रविवार की सुबह में जो महक है वह किसी और सुबह में नहीं होती। यह एक अतिरिक्त स्निग्धता और कोमलता से भरी सुबह है जिसमें बहती हवा और ठाठ से पसरती रोशनी मानव हृदय के भीतर भी उजास भरती प्रतीत होती है। अगर सप्ताह के दिन मोबाइल के अलार्म की ध्वनि, किचन में कुकर की बजती सीटी और फुटपाथ पर चलते तेज़ कदमों की आहट हैं, तो रविवार इस व्यस्तता से भरे पलों में ली गई चैन की लंबी साँस है जो जीवन की मशीनरी में एक विराम देकर कुछ आराम पाती है। इसमें शांति और मनमर्जी की निजी अठखेलियाँ हैं।
छुट्टी की इस सुबह की सुंदरता सबसे पहले उसकी नीरवता में महसूस होती है। सड़कें जो प्रायः यातायात से गुलज़ार रहती थीं, अब कुछ यूँ खामोश लगती हैं, मानो दुनिया ने शांति- समझौते पर सहमति जताई हो। यहाँ तक कि पक्षी भी अलग तरह से गाते प्रतीत होते हैं। वे आँगन, खिड़कियों में तसल्ली से बैठते हैं, मानो उन्हें भी समय की ढीली लगाम का एहसास हो और पता हो कि आज खिड़कियाँ फटाक से बंद नहीं होंगी। कोई उन्हें दाना-पानी देना भूलेगा नहीं। सूरज चचा पर्दों से झाँकते, झिझकते अंदर आते हैं और दीवारों पर सुनहरी चित्रकारी बना फैल जाते हैं। वे चाहते हैं कि पर्दे खिसकाकर उन्हें आमंत्रित किया जाए तो ही अपना राग छेड़ेंगे।
इस सुबह जागने में भी एक आत्मीयता होती है। इतराता हुआ आलस घेर लेता है और आप अचानक नहीं उठते, बल्कि आराम से कुछ सोचते हुए उठते हैं। कुछ क्षण बिस्तर पर यूँ ही बैठे रहते हैं जैसे कोई पत्ता शांत पानी की सतह पर तैर रहा हो। शरीर हल्का महसूस करता है, आत्मा ज़्यादा स्वतंत्र महसूस करती है क्योंकि उसे पता है कि आगे आने वाले घंटे किसी ज़िम्मेदारी के बंधन में अटके हुए नहीं हैं। यह आज़ादी सूक्ष्म होते हुए भी गहन लगती है और इसे हम धीरे-धीरे चाय की चुस्कियाँ लेते हुए, केतली से दोबारा कप भरते हुए एक उत्सव की तरह जीते हैं।
रविवार, सूर्य का दिन है। एक अनोखी लय होती है इसमें। सोच रही हूँ कि इसे इतवार क्यों कहते होंगे? कहीं इतराने से ही तो यह इतवार नहीं बन गया? आज के दिन रसोई में कोई हड़बड़ी और जल्दी-जल्दी टिफिन की पैकिंग नहीं बल्कि रौनक और गर्मजोशी होती है। नाश्ते की खुशबू धीरे-धीरे फैलती है, प्यालों की खनक आवाज देती है और एक-एक कर सारे सदस्य डायनिंग तक खिंचे चले आते हैं। किसी के लिए पोहा-जलेबी का दिन है तो कोई समोसा-कचौड़ी से रात भर का व्रत तोड़ता है। कहीं कॉफ़ी का बड़ा मग है तो कहीं कुल्हड़ में दमकती चाय। स्वाद चाहे जो भी हो, रविवार की सुबह का नाश्ता शरीर को नहीं, बल्कि आत्मा को पोषित करता है।
