शनिवार, 30 मई 2020

अब गुजराती खाखरा ही कोरोना को देगा टक्कर!


जबसे कोरोना महाराज ने देश में चेक इन किया है तब से इनकी बुरी नज़र से बचने के लिए होम्योपैथिक और आयुर्वेदिक इम्युनिटी बूस्टर्स काफ़ी डिमांड में हैं. इस वायरस ने देश की जो ऐसी-तैसी की है वो तो सब जानते ही हैं. ठप्प पड़े बिज़नेस को CPR देने की भी ताबड़तोड़ कोशिशें की जा रहीं. बड़ी-बड़ी बैठकें बुला अर्थव्यवस्था पर भाषण वितरण कार्यक्रम चल रहा. हुआ धेला भी न! पर अब इस दुष्ट कोरोना जी की ख़ैर नहीं! इनको टक्कर देने तथा इनके अशोभनीय व्यवहार का मुँहतोड़ जवाब देने के लिए गुजराती खाखरा पधार चुका है. जी, हाँ हमारा प्यारा गोलू खाखरा कब का वायरल हो चुका और बिज़नेस भी धमाधम कर रहा. आप सब जुटे रहिये लगाई-बुझाई में पर भैये, जीतेगा तो गुजराती ही! वो क्या है न कि यहाँ रगों में व्यापार बहता है जी. लेकिन ‘रगों में दौड़ते-फिरने के हम नहीं क़ायल, जो तुम्हारी जेब से न निकला तो फिर मनी क्या है!’

इधर सूरत निवासी स्तुति फूड्स के मालिक योगेश पटेल के 'कोरोना इम्युनिटी बूस्टर' खाखरे के आईडिया ने देश भर में खलबली पैदा कर दी है. लोगों के घरों तक पहुँचने से पहले ही ये भारी डिमांड में है. इसकी एंट्री सुपर हीरो की तरह कुछ यूँ हुई है कि पूरा देश स्वैग के साथ इनका स्वागत करने को तैयार खड़ा है. क्यों न करे! जब हम सर्जिकल स्ट्राइक पर बनी साड़ी को हाथों-हाथ लेते हैं तो कोरोना स्पेशल ख़ुराक़ के रूप में बने खाखरे को प्यार काहे नहीं देंगे बे? ये खाखरा, कोनो सर्जिकल स्ट्राइक से कम है का!

कम्पनी की जादूगरी तो देखो, ingredients वही हैं जो हम रोज सब्जी या दाल में डाल कर खा रहे हैं, लेकिन मालिक भाई ने कोरोना स्पेशल खाखरे में इसको अलग ही ढंग से प्रस्तुत कर patent करवा लिया. इसे कहते हैं मार्केटिंग स्ट्रेटजी.  इसमें धनिया, पुदीना, मिर्च, तुलसी, मोरिंगा (Drumstick) पाउडर, अदरक, नींबू, नमक वो सब कुछ है जो लार टपकाने के लिए काफ़ी होता है. अब उस पर इसे स्वास्थ्य के नाम पर ग्रहण किया जाए तो फिर इसका जलवा ही निराला है. दुःख किस बात का! अब हर कोई दवाई तो नहीं खा सकता न! कोई-कोई हम जैसे भी बेहूदे होते हैं कि टैबलेट हाथ में लेते ही BP आठ पायदान और नीचे गिर जाता है. जी घबराने लगता है. बुरे-बुरे ख़्याल आते हैं. अब ज़िंदा भी रहना है और स्वाद कलिकाओं को भी तृप्तिपुर पहुँचाना है. इसलिए ऐसे चटोरों के लिए ही इस प्रकार के 'इम्युनिटी बूस्टिंग स्नैक' का जन्म हुआ. बोले तो ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय!'

जरा सोचिये, कोरोना के इलाज के नाम पर देश भर में कैसा फर्जीवाड़ा चल रहा. झूठे दावे करते हुए लोग दवा के नाम पर कुछ भी बेच रहे हैं. नकली वेंटिलेटर ने कितनों की जान ले ली. पर यहाँ कम्पनी की ईमानदारी देखिए. क़ीमत के साथ सारे ingredients भी लिख रखे हैं. अब और कितना विकास चाहिये? बस, इसे खाएँ और corona virus को मंगल ग्रह पर ब्रेक लेने भेज दें. सोच लीजिए  80 रुपये बचाने हैं या जान? क़ीमती तो जान ही है न शोना बाबू!

हमारे प्रिय मोदी जी कितने दूरदर्शी हैं. लेकिन कुछ पगलेट उन्हें समझ ही न पाए अब तक! अरे साहब, वो  उस दिन 'आपदा में अवसर' की इश्श्टोरी इसीलिए तो बताये थे जिसे कुछ सयानों ने बेफ़िजूल ही दिल पर ले लिया था. हम कह रहे हैं न कि आप इम्युनिटी बूस्टर नहीं बना पा रहे तो चिंता मत कीजिये. आपको आत्मनिर्भर बनाने का एक फड़कता आईडिया  हमारे पास भी है. आप चाहे जो भी बिज़नेस करते हों, फ़िक़र नॉट! बस अपने हर सामान को प्लास्टिक में पैक कीजिये.  तत्पश्चात उस पर कोरोना फ्री का स्टिकर चेप दीजिये. मसलन कोरोना फ्री बर्तन, कोरोना फ्री कपड़े, चादर, तकिया, अटैची, साईकल, कॉस्मेटिक, ज्वैलरी, चूल्हा, कैमरा, प्रिंटर जो भी समझ आये. खाद्य पदार्थों के साथ भी यही कीजिये . टिफ़िन सर्विस हो या चाट का ठेला, सब्जी मंडी हो या फ़ूड जॉइंट. बस एक  स्टिकर  लगाइये और  फिर देखिये फ्री का चुंबकीय प्रभाव!
 मुझे पूरा यक़ीन है जल्द ही वो दिन आएगा जब हम सब खिड़कियों से लटक-लटककर सारी दुनिया को बता देंगे कि "देखो, दुनिया वालों हमारे यहाँ सब कुछ कोरोना मुक्त है". उफ़, उस मंज़र की कल्पना करते हुए भी ख़ुशी से मेरी पलकें भीगी जा रहीं.  
चलो अब मिल-जुलकर, चाय का महकता कप थामा जाए और  दिल्ली से अहमदाबाद तक खाखरे के चटख़ारे लेते-लेते इस दुष्ट कोरोना को टुश्श करके लतिया दिया जाए.

अच्छा, चलते-चलते ये भी बताती चलूँ कि  ‘Taste plus health’  की टैगलाइन के साथ 'Turmeric cake' भी आया है बाज़ार में. 'कोरोना धूप' भी बन गई है. इम्युनिटी सिस्टम बढ़ाने वाली  कोरोना पिल्स भी आ गई हैं. इनका नाम कोरोनिल (Coronil) है. ये सब भी गुजरात की भूमि से ही उपजे हैं. अब जलकर खाक़ न हो जाइएगा. हिन्द देश के निवासी सभी रंग एक हैं.
- प्रीति 'अज्ञात' 
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शुक्रवार, 29 मई 2020

दुनिया को एक वैक्सीन की दरकार और है!

पुलिस वाले ने एक अफ्रीकी- अमेरिकी युवक के हाथ बाँध उसे जमीन पर गिरा दिया था. लेकिन इतने से भी उसे तसल्ली नहीं हुई और उसने अपना घुटना उस अश्वेत की गर्दन पर रख दिया और धीरे-धीरे दवाब बढ़ाता रहा. घुटी हुई साँसों से युवक ने बार-बार कहा कि "मैं साँस नहीं ले पा रहा हूँ, मैं साँस नहीं ले सकता" (“Please, I can’t breathe). लेकिन ऑफिसर का दिल तो पत्थर का था और चेहरा संवेदनहीन, उसके माथे पर शिकन तक नहीं पड़ी. आसपास खड़े लोग चीखते रहे कि “यह मर जाएगा, आप ऐसा नहीं कर सकते.” पर नफ़रत की आग के आगे ऐसी दलीलें कब काम आती हैं भला! एक तरफ आसपास खड़े लोग पुलिस ऑफ़िसर से उसकी इस क्रूर हरक़त को रोकने की ग़ुहार लगा रहे थे तो वहीं दूसरी ओर युवक की आवाज़ मद्धम पड़ती जा रही थी. पूरे 9 मिनट बाद ऑफिसर ने घुटना हटाया. 6 फुट-7-इंच का वह अश्वेत युवक जॉर्ज फ्लॉयड मौन हो, अब इस दुनिया को सदा के लिए अलविदा कह चुका था.

अब अमेरिका और उसका मिनियापोलिस एक अलग ही आग में जल रहा है. ये विरोध के स्वर हैं, रोष के स्वर हैं, न्याय की मांग के स्वर हैं. यह एक ऐसा सामुदायिक आक्रोश और विरोध प्रदर्शन है जिसे लंबे समय तक याद रखा जाएगा.  वहाँ के नागरिकों में पूरी घटना के प्रति इस क़दर गुस्सा है कि फिर कोरोना का डर भी आड़े नहीं आया और उन्होंने घर से बाहर निकल पूरा शहर सर पर उठा लिया है.

पुलिस ने अपनी सफ़ाई में  तमाम झूठी कहानियाँ गढ़ लीं लेकिन वहाँ उपस्थित प्रत्यक्षदर्शियों ने सारा सच उगल दिया. लोगों के पास इस पूरी घटना के वीडियोज़ हैं जो निर्दोष फ्लॉयड की निर्मम मृत्यु की पूरी दास्तां बयान करते हैं. CCTV  फुटेज़ भी विस्फोटक दृश्यों के साथ उन पुलिसकर्मियों के मुँह पर तमाचे की तरह पड़ते हैं.

परिवार में दुःख है, मातम है और दोषियों के ख़िलाफ़ हत्या का केस दर्ज़ करने की प्रबल माँग. लेकिन अभी प्राप्त ख़बरों के अनुसार मिनियापोलिस पुलिस विभाग ने उन्हें नौकरी से निकाल अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली है. यहाँ के मेयर ने बताया कि उन्होंने एफबीआई से मामले की जांच करने के लिए कहा है. ट्विटर पर पोस्ट किए गए एक वक्तव्य में उन्होंने कहा, "अमेरिका में अश्वेत होना मौत की सजा नहीं होनी चाहिए. पाँच मिनट के लिए, हमने देखा कि एक श्वेत अधिकारी अपने घुटने से एक अश्वेत  की गर्दन दबा रहा था. पाँच मिनट."(Being black in America should not be a death sentence. For five minutes, we watched a white officer press his knee into a black man’s neck. Five minutes)

किसी परिवार को तबाह करने वाले और उनकी आँखों के तारे का जीवन लेने वाले कितने सस्ते में छूट जाया करते हैं!
मैं आज साहिर की उदासी और उस दर्द को एक बार फ़िर महसूस कर पा रही हूँ. वे शब्द जो उन्होंने लगभग साठ वर्ष पहले लिखे थे, न जाने कब तक ये प्रासंगिक होते रहेंगे!
“यहाँ इक खिलौना है इन्सां की हस्ती/ ये बस्ती है मुर्दा-परस्तों की बस्ती/ यहाँ पर तो जीवन से है मौत सस्ती/ ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!”
नफ़रत, सांप्रदायिकता और रंगभेद की जड़ें बहुत गहरी एवं विषाक्त हैं. कितने मूर्ख हैं हम, जो सोचते थे कि कोरोना महाकारी के इस संकट काल में लोग थोड़े और संवेदनशील हो जाएंगे, परस्पर सौहार्द्र में वृद्धि होगी, दुनिया शायद बेहतर हो जाएगी. पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ बल्कि अब लोग एक-दूसरे को संशय से देखने लगे हैं. पड़ोसी, पड़ोसी का नहीं रहा. सोशल डिस्टेंस अब दिलों तक जा पहुँचा है.
वो पुलिसवाला जो अपना घुटना तब तक फ्लॉयड की गर्दन पर टिकाये रहा जब तक उसकी मौत नहीं हो गई, क्या वो वाक़ई में अब कभी चैन से सो पायेगा? नफ़रत की इस आग ने उसकी भी नींद छीन ली होगी. छीननी ही चाहिए. अब वो अपने बच्चों को स्नेह की कोई भी कहानी सुनाते हुए बार-बार शर्मिंदा होगा. 

