इधर तमाम निरर्थक फ़िल्मों के बीच बॉलीवुड में कुछ वर्षों से अच्छी फ़िल्में भी बन रही हैं तथा निर्माता-निर्देशक मसाला या अविश्वसनीय एक्शन से दूर हो यथार्थ पर चर्चा करने का दुस्साहस उठा रहे हैं। 'दुस्साहस' इसलिए क्योंकि सच के साथ खड़े होना बहुधा 'सिस्टम' का विरोधी होना मान लिया जाता है। ऐसे में एक फ़िल्म आती है जो भारतीय समाज का वह क्रूर 'सच' बयां करती है जो 'सच' हमारे अपने संविधान के विरुद्ध है लेकिन फिर भी सदियों से क़ायम है। जिस संविधान की सौगंध खाई जाती है उसी को धता बताते हुए ऊँच-नीच की सुविधाजनक दीवारों का निर्माण इस समाज में कब हो गया...यह कोई नहीं जानता! जबकि हम सब इसके साक्षी रहे हैं और गुनहगार भी! दलितों के साथ हुए अन्याय, शोषण और भीषण अत्याचार की इन्हीं रक्तरंजित दीवारों में सेंध का काम करती है - आर्टिकल 15
यह फ़िल्म न आपको सोचने पर विवश करती है और न ही कहीं चौंकाती है क्योंकि हम तो बेशर्मों की तरह यह सब जन्म के समय से देखते ही आ रहे हैं लेकिन यक़ीन मानिये कि टुकड़े-टुकड़े, यदाकदा हमारे द्वारा देखे गए इन मार्मिक पलों का सजीव दस्तावेज जब चित्रपट के रूप में पर्दे पर उतरता है तो मस्तिष्क हथौड़े के तीक्ष्ण प्रहार-सा फट पड़ता है। स्वयं को आदर्शवादी और सच्चा समाजवादी मानने की संकल्पना के परखच्चे उड़ जाते हैं और दर्शक थिएटर से ग्लानि का भाव लिए निःशब्द निकलते हैं। आर्टिकल 15, आपको केवल उदास या निराश ही महसूस नहीं कराती बल्कि इसके पात्र आपको कई रातों तक सोने नहीं देते! कहानी बेचैन कर देती है और न जाने कितनी जोड़ी आँखें आपको दोषी ठहराते हुए आपका पीछा कर रही होती हैं।
जी, यह फ़िल्म मात्र तीन रुपये के पीछे लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार और फिर उसे समलैंगिकता का कोण देते हुए उनके ही परिवार वालों को ऑनर किलिंग के मामले में फँसाकर जेल भेजने की कहानी भर ही नहीं है बल्कि यह हमारी तथाकथित सभ्यता और समानता का दम्भ भरते समाज का वह विकृत और असल चेहरा दिखाती है जो हमें अब भी आदिम घोषित करते हुए अट्टहास करता है।
मुझे आँकड़ों का कोई अनुमान तो नहीं लेकिन फिर भी कह सकती हूँ कि आज भी देश के अस्सी प्रतिशत घरों में निचले तबके के लोगों के लिए अलग बर्तन रखे जाते हैं और छुआछूत की भावना भी यथावत विद्यमान है। यह प्रतिशत इससे अधिक ही हो सकता है, कम तो क़तई नहीं होगा!
कहब त लाग जाइ धक् से
कहब त लाग जाइ धक् से
बड़े-बड़े लोगन के महला-दुमहला
और भइया झूमर अलग से
हमरे गरीबन के झुग्गी-झोपड़िया
आंधी आए गिर जाए धड़ से
बड़े-बड़े लोगन के हलुआ पराँठा
और मिनरल वाटर अलग से
हमरे गरीबन के चटनी और रोटी
पानी पीयें बालू वाला नल से
कहब त लाग जाइ धक् से
कहब त लाग जाइ धक् से
बड़े-बड़े लोगन के महला-दुमहला
और भइया झूमर अलग से
हमरे गरीबन के झुग्गी-झोपड़िया
आंधी आए गिर जाए धड़ से
बड़े-बड़े लोगन के हलुआ पराँठा
और मिनरल वाटर अलग से
हमरे गरीबन के चटनी और रोटी
पानी पीयें बालू वाला नल से
कहब त लाग जाइ धक् से
फ़िल्म का प्रारम्भ इसी लोकगीत से होता है जिसका 2011 का uploaded video इन दिनों वायरल हो रहा है हालाँकि उसके और इस गीत के शब्दों में अंतर है। यह लोकगीत कर्णप्रिय भले ही है पर इसका प्रभाव इतना गहरा है कि आप सुविधाओं में रहते हुए शर्मसार होने लगते हैं। अंत में नए जमाने के बीट्स को ध्यान में रखते हुए भी एक सकारात्मक गीत है जो अच्छे संदेश देता है। परेशानी या दुःख ही कह लीजिए; वो यह है कि जिन्हें आर्टिकल -15 पसंद आई या कि जो इस पर कुछ सोचने को विवश हुए वे समानता के पक्षधर लोग हैं। लेकिन जिन्हें समझना या सुधरना चाहिए वे एक बार फिर आहत हुए पड़े हैं। गोया इनकी सम्वेदनाएँ न हुईं छुई-मुई हो गईं कि सच का स्पर्श पाते ही बिलबिला उठती हैं। वे चाहें तो इस बात पर प्रसन्न हो अनुभव सिन्हा जी की पीठ थपथपा सकते हैं कि फ़िल्म का नायक 'सवर्ण' है। आती-जाती और टिकी हुई सरकारें भी यह मंथन अवश्य करें कि दलितों ने जिन्हें वोट दिया, उन्होंने बदले में उन्हें क्या दिया?
