*मुझे विश्वास है
यह पृथ्वी रहेगी
यदि और कहीं नहीं तो मेरी हड्डियों में
यह रहेगी जैसे पेड़ के तने में
रहते हैं दीमक
जैसे दाने में रह लेता है घुन
यह रहेगी प्रलय के बाद भी मेरे अन्दर
यदि और कहीं नहीं तो मेरी ज़बान
और मेरी नश्वरता में
यह रहेगी
और एक सुबह मैं उठूंगा
मैं उठूंगा पृथ्वी-समेत
जल और कच्छप-समेत मैं उठूंगा
मैं उठूंगा और चल दूंगा उससे मिलने
जिससे वादा है
कि मिलूंगा।
आह! और आप इसी विश्वास के साथ चले गए! हाँ, पृथ्वी रहेगी और आपके शब्द भी नम आँखों में यूँ ही तैरते रहेंगे.
मैं स्वयं को उन पाठकों की श्रेणी में देखती हूँ जिनके लिए दिल्ली अभी दूर है, बेहद दूर. ऐसे में जब केदारनाथ सिंह जी सरीख़े साहित्यकारों की कविताएँ हाथ लगती हैं तो अपने अच्छे पाठक होने पर भी संदेह होने लगता है कि आख़िर मैनें अब तक पढ़ा ही क्या है! कितना वृहद और समृद्ध साहित्य है हमारा और उन पुस्तकों को हाथ भर लगाते हुए कैसा बौनापन-सा महसूस होता है! मैं केदारनाथ सिंह जी से कभी नहीं मिली, वही नहीं, उनके समकक्ष साहित्यकारों से भी कभी नहीं मिली. मिलना चाहती थी, अब भी चाहती हूँ पर कहा न...हम जैसों के लिए दिल्ली अभी दूर है! हमें ऐसे सुअवसर जरा कम ही नसीब होते हैं. होते ही नहीं! हमारी औक़ात भी कहाँ! ख़ैर.....
सोशल मीडिया के कई सकारात्मक पक्ष हैं और उन्हीं के चलते केदारनाथ सिंह जी से कई-कई बार मुलाक़ात हुई, उन्हें पढ़ा और जब-जब उनकी तस्वीर सामने आई तो वही अहसास हुआ जैसे मेरे दादाजी को देखकर हुआ करता था. वही स्नेहिल मुस्कान और नरम-मुलायम सा दिल. यहाँ यह भी स्वीकार करती हूँ कि मैंने उन्हें उतना और इस हद तक कभी नहीं पढ़ सका था जितना कल रात से अब तक. मैं सो ही न सकी. मन बेहद भारी है उनके शब्द इन हवाओं में कहीं आसपास उड़ रहे हैं जैसे और यूँ लगता है -
*"झरने लगे नीम के पत्ते बढ़ने लगी उदासी मन की,
दिन के इस सुनसान पहर में रुक-सी गई प्रगति जीवन की"
तुम ही कहो, क्यों चले गए अब? जानते थे न
*"कि जाना/ हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है."
मैं नए कवि के दुख को ओढ़े इस सोच में बैठी हूँ -
*"क्या जीवन इसी तरह बीतेगा/ शब्दों से शब्दों तक जीने /और जीने और जीने और जीने के /लगातार द्वन्द में?
*कितनी लाख चीख़ों /कितने करोड़ विलापों-चीत्कारों के बाद /किसी आँख से टपकी / एक बूंद को नाम मिला- आँसू /कौन बताएगा /बूंद से आँसू / कितना भारी है?
*उस विकट सुखाड़ में
सृष्टि पर पहरा दे रहे थे
तीन-चार पत्ते
हे, विधाता! बस करो....इन पत्तों को अब हरा भी रहने दो!
- प्रीति 'अज्ञात'
*केदारनाथ सिंह
यह पृथ्वी रहेगी
यदि और कहीं नहीं तो मेरी हड्डियों में
यह रहेगी जैसे पेड़ के तने में
रहते हैं दीमक
जैसे दाने में रह लेता है घुन
यह रहेगी प्रलय के बाद भी मेरे अन्दर
यदि और कहीं नहीं तो मेरी ज़बान
और मेरी नश्वरता में
यह रहेगी
और एक सुबह मैं उठूंगा
मैं उठूंगा पृथ्वी-समेत
जल और कच्छप-समेत मैं उठूंगा
मैं उठूंगा और चल दूंगा उससे मिलने
जिससे वादा है
कि मिलूंगा।
आह! और आप इसी विश्वास के साथ चले गए! हाँ, पृथ्वी रहेगी और आपके शब्द भी नम आँखों में यूँ ही तैरते रहेंगे.
मैं स्वयं को उन पाठकों की श्रेणी में देखती हूँ जिनके लिए दिल्ली अभी दूर है, बेहद दूर. ऐसे में जब केदारनाथ सिंह जी सरीख़े साहित्यकारों की कविताएँ हाथ लगती हैं तो अपने अच्छे पाठक होने पर भी संदेह होने लगता है कि आख़िर मैनें अब तक पढ़ा ही क्या है! कितना वृहद और समृद्ध साहित्य है हमारा और उन पुस्तकों को हाथ भर लगाते हुए कैसा बौनापन-सा महसूस होता है! मैं केदारनाथ सिंह जी से कभी नहीं मिली, वही नहीं, उनके समकक्ष साहित्यकारों से भी कभी नहीं मिली. मिलना चाहती थी, अब भी चाहती हूँ पर कहा न...हम जैसों के लिए दिल्ली अभी दूर है! हमें ऐसे सुअवसर जरा कम ही नसीब होते हैं. होते ही नहीं! हमारी औक़ात भी कहाँ! ख़ैर.....
सोशल मीडिया के कई सकारात्मक पक्ष हैं और उन्हीं के चलते केदारनाथ सिंह जी से कई-कई बार मुलाक़ात हुई, उन्हें पढ़ा और जब-जब उनकी तस्वीर सामने आई तो वही अहसास हुआ जैसे मेरे दादाजी को देखकर हुआ करता था. वही स्नेहिल मुस्कान और नरम-मुलायम सा दिल. यहाँ यह भी स्वीकार करती हूँ कि मैंने उन्हें उतना और इस हद तक कभी नहीं पढ़ सका था जितना कल रात से अब तक. मैं सो ही न सकी. मन बेहद भारी है उनके शब्द इन हवाओं में कहीं आसपास उड़ रहे हैं जैसे और यूँ लगता है -
*"झरने लगे नीम के पत्ते बढ़ने लगी उदासी मन की,
दिन के इस सुनसान पहर में रुक-सी गई प्रगति जीवन की"
तुम ही कहो, क्यों चले गए अब? जानते थे न
*"कि जाना/ हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है."
मैं नए कवि के दुख को ओढ़े इस सोच में बैठी हूँ -
*"क्या जीवन इसी तरह बीतेगा/ शब्दों से शब्दों तक जीने /और जीने और जीने और जीने के /लगातार द्वन्द में?
*कितनी लाख चीख़ों /कितने करोड़ विलापों-चीत्कारों के बाद /किसी आँख से टपकी / एक बूंद को नाम मिला- आँसू /कौन बताएगा /बूंद से आँसू / कितना भारी है?
*उस विकट सुखाड़ में
सृष्टि पर पहरा दे रहे थे
तीन-चार पत्ते
हे, विधाता! बस करो....इन पत्तों को अब हरा भी रहने दो!
- प्रीति 'अज्ञात'
*केदारनाथ सिंह
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