अफ़सोस कि यह शर्मिंदगी और दुःख किसी एक देश या शहर का नहीं, घृणा और सांप्रदायिकता भी वैश्विक महामारी है. इससे निज़ात पाने की वैक्सीन की दरकार और भी ज्यादा है.
साहिर फ़िर याद दिलाते हैं - 
“बचा लो, बचा लो, बचा लो ये दुनिया/ तुम्हारी है, तुम ही सँभालो ये दुनिया”
-प्रीति ‘अज्ञात’
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गुरुवार, 28 मई 2020

#विकास खन्ना: कोरोना काल के जगमगाते 'नायक'

लॉकडाउन के इस समय में जबकि हर तरफ रोज़ सैकड़ों मौतों के किस्से हैं. निराशा और उदासी से भरे भाव हैं और कहीं कोई उम्मीद नज़र नहीं आती...ऐसे में कुछ चेहरे ऐसे भी हैं जिनकी उपस्थिति चेहरे की मुस्कान लौटा देती है. उनमें से विकास खन्ना और सोनू सूद इन दिनों ख़ासी चर्चा में हैं. इनके सामाजिक कार्यों ने देश को यह समझाया कि सहायता करने के लिए बड़ी-बड़ी मीटिंगों और भाषणों की क़तई आवश्यकता नहीं होती बल्कि काम को बस बिना किसी दिखावे के कर दिया जाता है. देखा जाए तो सच्चा नायक होता ही यही है और इन दोनों ने ही 'नायक'  शब्द को सही मायनों में परिभाषित भी किया है. सलमान ख़ान भी जरूरतमंदों के अकाउंट में पैसे जमा करवाकर उनकी भरसक मदद कर रहे हैं. सोनू सूद ने उन लोगों के लिए बसों की व्यवस्था की, जो अपने गृह नगर लौट जाना चाहते थे. सोनू की इस दिलदारी की देश भर में प्रशंसा हो रही है. इसके किस्से हमारी आने वाली पीढ़ियाँ भी सुनेंगीं. लेकिन हम आज बात करेंगे, एक और 'हीरो' विकास खन्ना की.

जो भी कुकिंग में रूचि रखता होगा और इससे सम्बंधित बातों में उसे दिलचस्पी होगी, वह सेलिब्रिटी शेफ़ विकास खन्ना को नहीं जाने, ऐसा हो ही नहीं सकता! जमीन से उठकर बड़े हो जाने वाले तो बहुत लोग होते हैं लेकिन उसके बाद भी जो अपनी जड़ों को नहीं भूलता और अहंकार जिसे छू तक न गया हो, ऐसे मुट्ठी भर ही रह जाते हैं. विकास का नाम इस सूची में सबसे ऊपर है. जो देश से दूर रहकर भी देशवासियों का पूरा ख़्याल रख रहे हैं. बीते रविवार जब कोरोना के कारण ईद का रंग कुछ फ़ीका पड़ रहा था तब विकास खन्ना ने लगभग 2 लाख लोगों के लिए खाने का इंतजाम कर उनकी ईद की रौनक़ लौटा दी. यह विश्व का सबसे बड़ा ईद फेस्ट था. इसके अलावा उन्होंने कॉर्पोरेट्स, एनजीओ और एनडीआरएफ की मदद से पूरे भारत में 4 मिलियन सूखे राशन का वितरण किया. 'फीड इंडिया' नामक उनकी इस पहल ने लोगों का अपार स्नेह और सम्मान अर्जित किया है. विकास खन्ना जो न्यूयॉर्क में हैं, उन्होंने 'फ्यूल स्टेशन से फूड स्टेशन' परियोजना शुरू की है. वे जल्द ही राजमार्गों तक भी भोजन पहुँचायेंगे, जहाँ लोग अपने गांवों तक पहुँचने के लिए पैदल चल रहे हैं. उन्होंने दीनानाथ मंगेशकर अस्पताल को 1000 पीपीई किट दान किए हैं. जिसके लिए लता जी ने उन्हें सोशल मीडिया पर धन्यवाद भी दिया था. उन्होंने लिखा, "दीनानाथ मंगेशकर अस्पताल के पूरे परिवार के साथ, मंगेशकर परिवार उनका आभारी है".  

विकास, मिशलिन स्टार शेफ़ हैं. अव्वल दर्ज़े के रेस्टोरेंट हैं उनके. कई शानदार कुकरी बुक के लेखक एवं सहृदय कवि हैं. फिल्म निर्देशन भी किया है उन्होंने. लेकिन वे इन सबके कारण ही इतने पॉपुलर नहीं हुए हैं बल्कि उनकी विनम्रता, संवेदनशीलता, भाषा और सादगी भी मन मोह लेती है. कितने लोग हैं जो मास्टरशेफ़ उनके कारण ही देखते आये हैं. मैं भी उनमें से एक हूँ. भोजन को कैसे celebrate किया जाता है, यह हम सबने उन्हीं से सीखा. कोई आश्चर्य नहीं कि इसीलिए उनकी पुस्तक 'उत्सव' विश्व भर के तमाम सेलिब्रिटीज की बुक शेल्फ की शोभा बढ़ा रही है. फिर चाहे वो बर्किंघम पैलेस की महारानी एलिजाबेथ हों या वेटिकन सिटी के पोप. अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा भी उनके हाथों के बने सात्विक भोजन का आनंद उठा चुके हैं.
इस सन्दर्भ में  विकास खन्ना की माँ से जुड़ा एक रोचक किस्सा पढ़ा था कभी, कि जब ओबामा से उनकी मुलाक़ात की ख़बर अमेरिका के प्रतिष्ठित अख़बार न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी और उन्होंने अपनी मम्मी को बताया तो वे बोलीं "उसमें क्या है? जिस दिन पंजाब केसरी में तुम्हारी ख़बर छपेगी उस दिन तुझे मानूँगी". अब माँ तो माँ ही होती है. 

विकास का जीवन बेहद संघर्षपूर्ण रहा है और उन्होंने हर तरह का छोटा काम किया है. हाल ही में बरखा दत्त को दिए इंटरव्यू में उन्होंने अपने बीते हुए दिनों का एक मर्मस्पर्शी किस्सा सुनाते हुए कहा था कि इंसान को अपनी dignity नहीं खोना चाहिए. इसी इंटरव्यू में उन्होंने यह भी बताया कि जब अभी एक old age home तक खाना पहुँचाने वाला उनका ट्रक नहीं पहुँच पाया था तो वे कितने दुखी और भावुक हो गए थे. लेकिन उन्हें अपनी दादी की दी हुई सीख याद रही कि “जब तक हाथ जलेंगे नहीं तो खाना बनाना सीखोगे कैसे!”

हम बड़े-बड़े खिलाड़ियों, रुपहले पर्दे के कलाकारों, ग्लैमर की दुनिया से जुड़े लोगों को अपना 'हीरो' मान बैठते हैं. किसी की आवाज़ के दीवाने हैं तो किसी के अभिनय के. जबकि वे भी हमारी आपकी तरह अपना काम ही कर रहे हैं और इसके एवज़ में उनकी अच्छी क़माई भी होती है. प्रशंसक होना गलत नहीं! लेकिन अब 'हीरो' का सही अर्थ समझना भी जरुरी हो गया है. हम में से कई बस इसलिए परेशां हैं कि घर से नहीं निकल पा रहे जबकि कई ऐसे जरूरतमंद भी हैं जिनके पास जीने के लिए आवश्यक सामान भी नहीं. यह लॉकडाउन सबके लिए एक सा नहीं है. इस बात को समझ, जो भी अपना सहयोग दे रहा है वह बधाई का पात्र हैं. आज देश को इसी सकारात्मकता और अच्छी सोच की जरुरत है.
विकास जी, आपने हम सबका दिल जीत लिया है. ईश्वर आपको जीवन के सारे सुख दे. करोड़ों देशवासियों की हर दुआ आपके नाम है. आपकी मुस्कान और जज़्बा सदैव सलामत रहे. शुक्रिया, हीरो!
- प्रीति 'अज्ञात'
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बुधवार, 27 मई 2020

कब लौटेंगे बीते हुए दिन!


ऐसा बहुत ही कम बार होता है कि किसी को हौसला देते समय अपना ही विश्वास डगमगा रहा हो. किसी को ख़ुश रहने की दुआ देते समय अपनी ही आवाज भर्रा रही हो. दिल करता है कि उसे गले लगाकर कहें, घबराओ मत, ये समय भी बीत जाएगा, सब अच्छा होगा पर भीतर ही भीतर कहीं कुछ टूट रहा होता है. हँसो भी तो लगता है जैसे पाप किया हो कोई! इस महामारी ने हमें एक ऐसे ही मंज़र पर लाकर खड़ा कर दिया है. आँखें मूँदकर सोचती हूँ कि कोरोना वायरस के हमारी दुनिया में प्रवेश करने से पहले कैसा था हमारा जीवन? तो पुराना ज्यादा कुछ याद नहीं आता! 

लगता है टीवी, रेडियो की आवाज़ें और अखबार में छपी ख़बरें दिमाग में ठूँस-ठूँसकर भर दी गई हों जैसे. जो दिखता है उसमें घबराए हुए लोग हैं. कोई डर रहा है कि न जाने अब कभी अपने परिवार से मिल पायेगा या नहीं! वे दोस्त जिनके साथ चाय पर अभी कई अधूरी चर्चाएँ बाक़ी थीं, कभी पूरी हो पाएंगी या नहीं! वे रिश्ते जो मखमली गुलाब की महक तले सूनी आँखों से बस एक मुलाक़ात की राह तकते हैं उन आँखों की खोई चमक लौटेगी भी या नहीं! 


क्या होगा उन कामगारों का जिन्हें भूख के एवज में हजारों मील की दूरियाँ चलना बेहतर लगा था, उनके छाले क्या आने वाला समय या कोई तंत्र भर सकेगा कभी? उन बच्चों का क्या जो भीषण झुलसती गर्मी में सर पर बोझा रखे नंगे पाँव निरंतर चलते ही रहे, उनके दिल का बोझ कैसे हट पायेगा? यह किस्सा उनके बाल मन पर किसी गुदने की तरह नहीं रह जाएगा? कितने प्रश्न उठे होंगे उनके मन में उस वक़्त पैदल चलते हुए! कौन देगा उन्हें उत्तर उनके इस दुर्भाग्य का? किस पर सारा दोष मढ़ा जाएगा? 
 
भूख से मरते समय, मालगाड़ी से कुचलते समय की चीखें कैसे भुलाई जा सकेंगीं? कौन देगा उनके दर्द की इबारतों का हिसाब? आपदा की यह घड़ी, गहन शोक की भी  है. जिसमें शहर के पुराने बाज़ार की और भी पुरानी इमारतों के बीच ज़र्ज़र शरीर को लेकर अब भी भटक रहे हैं कुछ लोग, इनमें हर माल दस रुपये में बेचने वाले 'व्यापारी' हैं, कोई सेठों के जूते चमकाता है, कोई प्लास्टिक की टूटी-फूटी बोतलें बीन लेता है, तो कहीं फटे हुए कपड़े सुधारते लोग भी शहर, मोहल्ले, की तंग गलियों में प्रायः मिल जाते थे. इस आपदा के बाद फुटपाथ पर रेंगते ये लोग अचानक विलुप्त हो गए. इनकी भूख आपदा से भी बड़ी थी. तभी तो ये उससे लड़ने चले थे और ये भूख ही उन्हें खा गई. अब निशान हैं पटरियों पर और खाली पेट की कहानी कहती कुछ रोटियाँ उनकी सविनय यात्रा की बेबसी कहती हैं. ये क्यों हुआ,कैसे हुआ...इस पर बहस लम्बी चलेगी. लेकिन यह प्रश्न सदियों तक झकझोरेगा कि ग़रीब की मौत इतनी आसानी से कैसे एक किस्सा बन दब जाती है. पटरियों पर बिखरी रोटियों की तस्वीर और कटे हुए शरीर; 2020 की त्रासदी को एक झटके में बयां कर देते हैं. कैसे भूल सकेंगे हम ये तस्वीर जो अब करवट बदलती रातों की बेचैनी का सबब बन चुकी है?
 
जहाँ देखिए, बातों के विषय में केवल और केवल कोरोना है. कौन किस अपने से नहीं मिल पा रहा, किसके एरिया में सब्जी नहीं है, कहाँ फल नहीं मिल रहे. ग्रॉसरी शॉप कब खुल रहीं, डेयरी कब खुलेगी, हेल्पर्स आ रहे या नहीं, ट्रेन, प्लेन कब चल रहे, कौन सी फ्लाइट  कैंसिल हुई, कौन लक्ष्य से भटका, किसने डबल किराया वसूला, कौन किसी अपने की मौत में नहीं जा पाया, किसके आने से वायरस और फ़ैल गया हर तरफ बस यही चर्चा है.  
इन सबके बीच यदि कोई एक चीज़ यथावत है तो वो है राजनैतिक कबड्डी, आरोप-प्रत्यारोप, आपदा को अपने हितों में साधने के अवसर!  सरकार और विपक्ष दोनों अपने दाँवपेच में लगे हुए हैं, मामला हर बार की तरह वही पुराना श्रेय लूटने वाला है. 
 
