गुरुवार, 8 सितंबर 2022

1988 की बात है. ‘मध्यप्रदेश पत्र लेखक संघ’ का एक कार्यक्रम था. जहाँ तक मुझे स्मरण है, यह इटावा धर्मशाला, भिंड में सम्पन्न हुआ था (हाँ, वही वाली जिसके बाहर विजय फोटो स्टूडियो हुआ करता था).  दो दिन पहले कोई लड़का घर आकर कह गया था कि जरूर आना है. मैं उस समय समाचार-पत्रों में प्रायः पत्र वगैरह लिखा करती थी. पर समझ नहीं आ रहा था कि वहाँ जाऊं या नहीं? उस समय हद से ज्यादा संकोची और अंतर्मुखी भी थी.  

 जिस दिन कार्यक्रम था. उस दिन फिर कोई सुबह आकर याद दिला गया कि आपको आना है. तो मैंने अपने स्कूल की दो सहेलियों निशु और अस्मिता को बताया और साथ चलने को मना लिया. कार्यक्रम शुरू हुआ. कुछ भाषण वगैरह चले और फिर ‘पुरस्कार वितरण समारोह’ होने लगा. वैसे कक्षा में हमेशा प्रथम पंक्ति में बैठना पसंद रहा है मुझे लेकिन यहाँ मैं इसके विपरीत पीछे बैठी थी. सोचा था, ज्यादा भाषणबाज़ी चली तो भागने में सरलता रहेगी! यद्यपि मैं किसी भी कार्यक्रम के बीच में से उठकर जाने की पक्षधर न तब थी, न अब हूँ! चाहे सिर फटकर उसके दो टुकड़े हो जाएं पर अंत तक यही सोच बैठी रहती हूँ कि 'ऐसे जाना अच्छा! नहीं लगता, अपमानजनक ही होता है!' खैर! इस ज्ञान का अभी की बात से कोई लेना-देना ही नहीं!

तो जैसे ही किसी नाम की घोषणा होती, मैं उत्साहवर्धन हेतु ताली बजाने लगती. अचानक मध्यप्रदेश में पत्र लेखन के तृतीय पुरस्कार के लिए मेरा नाम पुकारा गया। मैंने समझा ही नहीं कि यह मैं हूँ और उसी तरह ताली बजाती रही. यूँ भी 'प्रीति' नाम इतना कॉमन है कि हर गली, मोहल्ले में एक बार जोर से पुकार दो तो पच्चीस-तीस प्रीतियाँ तो बाहर निकल ही आएंगी! सो, मैं तो प्रसन्नचित्त मन से इधर-उधर देख रही थी कि पुरस्कार लेने कौन उठ रहा! मेरी दोनों सहेलियाँ मुझे धक्का दे रहीं थीं कि "उठ, उठ! तुम्हें ही बुला रहे!" पर मैं कुछ समझ ही नहीं पा रही थी. मैंने कोई प्रविष्टि ही नहीं भेजी थी. तभी संचालक ने मेरी तरफ इशारा करके कहा, "जी आप ही को आना है". उस समय मुझे प्रसन्नता तो बहुत ही हुई पर इतनी शर्म भी आई न! क्योंकि मैं तो भीड़ में गुम होने के हिसाब से दो चोटी लटकाकर ऐसे ही चली गई थी, अब पुरस्कार लेने के लिए तो थोड़ा तैयार-शैयार होना पड़ता है न! हालाँकि मेरे तैयार होने और न होने में बस हेयर स्टाइल का ही अंतर रहता है.  

अब जिस हाल में थी, वैसी ही जाकर पुरस्कार ग्रहण किया. उसके बाद एक-दो लोगों से पूछा कि मेरी एंट्री किसने भेजी? किसी ने नहीं बताया. बस, इतना बताया कि विनिंग एंट्रीज़ बाहर लगी हुई हैं. हॉल के बाहर प्रदर्शनी जैसा कुछ था. जाकर देखा तो 'स्वदेश' पेपर में प्रकाशित  मेरा एक पत्र वहाँ लगा था. यह आतंकवाद पर था जो बाद में 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' में भी प्रकाशित हुआ. लेखन जगत में यह मेरा पहला और अप्रत्याशित पुरस्कार था. वैसे पुरस्कार मुझे सदा से ऐसे ही मिले हैं. मम्मी-पापा भी बेहद खुश हुए. हालाँकि आज तक ये नहीं मालूम हुआ कि वो एंट्री किसने भेजी थी! संभवतः सभी समाचार-पत्रों में से कुछ को चुना गया हो! जो भी हो, इस पुरस्कार ने मुझे ग़ज़ब का हौसला दिया था. तब पहली बार इस बात का अनुभव किया कि लेखन भी एक कला है जिसे परिजनों के अलावा भी लोग सराहते एवं प्रोत्साहित करते हैं.  

आज album खंगालते हुए दो चोटी वाली यह तस्वीर मिली, तो पूरा किस्सा याद आ गया!

वनस्पति विज्ञान से एम.एससी. की, एक वर्ष कॉलेज में पढ़ाया। संस्कृत अध्यापन में डिप्लोमा किया। दो अन्य डिग्री अधूरी भी रहीं। pottery और बोन्साई में भी बहुत रुचि रही। 2000 के बाद से सामाजिक कार्यों में स्वयं को पूरी तरह से झोंक दिया था लेकिन 2010 से अब तक एक बार फिर उसी दुनिया में रम गई हूँ जहाँ बचपन से ही दिल लगा करता था। अब अपनी एक साहित्यिक पत्रिका है, संस्था है, ब्लॉगर बन गई, स्तंभकार हूँ। साथ-साथ पुस्तकें भी आती रहीं। अब भी सीख ही रही हूँ। यूँ ही नहीं कहते कि दुनिया गोल है! मेरे लेखन की दुनिया में इस दिन का बड़ा योगदान है!

आज फेसबुक के माध्यम से मैं इस कार्यक्रम के आयोजकों को शुक्रिया कहना चाहती हूँ। 🙏🙏 आपका यह पुरस्कार अब भी घर के ड्रॉइंग रूम की शोभा बढ़ा रहा है। 

- प्रीति अज्ञात 27 जून 2022 

#संस्मरण 

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