रविवार, 23 फ़रवरी 2014

लौट आओ तुम (लघु-कथा)

नहीं मालूम, कि आज मैं ये सब क्यों लिख रही हूँ. मैं चाहती भी हूँ, कि तुम इसे पढ़ो और डर भी है..कहीं पढ़ न लो ! इसीलिए पत्र नहीं लिखा, सब कुछ किस्मत पे ही छोड़ दिया है. जीवन की इस भागा-दौड़ी ने हमें एक-दूसरे से बहुत दूर कर दिया है. न बातें होती हैं, न मिलना ही, पत्र लिखने की आदत तुम्हारी कभी थी ही नहीं...और जवाब न मिलने से निराश होकर अब तो मुझे भी बरसों हुए, चिट्ठी लिखे ! शायद 'जवाब न मिलना' ही मेरी नियति बन चुकी है. सब आकर हज़ारों प्रश्न करते हैं, मैं सहज भाव से उत्तर देने की कोशिश करती हूँ. पर फिर भी न जाने क्यों मेरे सवालों के आते ही वो उकताकर चले जाते हैं.

बचपन में तुम सही कहा करते थे, कि कम बकबक किया कर. मैं बोलती थी, कि सिर्फ़ तुम्हें ही तो कहती हूँ. कई बार इस फालतू सी बात पर ही हमारी मारा-पीटी हो जाया करती थी. मैं पर्दे के पीछे छिपकर या कई बार बेड के नीचे जाकर रोया करती थी. तुम मनाने नहीं आते थे, हंसते थे.. ये कहकर ' गईं फुल्लो रानी, कोप-भवन में'. न जाने कितने अजीब-अजीब से नाम रखे थे, तुमने मेरे. मुझे तो याद ही नहीं आता, कि तुमने मुझे मेरे नाम से कब बुलाया था !
हम कितनी ही चीज़ें शेअर किया करते थे. पढ़ाई की मेज़ भी हमने स्केल से बाँट रखी थी. और मेरा एक सेंटीमीटर भी तुम्हारे क्षेत्र में आना भयानक युद्ध का विषय हुआ करता था. कभी चोटी खींचना, कभी मेरा सामान गायब कर देना, मुझसे पहले बाथरूम में घुसके मुझे लेट कर देना और फिर जोकर की तरह हँसाना-रुलाना भी तुम्हें खूब भाता था. मुझमें हर वक़्त ऐब ही निकाला करते थे, लेकिन अपने दोस्तों के बीच बड़े गर्व से मेरी पेंटिंग दिखाते,कक्षा में सर्वोच्च अंक आने की शान मारते, और प्रतियोगिताओं में मेरे जीतने पर फूले नहीं समाते थे. लेकिन मुझे देखते ही झट से विषय बदल लेते, ये कहकर ' तू यहाँ क्या कर रही है ? जा अंदर जा, अपनी कुर्सी पे बैठ, किताबें इंतज़ार कर रहीं होंगी बेचारी', कुछ आता तो है नहीं, तेरे को. मैं खिसियाकर चली जाती थी, और गुस्सा भी होती थी, मन-ही-मन. लेकिन कुछ देर बाद तुम आकर ऐसे बात किया करते थे, जैसे कुछ हुआ ही नहीं था. मैं और चिढ़ जाती, फिर ठान लेती थी, कि अब कभी बात ही नहीं करूँगी. पर अगले दिन ही बेशरम बनके फिर बात शुरू. तुम कुछ भी कहते-करते, पर मैं मौका पड़ने पर हमेशा तुम्हारा साथ दिया करती थी. अब तो ये बात तुम भी मानते होगे न !

इतने बरस बीत गये हैं. दोस्त भी मिले-बिछुड़े, रिश्ते बने-टूटे, किसी से लड़ती ही नहीं, अब मैं ! जिन्हें दिल से अपना मानकर कभी नाराज़गी जाहिर की भीतो उन्होंने मुझे दिल से ही निकाल दिया ! किसपे गुस्सा करूँ, हक़ जमाऊं ? सब अपनी ज़िंदगियों में व्यस्त हैं. किसी को किसी की ज़रूरत ही नहीं होती आजकल ! कोई नहीं पूछता, कि ये तरबूजे सा मुँह क्यूँ लटका है ! जा मोटी और खा ले ! 