आयुष्मान खुराना जितनी समझदारी से फ़िल्मों का चयन करते हैं वह प्रशंसनीय है। इनके शानदार अभिनय के लिए हर बार एक ही शब्द है वाह! वाह! और वाह! मनोज पाहवा मुल्क़ में अपना जलवा बिखेर चुके हैं, वही सधा हुआ सशक्त अभिनय। इनके क़िरदार ने अचंभित कर दिया। फ़ोटोग्राफ़ी अद्भुत है और गौरव सोलंकी के लिखे संवाद क़माल के।
सूअरताल में वोट की चर्चा वाला दृश्य भीतर तक झिंझोड़ देता है। गटर की सफाई के लिए उसमें डूबते सफाईकर्मी को देख आँखें भिंच जाती हैं। वहीं एक दृश्य में निषाद का अपनी प्रेमिका को यह कहना कि “मैं भी तुम्हारे लिए फूल लेकर आना चाहता था लेकिन साला! पाँव तले ऐसा नाला बह रहा है कि पाँच मिनट नदी में पैर डालकर तुम्हारे साथ बैठ नहीं सका।” और दर्शक अपनी पलकों की कोरें पोंछते नज़र आते हैं।
एकमात्र पक्ष जो अखरता है वो है लगभग अँधेरे या न्यूनतम प्रकाश में इस फ़िल्म का फ़िल्मांकन। हम मानते हैं कि प्रत्येक गाँव में बल्ब भले ही बँट गए हों पर लाइट अभी तक नहीं पहुँची है। पर अपने सूरज चचा कहाँ ये भेदभाव करते हैं जी! अँधेरे ने इतना पगला दिया था कि थिएटर से बाहर आते समय सूरज की रौशनी को देखकर स्वयं को भाग्यवान समझने लगे थे।
याददाश्त के आधार पर आर्टिकल -15 के कुछ संवाद लिख रही हूँ जो चाबुक की तरह मन की खाल उधेड़ते हैं -
"सब एक से हो गए तो राजा कौन बनेगा?"
"साला! पावर की अलग ही जात होती है।"
"कभी हम हरिजन बने कभी बहुजन, लेकिन बस 'जन' ही नहीं बन सके।"
"साहब!आपका तबादला हो जाता है और हमारी हत्या।"
"हीरो के आने का wait नहीं करना चाहिए।"
"साला! पावर की अलग ही जात होती है।"
"कभी हम हरिजन बने कभी बहुजन, लेकिन बस 'जन' ही नहीं बन सके।"
"साहब!आपका तबादला हो जाता है और हमारी हत्या।"
"हीरो के आने का wait नहीं करना चाहिए।"
"साहब हमारी बेटी को उठाकर ले गए थे। रात भर रखकर सुबह वापस भेज देते न! मार क्यों डाला?
"आग लगी हो तो न्यूट्रल रहने का मतलब यह होता है सर कि आप उनके साथ खड़े हैं जो आग लगा रहे हैं!"
"जितने लोग बार्डर पर शहीद होते हैं उससे ज्यादा गटर साफ करते हुए हो जाते हैं पर उनके लिए तो कोई मौन तक नहीं रखता... !"
- प्रीति 'अज्ञात'
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Pic. Credit: Google
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार १२ जुलाई २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
धन्यवाद, श्वेता
हटाएंसंजीदा समीक्षा। फ़िल्म देखने की लालसा सुलगाती हुई!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंबेहतरीन...
जवाब देंहटाएंअब और आज
देख लेते हैं
सादर...
जी, अवश्य ही देखिएगा.
हटाएंबहुत सटीक समीक्षा है हर पहलू पर गहरा चिंतन देती करारा व्यंग कहीं तो कहीं शर्मिंदगी का भाव कही बेबसी और कहीं व्यवस्था पर क्षोभ , लगता है आंखों के सामने फिल्म चल रही है।
जवाब देंहटाएंअप्रतिम ।
हार्दिक आभार
हटाएंलाजवाब समीक्षा...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंप्रिय प्रीति जी , बहुत ही काबिलेतारीफ समीक्षा लिखी है आपने फिल्म की | और संवाद तो मन को झझकोर गये | इनमें से एक के बारे में लिखना चाहूंगी कि ये कडवा सच है भारतीय समाज का कि यहाँ सब बदला जाति , धर्म पर चिंतन नहीं | और सच में हर बारिश में ना जाने कितने नौजवान गटर में घुसते हैं आजीविका के लिए और ज़िंदा बहार नहीं आते | इन्सान अपनी गंदगी से कोसों दूर भागता है फिर नर्क सरीखे गटरों में घुसा कर नौजवानों की अनमोल जिन्दगी से बहुत ही घिनौना मजाक करता है तंत्र |आज हर जगह तकनीक का बोलबाला है तो तत्र की सफाई के लिए क्यों नहीं | यदि किसी फ़िल्मकार ने अपनी फिल्म में इन ज्वलंत मुद्दों को उठाया है तो वह स्वागत योग्य है | साधुवाद सुंदर बेबाक समीक्षा के लिए जो फिल्म को देखने की तीव्र लालसा मन में जगाती है | सस्नेह --
जवाब देंहटाएंधन्यवाद, रेणु जी. आशा है आपने यह फिल्म अब देख ली होगी.
हटाएंकृपया गटर की सफाई पढ़ें , तन्त्र की नहीं |गलती के लिए खेद है |
जवाब देंहटाएंIts ok :)
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