बुधवार, 5 अक्तूबर 2022

‘विजयादशमी’ का संदेश वैश्विक है

विविध संस्कृतियों से सुसज्जित हमारा देश मूलतः उत्सवधर्मी देश है। जीवन में निरंतर उत्साह और उल्लास बना रहे, सब मिल-जुलकर सुख से रहें, ईर्ष्या-द्वेष का कोई भाव न हो और समाज में शांति-सद्भाव स्थापित रहे; त्योहार इसी संदेश के साथ हमारी परंपराओं में घुले-मिले हैं। ‘विजयादशमी’ भी ऐसा ही पर्व है। लेकिन सदियाँ गुजरती जा रहीं हैं पर मनमानी का रावण कहाँ मर पा रहा है! जिस मर्यादा की रक्षा हेतु पूरी रामायण रच दी गई, वह आज और भी अधिक टूट रही है। स्त्री के मान, आदर सत्कार की जो मर्यादा स्थापित की गई थी, वह पूर्णतः छिन्न-भिन्न हो चुकी है। लक्ष्मण रेखाएं रोज लांघी जा रहीं हैं। स्त्रियों के प्रति अपराध के आँकड़े अब शर्मिंदा करने लगे हैं। यह संघर्ष लंबा चला आ रहा है और ये लड़ाई भी अनंत है। क्या एक पुतले का दहन कर ही इतिश्री मान लें? भीतर के रावण का क्या? हम तो राम न बन सके लेकिन बहुरूपिया रावण हर जगह उपस्थित है।