इस समय यदि मैं आपसे कुछ शब्द बोलने को कहूँ तो यक़ीन मानिये कि आप सोशल डिस्टेंस, क्वारंटाईन, आइसोलेशन, मास्क, सैनिटाइज़र, हैण्ड वाश, सेफ्टी यही सब कहेंगे. यही शब्द दिमाग में चल रहे हैं. चेहरे भी जो याद रह जाते हैं, असल में उनका कोई चेहरा ही नहीं. पूरे शरीर को एक प्लास्टिक के खोल में लपेटे लोग हैं. सर से पाँव तक ढके लोग, लेकिन फिर भी आप उनकी आँखों का भय पढ़ सकते हैं. 
हर तरफ़ तसल्ली का बाज़ार है जो पहले केस पर मिली, फिर दूसरे, पचासवें, सौंवे, हजार, दस हजार और लाखों तक पहुँच चुकी है. इतना समझ में आ गया है कि हमें अपनी सुरक्षा आप ही करनी है. लेकिन कौन, कितना अच्छे से कर रहा है वो मंज़र और भी भयावह है. अब सब खुले मैदान में कूद पड़े हैं.
एक तरफ कुछ लापरवाह लोग हैं जिन्होंने खतरों के खिलाड़ी बनने की क़सम खा रखी है और दूसरी तरफ वे भी हैं जो जीवन की कद्र करना जानते हैं. वे अपने आपको एक वायरस के हवाले यूँ ही नहीं कर सकते! क्यों करें! अभी हमारे भीतर बहुत जीवन शेष है.
 
बस यही है हाल.....जीवन को बचाने का संघर्ष, दो वक़्त की रोटी जुटाने का संघर्ष, बच्चों की हँसी लौटा लाने का संषर्ष, अपनों की एक झलक पाने का संघर्ष.  
लाख से ऊपर हुए वे लोग जो इसकी गिरफ़्त में हैं. सैकड़ों हारकर दूसरी दुनिया में चले गए. पर अभी कई करोड़ हैं जिन्हें लड़ना है हर रोज़ अब! देखते हैं, कितने बचेंगे, कितने हँसेंगे और कितनों का जीवन अब पहले सा होगा! न जाने कौन सा वो पल था जब हम सब मिलकर मुस्कुराए थे. न जाने कब ये होगा कि हम फिर साथ बैठेंगे, ठहाके लगायेंगे.
बस एक वादा करें अपने-आप से कि किसी मरीज़ को अपराधी की तरह कभी नहीं देखेंगे. उसके प्रति शब्दों और व्यवहार से संवेदनशील रहेंगे. बहुत दुःख होता है जब कोरोना वायरस से पीड़ित मरीज़ों के साथ इतना बुरा बर्ताव किया जाता है. जैसा कि एक समय में कुष्ठ रोगियों के साथ किया जाता था. आधा तो इंसान अपराध-बोध कराकर ही मार दिया जाता है जबकि हम अपने स्थान से कब उनकी जगह पहुँच जायेंगे, कोई नहीं जानता!
 
इन दिनों स्वयं को बोरियत से बचाने के लिए सोशल मीडिया पर बहुत सारे हैशटैग चल रहे हैं. कोई अंताक्षरी खेल रहा तो कोई फ़िल्म, वेब सीरीज़ या पुस्तकों में अपना दिल लगा रहा. ऑनलाइन कार्यक्रम चल रहे. वीडियो कॉल्स हो रहे हैं. अच्छा है, जिसे जिसमें ख़ुशी मिले, वो कर ही लेना चाहिए. यूँ तो मेरा यह भी मानना है कि निराशा के दौर को हम गहरी उदासियों में डूबकर नहीं हरा सकते! उन्हें हमारा उत्साह ही मार सकता है. जोश और गिरकर उठ खड़े हो जाने की जिजीविषा ही दुःख की काली परछाई को मिटा सकती है. तमाम दुखों के बीच हँसी की एक किरण फूट सकती है. ये किरण ही हमारे दिलों में रोशनी भरेगी. मैं इतना सब कह तो रही हूँ पर न जाने क्यूँ फिर भी मन उदास सा है.
 
इतना तो तय है कि ये दुनिया रहेगी अभी. चलिए, एक कोशिश और करते हैं इसी में फिर से जीने की! अपने हौसलों को एक मौक़ा और देते हैं जीतने का. उम्मीद का एक और दीया प्रज्ज्वलित करते हैं कि कभी तो लौटेंगे बीते हुए दिन! बस,ध्यान रहे कि अपनी सुरक्षा आप करना ही एकमात्र उपाय है.
- प्रीति अज्ञात #हस्ताक्षर #संपादकीय #कोरोना #corona_virus #lockdown_stories
'हस्ताक्षर' मई अंक, संपादकीय -

मंगलवार, 26 मई 2020

5 सेक्सी चीज़ें, जो शीला की जवानी जैसी हमारे हाथ न आनी!


इन दिनों आईने ने हमें पहचानना छोड़ दिया है और वो हमसे हमारी पहली-सी क़ातिलाना सूरत की मांग करने लगा है. उस पर सोशल मीडिया में लाइव आने को कहते लोग 'मेरे अपने मेरे होने की निशानी मांगें' जैसा अहसास भी करा रहे हैं. अब इन्हें कौन समझाए कि हम स्त्रियों के जीवन में केवल पति ही परमेश्वर नहीं होते बल्कि हमारे पर्सनल 'पंच परमेश्वर' भी इनके साथ ही exist करते हैं. सहजीविता (Symbiosis) समझते हो तुसी? हाँ, कुछ-कुछ वोई टाइप से. 

कैसे बताएँ कि इस लॉकडाउन (Lockdown) के चक्कर में हमारा जीवन बीच भँवर में डोल रहा. हमारी प्रेम की इकलौती नैया का अब कोई खिवैया न रहा. इस कमबख्त गुलाबी वायरस ने हमारी दुनिया से गुलाब का पूरा गमला ही लूट लिया है. नामुराद ने भोली, मासूम स्त्रियों से उनकी 5 सेक्सी चीज़ें छीन लीं हैं. डर लगता है कि शीला की जवानी की तरह कहीं ये भी हमारे हाथों से निकल न जाएँ. 

1. जवानी- भारत कुमार ने कई बरस पहले ही ये बात कन्फर्म कर दी थी कि 'वो जवानी, जवानी नहीं/ जिसकी कोई कहानी न हो'. आदरणीय, हम शर्मिंदा हैं. बोझ हैं इस धरती पर क्योंकि हमारी कोई कहानी बन ही न पा रही. एक समय था जब दुकानें खुली होती थीं. बाथरूम में लगी काँच की शेल्फ़ में वो सब कुछ था जो उम्र को साधे रखता था. तमाम उत्पाद (Products) कानों में चुपके से आकर ये फुसफुसा जाते थे, "रंग दे, रंग दे, रंग दे, रंग दे, हाँ रंग दे". हम तब्बू की याद में भावुक हो हर पंद्रह दिन बाद खुद पर बलिहारी हुए होना एक अनुष्ठान समझते थे. कभी-कभी तो भावुकता में दर्पण के सामने खड़े हो आँख मिचका, मुस्कियाकर कह भी उठते थे,"Because I'm worth it!"
इस ज़िंदाबाद जवानी के सहारे पार्टियों में जाने की अपनी एक अदा थी. ज़ुल्फ़ों को झटकने का मज़ा था. अब सिर पर चाँदी की फ़सल उग रही. स्थिति तनावपूर्ण और अनियंत्रित दोनों है. कहाँ से लाएँ, निगोड़ी जवानी!

2. फ़िगर-  "जाने कहाँ मेरा फ़िगर गया जी, अभी-अभी इधर था, किधर गया जी!" बहुत दुःख भरी कहानी है साहब. हमको  फ़िगर और फ़िटनेस की बहुत फ़िक़र है जी. हाहा, अब ये न पूछियेगा कि अनुप्रास अलंकार की लत हमें कैसे और किससे लगी! 
उफ़! ये जालिम दुनिया. जिम और योगा क्लास पर ताले ठुके हैं. म्यूजिक की ताल और ट्रेडमिल पर थिरकते पाँव घर बैठे सुन्ना रहे. हम घुन्ना रहे, लोग हमें देख भिन्ना रहे.
ऑनलाइन योगा भी किससे होगा! घर में रहो तो सौ काम अगल-बगल नाचते, मटकते दिखते हैं. क्लास की बात ही और है! सो, अब अपनी उसी पुरानी छरहरी और यौवनयुक्त काया की चिंता में हम सब यूँ घुले जा रहे जैसे कि दुनिया में कोरोना घुल गया है. 
उस पर सोशल मीडिया पर बैठे कुछ निठल्ले रोज जलेबियाँ, लड्डू, खीर की फोटो डाल सारे लॉकडाउन resolution की ऐसी-तैसी करे दे रहे हैं. हे ईश्वर! उन्हें इस भड़काऊ अपराध की सजा अवश्य देना. कम-से-कम बीस किलो बढ़ाना उनका.  

3. फैशन- जब क़द्रदान ही गायब हैं तो कहाँ करें फैशन? इसके बिना जीवन एकदम जीरो बटा सन्नाटा है. स्टाइलिश कपडे वार्डरोब से अपनी आस्तीनें बाहर निकाल पहने जाने की भीख माँग रहे कि "आंटी जी, एक बार पहन लो!" हम तुनक गए. उसे तुरंत ही एक तमाचा मार झिड़का, "आंटी, किसको बोला बे? अब क्या बर्तन धोते हुए अनारकली सूट पहनूँ?" बस मारे गुस्सा के उस शेल्फ में अपना पर्सनल लॉकडाउन कर चार जोड़ी कपड़े निकाल बक्से पे धर लिये. अब उन्हीं में ज़िंदगी कट रही है, कटती ही जा रही है. चिंता यही कि ये लघुकथा कहीं हॉरर उपन्यास ही न बन जाए.

4. हेयर कट- अब इसने तो भई महान भोले पुरुषों को भी ऋषि-मुनि वाले युग में पहुँचा दिया है पर अपन उनकी बात क्यों करें! दिक्कत तो हम हुस्न की मल्लिकाओं की है जिनके तमाम हेयर स्टाइल अब मिक्स वेज़ का फ़ील दे रहे. काहे का स्टाइल बचा! बस दो फेंटा मारो और लग जाओ काम पर! हाय, उन गीतों का क्या जो इन परियों की सुंदरता में आसमान की घटाओं तक पहुँच जाते थे. चौदहवीं का चाँद बन सुहानी रातों में आकर हौले से छेड़ जाते थे. धत्त! अब लजवाओगे क्या!

5. फ़ूड- Eating Out याद है न! कहीं current ज़ख्म पर छोटा निम्बुड़ा निचुड़ा जैसा तो नहीं लग रहा न? अहाहा! वो भी क्या दिन थे जब पिज़्ज़ा हट में जाकर टन्न से घंटा बजाते मुस्कुराते निकलते थे, डोमिनोज़ में बैठ स्टाइलिश फोटो अपलोड करते थे. कभी किसी शानदार रेस्टोरेंट में इंडियन, ओरिएण्टल cuisine का मज़ा लेते थे. उस पर सोशल मीडिया में वो 'Having dinner at...' वाला कूल सा स्टेटस, इश्श! कैसे तन-बदन को रोमांचित कर देता था. गोलगप्पे के ठेले पर अपनी बारी का इंतज़ार और इस इंतज़ार के दौर में दिलवर की आँखों का प्यार. हाय, अब रो न देना कहीं!

इधर FM 'शीला की जवानी' सुना रहा है. हमें लग रहा कि "तेरे  हाथ न आनी!" कहकर हमें ही डायरेक्ट tease कर रहा. न जाने कब ये समां फिर सुहाना होगा! कब ये पाँचों सेक्सी चीज़ें हमारे जीवन में फिर से लौट आयेंगीं!
कष्ट असहनीय है और आज पहली बार हमें हमारे मोहल्ले की बूढ़ी काकी वाली बात एकदम सही लगी, "आग लगे, इस नासपीटी जवानी को!"  

"हाय रे ऐसे तरसे हमको, हो गए सौ अरसे रे/ सूखे दिल पे मेघा बन के,
तेरी नजरिया बरसे रे.." ये छेड़ना, फ़िकरे कसना, इश्क़िया अंदाज़, इतराना, फैशन, पार्टी, मौज- मस्ती सब गुम हैं. लेकिन इस काल ने इतना तो तय कर दिया है कि कूल और  सेक्सी होने का पहले वाला concept अब पुराना हुआ. सोच बदल रही. 
अब तो Mental peace ही sexiest है जी. जो इस दौर में भी शांति से जी पा रहा, मुस्कुरा रहा...उसके चरणों में साष्टांग दंडवत हो नमन कीजिये. लगे हाथों दो-चार गुर भी सीख लीजिये. बाक़ी तो जो है सो है ही. आज कुशल है, कल सबका मंगल भी होना तय है. भूलना मत, आज के दौर में 'धैर्य' और 'उम्मीद' भी सेक्सी शब्द हैं.
- प्रीति 'अज्ञात' 

सोमवार, 25 मई 2020

#कोरोना वायरस: लाशों पर से गहने चुराने वाले गिद्ध ही हैं


हाल ही में अहमदाबाद, गुजरात (Gujarat) में Covid-19 के मृतकों के परिजनों को उनकी मृत्यु के दुःख के साथ-साथ एक और दुःख भी झेलना पड़ा. वह है मृतकों के गहनों और मोबाइल की चोरी का. लाशों के गहने गायब हो जाने की यह खबर सहसा निशब्द कर देती है. जिस देश में मृतात्मा की शांति के लिए पूजा होती है और उन्हें हाथ जोड़, चरणस्पर्श कर श्रद्धांजलि दी जाती है. उन पर पुष्प अर्पित किये जाते हैं. वहाँ की ऐसी घटना अपराधियों के प्रति मन भीषण घृणा से भर देती है. आखिर ये किस तरह की मानसिकता के लोग हैं जो लाशों को भी नहीं बख्शते! निश्चित रूप से ये इंसानी शरीर में छुपे संवेदनहीन गिद्ध ही हैं जिन्हें केवल एक मरी हुई देह नज़र आती है. जिसे लूटने के लिए ये आँख गड़ाये तत्पर बैठे होते हैं. गिद्ध को क्या फर्क पड़ता है, किसी की मौत से. उसे कहाँ जानना होता है कि लाश बनने की वज़ह क्या है! उसे तो अपनी ख़ुराक़ से मतलब. 