दूसरे दिनों में, ज़िंदगी तेज़ी से गुज़रती है; फूलों के पास से बिना नज़र घुमाए निकल जाते हैं, पक्षियों की आवाज़ जैसे सुनाई ही नहीं पड़ती। साँसें चलती तो हैं पर उन्हें जिया नहीं जाता। लेकिन रविवार की सुबह इंद्रियों को धीमा कर देती है। यह वो दिन है जहाँ पौधे आमंत्रित करते हैं। हम देखते हैं कि कैसे हौले से सूरज की रोशनी पत्तों को एक चमक के साथ स्पर्श करती है, कैसे ओस घास पर लुढ़कती है, कैसे हवा शीतलता और उम्मीद लेकर इर्दगिर्द चक्कर काटती है।
रविवार की सुबह केवल काम से छुट्टी ही नहीं, बल्कि स्वयं के होने का एक कोमल स्मरण भी है। बच्चों के लिए, रविवार की सुबह मौज-मस्ती की होती है। किसी गली में क्रिकेट के बल्ले की आवाज़, तो कहीं ज़मीन पर फुटबॉल की धमक के साथ जमकर हो-हल्ला। स्कूल यूनिफॉर्म और पढ़ाई से मुक्ति का बिगुल तो शनिवार रात को ही फूँक दिया जाता है। माता-पिता के लिए बिना घड़ी देखे अखबार पढ़ना, दिन को बदलते हुए देखना और थोड़ी आरामतलबी से बैठना रविवार है तो बुज़ुर्गों के लिए यह स्मृतियों में उतर जाना और लाडलों को यह समझाना है कि कैसे कभी परिवार भरे-भरे भी होते थे। रविवार की सुबह सबकी होती है। हाँ, लेकिन हर दिल से यह उसके ही अंदाज़ में बात करती है।
इस सुबह में प्रार्थनाएँ हैं, पवित्रता है और कृतज्ञता का भाव भी स्वाभाविक रूप से उमड़ पड़ता है। हम इस जीवन के लिए, क्षणिक विश्राम के लिए कृतज्ञ होते हैं।
यह भी सच है कि आज़ादी के घंटे मधुर हैं पर क्षणभंगुर भी हैं। दिन आगे बढ़ेगा, सप्ताह वापस आएगा, और दायित्व की चक्की फिर घूमेगी। शायद यही जागरूकता रविवार की सुबह को इतना अनमोल बनाती है। यह गोधूलि बेला या पारिजात के फूलों की तरह सुंदर है। इसका उपहार हर छह दिन बाद की उपस्थिति है।
जैसे-जैसे अगली सुबह होती है, दुनिया फिर से हलचल मचाने लगती है। दुकानें खुलती हैं, सड़कें अपनी सरसराहट में फिर लौट आती हैं और सुनहरी खामोशी दिन की हजारों आवाज़ों में विलीन हो जाती है। लेकिन दिल अपने भीतर रविवार की कृपा का अवशेष समेटे रहता है। आने वाले हफ़्ते को जीने के लिए एक शांत शक्ति हमें रीचार्ज कर देती है।
रविवार की सुबह की खूबसूरती सिर्फ़ उसकी शांति में ही नहीं, बल्कि सीख में भी निहित है। सीख, जो हमें याद दिलाती है कि ज़िंदगी केवल एक अनवरत दौड़ नहीं है। इसका आनंद तसल्ली से उठने में, चिड़ियों की चहचहाहट में, चाय की खुशबू में, साथ की गर्माहट में और बिना जल्दबाजी के जीने की सरल क्रिया में लिया जा सकता है। सीख, हौले से कहती है कि समय, जब कर्तव्य से मुक्त होता है, तो खालीपन नहीं बल्कि आनंद और प्रचुरता से भर जाता है।
हमारे जीवन में, रविवार की सुबह एक सौम्य प्रस्तावना है। यह समय एक विराम है जो आत्मा को जीवन की ऑर्केस्ट्रा के फिर से शुरू होने से पहले खुद को लय में लाने का मौका देता है। यद्यपि यह तेज़ी से बीत जाता है, लेकिन इसका मृदु, कोमल, शाश्वत संगीत हमारा हौसला बनाए रखता है।
- प्रीति अज्ञात
आज 'स्वदेश सप्तक' में प्रकाशित