मंगलवार, 8 नवंबर 2022

भ्रष्टाचार की आँखों देखी

ट्रेन में अपनी सीट पर बैठी हुई थी कि साइड लोअर वाली बर्थ पर बैठे व्यक्ति का मोबाइल बज उठा। बात करते हुए उन्होंने फोन करने वाले से कहा कि 'अरे! आप क्यों परेशान हो रहे हैं? आपका काम हो जाएगा। हमारी बात कभी गलत नहीं होती। आपको तो हमारा पूरा इतिहास पता ही है।' दो-तीन मिनट बाद हे हे हे की ध्वनि के साथ कॉल समाप्त कर उन्होंने गर्व भरी मुस्कान फेंकते हुए इधर-उधर देखा। जैसी कि उन्हें उम्मीद थी, उनकी बर्थ के ऊपर उपस्थित और आमने-सामने जमा कुल पाँच चेहरों में से दो की उत्सुक दृष्टि उन पर थी। उत्सुकता तो मुझे भी थी, बस जाहिर नहीं किया था। 


दरअसल सेकंड एसी के इस कूपे में चार पुरुष सहयात्री थे तथा ऊपर की बर्थ पर एक लड़की थी। कुछ पल पहले ही उसकी माँ ने आकर उसे रात ग्यारह  बजे तक दूसरी बोगी में आने का निर्देश दिया था। यहाँ उसके स्थान पर उसके पापा या भाई के आने की बात हो रही थी। डिब्बे में कोई परिवार के साथ हो, बच्चे वगैरह हों तो मुझे बहुत अच्छा लगता है अन्यथा सहज नहीं हो पाती। तो मुझे इस बात की भी चिंता हो रही थी कि अब नींद तो लगने से रही। खैर! मोबाइल गैलरी में तस्वीरों को देखने का नाटक करते हुए कान तो मेरे भी खड़े हो ही चुके थे।

तभी मेरे ठीक सामने वाले व्यक्ति ने, उन ठसके के साथ बैठे फोन सेलिब्रिटी से चर्चा प्रारंभ करते हुए पूछा,‘भाईसाब! ये आप अभी कुछ एग्ज़ाम क्लियर कराने की बात कर रहे थे न?’‘जी, जी। अब अपन किसी का भला कर सकते हैं तो उसमें बुराई क्या!’ उसने आत्ममुग्धता के सागर में हिलोरें मारते हुए उत्तर दिया। ‘हाँ, कोई बुराई नहीं! यह तो सेवा का काम है। किसी बेचारे का जीवन संवर जाए, इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है!’ प्रश्नकर्ता ने विशुद्ध चमचे की तरह हुंआं हुंआं की। मैं समझ गई कि अब इन सहृदय, समाजसेवी बाबूजी का अगला प्रश्न क्या होगा। उन्होंने मेरी आशाओं की लाज रखते हुए ठीक वही पूछा। ‘वैसे भाई साहब, आप कौन-कौन सी कक्षाओं में पास करा देते हो? वो क्या है न, जाने कब जरूरत पड़ जाए!’ अपनी शर्मिंदगी पर समझदारी का ढक्कन लगाते हुए वे सहसा बोल उठे। 

उनके इसी प्रश्न की प्रतीक्षा में बैठे सेलिब्रिटी बाबू तो जैसे चहक ही उठे। तुरंत पुलकित भाव से उनके मुखारविंद से निकला, ‘अजी, आप तो ये पूछिए कि कौन सी नहीं करा सकते! दसवीं/ बारहवीं सेंट्रल बोर्ड अपने हाथ में है। पर भैया,परीक्षा में बैठना जरूरी है, उसके बिना मुश्किल होगी।‘ उनके शब्द सुनकर मुझे लगा कि अब और क्या ही जानना शेष रह गया है! एक भ्रष्टाचारी के भी नियम सख्त हैं कि ‘परीक्षा में बैठना जरूरी है!’ मेरे कान बस अब ढहने की ही तैयारी में थे कि उन महात्मा ने पुनः उवाचा,‘ग्रेजुएशन, इंजीनियरिंग, मेडिकल, बी.एड. सब निकलवा देता हूँ। अब आजकल किसी लड़के/लड़की से रिश्ते के लिए सब डिग्री तो पूछते ही हैं, तो कर देते हैं दुनिया का भला!’ 

'हाँ, सो तो है ही। अपने हाथों किसी का अच्छा हो जाए तो क्या नुकसान!’ प्रश्नकर्ता ने उनकी महानता को बधाई देते

हुए, भाव विह्वल होकर कहा। इन उच्च विचारों के लेनदेन में अब आगे की बर्थ के यात्रियों की रुचि भी जागृत होने लगी थी। उन्होंने भी उनसे कई जानकारियाँ एकत्रित कर तुरंत ही उनका फोन नंबर सुरक्षित कर लिया। एक ने पूछा कि ‘भई, इसमें कोई रिस्क तो नहीं है न? बाद में कोई दिक्कत तो नहीं होगी?’ ‘बिल्कुल नहीं होगी। जैसे सबका आता है, वैसे ही ऑनलाइन रिजल्ट आएगा। कोई अंतर नहीं होगा। रिस्क कहाँ से होगी? मंत्रियों के ही तो कॉलेज हैं। हाँ, बस परीक्षा में बैठना जरूरी है। ऊपर से नीचे तक की सेटिंग है। सबके रेट फ़िक्स हैं।’ खींसे निपोरते हुए उनका बेशर्मी से भरा उत्तर सामने आया। चूँकि विषय उठ ही चुका था तो राष्ट्रहित को समर्पित इस चर्चा में उन महानुभाव ने निस्संकोच दरें भी बता दीं। दसवीं, बारहवीं का पचास हजार, ग्रेजुएशन का एक लाख बीस हजार तथा इंजीनियरिंग, मेडिकल, बी.एड. का एक लाख अस्सी हजार रेट चल रहा है। 

अपने बेटे को कनाडा भेजने की अतिरिक्त जानकारी देते हुए इन सज्जन ने यह बताकर भी उपकार किया कि ‘वे चार वर्षों से इस ‘बिज़नस’ में हैं और जीवन आनंद से कट रहा है।’ उन्होंने यह भी ऑफर किया कि यदि किसी को उनके साथ आना हो तो वे इच्छुक व्यक्ति के राज्य में उसको हेड बना सकते हैं। 'अरे वाह! इनकी शाखाएं भी हैं! यह जानते ही चार-पाँच लोगों ने धड़ाधड़ उनका नंबर नोट कर लिया। एक ने पूछा कि ‘फिर तो कोचिंग इंस्टिट्यूट वालों से आपकी अच्छी सेटिंग होगी?’ उत्तर देते हुए वे तनिक मुस्कुराए कि 'नहीं! जो छात्र पढ़ाई करके अपने-आप परीक्षा पास कर लेते हैं उन्हें हम नहीं कहते। हमारा ऑफर बाकियों के लिए होता है।’


उनकी इस बात को सुनकर सबने धन्य महसूस किया कि ‘भाईसाहब आप तो दिल के बड़े नेक बंदे हैं।’ मुझे समझ नहीं आ रहा था कि इन समाजसेवियों के बीच क्या प्रतिक्रिया दूँ! मन बहुत ही क्षुब्ध हो उठा था। मुझे अच्छे से याद है कि पहले कभी जब फ़िल्म देखने जाया करती थी तो वहाँ ब्लैक में टिकट बेचने वाला भी धीरे से फुसफुसाता था लेकिन यहाँ तो सब पटाखे की तरह बज रहे थे। ऐसे बात हो रही थी जैसे कि इस सुनियोजित भ्रष्टाचार के लिए इन साहब की सरकारी नियुक्ति हुई हो। कहीं कोई अपराध बोध या भय का नामोनिशान तक न था। 

अकेली कुछ कहने की स्थिति में नहीं थी। इसलिए इसके आगे की यात्रा उदासी में कटी। दुख था और नंबर लेने वालों की प्रसन्नता देखते हुए शर्मिंदगी भी। जिन संस्कारों पर हम गर्व करते आए हैं उन्हें अपनी आँखों के सामने खत्म होते देख रही थी। 

ये कहाँ आ गए हैं हम?

- प्रीति अज्ञात

राजधानी से प्रकाशित पत्रिका 'प्रखर गूँज साहित्यनामा' के नवंबर 2022 अंक में 'प्रीत के बोल'

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https://www.readwhere.com/read/3612338/Prakhar-Goonj-Sahitynaama/prakhar-goonj-sahityanama#dual/40/1

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