चोरी को अंज़ाम कैसे दिया गया?
अहमदाबाद शहर इस समय बुरी तरह से कोरोना महामारी की चपेट में है. यहाँ पीड़ितों का आँकड़ा दस हजार (10,000) को पार कर चुका है. साथ ही साढ़े छः सौ( 650) से अधिक मौतों का स्याह मातम पसरा हुआ है. यहाँ इसी माह में कोविड अस्पताल से चार ऐसी ही चोरी के केसेस रिपोर्ट किये गए हैं.
इन चोरों का अपराध करने का तरीक़ा हैरान कर देता है. ये सिविल अस्पताल में पीपीई किट (PPE kit) पहनकर जाते थे. वैसे तो यह किट संक्रमण से खुद को बचाने के लिए होती है. लेकिन यहाँ चोरों ने इसे ख़ुद की पहचान मिटाने के लिए इस्तेमाल किया. शव सैनिटाइज करने के बहाने ये कोरोना (Coronavirus) से मरने वाले मरीजों के गहने उतार लेते थे. 
हम जानते हैं कि अधिकांश केसेस में  शवों को पूरी तरह से सील करके ही परिजनों के हवाले किया जाता है. इसलिए किसी को भी इस बात की भनक तक नहीं लगती थी. उस समय घरवालों की मानसिक स्थिति भी ऐसी नहीं होती कि इतना सब सोच सकें.
इस सन्दर्भ में शाहीबाग पुलिस ने दो युवकों की गिरफ़्तारी की है. प्राप्त जानकारी के अनुसार उन्होंने अपना जुर्म क़बूल लिया है.
 
घटना का ख़ुलासा कैसे हुआ?
स्थानीय निवासी शिवपूजन राजपूत जी ने बताया कि अस्पताल जाते समय उन्होंने ही अपनी वाइफ को इयररिंग्स पहने रहने को कहा था. उनकी मृत्यु होने के बाद वे एक अंतिम बार उन्हें देखना चाहते थे. तभी उन्होंने देखा कि उनकी पत्नी के 22,000 रु. कीमत के इयररिंग्स और मोबाइल फ़ोन गायब थे. ऐसा ही एक अन्य मृतक उमेश जी के साथ भी हुआ जिनकी मृत्यु के बाद उनकी टाइटन घडी और स्मार्टफोन गायब था. अस्पताल प्रशासन को समय रहते सूचित किया गया. उसके बाद हडकंप मच गया.
इंदौर, मध्यप्रदेश से भी ऐसी ही एक अमानवीय घटना की सूचना मिली है.

मानवता को शर्मसार करने का ये पहला किस्सा नहीं है! 
गुजरात भूकंप के समय भी यही हुआ था. उस दौरान ऐसे कई दिल दहलाने वाले मामले सामने आये थे, जब मलबों के नीचे दबी लाशों के कान और हाथ काटकर चूड़ियाँ एवं अन्य जेवरात चुरा लिए गए थे.
कोरोना महामारी ने एक बार फिर मनुष्य की असलियत का पर्दाफ़ाश कर दिया है. एक तरफ़ हम हमारे उन कोरोना वॉरियर्स को देख गर्व करते हैं जो जान हथेली पर रख पूरे जी-जान से मरीज़ों की सेवा करने और उन्हें बचाने में लगे हैं तो वहीं दूसरी और ऐसे घृणित, निर्लज्ज लोग भी हैं जो लाश तक को नहीं छोड़ते. ये मृतकों के शरीर से गहने लूट पूरी मानवता को शर्मसार कर देते हैं. अस्पताल में ये गुनाह करने वालों ने ठीक वैसा ही अपराध किया है जैसा आतंकवादी सैनिकों की वर्दी पहनकर करते आये हैं. 
देश भर में एक ओर जहाँ संक्रमण के डर से मरीजों के अंतिम संस्कार में उनके अपने घर वाले तक नहीं आ पा रहे हैं. दूर से ही अपने कलेजे पर पत्थर रख उन्हें अंतिम विदाई दे रहे हैं. ऐसे में इन चोरों के बेख़ौफ़ कृत्य पर क्या कहा जाए!
- प्रीति 'अज्ञात'

शनिवार, 23 मई 2020

#Lockdown crime: आम, इंसान, इंसानियत, ईमान, और बेइमान


लॉकडाउन (Lockdown) शहर से क्या हटा कि लगता है अब लोगों ने अपनी बुद्धि पर अलीगढ़ी ताले को ही डाल लिया है. सोशल डिस्टेंसिंग (Social distancing) का नियम तोड़ते बहुत से वीडियोज़, शहर-दर-शहर आम होने लगे हैं. बस 'आम' ही ख़ास है जो इस बार इंसानियत का ग़ुनहगार बन बैठा!' आम को देखते ही आम आदमी की नीयत फ़िसलने लगे तो क्या कहिए!
शर्म से डूबना ही होगा क्योंकि ये ग़रीब, लाचार, भूखे लोग नहीं हैं कि हमें इनकी मजबूरी पर तरस आये. यह दूध-दवाई जैसी आवश्यक वस्तुओं (Essential need) में भी नहीं आता कि इसके बिना जान पर बन आये और लूटना जरुरी-सा लगे. लेकिन फिर भी शहर की हवा लगते ही मानसिकता उसी पुराने ढर्रे पर लौट आई है. जब तक कोरोना वायरस (Corona Virus) के भय से सब घरों में क़ैद थे तब सिवाय Covid-19 के शायद ही कोई और ख़बर आती थी.

घटना दिल वालों की दिल्ली की है. जहाँ जगतपुरी इलाक़े में छोटे नामक एक फल-विक्रेता बहुत दिनों बाद अपने ठेले पर आम बेचने निकला था. कुछ लोगों ने आकर उसे ठेला हटाने को कहा. झगड़ा बढ़ा और ठेले पर से उसका ध्यान हट गया. इसी बीच आमों को यूँ खुले में बिना विक्रेता के देख राहगीरों ने बहती गंगा में हाथ धोने शुरू कर दिये. इस बंदर बाँट की हद देखिये कि हाथों में, थैले में, हेलमेट में, शर्ट, पेंट में जिसके जितने समाये..लेता चला गया. लगभग 30,000 रुपये के ये पंद्रह टोकरी आम कुछ ही समय में अमानवीय रूप से लूट लिए गए.
एक इंसान जो महीनों बाद कुछ कमाने की आशा लेकर घर से निकला होगा, उसकी बची-खुची कमाई भी उन लोगों ने लूट ली जिन्हें बस मुफ़्तख़ोरी का आनंद उठाना था. ये बिल्कुल भी भूख-प्यास से तड़पते लोग नहीं थे. ऐसा भी नहीं कि आमों का सीजन ख़त्म हो रहा हो और ये उसकी आख़िरी खेप हो. मास्क लगाए ये लोग लुटेरे ही हैं जिनके लिए मुफ़्त बिजली-पानी पर्याप्त नहीं. इनके लालच का कोई अंत ही नहीं! मास्क लगाए ये लोग लुटेरे ही हैं!

छोटे ने पुलिस में शिकायत दर्ज करा दी है. उसे और कुछ नहीं पर आश्वासन अवश्य मिल गया होगा. इसकी कड़ी निंदा तो हो सकती है पर जाँच होगी, मैं इस भ्रम को यहीं खारिज़ करना चाहूँगी. भीड़ के विरुद्ध कैसी और कितनी कार्यवाही होती आई है ये हम सबसे छिपा नहीं. हमने तो बड़ी-बड़ी घटनाओं और लूटों को देखा, सुना और सहज भाव से लील लिया है. उसके सामने यह घटना तो बहुत छोटी लगती है न! लोग हँसते हुए कहेंगे, आम खाना ग़ुनाह थोड़े ही है!
प्रायः बुरा समय इंसान को बेहतर, संवेदनशील और परिपक्व बनाता है इसलिए लगने लगा था कि चलो, इस कोरोना काल से बाहर निकलने के बाद सब कुछ अच्छा हो जायेगा. लोगों की मानसिकता में सुधार होगा और वे जीवन को नए ढंग से देखने-समझने लगेंगे. पर ये हम सबकी ग़लतफ़हमी ही है क्योंकि लॉक डाउन खुलते ही अन्य आपराधिक घटनाओं के ताजा समाचार आने शुरू हो गए हैं. लोग भूल रहे हैं कि जीवन और मृत्यु के बीच के महीन अंतर को समझाने वाला यह विषाणु (Virus) अभी दुनिया से गया नहीं है. हमारे आसपास ही है. मजबूरी ही मानिए कि बस हमने इसके साथ जीना शुरू कर दिया है. ऐसे जियेंगे?
- प्रीति 'अज्ञात'
#Mango #Mangoppl #Delhi #iChowk #Lockdowncrime
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गुरुवार, 21 मई 2020

'अंतरराष्ट्रीय चाय दिवस' और हमारा अपना 'किटली सर्कल'


यूँ तो अहमदाबाद की कई विशेषताएँ हैं लेकिन चूँकि आज 'अंतरराष्ट्रीय चाय दिवस' है तो क्यों न हमारे 'किटली सर्कल' की बात की जाए! यह विश्व का पहला किटली सर्कल है, जिसका उद्घाटन 15 सितंबर, 2014 को किया गया था. किटली की बात होगी तो चाय का ज़िक़्र तो होना ही है. और जब 'चाय पे चर्चा' हो तो माननीय मोदी जी को कैसे भूल सकते हैं. 

हम जानते हैं कि 2014 में आदरणीय मोदी जी ने लोकसभा चुनाव में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा था. इससे पहले वे एक लम्बे अरसे तक (2001- 2014) तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे. कहा जाता है कि उन्होंने अपनी युवावस्था में चाय बेची थी. लोगों की मानें तो उन्होंने किशोरावस्था में अहमदाबाद, गीता मंदिर इलाके में राज्य परिवहन डिपो में अपने चाचाजी की कैंटीन का प्रबंधन संभाला था. यह कुछ समय के लिए ही था लेकिन इस बात को आवश्यकता से अधिक ही प्रचारित किया गया. सम्भवतः यह उनकी जमीन से जुड़ी छवि को उभारने के लिए किया गया होगा. यह भी सिद्ध करना होगा कि कैसे एक 'चायवाला' गरीबी से उठकर उच्च राजनैतिक नेतृत्व की ओर बढ़ चला है. इसमें कोई बुराई भी नहीं थी क्योंकि यह छवि लोगों को उम्मीद देती है.कठिन समय से लड़ने की हिम्मत देती है. उन्हें अपनी क्षमताओं को बेहतर रूप से समझने और निरंतर बढ़ने को प्रेरित भी करती है. 

चाय हमेशा से ही भारतीयों को कनेक्ट करती रही है. यह एक ऐसा गर्म-तरल पेय है जिससे हर आदमी अपनी सुबह प्रारम्भ करता है. चाय अमीरी-ग़रीबी, ऊँच-नीच कुछ नहीं तौलती और सबकी स्वाद इन्द्रियों को समान सुख देती है. सबकी थकान इसका पहला घूँट भरते ही उतरने लगती है और चेहरा खिल उठता है.

उन दिनों मोदीजी के लिए 'चाय पे चर्चा' सबसे happening topic था. यह लोगों को आनंदित करता था और अपना सा भी लगता था. वडनगर रेलवे स्टेशन से इस चर्चा की शुरुआत की गई थी. तो इस 'किटली सर्कल' की संकल्पना भी उन्हीं दिनों में हुई. अब तो इस नाम के कई टी-जंक्शन भी शहर में बन चुके हैं.
अहमदाबाद के एक प्रमुख ट्रैफिक जंक्शन अख़बार नगर सर्कल में, आग की लपटों से घिरे केतली के इस विशाल एवं प्रभावशाली मॉडल को देखा जा सकता है. इसे 2014 में 'सिल्वर ओक कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी' द्वारा बनाया गया था.

