बुधवार, 4 दिसंबर 2019

दुर्योधन और दुःशासन का बोलबाला मगर कृष्ण नदारद!

हर 15 मि. में एक रेप
प्रति घंटे 4 रेप
प्रत्येक दिन लगभग 90 मुक़दमे दर्ज़
और प्रत्येक माह 2700 महिलाओं से रेप
क्या कीजियेगा, देश की बेटियों को बचाकर?
रेप????
और ये तो वे आंकड़े हैं जो लिखित हैं. वे जिन्हें कभी दर्ज़ ही नहीं किया गया, उनकी सोचें तो रूह काँप उठेगी.

नोटबंदी में पूरे देश को रातोंरात लाइन में खड़ा कर दिया!
चालान के भय से पूरे देश के लोग एक घंटे में नियम समझ दूसरों को समझाने लगे. 
GST सबके दिमाग में जबरन घुसा दिया गया.
सारे कानून को ताक़ पर रख सुबह तक नये मुख्यमंत्री का जन्म हो गया.
लेकिन वैसे कानून के आगे सबके हाथ बंधे हैं? 
क्या सरकारें, उनकी अकर्मण्यता के किस्से सुनने को चुनी जाती हैं? या हर समय उनकी तारीफ़ के झूठे पुलिंदे बाँध उनकी नज़रों में चमककर केवल अपना भला सोचने वाले चाटुकार बनना ही हम सबका कर्त्तव्य है?

आप अपराधियों के अंदर भय पैदा कीजिये, बलात्कारियों को सरेआम मृत्यु दंड दीजिये फिर स्वयं देखिये कि कमी आती है या नहीं!
मात्र कड़ी निंदा करने से समस्या नहीं सुलझ जाती! गहरा दुःख व्यक्त करना भी काफ़ी नहीं! मन की बात बहुत हुई, अब जन की बात भी सुनिए, जनता की पीड़ा समझिए, उनके भय के अंदर झाँकिये.
बहुत हुआ मन्दिर-मस्ज़िद! यथार्थ के धरातल पर जनता को अब अपराधियों के ख़िलाफ़ एक्शन की दरकार है.
एक बार सारे अपराधियों को सामूहिक फाँसी देने की हिम्मत कीजिये.  पूरा देश और आने वाली पीढ़ियाँ आपको युगों तक याद रखेंगीं.

जिनके हाथों हम देश सौंपते हैं, बदले में वे हमें क्या देते हैं? असुरक्षा, भय और बेटियों की जली हुई लाशें!
सहिष्णुता की और कितनी परीक्षा दे आम आदमी??
यदि सरकार देश नहीं संभाल सकती, पुलिस सुरक्षा नहीं दे सकती और न्याय तंत्र अपने आँखों की पट्टी खोल वीभत्स अन्याय को भी नहीं देख पाता! अपराधी सामने खड़े होने पर भी वर्षों तक कानूनी पाठ पढ़े जाते हैं तो माफ़ कीजिये, ये आपके बस की बात ही नहीं रही! आप एक-दूसरे की दुहाई देकर राजनीतिक रोटियाँ सेकिए,अब जनता अपना हिसाब खुद ही कर लेगी!
दुर्भाग्य है कि इतिहास में यह समय 'बलात्कार युग' के नाम से जाना जाएगा. जहाँ दुर्योधन और दुःशासन का बोलबाला था और कृष्ण नदारद!
गाँधी के देश की ये कैसी तस्वीर है कि 'गाँधीगिरी' के कट्टर समर्थकों ने भी अब हाथ खड़े कर दिए हैं. सच यही है कि जनता की सहनशक्ति की भी एक सीमा होती है जो अब समाप्त हो चुकी है. राजघाट पर आमरण अनशन पर बैठी महिलाओं को देख बापू का हृदय भी रोता होगा. आज यदि वे जीवित होते तो स्वयं आगे होकर भारत की बेटियों के हाथ में लाठी थमा उनसे अत्याचार का विरोध करने और अत्याचारी का सिर क़लम करने को कहते. 

कितना अच्छा होता यदि देश की शीर्षस्थ महिलाएँ, नेता, पत्रकार सब एकजुट हो आमरण अनशन पर बैठ, बलात्कारियों के लिए तुरंत दंड की माँग करते लेकिन क्यों बैठें, राजनीतिक प्रतिस्पर्धा जो आड़े आती है! सत्ता के विरुद्ध एक शब्द भी बोल दिया जाए तो राष्ट्रहित की बातें चीख-चीखकर सुनाई जाती हैं लेकिन बलात्कार के ख़िलाफ़ बोलने में इसी ज़ुबाँ को लकवा मार जाता है! ये राज्य के आधार पर बोलना तय करते हैं.
हिन्दू-मुस्लिम करते समय इनकी छवि चमकने लगती है क्या?

जनता भी ख़ूब समझती है कि ढोंगी नेताओं का एक ही मन्त्र है, 'अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता'. 
वरना अगर ये सब वहाँ अड़ जायें तो क्या मजाल कि अपराधियों के हौसले इतने बुलंद हों कि उन्हें किसी का डर ही नहीं! पर अपराधों के उन्मूलन से जुड़कर कौन अपने राजनीतिक कैरियर की अंत्येष्टि करेगा! यही इस देश का सच और जनता का दुर्भाग्य है!
देशवासियों की हिम्मत, दिल और विश्वास तीनों टूट चुके हैं. कौन जोड़ेगा इसे?
- प्रीति 'अज्ञात'

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें