बुधवार, 21 जुलाई 2021

चाय में डूबे बिस्कुट की भी अपनी एक कहानी है

आलू गोभी, कढ़ी चावल, छोले कुलचे की तरह एक और भारतीय जोड़ी है चाय-बिस्कुट की. लेकिन इन दोनों का किस्सा ही अलग है. हम ये बात आज तक नहीं समझ सके कि चाय के साथ अगर बिस्कुट या टोस्ट आता है तो उसको डुबोना किसलिए है? आखिर इनके मेलजोल की प्रथा कब से प्रारंभ हुई? अब सुबह-सुबह बिस्कुट महाराज हाथ से ऐसे फिसले जैसे गंगा नहाने घाट से उतर गए हों. खुद तो डूबे ही सनम, हमारी सुबह भी ले डूबे हैं. हम तो इतने आहत हैं कि क्या ही कहें!

सच मानिए, जीवन में असली दर्द की पहचान तो तब होती है जब सुबह की पहली चाय के साथ अपना बिस्कुट खुदकुशी कर ले. आप सबने भी यह दुख कभी न कभी झेला ही होगा! ये भी जानते ही होंगे कि यही दर्द तब नासूर बन जाता है जब उस दिवंगत बिस्कुट को बचाने के चक्कर में, बचा हुआ भी डूब जाए! आज इस गहरे ज़ख्म की पीड़ा की प्रक्रिया से इतना बुरी तरह गुजरे हैं हम. क़सम से पहली बार तो दिल पर पत्थर रख लिया था हमने और वक़्त के इस घनघोर सितम को चुपचाप सह गए थे. लेकिन दूसरी बार तो यूँ लगा जैसे बचाव दल (रेस्क्यू टीम) का एक बंदा खामखां शहीद हो गया. स्थिति की गंभीरता को देखते हुए उसे तो बचाया जा सकता था!  लेकिन अब अफ़सोस के सिवाय और कुछ हाथ न था. इस गरीब के किचन में वही दो बिस्कुट शेष थे जो आज साथ छोड़ गए. गए भी तो वहाँ, जहाँ से आज तक कोई भी साबुत न लौटकर आ सका. ज्ञानी लोगों ने तो कब का बता दिया था कि कमान से निकला तीर, मुँह से निकले शब्द और चाय में डूबे बिस्कुट को लौटा पाना असंभव है. अब मति तो हमारी ही मारी गई थी कि ज्ञानियों की बातों को हल्के में ले लिया. 

अच्छा! अब आप सोच रहे होंगे कि हमने कौन सा बिस्कुट लिया था. तो हमें यह बताने में रत्ती भर भी संकोच की अनुभूति नहीं हो रही कि ये वही आयताकार खाद्य पदार्थ है जो कि सृष्टि के निर्माण के समय से ही इस धरती पर विद्यमान है. जी, हाँ पारले- G. हमारा तो यह भी मानना है कि ईश्वर ने जब मनुष्य को इस धरती पर भेजा तो टोसे में केतली भर चाय और पारले- G का पैकेट साथ बाँध दिया था. हो सकता है, उन्होंने स्वयं भी अपनी थकान दूर करने के लिए यही खा कर आराम किया हो. तभी तो इसे वरदान प्राप्त है कि युग आते-जाते रहेंगे पर तुम सदैव, सर्वत्र उपस्थित रहोगे.

अब ऐसा भी नहीं कि हमने इसके विकल्प न तलाशे हों. गोल मैरी ट्राई किया पर वो पूरा बैरी निकला. क्रेक्जैक और 50-50 टाइप  को तो स्वयं चाय ने ही ठुकरा दिया. बोली, "मुझे पाने वाले में कुछ तो क़शिश और मौलिकता होना माँगता है बेबी! ये सब तो मोनको की कॉपी करके बड़े हुए हैं". कई चॉकलेटी बंदे भी इस स्वयंवर में आए लेकिन अपने लावा को भीतर ही घोल पराजित हुए. इधर ये कमबख्त पारले यह सोच मंद-मंद मुस्कुराता रहा, मानो कह रहा हो, "अजी, हमसे बचकर कहाँ जाइएगा, जहाँ जाइएगा हमें पाइएगा!" जाने किस फॉर्मूले से बना है कि इसके सिवाय और कुछ जँचता ही नहीं! या फिर चाय ही नहीं चाहती होगी कि उसके जीवन में कोई नयापन आए. उसे बदलाव की चाहत ही न रही. शायद उसी बोरिंग लाइफ की अभ्यस्त हो चली है.

लेकिन तनिक विचारिए, उस चाय के दिल पर क्या बीती होगी जिसे अपनी बाँहों में समाए उसका प्रेमी चल बसा. आखिर चाय और मुँह के बीच फ़ासला था ही कितना! वैसे भी उस समय कप टेबल और मुख के मध्य स्थान पर लहराती उंगलियों के चंगुल में था. बस, जरा सी ही दूरी तो तय करनी थी. लेकिन ये बेवफ़ा अपनी प्रिया का साथ न दे सका और दो क़दम चले बिना ही एन मौके पर दम तोड़ गया.

यद्यपि हमें इससे सहानुभूति भी कुछ कम नहीं. हमारा वैचारिक गुरु भी यही है. एक बार जब हम अपने प्रेमी की स्मृतियों में औंधे पड़े टसुए बहा रहे थे तब इसी ने सचेत किया था. कह रहा था कि किसी में ज्यादा डूबोगी, तो टूट जाओगी. और आज, खुद ही ऐसा डूबा, ऐसा डूबा कि कोई न बचा सका. आज के जमाने में कोई नैतिक शिक्षा लेना तो नहीं चाहता, पर भावुक मन से बस इतना ही कहेंगे कि मोहब्बत में 'दो ज़िस्म एक जां की तरह' ऐसा डूबो, ऐसा डूबो कि अलग करना मुश्किल हो जाए. इश्क़ करो तो चाय-बिस्कुट की तरह एकाकार हो जाओ.

खैर! यह हादसा ऐसा है जो हम सबके साथ कभी न कभी हुआ है. सच कहूँ तो चाय में डूबा बिस्कुट हमारी भारतीयता की पहचान है. यही वह भीषण दुख और दर्द से भरा रिश्ता है जिसने हम सबको एक सूत्र में बाँधे रखा है. लेकिन अगर डूबने से डर लगता है तो जरा संभलकर रहिए.

कहीं पढ़ा था, "चाय में डूबा बिस्कुट और प्यार में डूबा दोस्त किसी काम के नहीं रहते". लेकिन हम कहते हैं, उन पर से ध्यान नहीं हटना चाहिए. न जाने कब उन्हें हमारे सहारे की जरूरत पड़ जाए.  हाँ, लेकिन डूबे हुओं के किस्से मन को भीतर से तोड़ देते हैं! डूबे हुए बिस्कुट को निकालने में संघर्षरत इंसान को देख हमारा तो कलेजा एकदम से फट जाता है जी.  

अच्छा, चलते-चलते एक जरूरी बात और बताते चलें कि अंग्रेजी के 'बिस्किट' सर, हिन्दी पट्टी में आते ही 'बिस्कुट' भाईसाब बन जाते हैं क्योंकि हम लोग चुटुर पुटुर चीज़ों को कुटुर -कुटुर खाते हैं. 

- प्रीति 'अज्ञात'

20/07/2021 

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