हम जानते हैं कि यह एक मॉडल है पर कमी निकालने वालों ने इसे भी नहीं छोड़ा. उनका सोचना है कि पहली नज़र में इसे देखकर यक़ीन हो जाता है कि यह चाय पहुंचाएगा लेकिन ध्यान से देखने पर धोखे का अहसास होने लगता है. असल में इसकी डिजाइन के साथ समस्या है क्योंकि हैंडल इतना जुड़ा हुआ है कि चाय डालने के लिए केतली को नहीं झुकाया जा सकता है. पर सोचने वाली बात ये भी है कि इन कुतर्कों का मतलब क्या है! आप हवाई जहाज़ के मॉडल को देखें और फिर उम्मीद रखें कि ये आपको दिल्ली पहुँचा दे तो वह समझदारी नहीं, निरी मूर्खता ही लगती है.

हमें तो चाय पर फ़ोकस करना चाहिए जो कि न केवल हमारे जीवन का अंग है बल्कि इसमें कई मीठे रंग भी घोलती है. कितने किस्से हैं जो चाय के पहले सिप के साथ जन्म लेते हैं. कितनी बातें हैं जो एक कप को थामे चलती हैं. और फिर कुछ ख़ूबसूरत रिश्तों का जन्म होता है जो चलते हैं उम्र भर, जैसे कि हमारी चाय. जब तक ज़मीं है, आसमां है, हवा है, पानी है...तब तक चाय है और इससे जुड़ी हजारों कहानी हैं.
- प्रीति 'अज्ञात'
#InternationalTeaDay #अंतरराष्ट्रीयचायदिवस #iChowk #Ahmedabad #Kitlicircle
Photo: Google

शनिवार, 16 मई 2020

'हम मोदी को मारेंगे' कहने वाले बच्चे के दिमाग में ज़हर किसने घोला है?


हाल ही में एक वीडियो वायरल हुआ है जिसमें Covid-19 के संक्रमण से मुक्त हुए कुछ मरीज़ हॉस्पिटल से डिस्चार्ज होने के बाद फोटो क्लिक करवा रहे हैं कि अचानक एक बच्चे की आवाज़ आपको चौंका देती है जिसमें वह सीधे-सीधे कह रहा है कि 'हम मोदी को मारेंगे!'
बच्चे के मुँह से निकली यह बात नादानी तो क़तई नहीं मानी जा सकती क्योंकि यह कोई सुनी-सुनाई गाली नहीं कि बच्चे ने घर में सुनी और मासूमियत में बोल दी. बल्कि यह पूरा वाक्य आपको ये बताता है कि बच्चे की कंडीशनिंग कैसे हो रही. यह उसके मौलिक विचार भी नहीं हो सकते अतः यहाँ बात upbringing और एजुकेशन की भी है.
बचपन अच्छी शिक्षा, प्यार, दुलार और संस्कार की माँग करता हैं, उसके उचित प्रकार से पल्लवित होने की यह पहली शर्त है. सही राह, उचित भाषा, सभ्यता और शिष्टता सीखने-समझने के लिए ग़रीबी-अमीरी, सुख-सुविधा के कोई पैमाने नहीं होते. यदि आप दूसरों का सम्मान करेंगे तो क्या मज़ाल कि बच्चा किसी का यूँ अपमान कर दे!  

ऐसे में विचारणीय है कि कौन हैं वे लोग जो इस प्रवृत्ति की न केवल सोच रखते हैं बल्कि उसे बढ़ावा दे नन्हे बचपन की जड़ों को उससे सींच भी रहे हैं. क्या इस बात को समझने में कहीं कोई भी संदेह रह जाता है कि ये बच्चा बड़ा हो कर किस दिशा में जाएगा, क्या करेगा और क्या बनेगा!
बिना कारण और बिना किसी तर्क के भला कोई ऐसा कैसे बोल सकता है? इसके पीछे कहीं कुछ तो ख़तरनाक खेल चल रहा होगा. यह हम सबके लिए एक चेतावनी है जिसे समय रहते समझना होगा. वरना यह ज़हर कब पूरे वृक्ष में फ़ैल उसे नष्ट कर देगा, कोई नहीं जानता.

हद है! आख़िर देश के प्रधानमंत्री के लिए इतनी ज़हरीली सोच कोई कैसे रख सकता है? क्यों रखेगा? वे सही-गलत हो सकते हैं पर देश के दुश्मन तो नहीं हैं न. सबका काम करने का अपना एक तरीक़ा होता है जिससे असहमति और विरोध अपनी जगह है लेकिन उनके पद की गरिमा और मर्यादा का पूरा ख़्याल रखा जाना चाहिए. यदि आप किसी की नीतियों से असहमत हैं तो निश्चित रूप से अपना विरोध दर्ज़ करा सकते हैं. प्रजातंत्र ने हमें यह अधिकार प्रारम्भ से दे रखा है. लेकिन, ऐसा करने के लिए एक बच्चे का इस्तेमाल दुर्भाग्यपूर्ण औेर डराने वाला है. 

मैं स्वयं इस बात में विश्वास रखती हूँ कि यदि कुछ गलत लगता है तो ये हमारा दायित्त्व है कि हम सच के साथ खड़े होकर पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी बात कहें. सुधार की गुंजाइश हमेशा होती है और पुनर्मूल्यांकन ही विकास को बेहतर गति एवं दिशा देता है. समाज के लिए चिंतन जरुरी भी है लेकिन भद्दी भाषा, गाली-गलौज़ या उसका समर्थन इस उद्देश्य की पूर्ति करने की बजाय आपको अपराधियों की श्रेणी में ला खड़ा कर देता है.
मैं यहाँ यह भी जोड़ना चाहूँगी कि बात देश के प्रधानमंत्री के कारण ही शोचनीय नहीं है बल्कि यह किसी के लिए भी कही गई होती तब भी इसमें भरी नफरत उतनी ही चिंताजनक और निंदनीय है.
 
हो सकता है कि आप इस विषय पर हँस जाएँ या यूँ कह हाथ झाड़ दें कि "अरे, यह तो बच्चा है. इसे इतनी गंभीरता से क्यों लेना. कौन सा मार ही देगा!" दुर्भाग्य से ठीक यही हँसी मेरी चिंता का विषय भी है क्योंकि मैं इसे आने वाले कल में दुष्परिणाम के रूप में देख रही हूँ. इसे गंभीरता से ही लिया जाना चाहिए और इस मामले की तह तक जाना चाहिए कि आख़िर ये चल क्या रहा है? यह सोच कैसे विकसित हुई? समय रहते हमें इन प्रश्नों के उत्तर ढूँढने ही होंगे -
* बच्चों का हृदय बेहद कोमल होता है, आख़िर उनकी इस कोमलता को छीन उसे क्रूरता और हिंसा में कौन परिवर्तित कर रहा है?  
* इस समय जबकि देश विषम परिस्थितियों से गुज़र रहा है, ऐसे में विष की खेती करने वाले वे कौन लोग हैं जो बच्चों के दिमाग को हथियार की तरह इस्तेमाल कर उसे दूषित विचारधारा से ग्रसित कर  अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं?
* कुछ दिन पहले बॉयज/ गर्ल्स लॉकर रूम के ख़ुलासे ने भी यही प्रश्न खड़े किये थे कि बच्चों का संसार खिलने से पहले ही विकृत क्यों होता जा रहा है? उन्हें हिंसा/ हिंसक बातें सहज क्यों लगने लगी हैं?

यह प्रश्न केवल मोदी जी या किसी दल से जुड़ा नहीं है बल्कि देश की एकता, अखंडता और अस्मिता भी दांव पर है. इसलिए यदि आप आदरणीय मोदी जी के विरोधी हैं तब भी इस घटना से आपको प्रसन्न नहीं होना चाहिए और यदि यह किसी पोषित विचारधारा का हिस्सा है तो इसका खुलकर विरोध करना चाहिए क्योंकि जो बात किसी एक बच्चे ने अनायास ही कह डाली वो न जाने कितनों के दिमाग में कूट-कूटकर भर दी गई होगी.
यह घटना उदास करती है, विचलित करती है, चिंतित करती है और नई पीढ़ी के प्रति आश्वस्ति पर प्रश्नचिह्न भी लगाती है पर हमें निराश नहीं होना है. कुछ पल ठहरिये, सोचिये, मनन कीजिये. अपने आसपास के माहौल पर नज़र रखिये और जहाँ भी ऐसी मानसिकता से लबरेज़ कोई बच्चा मिले तो उससे बात कीजिये. आवश्यकता हो तो उसे सुधार-गृह भेजें. बच्चे कच्ची माटी सरीखे होते हैं जो जैसा गढ़ दे. इसलिए उन्हें उचित सांचे में ढालना इस समय की पुकार है. ये उनके भविष्य और देश के वर्तमान का भी सवाल है.
- प्रीति 'अज्ञात'
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शुक्रवार, 15 मई 2020

आप दिल में आते हैं, समझ में नहीं!


तो जी, हर बार की तरह इस बार भी हम सबके प्रिय मोदी जी की स्पीच दिल लुभाने वाली रही. कई लोगों ने इसे रिकॉर्ड कर बार-बार सुना और इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा भी की. हमारा नाम उनमें प्रमुख है. अब संक्रमण काल में यही तो मन लगाने और जीने का एकमात्र सहारा हैं, बाक़ी इस नीरस जीवन में रक्खा ही क्या है! इसी अद्भुत सोच के साथ शुभ ग्यारह बिंदु हमने भी सत्यापित किये हैं, ग़ौर कीजियेगा -

1. वैसे तो मुझ नासमझ को आपदा को 'अवसर' कहना संवेदनहीन लगा था पर अब जब आपने कहा है तो अवश्य ही कोई अच्छा पॉइंट भी मिल ही जाएगा. हेहेहे, अपने प्रिय भक्तजनों ने तो थीसिस ही लिख डाली होगी न! उसे ही घोंट मन को समझा लेंगे. जबसे हमारे जानूं ने हमें बताया कि बड़े निर्मल मन होते हैं भक्तों के, तबसे हमारे मन में भी एक सॉफ्ट कॉर्नर डेवलॅप होना शुरू हो चुका है. अब इश्क़ क्या न करवाए!
लेकिन ये PPE किट वाला उदाहरण नहीं जमा था हमें क्योंकि ये अवसर नहीं समय की माँग है, मजबूरी है भैये. बताइये, क्या लाशों को देख़ क़फ़न बनाने वाले ख़ुश होते होंगे!

2 . 'वसुधैव कुटुम्बकम' की बात तो अपन भी वर्षों से कर रहे पर हम तुच्छ टाइप लोगों की बातों को कोई भैल्यू ही नहीं देता! उसपे बीच-बीच में ट्रम्प अंकल का गुस्सा और पाकिस्तान आ जाता है. अब दुनिया एक कैसे हो! बहुत परेशानी है! लेकिन एक बात से हम अत्यधिक कन्फ्यूज़िया गए हैं कि आपकी ये वाली बात मानें या  'स्वदेशी' (बोले तो make in India) वाली? स्पष्ट कीजिये न कि आप ग्लोबलाइज़ेशन के पक्ष में हैं कि विपक्ष में? या अवसर के हिसाब से तय करना चाहिए? प्लीज, बताइये फिर हम भी आपके जैसे बनने की कोशिश करेंगे. 
 
3. आत्मनिर्भर वाली बात भी बड़ी जोरदार थी. अरे, जरा कहिये तो अब तक किसके भरोसे जिनगी चल रही हम गृहिणियों की?  घर के सारे काम मसलन झाड़ू, पोंछा, बर्तन करने वाली बेन, धोबिन, स्वीपर, मालिन, कुक, टीचर सब हम ही हैं. ये तो बस ट्रेलर है इसके अलावा सौ और भी घरेलू काम हैं जैसे पंखे साफ़ करना, बाथरूम धोना, कपड़े फोल्ड करना, आयरन करना, सबकी फ़रमाइशें पूरी करना और रोज़ सबेरे सबेरे माथा पकड़ बैठ यह सोचना कि आज ख़ाने में क्या बनाएँ. ये मल्टीटास्किंग सदियों से करे जा रहे हैं. थोड़ी सी जमीन दिला दीजिए तो खेती-बाड़ी कर अपनी पसंद की सब्ज़ियाँ भी उगा लेंगे. वहीं खेत में कहीं एक कुँआ खोद अपने पानी की व्यवस्था भी हो जाएगी. एक महान बात और, इसका हमको कोई वेतन नहीं मिल रहा, लेकिन मलाल भी नहीं करेंगे क्योंकि अगर ऐसे मलाल करने लगते तो जाने कबके काल के गाल में पैक हो जाते! मॉरल ऑफ़ द स्टोरी कि हम इस शब्द का अर्थ समझते हैं. अब और कितने आत्मनिर्भर और देशप्रेमी बनें जी? 

4. हर बार की तरह इस बार भी सबसे 'कूल' हमें आपका श्लोक बोलना लगा. भारतीय संस्कृति की अनुपम एवं भव्य तस्वीर आँखों में तैरने लगती है. एक राज़ की बात बताएं कि हम तो संस्कृत सीख ही इसलिए रहे जिससे श्लोक के अर्थ समझ सकें और कभी ईश्वर ने चाहा तो इस देवभाषा में आपसे गुफ़्तगू कर सकें!

