ये तब की बात है जब मैं सोशल मीडिया पर इतनी सक्रिय नहीं थी। महीने में अधिकतम 4 -5 बार यहाँ आती और वास्तविक दुनिया में लौट जाती। उन दिनों इस आभासी दुनिया (अब नहीं मानती) से ख़ासी विरक्ति हो चली थी मुझे। हाँ, पत्रिका 'हस्ताक्षर' शुरू हो चुकी थी सो उस पर और ब्लॉग पर सक्रियता बरक़रार थी। अंक तो याद नहीं पर ये बात अब तक नहीं भूली हूँ कि उन्हीं दिनों मेरे किसी सम्पादकीय पर मुकेश जी ने लिखा था कि "देखना एक दिन तुम्हारे सम्पादकीय भी प्रेम भारद्वाज जी की तरह ही पढ़े जायेंगे।" ये प्रेम भारद्वाज जी से मेरा प्रथम परिचय था।
दिल्ली सर्कल और विशिष्ट संगठनों से मैंने सदैव एक निश्चित दूरी बनाकर रखी है उसके कई कारण हैं पर वे बातें फिर कभी। लेकिन इतना अवश्य जान लीजिये कि सबके लिए सम्मान और स्नेह में कोई कमी नहीं! लेकिन हाँ, मुकेश जी के इस कमेंट के बाद मुझे बेहद उत्सुकता हुई और मैंने तुरंत अपनी मित्रता-सूची खँगाली तो प्रेम जी का नाम वहाँ पहले से ही था। उनकी वॉल पर गई तो उनकी लेखनी की शक्ति का अनुमान स्वतः ही हो गया। एकबारग़ी लगा भी कि उन्हें मेसेज कर दूँ कि मेरे लिखे पर अपनी राय अवश्य दें पर फिर संकोचवश ऐसा कर न सकी। सोचा, कभी दिल्ली पुस्तक मेले में मुलाक़ात होगी तो कह दूँगी। बात आई-गई हो गई।
मैं इस बात को शायद भूल ही जाती लेकिन अभी फरवरी में मुंबई जाना हुआ और मित्र अनुराधा सिंह से न केवल उनकी अस्वस्थता की जानकारी मिली बल्कि यह भी ज्ञात हुआ कि उनका इलाज़ अहमदाबाद में चल रहा है। प्रेम भारद्वाज जी का नंबर मुझे मिल गया था और उनके हालचाल लेने थे। उस समय मेरे मन में सौ प्रश्न चल रहे थे कि किस तरह बात शुरू करुँगी! पता नहीं पहचानेंगे भी या नहीं! कैंसर से मेरे इतने क़रीबियों को खोया है कि इस शब्द भर से मेरा गला भर्रा जाता है। सच कहूँ तो उस दिन थोड़ा अभ्यास करके मैंने उन्हें फ़ोन लगाया। अपना परिचय दिया। वे सहज भाव से बोले, "जानता हूँ आपको।" उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछा तो कहने लगे, "Up -Down चल रहा है।" फिर धीरे से बोले, "Down ही चल रहा है।" उस वक़्त उन्हें बोलने में भी बेहद तक़लीफ़ हो रही थी लेकिन गहन उदासी और पीड़ा के स्वर मैं भीतर तक महसूस कर पा रही थी। कई बार किसी की उदासी आपको मौन कर देती है और कहने को कुछ भी नहीं बचता! दुःख और भी कई गहरी रग़ों को छेड़ जाता है, दर्द के सारे पुराने पृष्ठ फड़फड़ाते नज़र आते हैं।
मैंने उनसे हॉस्पिटल में मिलने की अनुमति लेते हुए एड्रेस भेजने को कहा। ये 24 फरवरी की बात है। लेकिन तबसे उनका व्हाट्स एप्प बंद ही था। मेरी चिंता बढ़ती जा रही थी और ये भी कि बिना एड्रेस के जाऊँ कैसे? 4-5 दिन बाद उनके परिवार के एक सदस्य का नंबर मिला और उनसे सारा डिटेल भी। तब तक प्रेम जी को ब्रेन हैमरेज भी हो चुका था। तमाम आशंकाओं से घिरी मैं अपने पति के साथ 1 मार्च को उनको देखने हॉस्पिटल पहुँची।वहाँ जाकर पता चला कि ब्रेन हैमरेज का असर उतना गहरा नहीं हुआ और शरीर में मूवमेंट हो पा रहा है। उस दिन उन्होंने सहारे से बैठकर खिचड़ी भी खाई थी। मैं गई, तब वे गहरी नींद में थे। घर के सदस्यों ने उन्हें उठाना भी चाहा था पर मैंने ही मना कर दिया। मुझे लगा कि नींद में दर्द का अहसास थोड़ा कम होगा उन्हें और फिर सुधार की ख़बर पाकर मैं प्रसन्न भी थी। सोचा, जब स्वस्थ हो जायेंगे तब उनसे मिल ही लूँगी। उनकी बहिन का नंबर लिया और अपडेट करते रहने का कहकर मैं लौट आई थी। सोशल मीडिया पर इस सब की चर्चा से परिवार परेशान होता ही है, उन्होंने कहा भी था। इसलिए मुझे जो भी पोस्ट दिखीं, मैंने उन्हें hide करने का अनुरोध भेज दिया था। बीच में एक बार उनके घर बात की तो पता चला कि वे कुछ भी खा-पी नहीं रहे हैं।
आज सुबह अचानक उनकी बहिन का मैसेज दिखाई दिया, "भैया इस दुनिया में नहीं रहे।"
आज सुबह अचानक उनकी बहिन का मैसेज दिखाई दिया, "भैया इस दुनिया में नहीं रहे।"
मैं उनसे मिलकर भी नहीं मिली थी, बात होते हुए भी कुछ नहीं हुई थी, पर उनके बारे में रत्ती-भर न जानते हुए भी उनके शब्दों से गहरा पाठकीय रिश्ता था। एक समृद्ध लेखक की यही पूँजी है कि उसका शरीर भले ही दफ़न हो जाए लेकिन शब्द सदैव ज़िंदा रहते हैं! पाखी को पहली उड़ान देने वाले प्रेम भारद्वाज जी को अंतिम विदाई, मेरी विनम्र श्रद्धांजलि। 🙏🙏
- प्रीति 'अज्ञात'
- प्रीति 'अज्ञात'
दुःखद।
जवाब देंहटाएंभगवान उनकी आत्मा को शांति दे और घर वालों को सम्बल।
मैं उनसे परिचित तो नहीं लेकिन साहित्य का अंश के हिसाब से परिवार का एक हिस्सा टूटने का दुख मैं महसूस कर सकता हूँ।