लगता है) और उस पर महंगाई की तरह बहुगुणित होता मोटापा! हाय,अल्लाह! ये मुआ मोटापा भी क्या-क्या न करवाए! हर जगह मुश्क़िलों से घिरे हम लेडी देवदास वाला चेहरा लिए घूमते थे। जीन्स पहनना अब बोझिल हो चला था, कपड़े छोटे हो गए थे (ऐसा बोला जाता है पर एक्चुअली तो हम ही मोटे थे न!) खाना-पीना भी कभी छूटता और कभी हम स्वाद कलिकाओं की मनुहार पर झट से झपट लिया करते थे। मित्र-मंडली और परिवार के सदस्य ढांढस बंधाने को झूठ ही कह देते, "अरे, मोटी कहाँ! खाते- पीते घर की लगती हो!" अब हम ही जानते हैं कि उनकी आँखों का सच उन्हें "छुपाना भी नहीं आता...जताना भी नहीं आता!" (बाज़ीगर और विनोद राठौर याद आए न!) अब अपनों की आँखें तो मुँह फेरकर भी पढ़ी जा सकती हैं, सो अपन का सच तो अपन जानते ही थे। 
वो तो भला हो बाबा रामदेव जी का कि उनकी कृपा से अनुलोम विलोम और कपाल भाति सीख लिए हैं। आप सब तो जानते ही हैं कि भय के समय हनुमान चालीसा और फोटू खिंचाते समय प्राणायाम की बड़ी जोर वाली जरुरत पड़ती है। हम भी अपने बगल वाले गोलुओं को ये प्रक्रिया समझा देते हैं। सब जैसे-तैसे 'पनीर' या 'श्री' बोल पेट को अन्दर खींचते हुए होठों पर डेढ़ इंची मुस्कान भले ही बिखेर लेते हों पर भीतर-ही-भीतर श्वांसों का जो त्राहिमाम मचता है उसकी अलग दर्द भरी कहानी है! वो तो अच्छा है कि प्रश्वांस के समय कार्बन डाई ऑक्साइड निकलती है....कहीं हाइड्रोजन निकलती तो वायुमंडलीय ऑक्सीजन से मिलकर सब किये कराये पर पानी फेर देती! ख़ुदा क़सम! क्लिक होते ही रुकी सांसों का ऐसा जलजला बाहर निकलता है कि सामने अगर पाकिस्तानी सेना खड़ी हो तो पलक झपकते ही उसका सर्वनाश हो जाए!

खैर, ये उन दिनों की बात है, जब हम सब कुछ करके हार चुके थे पर चूंकि जीना चाहते थे इसलिए ठूँसने में कोई कसर बाक़ी न थी। यूँ भी भैया, हम जीने के लिए तो खाते नहीं है! खाने के लिए जीने वाले लोगों की श्रेणी में आकर अलग-सा प्राउड फील करते चले आ रहे हैं। तो ऐसी ही एक सुहानी भोर को हमारी प्रिय सखी ने अचानक बौराते हुए आकर घंटी बजाई और बोली "अरे, जल्दी आ!!" हम सब काम छोड़छाड़ दरवाजे की तरफ सरपट भागे। देखा, तो वो सामने एक थैला लिए खड़ी थी। "अबे! कहाँ जा रही है तू?" हमने दोस्ताना लहज़े में उसके थैले में लगभग घुसते हुए पूछा। 
"ज्यादा बात न कर, चल! एक मशीन आई है उस पर लेटने से सारी बीमारियाँ दूर हो जातीं हैं।"
"हैं!!" मारे प्रसन्नता के हमारी चीख़ निकल गई। चक्षु अपनी कोटरों से बाहर ही लुढ़क पड़े। "वज़न भी कम होता है क्या!" अब उत्सुकता मचल-मचलकर शब्द बन थिरकने लगी थी। 
"और नहीं तो क्या! दो महीने में स्लिम-ट्रिम। उस पर अभी फ्री भी है।"
"फ्री,फ्री,फ्री!" यह शब्द किसी डेली सोप की तरह हमारे कर्णपटल पर तीन बार झनझना हर भारतीय की तरह हमें भी अपार उल्लसित कर गया। अबकी बार हम दोनों गालों पर मिस यूनिवर्स की तरह हाथ रख बड़ी अदा से हँसे। वैसे मन-ही-मन तो "हाय दैया! ऐसा भी होता है!" टाइप के भाव तीव्र गति से हिलकोरे मार रहे थे। 
अब दोस्त से प्रश्न कौन करता है भला! आनन-फ़ानन में चादर लेके चल पड़े। रास्ते भर चहकते हुए गए। उमंगें अपने चरम पर थीं।

कुछ ही मिनट बाद हम उस अद्भुत दुनिया के दरवाजे पर थे जहाँ 'विश्व-सुंदरी' बनने के सपनों की अपनी उड़ान भरनी थी। लेकिन ये क्या! बाहर चप्पलों की टाल लगी थी। इतने लोग??? अंतरात्मा जी ने उत्तर दिया, "बेटा, आप अपनी स्मार्टनेस दिखाने में जरा लेट हो गए हैं।" 
ख़ैर! समझदारी से कोने में जूते छुपाकर कक्ष में प्रवेश किया। सामने खड़े एक अकड़ू इंसान से बात हुई जो स्वयं को सुपर हीरो से रत्ती भर भी कम नहीं समझ रहा था। उस पर घुन्नू जैसा चेहरा बनाकर बोला, "बैठिये...वेटिंग है चालीस मिनट लगेंगे।"
यूँ तो लोग रेस्टॉरेंट में इतना वेट भी कर लिया करते हैं पर हमें ये बात अखर गई। "चालीस!!! इतनी देर में तो घर के सौ काम निबटा लेती। भैया, चालीस मिनट बाद आयें क्या?" 
"नहीं! फिर दोबारा नंबर लगेगा।"
"अच्छा! ठीक है। रुक ही जाते हैं।" कहकर हम चुप हो गए और उचककर पहले कमरे में झाँकने लगे। उन कमबख़्तों ने ऐसा इंतज़ाम किया था कि न सुन सको, न समझ सको। अंदर बैठे लोगों के चेहरे इतने गंभीर जैसे IAS के mains में बैठे हों। 
"पक्का! ये लोग योगा और एक्सरसाइज का ही प्रवचन दे रहे होंगे!" अपनी ये बात सोच हमें ख़ुद ही घबराहट होने लगी। दिल को तसल्ली दी, "नहीं, नहीं! इतना ज़ुलम तो नहीं हो सकता!"

पूरे पचास मिनट बाद प्रवेश की शुभ घड़ी आई तो पता चला कि अभी प्रवचन की बाधा पार करने के बाद ही मशीन दर्शन होंगे। 50-60 लोगों का बैच था। हम लपककर प्रथम पंक्ति में बैठ गए जिससे देखने-सुनने में कोई असुविधा न हो। तभी एक मनुष्य ने कुटिलता के साथ सबको हिक़ारत की दृष्टि से देख मुस्कुराने की ओवरएक्टिंग की। तत्पश्चात उसने श्रोताओं को ज्ञान बाँटना प्रारम्भ किया ...."कि हम भारतीय कितने परले दर्ज़े के मूरख हैं और जापान में ये, जापान में वो।"
जापान से कोई दिक़्क़त नहीं हमें; पर हमारे सामने ही कोई हमें इस क़दर कोसे और हम चुप रहें? तो लानत है हम पर!...हम वहीं भिड़ 
गए कि "आप प्रोडक्ट की बात करें, देश को कोसते हुए बोलने की क्या जरुरत है?" बन्दा बौखला गया और उसी पल से हम परस्पर अघोषित दुश्मन भी हो गए। पहले दिन के हिसाब से ये अठैन थी पर अब जो हो गया सो हो गया!

उन सर जी की बातों को झेलने के बाद अंततः वह पल आया जिसके लिए हम बेक़रार थे। कमरे में एक पलंगनुमा संरचना दिखाई दी, जिसके आसपास कुछ गैजेट्स से लगे थे।  एकदम ICU वाली फ़ीलिंग आ रही थी। हम अपनी चिंता को मन में मारकर शवासन को प्राप्त हुए। धीरे-धीरे तापमान बढ़ने लगा और हम हाय, हाय का जाप कर पसीना-पसीना हो गए। मन किया उसको जाकर बोलें कि "ऐसे ही पतला करना है तो हमको भरी दुपहरिया में सूरज के सामने तार पर लटका दो। इस मशीन की क्या जरुरत थी? या फिर हम खुद ही 48 डिग्री में छत पर जाकर लेट जायेंगे जैसे माँ पापड़ सुखाती हैं।" थोड़ी देर पहले ही उससे बहस हुई थी इसलिए चुप ही रह गए। 
अब तो रोज़ यही क़िस्सा! पूरी सुबह ख़त्म हो जाती और हम " हम होंगे क़ामयाब .O deep in my heart, I do believe.." का mixed version गुनगुना अपनी खीज मिटाते।

दो माह तक ये खेल चलता रहा और वज़न वहीं का वहीं। एक दिन हम थोड़े ज्यादा ही खिसिया गए और सीधे उसी जानी दुश्मन से जाकर प्रश्न किया कि "आख़िर इस मेहनत का फ़ल कब मिलेगा?" उसने जो उत्तर दिया; उसे सुनकर हम पर तो बिज़ली ही गिर पड़ी। बोला, "अरे मैडम! ये तो प्रोडक्ट प्रमोशन के लिए है। डेढ़ लाख की मशीन आती है, ख़रीद लीजिये, समय की बचत होगी। साथ में एक्सरसाइज कीजिये और डाइटिंग भी।"
उधर वो कहता जा रहा था और इधर हमारे सपने बिलख-बिलख हमारे ही पैरों में साँप की तरह लोट हमें डसे जा रहे थे। दिल कह रहा था कि उसका कॉलर खींच के कहें कि फिर झूठ काहे बोला कि "फ़लानी- ढिमकी बीमारी ठीक हो जाती है इससे। फिर याद आया, प्रथम प्रवचन में ही उसने बेवकूफ़ होने की बात नगाड़े की ताल पर की थी।"
हम चुपचाप अपना झोला उठा झुकी नज़रों, भारी मन और लुजलुजे क़दमों के साथ घर की ओर लौट चले। सामने देखा एक माँ अपने बच्चे के कान खींचती हुई कह रही थी, "और जायेगा फ़्री के चक्कर में?" और वो मासूम "नहीं, मम्मी! अब नहीं करूँगा। सॉरी, ग़लती हो गई। मम्मीईई, लगता है।" जाने क्या सोचकर हमारा हाथ, अपने ही कानों को सहलाने लगा।
- © प्रीति 'अज्ञात' 

2 टिप्‍पणियां:

  1. हा हा मज़ा आ गया। ऐसा लगा जैसे काम छोड़कर मैं भी तुम्हारे साथ भाग रही हूँ... 😂😂 मशीन पर शवासन करने को।

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