‘विजयादशमी’ या ‘दशहरा’ मात्र धार्मिक उत्सव नहीं है और न ही यह राम और रावण के बीच हुए युद्ध के अंतिम दिवस की गाथा भर है! बल्कि इसमें सम्पूर्ण मानव जाति के लिए सामाजिक संदेश निहित है। देखा जाए तो यह धर्म निरपेक्ष, जाति निरपेक्ष, पंथ निरपेक्ष त्योहार है जिसे विश्व भर में मनाया जाना चाहिए। इसलिए ‘विजयादशमी’ को मैं एक वैश्विक त्योहार और मानवता के लिए संदेशवाहक की तरह देखती हूँ। संदेश यह कि जीवन में चाहे कितनी ही कठिन परिस्थितियों से क्यों न गुजरना पड़े, अंततः जीत सत्य की ही होती है। सत्य को हथियार बनाकर चलने वाला व्यक्ति चाहे घने जंगलों में हो या उसके मार्ग में अथाह समुद्र भी क्यों न आ जाए, वह समस्त दुर्गम राहों को अपनी बुद्धि, कौशल, दृढ़ता और सच्चाई की शक्ति के साथ पार कर सकता है। सत्य, निर्भीक, अटल होता है इसलिए उसे झुकाने का दुस्साहस करने वाला भी एक बिंदु पर आकर अपनी पराजय स्वीकार कर, उसके सामने नतमस्तक हो ही जाता है।
जब हम एक कहानी सुनते हैं कि कैसे महलों को त्याग जंगल में निकले दो लोग, एक पराक्रमी राजा को परास्त कर विजयी भाव धारण करते हैं तो यह वीर गाथा असत्य पर सत्य और बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में प्रस्तुत होती है। लेकिन इससे यह सीख भी मिलती है कि यदि किसी के विचार उत्तम हों और उद्देश्य पवित्र तो प्रत्येक समस्या का समाधान निकलेगा। वहीं कोई भले ही बलवान हो लेकिन उद्देश्य अपवित्र है, तो वह अपनी पूरी सेना के साथ मिलकर भी उसे नहीं पा सकता! रावण प्रकांड विद्वान और महाबलशाली था, जिसने घोर तपस्या से अमरत्व भी प्राप्त कर लिया था लेकिन फिर भी वन-वन भटकते प्रभु श्रीराम के सामने उसकी एक न चली। कारण स्पष्ट है कि उसके भीतर अहंकार था, कुछ पाने की कुचेष्टा थी, बल के प्रयोग से सब कुछ हासिल कर लेने का दंभ ही उसकी मृत्यु का कारण बना।
लंकाधिपति, दशानन की महानता को लेकर अनेक कहानियाँ प्रचलित हैं। हम यह जानते हैं कि वह इतना बुद्धिमान था कि दस सिर उसके ज्ञान का प्रतीक हैं। यह भी हमारे अधिकार में है कि हम कोई भी स्रोत को सच मानकर स्वीकार करें। लेकिन भले किसी भी ग्रंथ से इस गाथा को पढ़ें, प्रत्येक से सीख एक सी ही मिलेगी कि अच्छाई के प्रकाश के समक्ष, स्याह बुराई का विनाश सुनिश्चित है। दुराचार के ऊपर सदाचार ही जीतता है और घमंड को टूटते देर नहीं लगती! यह भी ज्ञान मिलता है कि मायामोह से दूर, सच्चा व्यक्ति भले ही अकेला प्रतीत हो लेकिन उसका साथ देने को पूरी सृष्टि आ खड़ी होती है। हम इस तथ्य को भी गांठ बाँध लेते हैं कि जब हमारे परिजन, शुभचिंतक समझाते हैं तो उसे ध्यान से सुनना, समझना चाहिए। रावण से यहीं गलती हुई। उसे तीनों लोकों ने समझाया, अपवित्र कार्य करने से रोका परंतु उसने किसी की एक न सुनी। परिणाम सबके सामने है जिसे हम और हमारे पूर्वज सदियों से सुनते, गुनते आ रहे हैं।
यह भी मान्यता है कि रावण को मोक्ष चाहिए था, इसलिए ऐसा हुआ। लेकिन क्या सचमुच मिला? प्रतिवर्ष रावण दहन होता है और उस दृश्य को आँखों में भर हम धन्य अनुभव करते हैं। बात यहीं पर समाप्त भी हो जाती है। लेकिन बुराई का अंत देखकर प्रसन्न होने वाले भी बुराई नहीं छोड़ते! मन का रावण कभी नहीं मरता! बल्कि अब तो भीषण हिंसा और अन्याय का ऐसा कलयुगी दौर चला है कि सतयुग के पापी भी शर्म से सिर झुका लें। घोर पाप की वीभत्स घटनाएं अब तक जारी हैं। कोई सुरक्षित अशोक वाटिका भी नहीं है और न ही प्रिय का संदेश लेकर आने वाले हनुमान। राम लौटकर नहीं आए हैं और आज के रावणों ने अन्याय और अत्याचार की समस्त सीमाएं लांघ ली हैं।
‘विजयादशमी’ के पावन दिवस पर यदि हम अपने लिए सुख की अपेक्षा रखते हैं तो कुछ भावों को अवश्य ही आत्मसात कर लेना चाहिए। हमें यह स्मरण रहना चाहिए कि अच्छाई और बुराई दोनों ही हमारे भीतर है, हम इसमें से क्या चुनना चाहेंगे? क्योंकि हमारा चुनाव ही हमारे जीवन की दिशा और दशा तय करता है। गुण-दोष हम सबके अंदर हैं। हमें हमारे दोषों को स्वीकार कर उन्हें सुधारने का गुण विकसित करना होगा।
जीवन में मानसिक द्वन्द्व आते ही दुख भी संग आता है। कोई हमारा साथी है या दुश्मन, उससे इतना अंतर नहीं पड़ता जितना कि भीतर का दुख सालने लगता है। उस दुख के साथ कैसे रहना है, यह हमको सीखना है। हमारे भीतर ऐसा कोई भी भाव न रहे जो हमें सत्य से दूर ले जाए, हम हिंसा और बल के प्रयोग से कुछ भी न जीतना चाहें, व्यर्थ के अहंकार का दहन कर हम सद्भाव, प्रेम और निश्छल हृदय से अपना जीवन जीने का संकल्प लें; वही हमारी ‘विजयादशमी’ है।
'हस्ताक्षर' अक्टूबर अंक संपादकीय
इसे यहाँ भी पढ़ा जा सकता है -
चित्र: विकिपीडिया से


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें