पुरुष होने के भी अपने फ़ायदे हैं. जब भी दिल करे आप जब चाहें, जहाँ चाहें, बे-रोकटोक आ-जा सकते हैं. आपके आने-जाने, सुरक्षा-संबंधी फ़िक्र करने और बेतुके प्रश्न पूछने वाला कोई नहीं होता.
ऐसा नहीं कि स्त्रियाँ घर से निकलती नहीं पर उस समय भी उन्हें बहुत कुछ manage करके जाना पड़ता है और आने के बाद भी वही प्रक्रिया दोहरानी होती है. मसलन पति, बच्चे, सास-ससुर कोई भी बाहर जाए तो वही है जो सभी घरेलू कार्यों के साथ-साथ सबका खाना पैक करके देगी, हर वस्तु का ख्याल रखेगी और किसी मशीन की तरह धडाधड लगी रहेगी. दिक्कत यह है कि जब वो बाहर जाए तब भी उसे यही सब करके जाना होता है. वो कहीं भी चली जाए, बार-बार फ़ोन करके निश्चिन्त होना चाहती है कि उसके पीछे सब कुछ सुचारू रूप से चल रहा है या नहीं! दुःख यह है कि घर में घुसते ही उसे पानी की पूछने वाला भी कोई नहीं होता, चाहे कितनी ही लम्बी/छोटी, थकान/परेशानी भरी यात्रा हो...घर में घुसते ही सब यूँ फरमाइशें करते हैं, गोया अभी पांच मिनट पहले ही बगीचे से टहल घर में घुसी हो!
कुछेक अपवाद को छोड़ दिया जाए तो कहीं कम; कहीं और भी ज्यादा पर कुल मिलाकर आम भारतीय स्त्री की यही कहानी है. पर मैं इसका दोष घरवालों से कहीं अधिक स्वयं स्त्रियों को ही देती हूँ क्योंकि -
* हमने ही अपने मन को इस चारदीवारी से इस क़दर बाँध रखा है और इस भरम में जीने लगे हैं कि हमारी अनुपस्थिति में ये सब असहाय हो जाते हैं. बेचारों को चाय भी बनानी नहीं आती, बाहर का खाने की आदत नहीं इत्यादि, इत्यादि. जबकि सब ख़ूब मस्त रहते हैं और हमारे घर में प्रवेश करते ही पुराने फॉर्म में लौट आते हैं.
*हमें अपने-आप पर आवश्यकता से अधिक गर्व है और अपने perfectionist होने का अहसास भी भरपूर हिलोरें मारता है. इसलिए हम यह भरोसा कर ही नहीं पाते कि हमारे बिना सब ठीक रहेगा.
*हमने इसे अपना कर्त्तव्य मानकर पूरी तरह ओढ़ लिया है, इतना कि अपने लिए जीना ही भूल चुके हैं. हमें त्याग और बलिदान की मूर्ति बनना ही भाता रहा है. फिर उसके बाद अपने दुखड़े रोना भी नहीं भूलते कि शादी न की होती तो मैं ये कर सकती थी, वो कर सकती थी. मज़ेदार बात ये है कि जिन सदस्यों को हम अड़चन समझ कोसते रहे हैं, उनके बिना न तो रह सकते हैं और न ही कहीं कोई ठौर है.
*हम बड़े डरपोक क़िस्म के जीव हैं और आजकल के हालातों में कहीं आने-जाने में हमारे ही पसीने छूट जाते हैं और हम पुरुष का साथ चाहते हैं. जबकि पुरुषों ने भी कोई मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग नहीं ली हुई होती है, न ही उनकी चमड़ी बुलेट प्रूफ है. गोली लगने या लूटपाट होने पर उनको भी वही दर्द होगा जिससे हम हाहाकार मचाते हैं. 'मर्द को दर्द नहीं होता' वाली कहावत कितनी ही हिट हो गई हो पर सच यह है कि 'मर्द को भी ख़ूब ज़बर दर्द होता है, बस इस डायलाग के बोझ तले दब वो बेचारा कह ही न पाया कभी! पर फिर ये क्या है कि उनका साथ हममें साहस भर देता है, सुरक्षित होने का अहसास कराता है? कहीं ये इश्क़ वाला लव तो नहीं!
जो भी है, स्त्री होना बहुत अच्छा भी लगता है और नहीं भी...ये सोच भी बड़ी situational चीज है. जब देखो, नेताओं की तरह पाला बदल लेती है.
वैसे कई फ़ायदों के बावजूद भी पुरुष होने की कई दिक्कतें हैं -
* बचपन से ही अच्छी नौकरी पाने की टेंशन वरना घरवालों को चिंता कि इस नाकारा से कौन ब्याह रचाएगा।
* नौकरी मिल गई तो सबकी उम्मीदों पर खरा उतरने की जी-तोड़ कोशिश. यद्यपि यह हमेशा नाकाम ही होती पाई गई है.
* घर-परिवार, बॉस-नौकरी में सामंजस्य बिठाने की कोशिश उसे चकरघिन्नी बना डालती है. उस पर भी किसी-न-किसी का मुँह फूला हुआ मिलना तय है.
*छुट्टियों की मारामारी से जूझता यह प्राणी अपने सारे शौक़ भूल चूका होता है और उसका पूरा जीवन घर-बच्चों को खुश करने में बीतता चला जाता है, हालांकि सब अंत तक असंतुष्ट ही बने रहते हैं.
*वो जो शादी से पहले एक गिलास पानी तक भी न लेता था, आज बोतलों में पानी भर फ्रिज़ में रखना सीख गया है.
*अपना जन्मदिन भले ही भूल जाए पर बाक़ी सबकी तिथियाँ रटनी पड़ती हैं उसे.
* कहाँ दस हजार में भी अकेले ठाट से रहता था अब लाखों भी जैसे नित कोई अज़गर निगल लेता है.
*कितनी भी थकान हो, pick & drop करने की ड्यूटी तो उसी की लकीरों में रच दी गई है.
*उसके जीने का एकमात्र उद्देश्य अपने परिवार का भरण-पोषण है और उसके बाद के लिए भी वह जुटाकर रखने की लाख कोशिशें करता है.
*और हाँ, इन्हें भी मशीन समझा जाता है. कौन सी? ATM ...
हाय ख़र्चा कर-करके हम लोग इनका जीना मुहाल कर देते हैं.
कृपया विचार कीजिए, कहीं ऐसा तो नहीं कि विवाह ही हर समस्या की जड़ है?
आदर्शवाद से परे आप क्या कहते हैं?
#भारतीय समाज की दुखी आत्माएँ
MORAL: इतना टेंशन भी ठीक नहीं! कभी हँस भी लिया करो!
- प्रीति 'अज्ञात'
ऐसा नहीं कि स्त्रियाँ घर से निकलती नहीं पर उस समय भी उन्हें बहुत कुछ manage करके जाना पड़ता है और आने के बाद भी वही प्रक्रिया दोहरानी होती है. मसलन पति, बच्चे, सास-ससुर कोई भी बाहर जाए तो वही है जो सभी घरेलू कार्यों के साथ-साथ सबका खाना पैक करके देगी, हर वस्तु का ख्याल रखेगी और किसी मशीन की तरह धडाधड लगी रहेगी. दिक्कत यह है कि जब वो बाहर जाए तब भी उसे यही सब करके जाना होता है. वो कहीं भी चली जाए, बार-बार फ़ोन करके निश्चिन्त होना चाहती है कि उसके पीछे सब कुछ सुचारू रूप से चल रहा है या नहीं! दुःख यह है कि घर में घुसते ही उसे पानी की पूछने वाला भी कोई नहीं होता, चाहे कितनी ही लम्बी/छोटी, थकान/परेशानी भरी यात्रा हो...घर में घुसते ही सब यूँ फरमाइशें करते हैं, गोया अभी पांच मिनट पहले ही बगीचे से टहल घर में घुसी हो!
कुछेक अपवाद को छोड़ दिया जाए तो कहीं कम; कहीं और भी ज्यादा पर कुल मिलाकर आम भारतीय स्त्री की यही कहानी है. पर मैं इसका दोष घरवालों से कहीं अधिक स्वयं स्त्रियों को ही देती हूँ क्योंकि -
* हमने ही अपने मन को इस चारदीवारी से इस क़दर बाँध रखा है और इस भरम में जीने लगे हैं कि हमारी अनुपस्थिति में ये सब असहाय हो जाते हैं. बेचारों को चाय भी बनानी नहीं आती, बाहर का खाने की आदत नहीं इत्यादि, इत्यादि. जबकि सब ख़ूब मस्त रहते हैं और हमारे घर में प्रवेश करते ही पुराने फॉर्म में लौट आते हैं.
*हमें अपने-आप पर आवश्यकता से अधिक गर्व है और अपने perfectionist होने का अहसास भी भरपूर हिलोरें मारता है. इसलिए हम यह भरोसा कर ही नहीं पाते कि हमारे बिना सब ठीक रहेगा.
*हमने इसे अपना कर्त्तव्य मानकर पूरी तरह ओढ़ लिया है, इतना कि अपने लिए जीना ही भूल चुके हैं. हमें त्याग और बलिदान की मूर्ति बनना ही भाता रहा है. फिर उसके बाद अपने दुखड़े रोना भी नहीं भूलते कि शादी न की होती तो मैं ये कर सकती थी, वो कर सकती थी. मज़ेदार बात ये है कि जिन सदस्यों को हम अड़चन समझ कोसते रहे हैं, उनके बिना न तो रह सकते हैं और न ही कहीं कोई ठौर है.
*हम बड़े डरपोक क़िस्म के जीव हैं और आजकल के हालातों में कहीं आने-जाने में हमारे ही पसीने छूट जाते हैं और हम पुरुष का साथ चाहते हैं. जबकि पुरुषों ने भी कोई मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग नहीं ली हुई होती है, न ही उनकी चमड़ी बुलेट प्रूफ है. गोली लगने या लूटपाट होने पर उनको भी वही दर्द होगा जिससे हम हाहाकार मचाते हैं. 'मर्द को दर्द नहीं होता' वाली कहावत कितनी ही हिट हो गई हो पर सच यह है कि 'मर्द को भी ख़ूब ज़बर दर्द होता है, बस इस डायलाग के बोझ तले दब वो बेचारा कह ही न पाया कभी! पर फिर ये क्या है कि उनका साथ हममें साहस भर देता है, सुरक्षित होने का अहसास कराता है? कहीं ये इश्क़ वाला लव तो नहीं!
जो भी है, स्त्री होना बहुत अच्छा भी लगता है और नहीं भी...ये सोच भी बड़ी situational चीज है. जब देखो, नेताओं की तरह पाला बदल लेती है.
वैसे कई फ़ायदों के बावजूद भी पुरुष होने की कई दिक्कतें हैं -
* बचपन से ही अच्छी नौकरी पाने की टेंशन वरना घरवालों को चिंता कि इस नाकारा से कौन ब्याह रचाएगा।
* नौकरी मिल गई तो सबकी उम्मीदों पर खरा उतरने की जी-तोड़ कोशिश. यद्यपि यह हमेशा नाकाम ही होती पाई गई है.
* घर-परिवार, बॉस-नौकरी में सामंजस्य बिठाने की कोशिश उसे चकरघिन्नी बना डालती है. उस पर भी किसी-न-किसी का मुँह फूला हुआ मिलना तय है.
*छुट्टियों की मारामारी से जूझता यह प्राणी अपने सारे शौक़ भूल चूका होता है और उसका पूरा जीवन घर-बच्चों को खुश करने में बीतता चला जाता है, हालांकि सब अंत तक असंतुष्ट ही बने रहते हैं.
*वो जो शादी से पहले एक गिलास पानी तक भी न लेता था, आज बोतलों में पानी भर फ्रिज़ में रखना सीख गया है.
*अपना जन्मदिन भले ही भूल जाए पर बाक़ी सबकी तिथियाँ रटनी पड़ती हैं उसे.
* कहाँ दस हजार में भी अकेले ठाट से रहता था अब लाखों भी जैसे नित कोई अज़गर निगल लेता है.
*कितनी भी थकान हो, pick & drop करने की ड्यूटी तो उसी की लकीरों में रच दी गई है.
*उसके जीने का एकमात्र उद्देश्य अपने परिवार का भरण-पोषण है और उसके बाद के लिए भी वह जुटाकर रखने की लाख कोशिशें करता है.
*और हाँ, इन्हें भी मशीन समझा जाता है. कौन सी? ATM ...
हाय ख़र्चा कर-करके हम लोग इनका जीना मुहाल कर देते हैं.
कृपया विचार कीजिए, कहीं ऐसा तो नहीं कि विवाह ही हर समस्या की जड़ है?
आदर्शवाद से परे आप क्या कहते हैं?
#भारतीय समाज की दुखी आत्माएँ
MORAL: इतना टेंशन भी ठीक नहीं! कभी हँस भी लिया करो!
- प्रीति 'अज्ञात'
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