5. लीजिए अभी याद आया कि आपकी इस बात पर हमें बहुत हँसी आई थी कि "खुले मैं शौच से मुक्त होने पर दुनिया की तस्वीर बदलेगी" हाहा, तुसी बड़े मज़ाकिया हो! दुनिया की काहे अपने देश की ही तो तस्वीर बदलेगी. स्वच्छ खेतों में बिना गंदगी से डरे आसानी से चल सकेंगे. हाँ, लोटों की बिक्री पर इसका दुष्प्रभाव पड़ सकता है.

6. कोरोना में क्या करना चाहिए, क्या जरूरी है, बताने का हार्दिक आभार! वैसे ये तो बच्चा-बच्चा भी जानता है पर करेगा कौन महाराज! तनिक इस पर रोशनी का एक बिंदु भी प्रक्षेपित होता तो क्या बात थी!

7. जब 18वें मिनट पर अहम कड़ी आई तब एकबारगी तो हमें लगा, "हैं कहीं ये वहम तो नहीं!" बीस लाख करोड़ सुनते ही हम मूर्छितावस्था को प्राप्त होने लगे और सुबह होने तक जीरो ही नहीं गिन पाए. बीच में एक इम्पोर्टेन्ट सपना भी आ गया था लेकिन आपने जब इस आँकड़े से सम्बल मिलने की बात की तो आकस्मिक रूप से हमें ट्रेन में बंद होने वाले कम्बल का दुख छेड़ने लगा. पर हमने उसे समझा दिया कि आज सम्बल मिला है तो कल कम्बल भी अवश्य आयेगा.  

8. आपकी जिस बात ने हमारा दिल जीत लिया वो ये कि "भारत बहुत अच्छा कर सकता है." हम भी बिलकुल यही मानते हैं. भूकम्प के समय कच्छ की हालत और फिर कुछ ठान लेने वाला किस्सा भी प्रेरक रहा. उसके ज़िक्र की यहाँ अत्यधिक आवश्यकता थी. शुक्रिया. 

9. 'लोकल पे वोकल' वाली लाइन भी मारक रही और हमें हमारे शहर के बहुत सारे रेहड़ी वाले, मोची, टेलर काका, सुबह 8 बजे चौराहे पर रोटी के इंतज़ाम में खड़े श्रमिक सब याद आ गए. इनमें से कुछ लोग तो चले गए. कोई शहर से, तो कोई इस दुनिया से ही. उन पर कोई इस अदा से कभी वोकल हुआ ही न था पहले कभी. सुनते तो भी ये लोग शायद ख़ुशी से ही मर जाते. मन भावुक है हमारा जिसे आपका संवेदनशील हृदय भी खूब समझता है.

10. इकोनॉमी, इंफ्रास्ट्रक्चर, सिस्टम, डेमोग्राफी और डिमांड ये 5 पिलर वाली बात सुन पहले तो हम चकरा ही गए कि कहीं किसी दुष्ट विपक्षी ने लाल किले वाली स्क्रिप्ट तो न बदल दी! पर थोड़ी देर बाद इसका 'कोरोना कनेक्शन' समझ आ गया. अब जिनको न समझा 'लेट्स इग्नोर दैम'. 

11.कुछ लोग कह रहे कि 'आप दिल में आते हैं, समझ में नहीं' क्योंकि समझने के लिए जो दिमाग चाहिए होता है न! उसका इन दिनों थोड़ा सा अभाव चल रहा है उनमें. खैर, हम तो आपके कट्टर प्रशंसक हैं तो जो भी कहेंगे सच ही कहेंगे. क्या करें, हमारा दिल ही कुछ ऐसा है.  बहुत से लोग हम पर हर बात में रायता फैलाने का आरोप लगाते हैं. लेकिन अब हमें पूरी उम्मीद है कि वे ऐसा नहीं कहेंगे. वो कहते हैं न -
      रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब' 
      कहते हैं अगले ज़माने में कोई 'मीर' भी था   
- प्रीति 'अज्ञात'    #latepost 

#Modiji #PM@8PM

गुरुवार, 14 मई 2020

#Lockdown को हम दिल दे चुके सनम!

आज जबसे माननीय के 8 बजे आगमन की सुखद सूचना प्राप्त हुई है तब से हमारी बेचैनियाँ और बेताबियाँ  कुछ इस तरह मचल रही हैं जैसे भीषण गर्मी में त्रस्त मगर अनायास ही पानी से मुँह बाहर निकाल लिया करते हैं. इस व्याकुलता को आगे बढ़ाने से पहले मोदी जी हम तो आपसे एक करबद्ध निवेदन कर डालना चाहते हैं कि आप तो इस लॉक डाउन को मूर्त रूप दे इससे हमारा बियाह ही रचा दो. अब हम इस रिश्ते को वैध एवं औपचारिक रूप से मान्यता देने का पक्का मन बना लिये हैं. अब 'मन की बात' तो आप ख़ूब समझते ही हैं न! एक बार बियाह हो जाए तो अपन भी दिल पे पत्थर रख यह सोच इसे निभा लेंगे कि भैया! अरेंज मैरिज़ में तो समझौते करने ही पड़ते हैं.

सौ बात की एक बात ये है जी कि अब हम और हमारे  लॉक डाउन के बीच आप लवगुरु बन के न रहें, तो भी चलेगा! वो क्या है न कि इतने दिनों में इसे हम इतनी अच्छी तरह जान चुके हैं कि जन्म-जन्मांतर का सा रिश्ता लगने लगा है. सड़क, मल्टीप्लेक्स, दुकानें, सब्ज़ियाँ क्या होती हैं और जानवर आजकल क्यों इतने चौड़ाकर चल रहे वो भी इसने हमें सिखा ही दिया है. और हाँ, ज़बर मोहब्बत भी हो गई है इससे हमें! तो लॉक डाउन को ही हमने अपना वर मान लिया है. उसपे इत्तिफ़ाक़ से बालिग़ भी हैं, अपना भला-बुरा ख़ूब समझते हैं तो अब समझाने को बचा क्या?

हम आपका दिल से सम्मान करते हैं जी, इसलिए अपना समझ ही सूत्रों से प्राप्त ये अंदर की बात बता रहे, प्लीज! बुरा मत मान जाईयेगा! लेकिन सच्चाई तो ये है कि आप जब कुछ कहने की सोचते हैं न तो हमें संयुक्त परिवार में दरवाज़े पर बैठे वे बुज़ुर्ग याद आते हैं जो सबको बुला-बुलाकर हर बात समझाते हैं, और हिदायतें देना कभी नहीं भूलते. अब शुरू में तो बेटे-बहुयें मुंडी नीची करकर सब सुन लेते हैं तत्पश्चात चरण स्पर्श कर धन्य महसूस करना भी नहीं भूलते! पर जब जे रोज़-रोज़ होन लग जाय न! तो बे बिचारे बचके दूसरे रास्ते से निकलन लग जात हैं. उसमें बेज़्जती बाली कोनऊ बात नाहिं! बस जेई है कि बच्चन को सब पता होत है कि जे का बोलबे वारे हैं. बैसे बच्चा लोग सम्मान तो बड़न को भौतई जादा कत्त हैं. औरन की का कहें हमई जब अपने बच्चा को एक ही स्टोरी अलग-अलग स्टाइल में तीसरी बार सुनाना शुरू करते हैं तो वे ऐसे नौ-दो-ग्यारह होते हैं जैसे गधे के सिर से सींग! ज़माना अच्छा थोड़े न आजकल! पर आप हो न जी, तो हमको पूरा विश्वास है कि अच्छे दिन तो अब आयेंगे ही आयेंगे! बचके कहाँ जायेंगे!

दुनिया ग़वाह है, हम तो आपकी हर बात ईश्वर की आवाज़ समझ ही मानते आ रहे. नोटबंदी-फोटबंदी तो पुरानी बात, आप तो हमरा करेंट परफॉर्मेंस देखो जी -
हमने थाली बजाई क्योंकि मोदी जी ने कहा. 
हमने दीप प्रज्ज्वलित किया क्योंकि मोदी जी ने कहा. 
हम फ़ूलों की बारिश से बावले हुए और दारू की दीवानगी तो ख़ैर आपने भी देखी ही होगी. पर हम नहीं पीते हैं जी!
वो अलग बात है कि इस चक्कर में हम असल दुश्मन कोरोना वायरस से ही लड़ना भूल गए. अपन भारतीयों की भावनाओं में बहकर थोड़ा ओवरएक्टिंग करने की पुरानी आदत है तो आपके आदेश को फॉलो करते समय भोले मानस तनिक मिस्टेकिया गए थे. आपने माफ़ कर दिया क्योंकि आपका दिल बहुत बड़ा है.

बस, इसी बड़े दिल की ख़ातिर अब हमें हमारे लॉक डाउन के साथ चैन से गुज़र बसर करने दीजिये! आप भी चिल्ल मारिये. दिल करे तो बाक़ी मुद्दे देखिये जी, ये वाला तो हम सँभाल लेंगे.
आज आपका जो भी आदेश होगा, उसके लिए हमें कुछ नहीं कहना क्योंकि वो तो सबको स्वीकार्य होगा ही! पर वैसे हमारा हृदयतल से यह मानना है कि "जोशी पड़ोस कुछ भी बोले/  हम कुछ नईं बोलेगा/ हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है!"
सादर  नमन, अभिनन्दन 
- प्रीति 'अज्ञात'
https://www.ichowk.in/humour/lockdown-4-0-pm-modi-speech-today-why-we-need-to-accept-this-lockdown-extension-and-its-aftereffects/story/1/17512.html
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सोमवार, 11 मई 2020

अब पूरा देश ट्रैफिक सिग्नल है!

     

इस Covid-19
 वायरस ने देश की तस्वीर बदल दी है. राज्यों, शहरों, नगरों, मोहल्लों की अपनी मूल परिभाषायें और पहचान बदल चुकी हैं. कोई किसी से उसका ठिकाना नहीं पूछता, बस यही जानना चाहता है कि आप किस ज़ोन में हो! रेड, यलो या ऑरेंज? उत्तर के आधार पर बेचैनी के पैमाने तय होते हैं. मुस्कान की लंबाई मापी जाती है. इन तीन रंगों ने देश को एक ट्रैफिक सिग्नल में बदल दिया है जहाँ रोशनी के बदलते रंगों के साथ जीवन की गति तय होती है. अच्छा है कि रंगों की यही मिश्रित पहचान रहे. इस संक्रमण काल ने हर रंग से प्रेम करना सिखा दिया है और जीवन मूल्यों को भी नए एवं व्यापक आयाम दिए हैं.

हमारे तिरंगे ने रंगों को जिस ख़ूबसूरती से पिरो रखा है, असल में वही तो भारत का सच है और वे लोग जो ट्रैफिक सिग्नल पर धैर्यपूर्वक रुके अपनी बारी की प्रतीक्षा में हैं वही सच्ची भारतीयता के समर्थक हैं. वे इस बात में पूरा यक़ीन रखते हैं कि उनका नम्बर भी आएगा. इस संकट में मुझ जैसी गृहिणियों को तिरंगे के और अर्थ भी समझ आने लगे हैं. केसरिया मुझे सारे सिट्रस फ्रूट्स की याद दिलाता है जिसका सेवन इन दिनों आवश्यक हैं और हरा ख़ेतों में लगी उन हरी सब्ज़ियों की ओर खींच ले जाता है जो हमारी थाली की रौनक़ बनाये रखती हैं. ये जो सफ़ेद है न, वो दूध है, दही है, पनीर है, खीर है. बीच के चक्र की ये चौबीस तीलियाँ दिन के चौबीस घंटे हैं जहाँ हमें अपनी रसोई कई बार दिखाई देती है. कुल मिलाकर ये ध्वज ही हमारे जीवन का संचालनकर्ता है. तभी तो इसे देख हम सारे दुःख भूल इसको शीश नवाते हैं और इसकी झलक भर भी रूह में उतर भाववि
ह्वल कर जाती है.

अपने-अपने झंडे चुन लेने और दूसरे रंगों से घृणा करने वाले लोग मुझे कभी पसंद नहीं आए क्योंकि ये सिवाय अपने और किसी के सगे कभी नहीं हो सकते! इसलिए हमें इन तीन बत्तियों को और अधिक मान देना तथा जीवन में आत्मसात करना भी सीखना होगा कि जब लाल हो तो रुकना है, पीली पर थोड़ी सावधानी और हरी होते ही चल पड़ना है. इनका ध्यान न रखने पर जान गंवाने का ख़तरा उतना ही है जितना कोरोना काल के zone संबंधी नियमों को तोड़ने पर हो सकता है. जीवन का मोल इस महामारी के गुज़र जाने के बाद भी कम नहीं होना चाहिए.