बहुत मिस कर रही हूँ आज तुझे भाई ! वक़्त निकल जाने से पहले ही जान लो, हम सब बहुत प्यार करते हैं तुम्हें. आ जाओ अब तुम परदेश से, लड़ाई कर लेना मुझसे, जो चाहो कह देना, वैसे अब मैं बकबक भी कम ही करती हूँ, कोई मनाने वाला ही नहीं सो ,कोप-भवन में जाना भी छोड़ दिया है. चुप ही रहूंगी अब, पर तुम आँखों के सामने रहो. दो बरस में एक बार की बजाय अब एक बरस में दो बार मिलो. मेरे हिस्से की सारी मिठाइयाँ भी तुम्हारी, मैंने मीठा खाना ही छोड़ दिया है. और हाँ, मुझे चिढ़ाने के लिए बगीचे से एक-दो फूल भी तोड़ सकते हो, बस पौधा न उखाड़ना ! तुम्हें याद है, बचपन में एक बार जब मैंने तुमसे कहा था, कि भैया गुलाब में पहला फूल खिला है, तोड़ना मत ! तो तुमने पौधे को जड़ समेत उखाडकर मुझे तुरंत कहा, ओहो मतलब पूरा पौधा तो ले सकते हैं, ना ! फिर मैंने भी रो-रोकर कैसा कोहराम मचा दिया था. खैर..मैं और मेरी नौटंकी तो जग-जाहिर है. अब सुधरने की कोशिश कर रही हूँ, जानती हूँ तुम कहोगे, 'जिस दिन तू सुधर गई, देश सुधर जाएगा. मदर टेरेसा न बन' ! नहीं बन रही अब मैं कुछ भी. एक अच्छा इंसान बनने की जद्दोजहद ने बहुत कुछ सिखा दिया है....सिर्फ़ दोषी ही बन पाई हूँ, अब तक..सबकी नज़रों में !

ये कैसा सच है जीवन का, भाई-बहिन हमेशा साथ क्यों नहीं रह सकते ? सिर्फ़ कहने की बातें हैं, दूर रहकर भी सब साथ होते हैं. नहीं होते हैं, बिल्कुल नहीं होते, कभी नहीं होते..........! मिलना ज़रूरी है.....हर रिश्ते में !

प्रीति 'अज्ञात'

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

'इकतरफ़ा दोस्ती' कहानी का एक अंश

खुशक़िस्मत हो, जो इतने दोस्त हैं तुम्हारे ! जब जी चाहा, हाथ थामे घूमने निकल गये, घंटों फोन पर बातें कीं, या फिर यूँ ही जंगल में भटकते फिरे. उदासी के पलों में उनके काँधे पे सर रख चार आँसू भी गिरा सकते हो. या गले लग फूट-फूटकर रो भी सकते हो ! पर उसका क्या, जिसका कोई दोस्त ही नहीं ? वो तो सबको अपना मान बैठ उन्हें दिलासा दिया करती है, उनकी मायूसी तक भाँप लेती है, हर संभव कोशिश भी करती है: कि सबके होंठों पर मुस्कान रहे !
पर आज जब उसे तुम्हारी ज़रूरत है, तो कहाँ हो तुम ? क्या उसने तुम्हें परेशानी के पलों में एक बार भी अकेला छोड़ा ? तुम्हारी लाख नाराज़गी पर भी सब कुछ भुलाकर हर बार ही बावली सी दौड़ी चली आती थी. तुम्हारी हँसी में अपने हर ग़म को भूलकर कैसे खिलखिलाती थी वो, और तुम्हारे माथे पर चिंता की लकीरें देख कैसे मुँह बना बैठ जाती थी. कभी भगवान को कोसा करती, तो कभी उस इंसान को..जिसकी वजह से तुम चिंतित दिखते थे. चुपके से तुम्हारे लिए प्रार्थना भी किया करती थी, ताकि तुम हमेशा खुश, स्वस्थ, निश्चिंत रहो.
कहते हैं, 'प्यार एकतरफ़ा भी होता है' और 'दोस्ती' ? क्या वो भी एकतरफ़ा ? वो तुम्हारी दोस्त है, पर तुम उसके नहीं ? जानते हो ना, कि उसकी ज़िंदगी में तुम्हारे सिवा और कोई नहीं ! रोएगी कुछ दिन कोने में अकेले बैठ, फिर आँसू पोंछ आ जाएगी वही फीकी सी हँसी लेके ! पता है उसे, कि तुम अफ़सोस भी नहीं जताओगे ; इसलिए तुम्हारे कुछ कहने के पहले ही सारी ग़लती अपने सर मढ़ लेगी और मुस्कुराते हुए वही चिर-परिचित शब्द कह देगी..'कोई बात नहीं' ! पर बात है, बहुत बड़ी बात है..समझो उसे ! टूट चुकी है वो बेतरह, हार गई है खुद से ! इस बार संभालना ही होगा तुम्हें उसे, क्योंकि अब बिखरी तो नहीं समेट सकेगी खुद को, जुदा हो जाएगी उम्र-भर के लिए ! बोलो...'खोना चाहते हो उसे' ?  आदत हो गई है न तुम्हें उसकी दोस्ती की ! लेकिन अकड़ भी है कि लौटकर खुद ही आएगी. इस बार नहीं आ सकी तो ? रह पाओगे उसके बिना ? फिर न कहना कि तुम्हें उसकी पीड़ा का अंदाज़ा नहीं था !किस बात से डरते हो तुम इतना ? कुछ नहीं चाहती वो तुमसेबस साथ रहो एक सुंदर अहसास की तरह न रखो ईर्ष्या, द्वेष या, प्रतिस्पर्धा का भाव उससे...उसकी कोमल भावनाओं को समझो ! आज भी उसे उम्मीद हैपर  मर रही है वो रोज, अब भी राहें ताका करती है उसकी; हाँ तुम्हारी ही.....अब कौन से सबूत का इंतज़ार है तुम्हें ?

'इकतरफ़ा दोस्ती' कहानी का एक अंश
प्रीति 'अज्ञात'