बुधवार, 1 अक्टूबर 2025

कलम का मूल्य: प्रेमचंद की पीड़ा से विनोद कुमार शुक्ल की प्रसन्नता तक

हाल ही में हिंदी के वरिष्ठ कथाकार और कवि विनोद कुमार शुक्ल को उनके लेखन के एवज में लगभग तीस लाख रुपये की रॉयल्टी प्राप्त हुई। यह समाचार हिंदी साहित्य के लिए किसी उत्सव से कम नहीं है। किंतु इस प्रसंग का महत्त्व केवल एक लेखक की व्यक्तिगत उपलब्धि तक सीमित नहीं है। यह हमें उस बुनियादी प्रश्न की ओर ले जाता है जिसे हम बार-बार टालते रहे हैं। प्रश्न वही सदियों पुराना कि क्या हमारा समाज अपने लेखकों को उनके श्रम का उचित मूल्य दे रहा है? प्रत्येक साहित्यिक सृजन और उसके प्रतिफल के बीच संतुलन कैसे स्थापित हो?

साहित्य केवल भावनाओं या कल्पनाओं का खेल नहीं है। वह लेखक के जीवनानुभव, संवेदनशीलता, ज्ञान और दृष्टि की उपज है। एक उत्कृष्ट रचना के पीछे वर्षों का अध्ययन, आत्ममंथन और लेखकीय साधना निहित होती है। समय की तो बात ही अलग है। फिर भी हिंदी में प्रायः लेखन को ‘त्याग’ और ‘सेवा’ के चश्मे से देखा गया। परिणाम यह कि लेखक को उसके हिस्से का उचित आर्थिक मान-सम्मान नहीं मिला। ऐसे प्रतिकूल वातावरण में विनोद कुमार शुक्ल जैसे मितभाषी, अंतर्मुखी और गहन साहित्यकार के लेखन का आर्थिक मूल्यांकन होना सुखद अनुभव कराता है। यह हमें स्मरण दिलाता है कि लेखक का श्रम उतना ही महत्वपूर्ण है जितना किसी वैज्ञानिक, शिक्षक या कलाकार का।

यदि समाज लेखक को उसके श्रम का उचित प्रतिफल नहीं देगा तो साहित्य धीरे-धीरे केवल ‘शौक़’ बनकर रह जाएगा। रचनात्मकता, जो जीवन की गहरी मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है, तब मात्र खाली समय की सजावट बन जाएगी। लेखक का श्रम केवल कलात्मक नहीं, बल्कि सामाजिक भी है। वह अपनी लेखनी से समाज की विवेक-दृष्टि को जगाता है, अन्याय और विसंगतियों को उजागर करता है, उन सपनों को शब्द देता है जिन्हें आमजन केवल महसूस करते हैं। लेकिन यदि वही लेखक अपनी रचनाओं से समाज को आलोकित करने के बावजूद अपने जीवन की बुनियादी ज़रूरतों के लिए संघर्ष करता रहे, तो धीरे-धीरे उसकी लेखनी बोझिल हो जाएगी। तब समाज को दर्पण दिखाने का उत्तरदायित्व कौन निभाएगा और कैसे?

विनोद कुमार शुक्ल हिंदी के उन दुर्लभ लेखकों में हैं जिनकी रचनाएँ गहन संवेदनाओं और अद्भुत सादगी से भरी हुई हैं। ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ या ‘नौकर की कमीज़’ जैसी कृतियाँ बताती हैं कि वे कैसी सहजता से मामूली जीवन में भी असाधारण अर्थ खोज लेते हैं। ऐसे लेखक को जब सम्मानजनक रॉयल्टी मिलती है तो यह केवल उनका ही सम्मान नहीं है, बल्कि पूरे साहित्य जगत के लिए संदेश है कि लेखक के श्रम का मूल्य देना संभव है, बशर्ते हम ईमानदार और सजग हों। यह प्रसंग हिंदी प्रकाशन जगत के लिए एक मानक बनना चाहिए। यह उदाहरण हमें यह सोचने के लिए भी बाध्य करता है कि अब तक हिंदी समाज ने क्यों इतने बड़े पैमाने पर अपने लेखकों की उपेक्षा की है।

हालाँकि उपेक्षा का यह प्रश्न नया नहीं है। लगभग सौ वर्ष पहले कथा सम्राट प्रेमचंद भी इसी पीड़ा से गुज़रे थे। वे अपने समय के सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रख्यात लेखक थे, किंतु उनकी आर्थिक स्थिति दयनीय रही। उनके लिखे पत्र बताते हैं कि लेखक का जीवन कितना विषम और दुरूह है। वह समाज के लिए जलता है पर स्वयं अंधकार में जीता है। वे बार-बार यह इंगित करते रहे कि साहित्य से जीवन निर्वाह लगभग असंभव है।

प्रेमचंद का जीवन हमें यह बताता है कि साहित्यकारों की आर्थिक दुर्दशा केवल व्यक्तिगत कमजोरी नहीं, बल्कि सामाजिक उपेक्षा का परिणाम थी। आज यदि विनोद कुमार शुक्ल जैसे लेखक को तीस लाख की रॉयल्टी मिलती है, तो यह एक नये दौर का संकेत है। यह बताता है कि जो कमी प्रेमचंद के समय में थी, उसे अब सुधारा जा सकता है बशर्ते हम समाज, प्रकाशक और पाठक मिलकर लेखक को उसका उचित मूल्य देने का संकल्प करें।

लेखक और पाठक के बीच सेतु प्रकाशक ही होते हैं। प्रकाशन केवल छपाई और वितरण की प्रक्रिया नहीं है; यह एक सामाजिक और नैतिक उत्तरदायित्व भी है। प्रकाशक यदि पारदर्शिता, ईमानदारी और दूरदृष्टि से कार्य करें तो लेखक का जीवन और साहित्य का भविष्य दोनों संवर सकते हैं।

हिंदी में यह दुर्भाग्य रहा है कि अधिकतर लेखक अपने प्रकाशकों से असंतुष्ट रहे हैं। उन्हें ठीक-ठाक रॉयल्टी नहीं मिलती, अनुबंध स्पष्ट नहीं होते और कई बार बिक्री के वास्तविक आँकड़े लेखक से छिपा लिए जाते हैं। जबकि अंग्रेज़ी या अन्य भाषाओं के साहित्यकार अपने लेखन से सम्मानजनक आय अर्जित कर लेते हैं। कम से कम दूर से तो यही प्रतीत होता है।

लेखक केवल सृजनकर्ता नहीं, बल्कि अपनी रचना का वैधानिक स्वामी भी है। कॉपीराइट कानून और बौद्धिक संपदा अधिकार लेखक को यह सुनिश्चित करते हैं कि उसकी रचना से होने वाली आर्थिक कमाई का उचित हिस्सा उसे मिले। दुर्भाग्य यह है कि हिंदी समाज में इन अधिकारों की जानकारी और सजगता अभी भी सीमित है। कई लेखक अपनी परिस्थितियों के कारण अपने अधिकारों से समझौता कर लेते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि लेखक अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हों और प्रकाशक भी उन्हें सम्मानपूर्वक स्वीकार करें। यह तभी संभव होगा जब साहित्यिक समाज में यह स्पष्ट मान्यता बने कि रचना केवल भावनात्मक उपहार नहीं, बल्कि मूल्यवान बौद्धिक संपत्ति है।

यहाँ पाठक वर्ग की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। बल्कि पाठक ही लेखक का असली संबल हैं। यदि पाठक ईमानदारी से पुस्तकें खरीदें, पायरेटेड प्रतियों से बचें और पुस्तक को केवल मनोरंजन नहीं बल्कि एक मूल्यवान अनुभव मानकर खरीदें तो प्रकाशक को लाभ होगा और लेखक का जीवन भी सहज और बेहतर हो सकता है। तभी ही यह साहित्यिक संसार स्वस्थ रह पाएगा।

यदि मूल्य न मिला तो परिणाम केवल व्यक्तिगत हानि तक सीमित नहीं रहेंगे। तब साहित्य से वह धारदार आलोचनात्मक दृष्टि खो जाएगी जो समाज को आईना दिखाती है। तब कविता में वह करुणा नहीं होगी जो टूटे हुए हृदयों को सहारा देती है। तब कथा में वह गहनता नहीं होगी जो जीवन की असमानताओं को उजागर करती है। तब शब्द, मार्गदर्शक नहीं बन सकेंगे।

लेखन केवल तब तक जीवित और प्राणवान रह सकता है जब तक लेखक को यह विश्वास है कि उसका समाज उसे सुन रहा है, समझ रहा है और उसके श्रम का सम्मान कर रहा है। अन्यथा निराश हो वह इसका विकल्प तलाश करेगा और लेखन मात्र शौकिया रह जाएगा।

निस्संदेह, तीस लाख की रॉयल्टी प्राप्त करना एक बड़ी उपलब्धि है। यह हिंदी लेखक के निराश, हताश समय में आशा की किरण है। लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि यह उदाहरण अपवाद बनकर न रह जाए। यदि केवल कुछ गिने-चुने लेखक ही रॉयल्टी से सम्मानजनक जीवनयापन कर पाएँ, तो यह स्थिति स्वस्थ नहीं कहलाएगी। हिंदी समाज को चाहिए कि वह एक ऐसी व्यवस्था विकसित करे, जहाँ अच्छे से अच्छे और नए से नए लेखक को भी अपनी रचनात्मकता का उचित प्रतिफल मिले। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि लेखक के अधिकार सुरक्षित हों, प्रकाशक अपनी जिम्मेदारी निभाएँ और पाठक वर्ग पुस्तकों को सम्मानपूर्वक खरीदे। तभी साहित्य का भविष्य उज्ज्वल होगा और हिंदी लेखनी को वह प्रतिष्ठा मिलेगी जिसकी वह सदा से अधिकारिणी रही है।

- प्रीति अज्ञात 

'हस्ताक्षर' अगस्त-सितंबर 2025 अंक में प्रकाशित संपादकीय -

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