रंगों की बात जब चल ही निकली है तो एक बात और बताती चलूँ कि ये जो लाल रंग है न! वो प्रेम का है, गुलाब की जादुई महक़ होती है इसमें
. इसकी जो ये मधुर इठलाहट है न वो हरी पत्तियों की गोदी में बैठकर ही खिलती है, उन्हीं का दुलार इसमें ख़ुशबू भर देता है. हमें  माटी की वो सौंधी सुगंध भी याद रखनी है जो पौधों को पानी देते समय मन प्रफुल्लित कर देती है. जीवन गुलाब का पौधा ही तो है, काँटे संग फूल भी!
रंगों के मिश्रित अर्थ ही हमारी जान हैं और फिलहाल अपनी अपनी zone में रहकर इनके बदलने की प्रतीक्षा करना हमारी नियति बन चुकी है. रेड ज़ोन को थोड़ा धैर्य से काम लेना है, ऑरेंज को पूरी सावधानी से चलना है और ग्रीन को भी कोई नियम भूलना नहीं है.
न जाने क्यों,अचानक से ट्रैफिक सिग्नल के प्रति एक श्रद्धा सी जाग उठी है.
- प्रीति 'अज्ञात'
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Photo Credit: Google

शनिवार, 9 मई 2020

#बॉयज /गर्ल्स लॉकर रूम: 13 से 18 वर्ष तक के बच्चों को यह 'कूल' क्यों लग रहा?

#बॉयज /गर्ल्स लॉकर रूम: यदि आप अभी शरमाए तो किसी दिन अपने बच्चे की हरक़त के कारण शर्मिंदा भी हो सकते हैं!

एक समय था जब परिवार के साथ फ़िल्म देखने जाते और सिनेमा के पर्दे पर जैसे ही दो फूल टकराते कि बच्चे नज़रें झुका लिया करते थे. घर में टीवी देख रहे हों और अचानक लिरिल, माला-डी या निरोध का विज्ञापन आ जाए तो अचानक से ही कोई बात करना शुरू कर देता जिससे कि टीवी की तरफ किसी का ध्यान ही न जाए. कोई बेडरूम सीन आ गया तो संकोच में यूँ धंस जाते कि सीधा धरती फटे और अपन इसमें समा जाएँ.
स्कूल की बात करें तो वहां प्रेम व्रेम का तो कांसेप्ट ही नहीं था, सब भैया दीदी होते. कोई अच्छा भी लगता तो बस उसे नोट्स दे देना ही इज़हार, इक़रार समझ लो और बात ख़त्म भी यहीं हो जाती थी. कॉलेज में दो नामों के बीच में प्लस लिखकर समीकरण बनते जैसे दीपिका + रणवीर, जिन्हें चॉक़ से बेंच पर लिख लड़की को छेड़ा जाता और फिर जब लड़की कॉलेज आती तो ये देख बुक्का फाड़ के रोती. यही छेड़खानी का उच्चतम लेवल होता. कुछेक रेयर केसेस होते थे पर सामान्यतः यही था. गालियाँ देने वाले छात्र भी होते थे पर उन्हें गन्दा/बुरा लड़का मान कोई उनसे दोस्ती न करता, जो करते वो या तो उन जैसे ही होते थे या फिर डर के कारण उनके दोस्त बन जाते थे.
सेनेटरी नैपकिन तक छुपाकर खरीदे जाते थे. रेप, सेक्स जैसे शब्द तो किसी की ज़बान पर भी आयें तो वो कटकर गिर जाए. अब आप इसे संस्कार समझें या पिछड़ापन पर तब ऐसा ही था और उस समय के लोग अब भी ऐसे ही हैं. सेक्स एजुकेशन तब भी नहीं थी.

अब 2020 को देखिये. पिद्दी से बच्चों को प्यार हो रहा है. मिडिल स्कूल में आते-आते दो तीन ब्रेकअप हो जाते हैं. इश्क़ समझने से पहले ही छात्रों ने अपनी और दूसरे पक्ष की तबाही के हथियार भी थाम लिए हैं. यौन कुंठा से ग्रस्त ये नई पीढ़ी के बच्चे जमकर पोर्न देख रहे हैं, बलात्कार की प्लानिंग करते हैं, लड़कियों की आपत्तिजनक फ़ोटो शेयर करते हैं. लड़कियाँ भी इस दौड़ में कहाँ पीछे हैं जितनी भी अश्लील और अभद्र भाषा का प्रयोग संभव है वे भी बराबर कर रही हैं. अपनी इसी कुंठा, यौन इच्छाओं और विकृत मानसिकता को एक जगह सँभालकर रखने के लिए इन सबने अपना-अपना इंस्टाग्राम समूह बनाया और इसे बॉयज /गर्ल्स लॉकर रूम का नाम दे दिया.
यहाँ लड़के किस हद तक गए और लड़कियाँ किस हद तक.....इस तुलना के कोई मायने नहीं हैं क्योंकि अपराध, अपराध ही होता है. सोचने वाली बात यह है कि इन 13 से 18 वर्ष तक के बच्चों को यह 'कूल' क्यों लग रहा? हो सकता है इन्हें 'बच्चा' शब्द पर भी आपत्ति हो क्योंकि इनकी हरक़तें तो बड़े-बड़ों को भी शर्मिंदा कर दें. 
इस पूरी घटना के और पहलू भी हैं-

कुछ लोग कहते हैं कि क्या लॉकर रूम की ख़बर पब्लिक में आना जरुरी थी?
बिल्कुल जरुरी थी क्योंकि अभी तो यह शुरुआत थी, पता न चलता तो इनकी हिम्मत और भी बढ़ सकती थी. न जाने कितने बच्चे इसे 'कूल' समझकर अनजाने में इससे जुड़ फूल बन सकते थे और फिर उनकी जो मानसिकता होती, उसकी कल्पना कर पाना भी सिहरा देता है. लेकिन इन बच्चों के नाम पब्लिक करने व उसकी तस्वीर शेयर करने से भी कहीं ज्यादा जरुरी है कि इनकी काउंसलिंग की जाए और दण्डित भी. 

दोषी कौन?
इस बात के लिए माता-पिता या मोबाइल ही दोषी हैं? यह बात पूरी तरह से सही नहीं ठहराई जा सकती. अपने आसपास देखिये हर कोई सहज भाव से गाली दे रहा. आज की युवा होती पीढ़ी हो या स्टैंड अप कॉमेडियन सब माँ-बहिन की गाली दिए बिना जोक ही नहीं सुना पाते. फ़िल्में और क़िताबें तक इनसे अछूती नहीं रहीं. पॉपुलर भी वही अधिक होतीं. बोल्डनेस और वल्गरनेस के बीच अब कोई अन्तर नहीं रह गया है. रेप के वीडियो सबसे ज्यादा देखे जाने लगे हैं. इस पर चुटकुले तैयार होते हैं, स्त्रियों को कमतर आँकने वाले हजारों जोक्स तो हम और आप जैसे लोग भी मुस्कुराते हुए फॉरवर्ड कर देते हैं. हर जगह द्विअर्थी भाषा है और netflix तथा अन्य वेब माध्यम से अश्लीलता जमकर परोसी जा रही. हर चैनल पर एंकर होस्ट के प्रेम में पड़े होने का नाटक करता है या किसी न किसी रूप में प्रेम को भौंडेपन के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है. क्या ये बस हम और आप ही देख रहे हैं? नहीं, ये बच्चे भी वही देख रहे हैं और जब हम इस पर ताली बजा हँसते हैं न, तो वे इसे सही मानने लगते हैं. स्वयं इनसेंसिटिव होकर हम सबसे सेंसिटिव होने की उम्मीद कैसे रख सकते हैं?
 
माता-पिता का काम है, बच्चों को सही शिक्षा देना और उचित राह दिखाना. उसके बाद चलना बच्चों को ही है. हाँ, पेरेंट्स का इतना दायित्व तो बनता ही है कि वे अपने बच्चों से ऐसी  बॉन्डिंग बनाकर रखें कि बच्चे अपनी हर बात, फ़्रस्ट्रेशन, परेशानियाँ उनसे साझा कर सकें. हम ये मानकर उनको इग्नोर नहीं कर सकते कि अरे, ये तो बच्चा है, इसको क्या तनाव हो सकता है! बच्चे स्कूल जाने से लेकर, घर लौटने तक एक अलग दुनिया में होते हैं. उस दुनिया के लोगों की सोच, व्यवहार एवं प्रतिक्रिया प्यार भरी ही हो, ऐसा नहीं होता! ये बातें जब वो साझा करना चाहे तो किससे करे? हमें ही तो उनका सपोर्ट सिस्टम बनना होगा. पेरेंट्स के साथ ट्रांसपेरेंसी होगी तो बच्चा खुद ही ऐसे ग्रुप्स की बात उन्हें बता देगा.
मोबाइल आज के जीवन की महत्वपूर्ण आवश्यकता है. सुरक्षा के लिहाज़ से भी इसकी महत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता. हम बच्चों से कहेंगे कि फेसबुक पर न जाओ, फेक लोग हैं. तो वह ट्विटर पर जाएगा, वहां नहीं तो इंस्टाग्राम पर. कुछ भी न हो तो व्हाट्स एप्प तो है ही. क्यों नहीं जुड़ेंगे वे सबसे जब आप भी जुड़े हैं! उन्हें सोशल मीडिया सम्बन्धी सावधानियों की जानकारी होनी चाहिए और कैसे ज़रा सी असावधानी जीवन का सत्यानाश करती है, ये भी पता होना चाहिए. 

लॉकर रूम से बाहर की लड़कियां क्या सोचती हैं इन भद्दी चर्चाओं के बारे में?
आज कुछ छात्राओं से इस बारे में चर्चा की कि उन बच्चों के ऐसा व्यवहार या भाषा इस्तेमाल करने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं? तो उन्होंने इसके पीछे कई मनोवैज्ञानिक वज़हें दीं. उनका सीधा मानना था कि उचित शिक्षा / यौन शिक्षा का अभाव (Lack of proper education/ sex education) उन बच्चों की गन्दी मानसिकता का प्रमुख कारण है.
कहीं-कहीं साथियों का प्रभाव (Influence of peer members) भी पड़ता है जब बच्चे उनके 'कूल ग्रुप' में फिट होने का प्रयास कर प्रभुत्व स्थापित करना (Establish dominance) चाहते हैं. कुछ लड़के Toxic masculinity का समर्थन करते हैं जिसमें पुरुष को सब कुछ करना allowed है. निम्न सामाजिक जीवन (Low social life /influence),आत्म सम्मान में कमी (Low self esteem), अस्वीकृति को संभालने में असमर्थता (Inability to handle rejection), सहानुभूति की कमी (Lack of empathy), नार्सिसिस्टिक व्यक्तित्व (Narcissistic personality) आदि भी इसमें शामिल हैं. घर का माहौल भी इसके लिए मुख्यतः उत्तरदायी होता है. यदि घर में ही गाली-गलौज़ और मारपीट का माहौल है तो आप उनसे कैसे संस्कारों की अपेक्षा करेंगे! कितनी ही बार लड़कों की हरक़तें यह कहकर टाल दी जाती हैं  कि Boys will be boys. ऐसे भी जेंडर स्टीरियोटाइप को बढ़ावा मिलता है. 

क्या किया जा सकता है?
आख़िर स्कूल क्यों नहीं बैठकर, खुलकर सेक्स एजुकेशन पर बात करते हैं? पेरेंट्स, आप भी 'SEX' शब्द को हौआ न बनाएँ. समझाइये बच्चों को, जिससे कि उनके मन में इस शब्द को लेकर विकृति न हो और थोड़ी maturity आये. वे सेक्स को 'इज़्ज़त' से जोड़कर न देखें और 'रेप' को इस इज़्ज़त को ख़त्म कर देने का एकमात्र हथियार भी न समझें! बताइये उन्हें एनाटोमी के बारे में. जिससे वे इधर-उधर न तलाशें. घर में इस विषय पर बात होना शुरू होना ही चाहिए. यदि आप अभी शरमाए तो किसी दिन अपने बच्चे की हरक़त के कारण शर्मिंदा भी हो सकते हैं.
बच्चों को केवल पैसा कमाना ही न सिखाएं, नैतिक शिक्षा (moral education) भी दें. घर में सब ठीक होगा तो बाहर इतना ग़लत कभी नहीं हो सकता!
- प्रीति 'अज्ञात'
#lockdownstories #lockdown  #Girls Locker Room #Bois Locker Room #Instagram #Coronavirus_Lockdown  #preetiagyaat #प्रीतिअज्ञात  

शुक्रवार, 8 मई 2020

#Go_corona_go #इमोशन का डिमोशन

हमारे इमोशन का इत्ता डिमोशन पहले कभी न हुआ. पता है, आज सपने में सब्जी मंडी आई. मल्लब, यार कोरोना! तुमने हमारे सपनों का स्टैण्डर्ड कितना गिरा दिया है! कहाँ हम स्विट्जरलैंड की वादियों में इश्क़ के सदाबहार नग़मे गाया करते थे. हिमाचल की ठंडी हवाओं को मुट्ठी में भर अपने दिलवर की ओर चुपके से उछाल दिया करते थे. किसी के दिये गुलाब की खुशबू से सारा दिन महकता था, तो कभी उसकी शैतानी भरी आँखें हमारे ख्वाबों को आसमान के उस गुल्लू से चाँद को चूमने पर मजबूर कर देती थीं.

और अब तुम हो! गली में लगे ये निर्जीव बैरिकेड्स हैं! डंडे को उसका लक्ष्य स्मरण दिलाते पुलिस वाले हैं. सूनी सड़कें और उस पर आवारागर्दी करते पशु हैं. जिनकी आवाज़ें यूँ लगती हैं मानो, पूछ रही हों, "क्यों बे आदमी, सब ठीक तो है न?" सच कहूँ तो मुझे उनकी आवाज़ में, कंसर्न से कहीं ज्यादा बुलीगीरी नज़र आती है. 

अब घर है और हेल्पर्स की अनुपस्थिति में कर्म वीरांगना बने हम हैं. आँखें मूँदते हैं तो गाड़ियों की चिल्लपों याद आती है, किराने की दुकान याद आती है,  बाजारों से हम तक पहुँचने के पहले उठ गए मैगी और हल्दीराम के तमाम पैकेट याद आते हैं.  वो frozen आइटम जो हमारी थकान को सम्बल देते हुए चुपके से माथे पर हाथ फेर यह कह दिया करते थे कि "चल, आराम कर ले, आज हम हैं न!" वो सब किसी स्वार्थी और बेवफ़ा प्रेमी की तरह जरुरत के वक़्त नदारद हैं.

अब हम हैं, रोटी है नमक है.....हाँ, भई दाल भी है. अब उसको न नज़र लगाओ! हाय! पर वो हरियाली अब ढूँढे नहीं मिलती. मैथी और पालक का उदास-मुरझाया चेहरा याद आ रहा जिन्हें मैं यह कह जब-तब झिड़क दिया करती थी कि "हट, तुझे कल बनाऊंगी. बहुत टाइम लेते हो बे!" और वो सुर्ख लाल टमाटर जो उदरस्थ हो हमारी त्वचा को जवां रखता था...उफ़! तुम्हारी भी याद में हम पीले होने लगे हैं.

लोग चमक-चमककर लाइव आ रहे, उस समय हमारे दिल पे जो हथौड़े चलते हैं न, शास्त्र उसको डिस्क्राइब करना भूल गए हैं. बस जान लो, या ख़ुदा! उसकी टंकार कभी किसी ग़रीब के जीवन में न बजे. तुम ही बताओ, हे ईश्वर! हम जैसे मासूम लोग अब Dye लेने कहाँ जाए? ये रातों-रात हम सडनली वृद्ध कैसे हो गए? ये दोनों eyebrows जो अपने-अपने घर में सलीक़े से रह रहीं थीं, अब अचानक मिलकर चार लेन वाला highway बनाने को किसलिए बेताब हैं? मैं पूछती हूँ आख़िर किसलिए?

कोरोना, तुम्हें इनकी सुपर बेताबी की डुपर बद्दुआ लगे. हमें घनी वादियों से मैथी-पालक की क्यारियों तक पहुँचाने का पाप भी तुम्हारे सर मढ़े.
Covid अंकल जी, शुक्र मनाइये कि ये जो आप कर रहे हैं न! हमारे गोलगप्पे तक तो ये बात पहुँचाई ही नहीं है हमने. बेचारा कब से स्टोर में बंद लोनली फील कर रहा है! सोचता होगा कि हम कहाँ खो गए! पर तुम देखना, जिस दिन वो आज़ाद होगा न! हमारे और उसके बीच ये भद्दी दीवार खड़ी करने के लिए, सीधे तुम्हारा मुँह तोड़ देगा या दुर्वासा ऋषि टाइप क्रोधाग्नि में भकभकाकर तुम्हें भस्म कर देगा. एक बार भी पलटकर नहीं पूछेगा, "हाउ आर यू फ़ीलिंग?"
 
भई Mr. Covid 19, 20, 21 और जितने भी तुम्हारे खानदान वाले हैं न, सबको लेकर अब निकल्लो! चलो, जगह हम ही suggest करे देते हैं. सुनो डियरम, पहला ऑप्शन कि तुम पाताल लोक में जाकर खुद को एनी हाउ एडजस्ट कर लो क्योंकि थोड़ी देर बाद तो असुर गंडासे से तुमरा संहार कर ही देंगे या तुम उनका! अपन दोनों situation में फील गुड करेंगे. दूसरा विकल्प ये है आर्यपुत्र! कि तुम स्वर्ग की ओर ही अपने पर्सनल पंखों से प्रस्थान कर डालो. तुम्हारे लिए उधर देवता पलक पाँवड़े बिछाए बैठे हैं. अपने भी कुछ दोस्त हैं वहाँ, वे लोग तुम्हें ऐसे ट्रीट करेंगे, ऐसे ट्रीट करेंगे कि अगली बार तुम गुलाब की गुलाबो बन आसमान से लटक-लटक महकोगे. उस दिन तुम्हारे स्वागत में सबसे पहले आरती का थाल हम ही सजायेंगे लेकिन उस अद्भुत पल के आने तक पिलीज़ एक्सेप्ट माय हर्टिएस्ट हेट एंड एंगर विद अ सुपर थप्पड़ 
हुश्श, हुरर्र,भक्क
दस्विदानिया! सायोनारा! अलविदा!
गो कोरोना गो 
- प्रीति 'अज्ञात'
#lockdownstories #lockdown3.0 #Coronavirus_Lockdown  #preetiagyaat #प्रीति_अज्ञात

गुरुवार, 7 मई 2020

हमको प्यार से डर लगता है जी!

बीते सप्ताह एक ख़बर ने हमें चौंका दिया, ख़बर यह थी कि इस मुई Covid-19 महामारी के चलते 7 मिलियन अतिरिक्त अनपेक्षित गर्भधारण (unintended pregnancies) की आशंका है. जब मैं भारतीय परिवारों के परिप्रेक्ष्य में इस न्यूज़ को देखती हूँ तो बाक़ी सब ठीक पर ये unintended pregnancy शब्द में मुझे गहरी आपत्ति नज़र आती है. मल्लब हम उस समाज का हिस्सा हैं जहाँ प्रेग्नेंसी इन्टेन्डेड हुई ही कब है भला! बच्चे तो भगवान् की देन है, हो जाते हैं जी! कई बार पता ही न चलता कि ग़लती हो गई और फिर उस ग़लती को ढोल-मज़ीरे के साथ घर लाने की गौरवशाली परंपरा का निर्वाह भी तो हमारी ही देन है. कुल मिलाकर हमाए देश में तो मज़ाक-मज़ाक में बच्चा हो जाता है जी. ये यू. एन., फ्यू. एन. सब फ़ालतू की चोंचलेबाज़ी है. इन्हें का पता, हियाँ के जलवे. 
अब दिक़्क़त ये हो गई कि हमाई फ़िरेन्ड ने ये और कह दिया कि सेक्स के मामले में भारतीय शहरों की कुछ मुट्ठी भर महिलाएं ही खुद को लिबरेट कर पाई हैं. इसलिए तुम इस विषय पर आर्टिकल लिखो. वो बोल रई थीं और हमारा मुँह तो भयंकर घबराहट शो करने लग गया कि न जी. हम तो ये शब्द बोल भी न सकते, लिख कैसे दें! 
अजी, लिबरेट तो छोड़ो अपन हिन्दुस्तानियों को तो इस मामले में एजुकेट तक न किया जाता. जैसे ही हमने से...बोला, चार लोगों के मुँह से हाय, दैया निकल जाएगा. औरों की का कहें, ख़ुद हमाये मुँह से भी अभी जेई निकल रहा. 

हमको याद है कि स्कूल में जब जनसंख्या वृद्धि के कारणों पर निबंध लिखने को आता था तो उसके पूरे आठ बिंदु हमें धुआंधार रटे पढ़े थे, अशिक्षा, बेरोज़गारी वग़ैरा-वग़ैरा लेकिन उसमें एक प्रमुख कारण था, मनोरंजन के साधनों का अभाव. क़सम से हमें ये पॉइंट लिखने में इत्ती लाज आती कि चार नंबर कटवा लेते पर मारे सरम के जे ना लिख पाते. मने हद्द ही हो गई अब तो. अरे, लंगड़ी खेल लो, गिल्ली डंडा खेल लो, लूडो- साँप सीढ़ी भी तो होते थे टाइम पास को. तुमाए मनोरंजन के चक्कर में अगले बरस निरंजन और रंजना हमाए आँगन में बेफालतू का धमाल करते हैं.

इधर अपने वात्स्यायन अंकल जी ने कामसूत्र रचकर दुनिया भर की प्रशंसा तो अपनी झोली में डाल ली लेकिन contraceptives की बात बताना भूल ही गए. खजुराहो वालों ने भी नहीं बताया कुछ. अब अपने यहाँ तो ग्रंथों का अक्षरशः पालन होता और जो तुम उनके विरोध में एक अक्षर भी उल्टा सुल्टा बोल दिए तो बेटा! तुम्हारी खैर नहीं! देश की भावनाएँ आहत होंगी सो अलग! अब इसी चक्कर में बहुत सारे भारतीय पुरुष कंडोम का इस्तेमाल नहीं करते और महिलाओं को गोली की सलाह देने में एक बार भी न हिचकते. कारण ये कि उनको लगता आनंद में कुछ कमी रह जायेगी तो वे सारा बोझ स्त्रियों पर ही डाल देते हैं. अब अपने यहाँ तो स्त्रियाँ त्याग और बलिदान की परमानेंट मूर्ति के रूप में स्थापित हैं ही, तो वे सारे साइड इफ़ेक्ट झेलते हुए पति पमेश्वर के सुख में कोई कमी न आने देने का बीड़ा खुद ही उठाती हैं. पुरुष के लिए तो वैसे भी सुरक्षा की सोचना झंझट का ही काम है क्योंकि उसको थोड़े न भुगतना कुछ. एबॉर्शन महिला कराएगी, दवा भी वो ही खाएगी, बच्चा भी उसे ही पैदा करना. जब गर्भ की स्थिति आती है तो दोनों के रास्ते और सोच अलग-अलग राह पकड़ लेते हैं. स्त्री की न केवल शरीर की दुर्गति होती है बल्कि मानसिक तौर पर भी वह टूट जाती है. तात्पर्य यह कि समस्या कोई भी हो, भुगतेगी वो ही. कहे न देवी है जी देवी. 

अब लॉकडाउन में फंसे परिवारों के लिए एक तरफ कोरोना है और दूसरी तरफ घर का शांत कोना है. स्त्री काम से थकी हारी और इधर पुरुष मुस्कियाते हुए मूड बनाए बैठे हैं. स्त्री भले ही केमिस्ट्री पर चलती है और हर समय इनके जैसे एक ही बात नहीं सोच पाती लेकिन हियाँ तो biological demand है और पुरुष का तो क्या, वे प्रसन्न हों, दुखी हो, तनाव में हो...हर मूड में सेक्स कर सकते हैं सिवाय भय के.
उस पर सरकार ने शराब की दुकानें खुलवाकर सारा दोष इस नशे पर मढ़ने का फुल्टू इंतजाम और कर दिया है. बाक़ी दुकानें बंद हैं तो इस समय contraceptive लेने कौन जाएगा और उस पर shortage भी इत्ती चल रही. टीवी पर रामायण भी आकर ख़त्म हो चुकी, बाक़ी चैनल तो पहले से ही मटका भर-भर आंसू बहा रहे तो वही बात हो गई न जो हम पहले निबंध में लिखने से बचते रहे थे, 'मनोरंजन के साधनों का अभाव'. लो कर लो मनोरंजन, करके दंतमंजन. 

अब ये न समझिए कि ये परेशानी सिर्फ़ शराबियों या गरीब के घर की ही है बल्कि पढ़े लिखे वर्ग का भी एक ख़ासा हिस्सा contraceptives  के प्रयोग से बचना चाहता है और इस तरह की मानसिकता वाले पुरुषों में भी ये जिम्मेदारी स्त्री वर्ग पर डालने का रिवाज़ वर्षों से चला आ रहा है. तो ख़ुद ही हिसाब लगाइए कि इब का होगा! क्योंकि हमें तो इन हब्शियों (माफ़ करना पुरुष जी) का सोचकर 7 मिलियन का आंकड़ा भी कम ही प्रतीत हो रहा है. इधर स्त्रियों को इन दिनों यही डर सता रहा कि ये नशाखोर पुरुष घर आकर कहीं डबल प्यार ही न जताने लग जाएँ! 
हम तो ये सोच हलकान हुए जा रहे कि दैया रे दैया, का कहेंगी वो अपने रोमांटिक साहिब जी से कि 'इश्श! चलो, हटो न! हमको प्यार से डर लगता है जी!'
गो कोरोना गो!
- प्रीति 'अज्ञात'  6th May 2020
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